Monday, October 28, 2013

होली

होली हुडदंग है न कि शास्त्रीय मस्ती का उत्सव। गांव के बच्चें फिर् भी शालीन रहते है लेकिन शहर मे अभी से देख रहा हूँ बसों में तथा दो पहिया चालकों की कनपटिया गुब्बारों से पिट रही है शहरी हुडदंगी बच्चे इतने निरकुंश हो कर गुब्बारे मार रहे है कि वह किसी को किस स्तर का नुकसान पहूंचा सकता है इसकी कोई न उन्हे कोई फिक्र है और न तमीज़..। माफ कीजिए बच्चों को शरारत और मस्ती के नाम पर मै ऐसी छूट देने के पक्ष में कतई नही हूँ जिससे बस के यात्री शहर में आने से पहले ही बेचारे आतंकित हो जाएं कि कब कहाँ कैसे गुब्बारा उनकी कनपटी लाल कर देगा।
अब गांव का किस्सा, गांव में मजाक का सात्विक स्वरुप लगभग दो पीढी पहले ही बात है जब लोग दिल के सच्चे और जबान के पक्के हुआ करते थे वर्तमान में होली गांव के ऐसे निठल्ले अधेड युवाओं के लिए दारुबाजी और फिर अपनी स्त्री देह को स्पृश करने आदिम इच्छा तथा यौन कुंठाओं को आरोपित का त्यौहार है जिसमें वें इस मस्ती के नाम पर मुहल्ले भर की भाभीयों को न केवल तंग करते है बल्कि बलात रंग से गाल लाल करके अपने पुरुषवादी चेहरे को पुरस्कृत करते हैं।
मथुरा,वंदावन की फूलो की होली या लठ्ठमार होली से भी कोई उदाहरण तय नही किया जा सकता है क्योंकि वह केवल वही तक सीमित है। सच तो यह है कि पुरुषों के निरंकुश और अराजक होने आदिम प्रवृत्ति को अप्रत्यक्ष रुप से पोषित करता है यह होली का त्यौहार जिसको जब भी ,जैसे भी, अवसर मिलें वह अपने प्रभुत्व और कुंठाओं को आप पर आरोपित करके मानसिक सुख लेना चाहता है और नाम दे देता है त्यौहारी मस्ती का।
रहा होगा कभी सौम्य,सात्विक स्वरुप जिसमें हास-परिहास हुआ करता होगा एक गरिमा हुआ करती होगी लेकिन इस दौर की होली देखकर तो यही जी करता है अब बुरा ही मानकर काम चलेगा वो जुमला अब अप्रासंगिक हो गया है बुरा न मानो होली है !
(होली के दिन गांवों में पार्टीबाजी के चलते कितनी ह्त्याएं होती है पुलिस कैसे अतिसम्वेदनशील गांव को लेकर चौकन्नी रहती है उसका जिक्र नही कर रहा हूँ वरना आपकी होली का मजा खराब हो जायेगा लेकिन वो भी एक बडा कडवा सच है)

रेडिकल चेंज

विश्वविद्यालय की तदर्थ मास्टरी छोडने की सोच रहा हूँ बहुत हो गया रोजाना कि वही रुटीन लाईफ क्लॉस रुम लेक्चर,शोध पत्र,सेमीनार,एपीआई और विभागीय तिकडमबजियाँ..। मनुष्य का जीवन एक ही बार ही मिलता है और ऐसे बंधे-बंधायें जीने में क्या खाक मजा है। उच्च शिक्षा में आयें तो 01 पी.-एच.डी. 3 पीजी और 2 विषयों में यूजीसी नेट कर डाला पिछले 6 साल से विश्वविद्यालय में अस्थाई ही सही लेकिन यू.जी./पीजी. का अध्यापन किया एक निजि विश्वविद्यालय में 3 लोगों के एम.फिल.डिजर्टेशन में गाईड बना। कुल मिला कर जो भी किया उसका संतोष है लेकिन अब इनर कॉल कुछ इस तरह की आ रही है कि अब एक रेडिकल चेंज की जरुरत हैं।
आप सभी मुझे काफी दिनों से समझ और जान रहें है मेरी तमाम बदतमीजियों और उदासियों के किस्सों के चश्मदीद गवाह है इसलिए आप ही से पूछ रहा हूँ अध्यापन के अलावा मै क्या कर सकता हूँ ? मुझे क्या करना चाहिए यह बहस का मुद्दा नही है सो प्लीज़ मेरा भला-बुरा किसमें है ,मनोविश्लेषण आदि करनें से बचिएगा। यहाँ मै आपकी सलाह नही ले रहा हूँ केवल मेरी जीवनशैली और व्यक्तित्व के अनुसार मेरा पेशा और क्या हो सकता है? उस पर आपका मत चाह रहा हूँ।
आभार एवं नमन..

आना-जाना

फेसबुकिया दूनिया में मेरा आना जाना लगा रहता है यह ठीक उस नामुकम्मल कोशिस की तरह है जो अपने होने की जद्दोजहद मे रोज़ नए मिराज़ पैदा करती है और रोज़ उन्हे अपनी हकीकत की किस्सागोई के साथ दफन भी कर आती है। इतने परेशान मत हो मेरे दोस्तों ! आपकी मुहब्बतों का तलबगार हूँ अभी तो खाकसार कहने के भी काबिल नही बना हूँ उधार के अल्फाज़ और अपने कुछ तल्ख कुछ मासूम अहसासों कों कभी शायरी के बहानें तो कभी यूँ ही बेवजह की किस्सागोई के बहानें ब्याँ करने की कोशिस करता रहता हूँ। अपने कुछ खास किस्म के कद्रदानों,मेहरबानों की उम्मीदों पर खरा उतरनें का दबाव बना रहता है जो मै महसूस करता हूँ इसलिए अलबत्ता तो मेरी कोशिस यही रहती है कि पाक अहसासों और उम्मीद की रोशनी से मेरी तरफ देखने वालें दोस्त मेरी हाथ की सफाई और नजरबंदी के खेल की हकीकत हो पहले ठीक से समझ लें,जान लें बावजूद इसके भी कुछ लोगो की इज्जतअफजाई और मुहब्बतों की तकरीरे मेरे नाजिरखाने में किसी बैनामे के दाखिलखारिज़ की माफिक दर्ज़ हो जाती है क्योंकि उन्हे लगता है कि मै काम का आदमी हूँ फिर भी मुझे यही लगता है कि किसी का दिल न टूट जाएं इसलिए सभी को बार बार यही कहता हूँ " मेरे बारें में कोई राय कायम मत करना,वक्त बदलेगा और तुम्हारी राय बदल जायेगी.."
जिन्दगी को देखने-समझने के लिए सबके पास अपना-अपना तजरबे का चश्मा होता है मेरे पास भी है और अपने उस चश्में से जिन्दगी को देखने की कोशिस नें मुझे कभी आदत से जज्बाती बनाया तो कभी अदब से कमजोर इसलिए थोडा सलाहियतों पर ईमान लानें के मामलें कमअक्ला किस्म का इंसान हूँ अभी तलक तो जिन्दगी को अपनी शर्तो पर जीने की कोशिस की है कल का भरोसा नही इसलिए जब तक यहाँ इस मंच पर हूँ जैसा हूँ स्वस्थ हूँ,बीमार हूँ,छद्म हूँ,पारदर्शी हूँ,मौलिक हूँ या आयतित हूँ,बौद्धिक हूँ,दोगला हूँ ,हैरान हूँ,परेशान हूँ मुझे इसी रुप मे स्वीकार कीजिए बडी विनम्रता के साथ यही कहना चाहूंगा कि मै अपना वजूद खुद गढ रहा हूँ इसलिए किसी के भी सम्पादन की गुंजाईश नही है अच्छा,बुरा जैसा भी है सब मेरा ही है आपके पास चयन का विकल्प है इसलिए एक अस्तित्व को समग्रता के साथ स्वीकार करनें वाले साथी अपने साथ दूर तलक जायेंगे वरना न जानें कितने लोग रोज़ फेसबुक पर एड होते है और लिस्ट में क्या तो बेजान पडे रहते हैं या किसी दिन डिलिट की क्लिक के शिकार होतें है।
इस उम्मीद के साथ यह लिख रहा हूँ कि उपरोक्त कथन को मेरा अहंकार न समझा जाएं शेष आपकी इच्छा।
(मेरे फेसबुक पर आने और अचानक वितंडा फैला कर भागने के उपक्रम से आजिज़ आ चुके फेसबुकिया मित्रों के लिए मेरा फेसबुकिया हलफनामा ताकि जिरह से बचा जा सकें)

