Thursday, January 15, 2015

सफर

अजीब कशमकश है। बातें तुम्हारी चेतना से करना चाहता हूँ तुम्हारी संवेदना की गोद में छोटे बच्चे की तरह लेट सुस्ताना चाहता हूँ जैसे ही एक कदम बढ़ा दोनों का पता तलाशता हूँ तुम्हारी देह की छाया मेरी रोशनी को किसी ब्लैक हॉल की तरह खींच लेती है। बहुत ज्यादा बातें तुम्हारे दैहिक सौंदर्य पर नही कहना चाहता हूँ क्योंकि एक स्वस्थ सौंदर्यबोध होने के बावजूद भी इस बात की पर्याप्त सम्भावना बनी रहती है कि तुम में मेरी रूचि का मंतव्य खुद तुम्हें हलका या नैतिक रूप से प्रदूषित लगने लगे। दुनिया की बातों की मुझे कोई ख़ास फ़िक्र नही है क्योंकि उनके लिए मै अपवाद हूँ और अपवाद की जिंदगी जीने के सारे संभावित जोखिम मुझे ज्ञात है।
बहुत दार्शनिकता की ओट लेकर गहरी गहरी बातों का अभिनय नही करना चाहता हूँ निसन्देह तुम्हारी दैहिक खूबसूरती मेरे लिए आचमन के जल सी पवित्र है तुम्हारे अस्तित्व की तरलता मेरे लिए ठीक उतनी ही आवश्यक और उपयोगी है जैसे रात भर की नींद के बाद सुबह मुंह धोने के लिए जल। तुम्हें देखता हूँ तो पलकों पर रातभर का जमा मैल धुल जाता है और दुनिया मुझे बिना चश्में के भी साफ़ नजर आने लगती है। ये जो दिन भर चश्मा लगाता हूँ इसकी वजह रोशनी की कमजोरी नही है बल्कि मै नंगी आँखों से केवल और केवल तुम्हें देखना चाहता हूँ ये चश्मा नही है बल्कि कांच की एक दीवार है जिन्हें दिन भर खुद के और दुनिया के बीच में खड़ा किए रखता हूँ।
देह का अपना एक मनोवैज्ञानिक सच है इसलिए बहुत वीतरागी या महान बनते हुए यह नही कहूँगा कि मै देह के प्रभाव से पूर्णतः मुक्त हूँ। मै मुक्त नही हूँ बस उसमें लिप्त नही हूँ मेरी दृष्टि थोड़ी व्यापक है और देह मेरे लिए एक व्यापक संदर्भ रखती है। इसलिए देह मेरे लिए एक बाह्य दरवाजा है मै वहां उतनी ही देर ठहरता हूँ और उतने से विस्मय से देखता हूँ जैसे कोई अपरिचित किसी घर के दरवाज़े पर काल बेल बजा दरवाजा खुलनें का इन्तजार करता हुआ देखता है।
तुम्हारे साथ सबकुछ इतना अनायास किस्म का है कि दिन में कई बार मै विस्मय से भर जाता हूँ फिर इसे अस्तित्व के नियोजन का हिस्सा समझ जीने लगता हूँ और यात्रा समझ इससें गुजरने की तैयारी करता हूँ।
देह का भूगोल मेरी अधेयतावृत्ति का हिस्सा नही है परन्तु सच तो यह भी है कि तुम्हारे चेहरे को देख मेरे अंदर दर्शन की टीकाएं अपना मनोवैज्ञानिक अनुशीलन करने लगती है। तुम्हारे चेहरे के रास्ते मै सीढ़ी लगा सीधा चेतना की कुटिया पर उतरना चाहता हूँ परन्तु एक छोटे से अंतराल में मेरा निर्णय विलम्बित हो जाता है और मै तुम्हारी आँखों की गहराई में खो जाता हूँ। तुम्हारी मुस्कान महज लबो का फैलाव नही है बल्कि उनकी सीधी चमक तुम्हारी आँखों में देखी जा सकती है। तुम्हारी पलकों के झपकनें का अंतराल धड़कनो पर ऐसी मद्धम चोट करता है कि उन पर ज़मा मन के आवेगों का मैल उतर जाता है वो पवित्रता का गंगास्नान कर लेती है। तुम्हारी हंसी  बसन्त की एक सुबह के जैसी लगती है मानो बिजली के तार पर बैठे पक्षियों का झुंड एक साथ चहचाहता हुआ अपनी मंजिल की तरफ उड़ चला हो।
मेरे बेतुके सवालों पर जब तुम्हारे माथे पर शिकन पड़ती है तब ऐसा लगता है जैसे एक बिना नींद की रात के बाद बिस्तर पर सिलवट उभर आए हो। इनसे डरकर तुम्हारी दोनों आँखों के मध्य जो एक छोटा टापू है  वहां मैं आश्रय के लिए अर्जी लगाता हूँ और तुम मेरी बेचैनियों पर खिलखिलाकर हंस पड़ती हो तुम्हारी हंसी से मेरी शुष्क आँखों में नमी और चमक एक साथ उतर आती है।
तुम्हारे कान की दोनों बालियां हर सावन में मुझे झूला डाल पींग भरने का निमन्त्रण देती है मगर मै तुम्हारी आँखों के इतने नजदीक नही जाना चाहता हूँ कि जहाँ तुम्हे  दिखाई भी न दूं।
अंतोगत्वा मै अपनी मंजिल का पता तलाश ही लूँगा मुझे उम्मीद है एक दिन सूरज उस दिशा से उगेगा जब तुम्हारी देह की छाया की भी अपनी एक रोशनी होगी और मै सीधा तुम्हारी सोई हुई चेतना और खोई हुई सम्वेदना को तलाशकर अधिकार से कहूँगा चलो ! तैयार हो जाओं कुछ दूर साथ साथ चलना है बहुत आराम कर लिया तुमने।

'एक सफर ऐसा भी'

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