Saturday, January 3, 2015

डर बेघर

अक्ल और दिल की लड़ाई में अक्सर अक्ल जीत जाती है। अक्ल का मतलब वो तमाम सुरक्षाऐं है जो सुविधा चाहती है उनके अस्तित्व के बिखरने और भटकने दोनों के डर एकांत में इतनें जोर से चिल्लाते है कि दिल की मद्धम आवाज़ धड़कनों के अंतराल में ही दम तोड़ देती है। दुनियादारी के लिहाज़ यह सही भी है दिल की बात सुनने के अपने खतरें तो है ही।ये आपको किस हद तक आबाद और बर्बाद कर सकती है इसका अनुमान कोई नही लगा सकता है। फक्कड/मस्त/मुसाफिर या कतिपय लोक के लिहाज़ से असामान्य व्यक्ति अक्सर दिल के फेर में पड़ता उलझता गिरता और सम्भलता चलता है। कोई पहले का तजरबा उसको न वो अक्ल अता कर पाता है और वो इल्म जिसमें वो दिल की न सुनें।
दरअसल कान अक्ल के नीचे लटके हुए होते है इसलिए उन तक दिल की आवाज़ अक्सर देर से पहूँचती है और जब तक पहूंचती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। अक्ल कान में कमजोरियों के टांके लगा चुका होता है साल में जिनसे बमुश्किल ही कभी अपनेपन की मवाद रिसती है।
बहरहाल,सही गलत तो नही मगर व्यवहारिक बात यह भी है कि बाह्य कोई भी अनुराग सतत साथ चल भी नही सकता है।अनुराग को सम्भालनें के लिए एक ख़ास किस्म का कौशल चाहिए होता है और वो कौशल सब्र की दुआ और विश्वास के कलमें ही अता हो सकता है।
अफ़सोस दुनिया में इन दो चीज़ों की माकूल कमी है। इसलिए अक्ल हावी होती जाती है तो दिल बैचेन हो उठता है। अजीब सी कशमकश में दिल ओ' दिमाग की जंग चलती रहती है। ऐसी बैचैनियों के रतजगे उदास बिस्तर पर करवटों में सिसकते है।
हम ऊबना चाहते है ताकि दिल को समझा सके दिल भी ऐसा बाजीगर बन जाता है रात की समझाईश को सुबह तलक भूल जाता है दिन भर दिमाग फिर अदब अकीदत अफसानों के सहारे दिल को उसकी एकांत गुफा के अंतिम आसन तक भगा कर आता है। भगाता दिमाग है भागता दिल है और थकते हम हैं।
ऐसे में इलाज़ तो यही बचता है कि बाहर की दुनिया के राग/अनुराग को कहें अलविदा और कोई राग खुद के अंदर पाल लें जिसकी ध्वनि आपके अन्तस् से बाहर न निकलती हो।
सारांश तो वही सदियों पुराना है मनुष्य नितांत अकेला है और उसे अपनी यात्रा अकेले ही तय करनी होती है। साथी का मतलब साथ से निकालना दिल की एक भूल होती है एक ऐसी भूल जिसके लिए उसको दिमाग न जाने कब अलग अलग ढंग से सजा देता है।
एक अज्ञात कवि की कुछ पंक्तियाँ शायद इस जंग में कवच कुण्डल का पता बताती है जिसके जरिए शायद जख्म देर तक सह पाएं क्योंकि एक बार आप इस जंग में गर उतर गए तो फिर आपकी फतेह या हार भले ही निश्चित न हो मगर आपकी मौत जरूर तयशुदा होती है।
कवि वचन सुधा:
'अकेला रहने की
आदत विकसित करना
समाजिक पशुता से बचनें का
एक मात्र उपाय है।'

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'डर के आगे हार है'

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