ब्रांडिंग

मुझे अपनी ब्रांडिंग करनी आज तक नही आई मैं इसको इसको किसी कमी या खूबी के संदर्भ में नही कह रहा हूँ लेकिन फेसबुक पर देखता हूँ की लोग बाग़ येन केन प्रकारेण अपनी ब्रांडिंग में लगे रहते है अपनी फितरत तो यही रही की जो अपनी जेब में है उसको भी खोटा ही बताया जाएँ क्योंकि अभी बहुत कुछ सीखना और जानना बाकी है पिछले ६ साल से दो ब्लॉग लगभग नियमित रूप से लिख रहा हूँ जिसमे एक कविताओं का हैं और एक ऑनलाइन डायरी टाइप का है लेकिन मुश्किल से ही कभी कभार अपने ब्लॉग के लिंक यहाँ फेसबुक पर शेयर किये होंगे जो लोग मेरा लिखा नियमित पढ़ते हैं उनकी भी यही शिकायत हैं की मै अपने लिखे हुए का ठीक से प्रचार नहीं कर पा रहा हूँ एकाध मित्रों की सलाह थी की मुझे पत्रिकाओं में भी छपना चाहिए तभी दायरा बढेगा और पहचान भी बढ़ेगी लेकिन मेरे दिल में कभी किसी पत्रिका में कवितायेँ भेजने का ख्याल ही नहीं आता है कभी. फेसबुक की मायावी दुनिया कभी कभी उकसाती भी है लेकिन फिर सोचता हूँ अभी ऐसा लिखा ही क्या है जो उसकी डुग डुगी बजायी जाये फिर खुद को उस कहावत के जरिये बहला लेता हूँ की सूरज जब निकलता है तब सबको दिखाई देता है उसको बताना थोड़े ही पड़ता है की मैं उग आया हूँ...

आडवाणी

सभी लोग आडवाणी की नारजगी को प्रधानमंत्री पद के लिए उनका नाम न घोषित करने से जोड़ कर देख रहे है हो सकता है की यह भी एक वजह हो लेकिन मुझे लगता है आडवाणी जी जैसा वरिष्ट नेता महज़ ऐसे भावावेश में ऐसा कोई बड़ा निर्णय नही ले सकता है. आडवाणी भाजपा के उन नेताओं में शुमार हैं जिन्होंने इस पार्टी को खड़ा किया था ऐसे में पार्टी से इस्तीफ़ा देना कोई आसान काम नहीं रहा होगा. मुझे लगता है की उनकी मोदी से सैद्धांतिक दूरी और धीरे धीरे हाशिये पर खिसकते उनके वजूद भी एक वजह रही है यह वर्तमान राजनीति की बदलती दिशा का एक प्रभाव कहिये या वक्त के मजबूरी कि मोदी अब भाजपा की मजबूरी बन गए है और ऐसे में उन्हें अपने किसी बड़े नेता को खोने का गम भी ज्यादा दिन नही रहने वाला है यह भी तय है, दरअसल वर्तमान में सैद्धांतिंक रूप से राजनीति करने वालो का समय अब ज्यादा रहा भी नहीं है क्योंकि अब जनता किसी चमत्कारिक व्यक्तित्व की आस में हैं जो कांग्रेस के राज़ से मुक्ति दिला सके अब विचारो और सिद्धांतो की राजनीति गौण हो गयी है एक भारतीय नागरिक होने के नाते मैं इसको कोई शुभ संकेत के रुप में नहीं देख रहा हूँ...आप भले ही उत्सव मनाएं..मैं किसी को रोक भी नहीं रहा हूँ.

मोटिवेशन

ज़िन्दगी की रुमानियत पर तब्सरा करने वालो को मेरा सलाम सच! जिन्दगी जिन्दादिली और जिन्दगी को हौसले के साथ जीने का ही नाम है। ज़िन्दगी कभी इतनी हसीन होती है कि कायनात की भी शरमा जाए और कभी इतनी बोझिल की एक पल जीना भी दुश्वारी लगे कभी यह खुले आसमान में जीने की चाहत पाल बैठती है तो कभी बंद कमरा भी सिमटने के लिए कम पड जाए...इसके इतने रंग है इतने कोलाज़ है और इतने कैनवस है कि कहना,लिखना,सुनना और यहाँ तक जीना भी कम पड जाए।
निजि तौर पर खुश रहना या खुश रहने की कोशिस करना या फिर खुशी तलाशना सबका हक है और हमे इसके लिए कोशिसे भी करनी चाहिए मरते दम तक। अपने निराशा या उदासी के पलों या किस्सागोई को अपने एकांत तक ही सिमट कर रखने की फनकारी भी आनी चाहिए वरना आपकी उदासी के किस्से किसी के दिल की गहराई मे छिपे गम को खुराक देने लगते है आपकी निराशा दूसरे शख्स की निराश बढा देती है जब हम किसी को खुशी नही दे सकते है तो फिर गम की फसल के लिए खाद बांटना भी ठीक नही है। भगवान बुद्ध ने दुख को सबसे बडा यथार्थ कहा है और यह सच भी है दुख की कोई भाषा नही होती है लेकिन इसमे सम्प्रेषणशीलता गजब की होती है अपने जैसे लोगो को ये झट से तलाश लेता है और फिर उम्मीदों का बेरहम कारोबार भी करने लगता है इसलिए कोशिस कीजिए कि खुश और सकारात्मक ऊर्जा वाले लोगों से संवाद स्थापित हो जिनके पास हौसला हो और न केवल हौसला हो बल्कि उसको जीने का सलीका भी हो। दिन भर अपनी असफलताओं से ऊपजे एकालापी ज्ञान और बोरडम और निराशा के पर्चे बांटने वालो से बच कर रहना ही मानसिक स्वास्थ्य के लिए ठीक जान पडता है। जिन्दगी सितम ढाती है और आगे भी ढाती रहेगी लेकिन अपनी उदासियों,नाकामियों की किस्सागोई से दूसरों को असहज़ करने का व्यापार मैने भी खुब किया है और शायद आगे भी करता रहूंगा क्योंकि मै तो कह कर मुक्त होने जुगत मे लग जाता हूँ लेकिन फिर भी मेरी ईमानदार सलाह यही है कि बचो ! ऐसे लोगो से जो शब्दों की तथाकथित जादूगरी से अपना दर्द को भी दवा बना कर बेच रहें है।
ऊर्जावान,सकारात्कम,मोटिवेटेड और जिन्दगी में हौसलों की इबारत लिखने वालों की सोहबत न आपको केवल जीने का हौसला देती है बल्कि आप खुद पर भरोसा करना भी सीख जाते है। उदासियों,नाकामियों के किस्से सुनने के लिए ये जिन्दगी भी कम पड जाती है इसलिए दोस्तो ! जी भर जियो ! ताकि कल कुछ न मलाल न रहें।

दुविधा

जिस विश्वविद्यालय में मैं पिछले छह सालों से बतौर एडहोक़ मास्टर पढ़ा रहा हूँ वहां इन दिनों एडमिशन चल रहे होते हैं साइंस फैकल्टी में एडमिशन की ज्यादा मारामारी रहती है इसलिए मेरे गाँव और रिश्तेदारी निकाल कर आए लोगो के लिए मै बड़ा सहारा नजर आता हूँ वो चाहते हैं कि मै कुलपति की माफिक उनकी मदद करु भले ही उनका बच्चा मेरिट में भी ना आया हो लेकिन एडमिशन करवा दूं मै उनकी दिल से मदद करना भी चाहता हूँ लेकिन उनको यह समझाना बेहद मुश्किल काम है कि अलबत्ता तो मेरे जैसे कृपापात्री अस्थाई मास्टर की विश्वविद्यालय में कोई निजि हैसियत नही होती है फिर मामला साइंस फैकल्टी से जुड़ा होता है वहां के तो बाबू भी इतने रूखे किस्म के होते है कि पूछिए मत जब आप अपने परिचित का फोर्म हाथ में लेकर उनके कान में बुदबुदाते हैं कि मै फलाँ विभाग में एड्होक हूँ तो वो ऐसी हिकारत से देखते है कि साथ खड़े परिचित के सामने ही इज्जत का फालूदा बन जाता है बड़ी असहज स्थिति होती हैं साहब उसके बाद जो सिफारिश के लिए हमें तलाश कर आया होता है उसके असहज होने का नम्बर आता है वो खिसिया कर अजीब अजीब बातें बोलता हैं फिर उसकी गलतफहमी दूर होती हैं कि सहाब प्रोफेसर नही है एक टम्प्रेरी मास्टर हैं जो अपना टाईम पास कर रहा है बेचारा जबकि गाँव में घरवाले बड़े फख्र से बताते है कि हमारा लडका यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर है। इस परीक्षा काल में विवि के कुछेक चपराशि जरुर काम आते हैं जो अपने संपर्को का प्रयोग एडमिशन में मदद के लिए करते हैं उनका भाईचारा हमेशा काम आता है।

एकांतवास

कल पत्रकार मित्र का एसएमएस मिला "जिन्दगी का मैने बस ये हिसाब देखा कि चलती नही कभी मेरे हिसाब से..." मुझे लगा कि पवन भाई ने क्या मौजूँ शे'र भेजा है...अभी 3 जुलाई को मै यहाँ घोषणा करके गया था कि मित्र धीरेश सैनी से उधार मांग कर लाई किताबों का स्वाध्याय करुंगा और खुद भी यह सोचा था कि 10 दिन एकांतवास मे रहूंगा ना फोन ना इंटरनेट केवल अल्पाहार और अध्ययन करुंगा और लगभग दो दिन वो क्रम चला बेहद व्यवस्थित ढंग से....लेकिन अपने संकल्प इतनी आसानी से थोडे ही पूर्ण हो पाते है कोई न कोई बाधा तो आनी अवश्यंभावी थी इस बार भी आई और ऐसी आई कि पिछले 6 दिनो से प्राणहंता पीडा से गुजर रहा हूँ आज थोडा आराम मिला है पहले पेट मे इंफेक्शन हुआ फिर वो इंफेक्शन एनल इंफेक्सन मे बदल गया उसके बाद क्या क्या नही हुआ आप खुद समझ सकते है कि क्या स्थिति रही होगी..न शौच से पूर्व आराम और न निवृत्ति के बाद हालात इतनी तेजी से बिगडी कि देखते ही देखते ऐसी स्थिति मे आ गया कि केवल लेट सकता था न बैठ सकता था और न चल सकता था (दोनो ही स्थिति मे असहनीय पीडा) साथ मे पिछले तीन दिन से बुखार.....इस व्याधि के जांचने के डाक्टरी परीक्षण बडे अमानवीय किस्म के सो उसके बारे मे सोचकर भयाक्रांत होता रहा बडे भाई एम.एस.(सर्जन) है उनसे सारी स्थिति बताई उनके हिसाब से गंभीर दिक्कत होने की सम्भावना थी यहाँ तक कि शायद आपरेशन करवाना पडे....चिट्ठी की भाषा मे कहूँ कि थोडे लिखे को ज्यादा समझना वाली बात रही है मतबल बहुत दिक्कत मे रहा।
भला हो महात्मा हैनीमेन का जो उन्होने होम्योपैथी जैसी चिकित्साविधि विकसित की अपने एक मित्र होम्योपैथ की शरण मे गया था परसो उनको सारी हालत बताई उन्होने मीठी गोली थी कल रात तक उनकी औषधी से कोई आराम नही था लेकिन आज सुबह दस बजे ऐसा लगा कि दवा काम कर रही है और मुझे राहत महसूस हुई हालांकि पूरी तरह से आराम नही है लेकिन ऐसा लग रहा है कि रिकवर हो रहा हूँ।
अभी एक सप्ताह का बैड रेस्ट बताया है डॉ ने और साथ मे उबला हुआ भोजना खाना है जीवन एक मुश्किल दौर से गुजरते हुए प्रार्थना के पलो को जीता हुआ आरोग्य की तरफ आशा भरी निगाह से देख रहा हूँ ताकि मै जल्दी स्वस्थ होकर अपनी बेवजह की मगज़मारी के जरिये आप सभी से जुडा रहूँ।
(जिन मित्रों के पास मोबाईल नम्बर है वो हाल जानने के लिए चिंतातुर होकर फोन करने से बचे क्योंकि मै फिलहाल इस व्याधि से लडता हुआ ऐसी स्थिति मे नही हूँ कि फोन पर आपसे बात कर सकूँ या मिल सकूँ उम्मीद करता हूम कि मेरे इस आग्रह को एक बीमार मित्र की प्रार्थना समझा जाएगा न कि हमेशा की तरह अहंकार)

राजनीति

कांग्रेस की लचर सरकार से उपजी राजनीतिक नेतृत्व की हताशा से परेशान अपने देश का आम आदमी कभी बाबा रामदेव तो कभी अन्ना,कभी केजरीवाल की तरफ एक आशा भरी निगाह से देखता है समर्थन देता है फिर अंत में उसी शून्य का हिस्सा बन जाता है जिसका अभी कोई विकल्प नजर नही आता है। आम आदमी का मखौल उडाने या उसकी बेचारगी पर तबसरा करने की न तो मेरी निजि हैसियत है और न ही ऐसी कोई इच्छा....इसी क्रम में अब विकास पुरुष मोदी को इसे देश की समस्त समस्याओं का एक चुटकी भर में खत्म करने वाले चमत्कारिक युग पुरुष के रुप में एक बडी भीड देख रही है जिसकी बानगी फेसबुक पर भी देखने को मिलती रहती है हालांकि मुझे न सियासत की समझ है और न मेरे तरकश मे तर्को के बाण है लेकिन फिर भी जनता को जैसे भाजपा के रामजन्म भूमि मुद्दे से मुकरने,बाबा रामदेव के भाजपाकरण और अन्ना केजरीवाल के मतभेद से बिखरे एक व्यापक जनान्दोलन से निराशा हुई थी ठीक ऐसे ही यदि बहुत अतिश्योक्तिवादी होकर यह सोच भी लिया जाए कि मोदी पीएम बन जाएंगे तो फिर से उसी निराशा के दौर से गुजरना पडेगा ऐसी मेरी मोटी अक्ल कहती है कोई जरुरी नही है कि मेरी बात सही साबित हो लेकिन मेरे देश की भोली जनता जब तक तक खुद चोट नही खा लेती है वो किसी की तकरीरे कहाँ सुनती है इसलिए मेरी दिली इच्छा है कि एक बार मोदी जरुर पीएम बनें ताकि लोग इस मृगमरीचिका से खुद ही निकल सके फिलहाल तो वक्त ऐसा चल रहा है कि आपने मोदी से असहमति जाहिर की और मोदी के चेलों ने आपके पिछवाडे पर राष्ट्रद्रोही होनी मोहर जडी...।

जुगलबंदी

जीवन को निश्चितंता और नियोजन की परिधि से निकाल कर अस्तित्व के भरोसे छोड देना बहुत बडी कलाकारी है। सलाह,नसीहतें समय के सापेक्ष काम करती है ऐसा लगता है कि आप कुछ चाहते है और दूसरी शक्तियां आपके चाहतो के विरुद्ध षडयंत्र मे लगी रहती है यह खेल जीत-हार का भी नही है यह खेल है अचानक से आए बदलावों की आहट को समझ पाने का,खुद को टटोलने का और चुनौतियों के खेल में खुद की शर्तों को क्षणिक रुप से भूलनें का ताकि सन्देश यह चला जाए आप स्वीकार भाव में है। स्वीकार भाव सकार और नकार दोनो से परे होता है जहाँ जीवन की उस लय मे खुद को बहने के लिए छोडना पडता है जहाँ बहुत सी चीजें आपकी पसंद और प्रकृति के ठीक विपरीत होती है ध्यान और आध्यात्म की भाषा मे यह अपने आप में साधना है जहाँ साधनों की जुगलबंदी में आपको वह राग आलापना पडता है जिसका रियाज़ आपने कभी नही किया होता है। है न ! जिन्दगी का अजीब खेल तमाशा.....

एक इंच मुस्कान

संघर्ष को मैने सदैव से निजता से जोडकर देखने कोशिस की है कुछ साथी संघर्षो की तुलना भी करते है लेकिन दो व्यक्तियों के संघर्ष कभी तुलनीय नही हो सकते है सबके अपने अपने मार्ग,तरीके,यात्रा और मंजिल हो सकती है। संघर्ष शाश्वत प्रक्रिया है यह अस्तित्व के साथ जुडी है प्रकृति प्रदत्त चुनौति है जहाँ आपको अपनी योग्यता सिद्ध करनी होती तभी आप मुख्यधारा में बने रह सकते है। मै कोई नई बात नही कह रहा हूँ सभी इस सिद्धांत से परिचित है लेकिन कुछ लोगो के जीवन संघर्ष देखकर कभी-कभी लगता है जैसे किसी ने इनके लिए चुनौतियों की एक फेहरिस्त तैयार रखी हो एक खतम तो दूसरी शुरु दम भरने तक की फुरसत नही मिल पाती है...इनके चेहरे पर शिकन जब भी आती है तो पसीने की बूंद खुद शरमा कर फना हो जाती है इनके चेहरे की एक मुस्कान देखने का पुण्य साल भर शिवालय जाने से कम नही होता है ऐसे संघर्षरत लोगो को देखकर लगता है कि जीवन दुरुह जरुर है लेकिन असम्भव नही..।

कबूलतनामा


अपने समकालीन कवि मित्रों की कविताएँ पढने के बाद अपनी कविताओं के ब्लॉग को देखता हूँ तो लगता है कि कवि होना बहुत बड़ी बात अपनी श्रेष्ट कविता भी एक भावुक नोट लगने लगती है सूक्ष्म संवेदनाओं के पारखी कवियों को पढकर अपनी तथाकथित कविताओं का शिल्प और सम्वेदना दोनों ही कमजोर लगने लगती है मै कतई हीनभावना का शिकार नही हूँ लेकिन कविता के मामले में अभी खुद प्रशिक्षु कहने की हालत में नही हूँ जबकि ब्लॉग पर छोटा ही सही मेरा भी एक पाठकवर्ग है। नीरज की एक उक्ति याद आती है मनुष्य होना भाग्य है और कवि होना सौभाग्य। ये ब्लॉग का लिंक हैं
www.shesh-fir.blogspot.in
आप यहाँ मेरी कथित कविताई का के दस्तावेज देख सकते हैं।
नोट:यह एक ईमानदार सी स्वीकारोक्ति है इसमें मेरी निराशा और अवसाद के दर्शन न तलाशें बड़ी मेहरबानी होगी।

यात्रा

चलो बहुत हुआ मेल-मिलाप,शेर औ' शायरी,राजनीति,आपबीती,जगबीती,गालबजाई अब उठाते है झोला और निकलते है किसी और दर पर अलख जगाने.... !
अलख निरंजन...!!!
माया मोह ठगनी बडी रे....यहाँ कौन अपना है और पराया भी कौन है सब अपने अधूरेपन को पूरा करने की तलाश में है लेकिन जिसको किसी शायर ने कहा है अधूरेपन का मसला जिन्दगी भर हल नही होता,कहीं आंखे नही होती कहीं काजल नही होता...!
दिल का ऊब जाना बेवक्त शाम को घर से निकल जाना और हंसते-हंसते आंखो से पानी छलक जाने का कारण शायद ही कभी बताया जा सकता हो...। निशब्द...यात्रा जारी है..।

संघर्ष

आप माने या ना माने मै अपवादों की बात नही कर रहा हूँ लेकिन सांसारिकता में एक पीढी हमेशा संघर्ष के बुरे दौर से गुजरती है मसलन यदि आपके पिताजी ने संघर्ष किया है तो आपके लिए जीवन की राह थोडी आसान जरुरी रहेगी लेकिन यदि आपके पिताजी ने मौज-मस्ती (अन्यथा अर्थ न लें) की है तो आपको हाड तोड संघर्ष करना पडेगा आपके बच्चे भले ही मौज करें मेरे हिसाब से यही दूनियादारी का नियम है।

इंटरनेट

देश मे इंटरनेट सेवाओं के नाम पर छोटे और मझोले श्रेणी के शहर के मेरे जैसे नेटाश्रित परजीवीयों को कितने बडे शोषण का सामना करना पडता है उसको ब्याँ करना मुश्किल है घरेलू बजट की तमाम चुनौतियों के बावजूद मै पिछले एक साल से टाटा फोटान प्लस यूज़ कर रहा हूँ इसके हलक में हर महीने एक हजार का रिचार्ज़ रुपी चारा डालना पडता है तब यह मुझे आप सब से जोडे रखता है। टाटा कम्पनी का दावा है कि 1000 रुपये में वो 6 जीबी डाटा एक्सेस देती है वो भी 3जी ब्राडबैंड स्पीड के साथ और ये दावा कितना हवाई है इसका चश्मदीद गवाह मै हूँ जिस दिन मै अपनी इंटरनेट की कुप्पी (यूएसबी मॉडम) रिचार्ज़ करवाता हूँ उस दिन और लगभग एक हफ्ते तो नेट फर्राटा स्पीड से चलता है लेकिन जैसे-जैसे वक्त बीतता जाता है स्पीड कम होती जाती है हालत यह होती है कि 15 दिन बीतने पर यह डिवाईस 2जी (टाटा फोटोन विज़) के सिग्नल दिखाने लगती है और स्पीड एकदम से रुलाने वाली....मै कई बार कस्टमरकेयर पर कॉल कर चुका हूँ उनका एक ही रटा-रटाया जवाब होता है सर आपका 6 जीबी डाटा समाप्त हो चुका है जबकि हकीकत यह है कि इस 6 जीबी डाटा खत्म होने की चिंता में मै यूटयूब पर वीडियों चलाने से पहले हजार दफा सोचता हूँ एक महीने में मुश्किल 2-3 तीन वीडियों देखता हूँ बाकि फेसबुक या ईमेल/नेट सर्फिंग ही करता हूँ। इन जालिम मोबाईल नेटवर्क कम्पनियों को छोटे शहर की नब्ज पता है और यहाँ इंटरनेट के अन्य विकल्प भी ज्यादा मौजूद नही है ऐसे मे मनमाफिक तरीके से उपभोक्ताओं का शोषण करती है। कई दफा बीएसएनएल का लैंडलाईन ब्राडबैंड के विकल्प पर भी सोचा लेकिन उनकी प्रक्रिया लम्बी और सेवा घटिया किस्म की है फिर इस शहर मे अपना ठिकाना भी अस्थाई किस्म का है इसलिए अंत में टाटा जैसी कम्पनियों पर ही आश्रित रहना पडता है....बडी जलन होती है जब मेट्रो शहर मे बैठे मित्र अनलिमिटेड इंटरनेट सेवा का मजा लेते है और वो भी इससे आधे दामों पर....तकनीकी भी कई बार हमे जीवन की परिस्थितियों की तरह समझौतावादी बनने के लिए बाध्य करती है....! हे ! रत्नलाल टाटा जी ऐसा जुल्म न करो कुछ तो रहम करों हमने किताबों में आपके बारे में पढा है कि भारत के नवनिमार्ण में आपकी महती भूमिका रही है फिर इंटरनेट की सेवाओं के नाम पर यह शोषण क्यों....?

दिनचर्या

सुबह नौ बजे सो कर उठना दैनिक कर्म में केवल निवृत्ति को चुनना क्योंकि उसका कोई और समाधान नही है फिर दस बजे दीवार से दो तकिए महंतो की माफिक सटाकर अधलेटी मुद्रा में पेट पर लेपटॉप का आसन जमा देना दिन भर ऐसे ही बेरतरीब पडे रहना चाय,नाश्ता और लंच ऐसे ही बैड पर करना हाथ धोने और कुल्ला करने तक के लिए वाश बेसिन तक न जाना...बीच-बीच में लेपटॉप को उकताकर बंद कर देना पास पडी कुछ किताबों के पन्ने उलटना कभी ऊबना कभी ऊंघना बीच में मौका निकालकर एक नींद की झपकी ले लेना...दिन मे कई बार पत्नि से बहस करना कभी उसकी सलाह लेना कभी उसको सलाह देना शाम को जैसे ही सूर्य अस्त होने की तरफ बढे उस वक्त चैतन्य होना और मंजन-स्नान करना उसके बाद चाय पीकर अपनी दुपहिया पर नगर भ्रमण के लिए निकल जाना जेब मे खत्म होते पैसो की फिक्र मे थोडी देर चिंतित होकर गंगा किनारे बैठना फिर नहर किनारे वॉकिंग मैडिटेशन करना दूनिया को गरियाना दोस्तों को फोन पर लम्बी-लम्बी बातें करना यह जानते हुए कि अब कुछ लोग आपको 'एवाईड' भी करने लगे है....फिर शहर की रंगीनयत के बीच को खुद को सम्भालते रास्ते की परचून की दुकान से कुछ रसोई का सामान और मेडिकल स्टोर से बिना वजह की थोडी दवाई खरीदते हुए धीरे से अपनी काहिली के साथ घर मे घुस जाना...थोडी देर बच्चों से बतियाना और एक बार फिर लेपटॉप का आसन लगा लेना...इसी बीच डीनर को निबटा देना...बेशर्मी की हद तक कमरे मे लेपटॉप ऑन करे रहना यहाँ तक बच्चे लाईट ऑफ भी कर दें...फिर धीरे से उठना और इस्सबगोल की भूसी और दूध का कटोरा डकार कर चुपचाप लेट जाना...सोने से पहले उधडे ख्वाबों को फिर से बुनना और उसी उधेडबुन में पैर पीटते नींद के आगोश मे चले जाना...नींद में अतृप्त कामनाओं और असंगत किस्म के सपनों मे खुद से लडते रहना....और नींद में जागते रहना..।
(पिछले 3 महीने से इस किस्म की अवधूत जिन्दगी जी रहा हूँ)

हास्य का चले जाना

जीवन से हास्य बडे चुपके से गायब हो जाता है दिन भर गंभीरता और बौद्धिकता का लबादा ओढे आप क्या तो वैचारिक प्रखरता या फिर दार्शनिकता के शिकार हो जाते है। हास्य की विदाई का पता नही चलता है जब आपके आसपास कोई ठहाके मारकर हंसता है तब अन्दर महसूस होता है कि आप ये फन कब से भूल गए है....याद कीजिए आखिरी बार कब इस कदर हंसे थे कि पेट मे बल पड गये हो और आंख से पानी निकलने लगा हो...मै तो याद नही कर पा रहा हूँ आप शायद कर पाएं...।

किसान व्यथा

अभी गांव में बात हुई किसान परिवार से ताल्लुक रखता हूँ इसलिए पहली बार फेसबुक पर किसान जीवन की व्यथा लिख रहा हूँ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिस क्षेत्र से मेरा ताल्लुक है गन्ना वहाँ की प्रमुख नकदी फसल है अमूमन नवम्बर में चीनी मिल शुरु हो जाते है और किसान तभी से गन्ने की सप्लाई करना शुरु कर देता है मेरे पिताजी भी गांव के प्रमुख गन्ना उत्पादको मे से एक है गन्ने की छिलाई के लिए किसानों को मजदूर करने पडते है फिर ट्रेक्टर ट्राली से भरे जाडे में पिटता हुआ डीजल फूंकता हुआ वह मिल मे गन्ना सप्लाई करता है मिल मालिकों की सरकार से गजब की सेंटिंग होती है इसलिए वे गन्ने के भुगतान में पूर्ण रुपेण तानाशाही चलाते है जिस महीने आपने अपने पैसे खर्च करके (यथा मजदूरी,डीजल) गन्ना मिल मे सप्लाई किया होता है उसके तीन महीने बाद एक-एक हफ्ते का पैमेंट बैंको के माध्यम से होता है जिसमे उसका आधा पैसा खाद के लोन और बैक के क्रेडिट कार्ड मे कट जाता है लेकिन किसान को मै दूनिया का महान आशावादी और सब्र संतोषी जीव समझता हूँ इसलिए वो बेचारा प्रतिरोध नही करता है बल्कि मरता खफता लगा रहता है सरकार और कारपोरेट की जुगलबंदी किसान का इस कदर शोषण करती है कि आप अन्दाज़ा भी नही लगा सकते है प्राईवेट चीनी मिल अपनी मर्जी से गन्ने का भुगतान करती है किसान अपना गन्ना उधार मिल को देता है और उसे उसका भुगतान किस्तों मे मिलता है वह भी बेहद मुश्किलों के बाद अभी आधा अगस्त बीत चुका है लेकिन हमने जो मार्च मे गन्ना सप्लाई किया था उसके पैमेंट का कुछ अता-पता नही है जबकि आय के लिहाज़ यह चौमासा किसान के लिए बेहद भारी होता है। हद है इस कृषि प्रधान देश की यहाँ किसान की सुनने वाला कोई नही है किसान मजदूरों की तरह संगठित भी नही है उत्तर प्रदेश के किसान हितेषी होने का दावा करने वाली समाजवादी पार्टी की सरकार है लेकिन शुगर मिल की तानाशाही पर कोई लगाम नही है चीनी मिल का मालिक चीनी नकद मे बेचता है और मुनाफा कमाता है और किसान अपने हाड तोड मेहनत की फसल उधार मे मिल मालिक को देता है लेकिन उसको बदले मे मिलती है तो जिल्लत की जिन्दगी इस मसले पर मेरा भोगा हुआ यथार्थ इतना अधिक है कि मै पूरा लेख लिख सकता हूँ। बैंक मैनेजर की गन्ना भुगतान को लेकर हेकडी,संग्रह अमीन का मानसिक शोषण,सहकारी बैंक मे लोन के नाम पर दलालो की लूट एक बेचारा किसान कहाँ कहाँ नही पिसता है लेकिन उसके सब्र का बांध नही टूटता है वो स्वाभिमान के साथ लम्बा और अंतहीन इंतजार करता है बस इसके अलावा और वह कर भी क्या सकता है।
शेष फिर

फक्कड

बड़े नामों चेहरों की साध संगत का अलग ही नशा होता है खुद लोकप्रिय और बौद्धिकजन भी इससे मुक्त नही होते है दिन में फेसबुक पर ऐसे कई फोटो आँखों के सामने से गुजरते है जिसमे लोगबाग़ खुद के रसूखदार लोगो के साथ खिंचवाए फोटो शेयर करते है हमारी नजरो में जो बड़े है और जिनके साथ हम फोटो खिचवाने को लालायित रहते है वो किसी दुसरे बड़े चेहरे के साथ खड़े होकर खुश होते नजर आते है ये आदमी की सम्पर्क सम्पन्नता का मनोविज्ञान है जो हर आदमी की मानवीय कमजोरी भी है और जो इन सबसे मुक्त है वो सच्चे अर्थो में फक्कड है उसे फेसबुक से क्या मतलब।

फेसबुक

फेसबुक की खुबसूरती इसकी विविधता है यहाँ किस्म किस्म के लोग किस्म किस्म की विचारधारा देखने पढने को मिलती है सच्चे अर्थो में यही पर सच्चा लोकतंत्र है. यहाँ खांटी वामपंथी भी मिलेगा और कट्टर संघी भी... कवि भी मिलेगा और कविता के नाम पर अत्याचार करने वाला भी...ब्राहमण को ही आप ब्राहमणवाद के खिलाफ लिखते हुए केवल यही पर देख सकते है ये आपके अन्दर की वास्तविक विचारधारा को सामने ले आता है जिससे लोगो का भरम भी दूर होता है ये वास्तव सबसे बड़ी बौद्धिक ईमानदारी का प्रतीक है.यहाँ मशहूर और गुमनाम दोनों एक साथ साध संगत करते मिल सकते है यहाँ आस्तिको का टोला है तो नास्तिको के तर्क भी है. यहाँ मोदी के भक्त है तो कांग्रेस के भी झंडाबरदार हैं...दलित विमर्श से लेकर आदिवासी विमर्श फेसबुक पर पढने को मिल जाता है..स्त्री विमर्श और स्त्री सशक्तिकरण के मंच के रूप फेसबुक की अपनी उपयोगिता है..यह सम्बन्धो का सेतू है यह जज्बातों का अभियन्ता...दो अनजान लोग अलग अलग विचारधारा के लोग इतनी उदारता के साथ और कही आपको साथ नही मिलेंगे...
बहस में एक दुसरे से उलझते हुए लोग आपको एक दुसरे के चित्रों को लाइक करते यही मिलेंगे यहाँ अनजान लोगो को भी जन्मदिन की शुभकामनायें भेजी जाती है जिससे उसका कम से कम एक दिन तो स्पेशल हो ही जाता है मै फेसबुक की उदारता का कायल हो गया हूँ.आपदकाल में फेसबुकिया भाईचारा भी किसी से छिपा नही है उत्तराखंड आपदा में इसकी उपयोगिता सिद्ध हो चुकी है.
यहाँ लोग अपनी छोटी छोटी खुशी बाँट कर सबको उसमे शामिल होने का अवसर देते है यहाँ उदासी के किस्से भी अपनेपन से सुने जाते है दिल को तस्सली दी जाती है हम बिना मिले एक दुसरे की बच्चो की शक्ल और नाम से वाकिफ हो जाते है.
और सबसे बड़ी बात फेसबुक आपको यह एहसास नहीं होने देता है की आप अपनी लड़ाई में अकेले है हमेशा कोई न कोई आपको ऑनलाइन मिल ही जाता है जब भी आपको लगे की बोरडम ने घेरा तो चैट बॉक्स की जलती हुई हरी बत्ती आपको हौसला देती नजर आती है.
फेसबुक को फेकबुक बताना इसकी तौहीन है कुछ लोग हैं खुराफाती हैं लेकिन वो तो समाज में भी है उनका ना कोई ईलाज समाज के पास है और ना ही फेसबुक के पास इसलिए उनको इग्नोर करो और आगे बढ़ो हाँ अंत में एक सलाह जरुर दूंगा कि फेसबुक को एक साधन समझना चाहिए न की साध्य.
जियो ! मार्क जुकरबर्ग कमाल की चीज़ ईजाद की है भाई....जियो ! मेरे दोस्त! मेरे दुश्मन! मेरे भाई !

मुसलमान

जो लोग मुसलमानों का वजूद केवल जिहाद और आंतक से जोडकर देखते है उनकी सोच पर तब्सरा नही किया जा सकता है बल्कि वो दया के पात्र है क्योंकि समग्रता से देखने की दृष्टि से देखने के लिए जाति,धर्म,सम्प्रदाय और यहाँ तक कई देशभक्ति के चश्में से भी उपर उठकर सोचना पडता है। सियासत की रंग इतना गहरा होता है कि यह सोचने ही नही देता है हमें और हम हर पल असुरक्षा से घिरे यही सोचते रहते है कि अच्छा होता सारे मुसलमान विभाजन के समय पाकिस्तान चले गए होते फिर हम यहाँ मजे से जी रहे होते खुराफाती दिमाग वाले दोनों तरफ है ऐसा नही है खालिस मुसलमान ही हिसंक या आंतक के पर्याय है कभी हिन्दूओं (कट्टर हिन्दूओं ) की बैठकों में मुसलमानों का जिक्र छेडकर देखिए फिर कैसे लोग अपने खंजर की धार तेज करते है बात बेहद कडवी है लेकिन यहाँ तक बातें होती है कि अगर मारकाट हुई मै कितने मुसलमानों को ठिकाने लगाऊंगा मुझे यह हिप्पोक्रेसी कभी पसंद नही आयी कि हम केवल एक ही पक्ष पर देखे,लिखे और पढे...अमन पसंद लोग दोनो तरफ है और खुराफाती भी दोनो ही तरफ है अब यह तर्क नही करना चाहूंगा कि किसने शुरुवात की या किसने ऐसा करने के लिए उकसाया...यह एक अतिसम्वेदनशील मसला है इसलिए मै इस पर कोई विवाद खडा नही करना चाहता हूँ लेकिन खुद के प्रति ईमानदारी जरुरी है।
यदि मान भी लूँ कि मुसलमान इस देश के लिए खतरा है तो भाई ये कैसे मान लूँ कि इस देश की कला,साहित्य,संस्कृति,संगीत के उन्नयन में मुसलमानों का कितना बडा योगदान है। मीर,गालिब से लेकर समकालीन शायरों फनकारों को पढकर सुनकर जो रुह को खुराक मिलती है वो इन तमाम घृणा फैलाने वाले तर्को से कही बडी है। आज के मुश्किल दौर मे जब धर्म के नाम पर सियासत जोरो पर है ऐसे में इन मुस्लिम फनकारों को कितनी मुश्किलों का सामना करना पडता होगा उसे सोच कर ही फिक्र होती है अपने खुद के वतन मे खुद की ईमानदारी और निष्ठा का प्रमाण पत्र बार बार देना पडता है लेकिन फिर भी वो अपनी बेहतरीन खाकसारानें कोशिसे हम तक पहूंचा रहे है मै तो दिल से उनका आभारी हूँ क्योंकि इंसानियत के लिए हमे ऐसे लोगो की सख्त जरुरत है।

फिल्म और समाज़

नाम के पीछे छिपा सामाजिक सम्मान भी अभिजात्य वर्ग की बपौती रहा है मुम्बईयाँ हिन्दी फिल्मो कें आईट्म सांग में अक्सर ऐसे नाम प्रयोग किए जाते है जो मध्यम या निम्न मध्यम वर्ग मे प्रचलित रहे हो यानि तफरीह,ठगी और नेत्रभोजन के लिए गरीब या औसत आय वर्ग के नाम को ठेलने की परम्परा रही है। मुन्नी,बबली,बबलू,शीला,पिंकी ये सब नाम हमारे आस-पडौस मे रोजाना सुनने को मिलते है जिसको वॉलीवुड कभी बदनाम कर देता है तो कभी जवान कर देता है।शहर का एक तबका ऐसा भी जो ऐसे नामों को मस्ती का पर्याय समझता है और बेचारे हमारे आसपास के ये किरदार कितनी असुविधा महसूस करते होंगे जब ये गीत बजते है इसका अहसास मनोरंजन के नाम पर बेचने जाने वाली चूरण की पुडिया हजम कर देती है जिसे हम फिल्म की जरुरत कहकर स्वीकृति भी देने लगे है।

मिथ्या

स्वप्नलोक के मिथ्या संसार में भी प्रताडना मिलती हो जिसे उसके निरभाग होने का प्रमाण पत्र जन्म के साथ ही बेमाता चस्पा कर जाती है। वो कभी खुद को ठगता है कभी दूनिया उसको ठगती है उसको दूनिया से शिकायत रहती है और दूनिया को उससे।सम्बंधो के कारोबार और उपलब्धियों के आतंक के बीच वह कभी रेंगता है कभी सिमट कर रुक जाता फिर चलता है लेकिन अपने इस समानांतर लोक में वो खुशी नही तलाश पाता है फिर आत्ममुग्धता को समय चक्र पूरे करने का सहारा बनाता है खुद महामानव समझता हुआ जीता है जबकि वो क्या है यह सच-सच तो न वह ही जानता है और न ही उसके आसपास का परिवेश।
दरअसल उसको समझना खुद को समझने जैसा है।

उत्सव

चित्त से उत्सधर्मिता का विलोपन किसी विज्ञान के सिद्धांत की तरह नही है जिसको परखनली और रासायनिक क्रिया में उत्प्रेरक की सहायता से मापा जा सकता हो। जब आसपास के लोग गहरे उल्लास में डूबे हो बधाईयों शुभकामनाओं का मयकशी से बढकर दौर चल रहा हो ऐसे मे चुपचाप मन के किसी कोने में अनासक्ति के भाव मन से खुराक पा रहे होते है छोटी-छोटी खुशियाँ तलाशने की नसीहतें भी काम नही आती है बल्कि हर उत्सव से पहले और और हर उत्सव के गुजर जाने के बाद का पसरा आंतरिक अवसाद किसी योग की सिद्धि ने कम नही होता है जहाँ आप स्थितप्रज्ञ की तरह व्यवहार करते है आसपास के लोगो के लिए यह आश्चर्य,घृणा,अहंकार,हीनता का विषय हो सकता है लेकिन एक यात्री के लिए यह उन पडावों को सुस्ताने के बहानें देखने का अवसर होता है जिसमे दूनियादारी के लोग उत्सव में लीन होने का प्रदर्शन कर अपने अन्दर से उपजी अपनी रिक्तता को उत्सव के बहाने आरोपित कर रहे होते है।

अपने बारे में...

मै आत्म-आलोचना का शिकार हूँ इसका यह अर्थ कदापि नही मेरे दोस्त ! कि मुझे खुद की कीमत नही पता है।
बोलता कम हूँ इसका यह अर्थ कदापि नही मेरे दोस्त ! कि तुम्हारें चोंचलों का नही पता है।
लिखता बेबाक हूँ इसका यह अर्थ कदापि नही मेरे दोस्त ! कि मुझे सही-गलत की समझ नही है।
खुद की ब्रांडिंग नही आती है इसका यह अर्थ कदापि नही मेरे दोस्त ! कि मुझे बेचने और बिकने की जगह का नही पता है।
मै खुद का भाष्याकार नही हूँ इसका यह अर्थ कदापि नही मेरे दोस्त ! कि सफलता-असफलता की परिभाषा नही पता है ।

मेरी बातें अहंकार की चासनी मे लिपटी न लगे इसलिए बार-बार दोस्त लिख रहा हूँ वरना दोस्ती के नाम पर तुम्हारे जैसे बजरबट्टु अपने जेब मे लिए घूमता हूँ।

(निठल्ला चिंतन- पार्ट-1)

परीक्षा

इन दिनों से बडे बेटे राहुल के मासिक टेस्ट चल रहे है वो कक्षा 2 मे पढता है। उसके टेस्ट की तैयारी को लेकर पत्नि खासे तनाव और दबाव मे रहती है मै देखता हूँ उसको पढाने-रटाने के लिए रात-दिन एक किए है कई बार मुझे भी ताने देती है कि एम.ए. बी.ए. के बच्चों को तो पढाते हो कभी खुद के बच्चे को भी पढा लिया करो जिस-जिस सबजेक्ट में उसको कमजोर नम्बर मिलते है उस-उस सबजेक्ट की पाठ्य पुस्तक कई बार मेरे सामने लाकर पटक देती है मै साक्षी भाव से देखता रहता हूँ बच्चा जब स्कूल से आता है आते ही उसके कपडे बदलने के उपक्रम के साथ-साथ आज टेस्ट में क्या पूछा? तुमने क्या लिखा? कैसे लिखा? आदि सवालों का भी सिलसिला चलता रहता है कई बार उसको क्रोधित हो बालक को चपत लगाते भी देखता हूँ।
यह सब हर महीने का क्रम है मुझे अपने स्कूल के दिन याद आ जाते है जहाँ हम नितांत ही खुद पर निर्भर थे न गांव में हमे ट्यूशन मिलता था और न ही हमारी मम्मी हमे पढाती थी मेरे मम्मी को तो चूल्हें में फूंकनी से फूंक मारने से ही फुरसत कब मिलती थी उसे कुनबे का पेट पालना होता था आज तक मेरी मम्मी को यह नही पता कि मैने किसी विषय में पढाई की है, मैने कौन-कौन सी डिग्रियां हासिल की और मै विश्वविद्यालय मे कौन सा विषय पढाता हूँ...यही हालत पिताजी की है उन्होने कभी नही देखा मेरा रिपोर्ट कार्ड न कोई सलाह-मशविरा की क्या पढना है,कहाँ पढना है बस वो अपनी जमीदारी में मस्त रहें है। आज का वक्त कितना बदल गया है अब मम्मी को भी बच्चे के साथ साथ एक एक क्लास पास करते हुए आगे बढना होता है जितनी चुनौति बच्चे के समक्ष होती है ठीक उतना ही तनाव घर पर उसकी मम्मी भी झेल रही होती है। आधुनिक शिक्षा दर्शन पता नही कैसा है जहाँ इंसान को बचपन ही एक मारकाट वाली प्रतिस्पर्धा में धकेल दिया जाता है जहाँ उसे हमेशा कुछ न कुछ एचीव करना है भले ही इस चक्कर में बहुत सी उम्र की बुनियादी चीजे पीछे छूट जाएं जैसे बचपन को स्कूल को खा रहा है और पेरेंटस बच्चे की जान लेने पर उतारु है। एक प्रकार से देखा जाए तो हम सौभाग्यशाली थे भले ही हम प्राईमरी पाठशाल में पढे हो लेकिन हमारी मम्मी हमारी पढाई की वजह से कभी टैंशन में नही आई और हम भी गिरते-पडते-संभलतें एम.ए.पीएचडी तक की पढाई भी कर गए परफारमेंस का दबाव झेलती नई नस्ल का तो भगवान ही मालिक है।

दोस्ती

मित्र Ratanjeet Singh ने दोस्ती पर अभी एक स्टेट्स लिखा तो अपने भी जख्म हरे हो गए दोस्ती के नाम पर मरने मिटने बनने और बिगडने के अपने बहुत से किस्से है। एक वक्त था जब दोस्तों के पैरो पर पैर रखकर चलने की आदत थी अकेले मूतने तक नही जाते थे फिर ठंडी नंगी बर्फ सी सच्चाई का भी सामना हुआ दोस्त भी गर्दिश के तारे हो गए वो खुद हैरान और परेशान थे ऐसे मे मेरी मदद क्या करते। जीवन मे एक वक्त ऐसा भी आया जब जिगरी समझे जाने वाले दोस्तों से बोलचाल बंद हो गई कई बार पास से अजनबी की तरह गुजर गए। कुछ दोस्तों को वक्त ने समझदार बना दिया और कुछ दोस्त अपने गणित मे उलझे रहे कुछ दोस्त ऐसे भी थे जिनसे अपने मन की बातें किए एक अरसा हो गया मै अपनी भूमिका बनाता रहा और वें अपनी उपलब्धियों के किस्से सुनाते रहे दोस्तों की उपलब्धियों से खुशी मिलती है लेकिन खुशी कभी एकालापी अच्छी नही लगती है। कई बार ऐसा भी हुआ कि करीबी दोस्त बहुत आगे निकल गए मै काफी पीछे छूट गया लेकिन मेरे एक मित्र यह कहकर सात्वनां देते रहे कि दूनिया गोल है लोग लौट कर फिर आएंगे और सच बात तो ये है कि उनमे से कुछ आएं भी ऐसे में खुद को बडप्पन की चासनी में डूबोया और उनको नादानी के खेल का खिलाडी समझ दिल को समझाया बहलाया और फिर से गले मिल साथ हो लिए...। दोस्ती का रिश्ता दूनिया का सबसे विचित्र रिश्ता है इसको समझा नही जाता बस इसको जिया जाता है जो लोग नफे-नुकसान,कमतर-बेहतर मे उलझ गए वो दोस्त कब परिचित मे तब्दील हो गए मुझे भी न पता चला।
सच्चा दोस्त वही है जिसके सामने अपने दिल के हालात कहने में लेशमात्र भी संकोच न हो जो आपकी बात को आत्मीयता से सुनने की दिलचस्पी रखता हो जो मुश्किल वक्त में आपको संभाल सके वो भी बिना किसी शर्त के साथ यह सच है कि दिन ब दिन औपचारिक और मतलबपरस्त होती दूनिया मे ऐसे दोस्त बेहद कम बचे है लेकिन जिनके पास ऐसे दोस्त है या वो खुद ऐसे किसी के दोस्त है तो इससे बडी उपलब्धि और कोई नही हो सकती। ऐसे यारों के यार सबको नसीब हो यही दुआ करता हूँ।

सरकारी नौकरी

सरकारी नौकरी की लालसा व्यक्ति की उद्यमशीलता को चाटती है और उसके अन्दर सामाजिक सरोकारों के प्रति उदासीनता उत्पन्न करती अंत: व्यक्ति अपनी जडो से कटता हुआ एक ऐसी दूनिया का हिस्सा बन जाता है जहाँ उसके लिए होने से बेहतर दिखना होता है। सरकारी नौकरी के पीछे छिपे सामाजिक स्वीकार्यता एवं आर्थिक सुरक्षा के भाव की भेंट न जाने कितने युवा सपने रोज चढ जाते है जो समाज के लिए कुछ नवीन एवं सकारात्मक आत्मनिर्भर मॉडल स्थापित करने मे न केवल समर्थ होते है बल्कि चमत्कार की हद कुछ भी कर सकते है बस वो हिम्मत नही जुटा पाते है जो सरकारी नौकरी की लालसा के चलते दबती-दबती आखिर में मृतप्राय: हो जाती है।

(एक सरकारी मुलाजिम बनने की दौड में हांफते शख्स का हलफमाना)

मै...

मै क्या था उसमें तुम्हे अहंकार दिखता हैं मैं क्या हो सकता हूँ उसके परिणाम तुम्हे संदिग्ध दिखते हैं मै जो हूँ उससे तुम सहमत नही हो मेरी योजनाएं तुम्हें क्षणिक षड्यंत्र का हिस्सा लगती है। तुम मेरे दोस्त हो बस यह एक शाश्वत सत्य है इसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नही है।

दूनियादारी

पढ़े हुए सिद्धांतो और निजी मान्यताओं के दर्शन के बीच भी कडवे यथार्थ की एक ऐसी समानांतर दूनिया बसती है जहां वक्त और हालात से उलझते इंसान को समझौतावादी बनना पड़ता है और दूनिया से अवसरवादी होने का तंज भी गाहे बगाहे सुनना पड़ता है। ऐसे लोगो को मै निजी तौर पर करप्ट नही मानता हूँ जिन्होंने विचार और थ्योरी के बीच कुछ मध्य मार्ग चुना क्योंकि कई बार वो खुद दांव पर लगे थे और बार उनके अपने।

सेकुलर

बात मुद्दों से फिसल कर धर्म पर आ जाती है इसलिए देश मे सेकुलर होना गोया गाली बन गई है खुद मुझ पर भी छ्द्म धर्मनिरपेक्ष होने का आरोप है आप कट्टर रहें चाहे जिस भी विचारधारा से ताल्लुक रखे यही आज के दौर मे आपकी वैचारिक प्रतिबद्धता और प्रखरता के पैमाने बन गए है। यदि आप शांति सद्भाव और आपसी सोहार्द के साथ जीना चाहते है क्या तो आप छ्द्म है या फिर डरपोक। ऐसे मुश्किल दौर में कई बार बडी बैचेनी होती है कई बार न चाहते हुए भी अपने 'आर-पार' की लडाई का मूड बनाए मित्रों की हाँ मे हाँ मिलानी पडती है क्योंकि उनके लिए मेरे हिन्दू होने का सबसे बडा प्रमाण यही है कि मुस्लमानों से कितना आतंकित हूँ और फिर इसी डर से मुझे उस युद्ध के लिए तैयार रहना है जहाँ घृणा और वैमंष्य को जीने की बुनियादी जरुरत के रुप मे विकसित किया जा रहा है।
महावीर,बुद्ध और नानक के इस देश में शांति प्रिय लोगो के पीठ पर भगौडा लिखने के मुहर तैयार की जा रही है जिसे जब भी मौका मिलेगा वो आपके पीठ पर दाग देगा। अजीब आश्चर्य होता है जब हम विश्व गुरु होने का दम्भ भरते हुए पश्चिम को गर्व के साथ गरियाते है लेकिन 21 वी सदीं के भारत में आज भी धर्म के नाम पर जो खून खराबा होता है वो किसी एंगल से मुझे अपने देश पर गर्व करने की इजाजत देता है मुझे समझ नही आता है।
सियासत ने जो रवैया अख्तियार किया है वह भी कम डराने वाला नही है क्या सियासत का अंतिम लक्ष्य येनकेनप्रकारेण कुर्सी ही हासिल करना होता है विशुद्ध मानवीय सरोकारों की सियासत क्यों नही की जा सकती है चाहे सत्ता हो विपक्ष दोनों ही अपने स्वार्थो की राजनीति मे लिप्त है ऐसे में विकासशील देश का एक आम नागरिक जो रोजमर्रा की बीमारी,कर्जे और मुकदमों से जुझता हुआ खुद इतना थका हुआ है कि उसे राहत कहीं नजर नही आती है ऐसे में अपने देश में साम्प्रदायिक दंगे,अर्थव्यवस्था की चुनौतियाँ,बाबाओं की लंपटई उसे और हताशा मे ही भर रही है।

केबीसी

केबीसी का हर नया सीजन मेरे जैसे प्रतीतवादियों पर बडा भारी गुजरता है पत्नि से लेकर बच्चों तक सब का मानसिक दबाव रहता है मुझे भी हॉट सीट पर जाकर अपने ज्ञान की परीक्षा देनी चाहिए खास तौर को पत्नि को यह लगता है मै दिन भर लेपटॉप पर चबड-चबड करता रहता हूँ और फोन पर लोगो को ज्ञान बांटने के मामलें मे भी कम नही हूँ फिर ऐसे में यदि वास्तव मे मै 'ज्ञानी' किस्म का हूँ तो फिर उस ज्ञान को करोडों मे बदल कर मुझे अपने ज्ञानी होने प्रमाण सार्वजनिक रुप से देना चाहिए पहले कभी कभार मै भी बच्चो के साथ केबीसी देख लिया करता था और संयोग कुछ सवालों के जवाब भी पहले दे देता था तभी से पत्नि समेत बच्चों को यह भ्रम हो गया है कि मै कम से कम कुछेक लाख तो जीत कर आ ही सकता हूँ इसलिए हर बार केबीसी का सीजन शुरु होने से पहले मुझ पर दबाव होता है कि मै उसके भाग लेने के लिए एसएमएस भेजना शुरु कर दूँ और मै बडी मुश्किल से अपनी जान बचाए हूँ क्योंकि दिन ब दिन के संघर्षो से रुबरु होते परिवार को भी एक आस बंधने लगती है कि शायद ज्ञान मुझे मेरा हक दिला दें और वो हक लखपति से शुरु होकर करोडपति बनने पर पूरामिलता नजर आता है।
सोनी टीवी के क्रिएटिव हेड हो अन्दाजा नही है कि केबीसी के चक्कर मे मेरे जैसे कितने छ्द्म ज्ञानी लोगो को धर्मसकंट का सामना करना पडता है उनके गले में करोडपति बनने का ऐसा फंदा पडा रहता है जिसे पत्नि बच्चों की आशाओं और अपेक्षाओं से कसते ही चले जाते है अब मेरी कोशिस रहती है कि केबीसी के प्रसारण के समय मे घर पर ही न रहूँ वरना मुझे लेपटॉप पर फेसबुक के लिए प्लास्टिक पीटते देखकर और उधर टीवी पर् लोगो को लखपति और करोडपति बनता देखकर पत्नि का खून फूंकता रहें यह भी वाजिब बात नही है।

निवेदन: केबीसी के अतिरिक्त लखपति और करोडपति बनने के सुझाव आमंत्रित है

सामाजिकता

सामजिक होना अपने आप मे एक बहुत बडा कौशल है। कुछ अपने दोस्तों को देखता हूँ वे इतने मिलनसार और सामाजिक किस्म के जीव है कि उन्हें सामाजिक रुप से मेल मिलाप मे रत्ती भर भी संकोच नही होता है वें गजब के मेजबान है। दोस्तों के यहाँ चाय से लेकर खाने तक की तारीफ करने में उनकी हाजिर जवाबी का जवाब नही होता है इधर मूंह में निवाला गया नही और उधर तारीफ की चासनी में लिपटे शब्द निकले शुरु हुए ऐसे हंसमुख और हाजिर जवाब् दोस्तों की वजह से हमारे जैसे मूकभावी लोगो की पत्नियों को भी आत्मगौरव को महसूस करने का अवसर मिलता है। एक हम है निपट एकांतप्रिय और दोस्तों की बच्चों और पत्नियों से गप्पे मारने के मामलें में नितांत संकोची मेरे सामने कई बार धर्म संकट तब होता है जब अच्छे खाने की तारीफ करने का अवसर आता है ऐसा नही है कि मेरे पास शब्दाभाव होता है लेकिन स्वाभाविक रुप से मूंह से वो बोल नही फूटते है जिससे सामने वाले को खुशी मिले....बच्चे तो मेरी चुप्पी और काया को देखकर ही मेरे करीब आने से डरते है। अब तो हालत यह है कि दोस्तों के सामने भी चुस्त जुमलेबाजी से परहेज करने लगा हूँ क्योंकि मेरी बातों से व्यंग्य का जायका आता है लम्बे समय तक ऐसी बहुत से दोस्तों को शिकायत रहने लगी थी।
खैर..सारांश यही है कि आदमी को सामाजिक,व्यवहार कुशल,हंसमुख और मिलनसार होना चाहिए न कि मेरे जैसा जो संकोची जीव जो मन की बात मन मे ही लिए बोझ तले दबा फिरता रहे दर ब दर...और सोचता रहे कि.... I am a good guest but bad host..

मदिरा महात्म

प्राय: मदिरा विवेक हर लेती है इसमे कोई सन्देह नही है लेकिन सच तो यह भी उतना ही है कि मदिरा आदमी के चैतन्यता की परीक्षा भी लेती है सामान्य चेतना का व्यक्ति मदिरा की आसक्ति में अपना घर परिवार बीवी बच्चे और सम्पत्ति का क्षरण कर देता है जबकि चेतना सम्पन्न व्यक्ति के लिए यह पेय एक मूल चरित्र की तरफ लौटने और भावनात्मक विरेचन के रुप मे उपयोगी हो सकता है उसके लिए मदिरा कोई साध्य नही होती है अपितु एक साधन होती है जिसके प्रभाव में वो आवरण के बोझ से निकल कर उनमुक्त और अपने दिगम्बर मौलिक स्वरुप की यात्रा की अनुभूति करता है हालांकि नितांत ही रासायनिक प्रक्रिया होने की वजह से यह प्रभाव स्थाई नही होता है परंतु लोक साधना मे रत एक संघर्षरत इंसान के पास इतना सामाजिक साहस नही बचता है कि वह क्न्द्राओं मे एकांत सिद्ध हो सके। मदिरा वास्तव मे न प्रशंसा की चीज़ है और न ही आलोचना की इसकी आलोचना करने वाले भी अन्दर से डरे हुए लोग होते है जिन्हे भय होता है कि वे किसी भी पल कमजोर पड सकते है और मदिरा उनके लिए व्यसन बन सकते है युक्तिकरण करके वो भले ही इसे खारिज करते रहते हो परंतु उनके अन्दर भी चखने की एक आदिम चाह जिन्दा रहती है भले ही वो इसे सार्वजनिक रुप से स्वीकार न करें ऐसे भीरु लोगो के लिए मदिरा से परहेज करना ही श्रेष्ट है यह पेय उनके लिए नही बना है इसकी दिव्यता के बोध के लिए आत्मानुशासन की जरुरत पडती है अन्यथा यह आपको किस हद तक बरबाद कर सकती है उसकी कोई सीमा नही है।
इंसान की निजी कमजोरियों ने मदिरा का सार्वजनिक चरित्र इतना घृणास्पद बना दिया है हम प्राय: इसको खारिज़ करके ही सामाजिक रुप से 'भले' होने की स्वघोषणा करते है मेरे संज्ञान मे ऐसा भी नही है कि सभी मदिरा सेवी घोर किस्म के अराजक प्राणी हो बल्कि मुझे तो वो दिल के ज्यादा सच्चे लगे जो दोस्ती के नाम पर अपना मर्दाना अभिमान त्यागकर दो घूंट अन्दर जाते ही रोने लगते है दूनिया कहती है कि मदिरा रो रही है यह आदमी नही जबकि सच तो यह होता है वो आदमी रो रहा होता है बस हम पहचान नही पाते है और उपेक्षा भाव से उसकी खिल्ली भी उडाते है।
यह मनुष्य के सामान्य मनोविज्ञान पर काम करती है जब उसकी पीडाएं इतनी घनीभूत हो उठती है कि वह अन्दर से भर जाता है ऐसे में मदिरा उसको रिक्त करने का साधन है इसलिए मजदूर भी मदिरा का प्रेमी होता है और धनिक भी दो विरोधाभासों के बीच विवादों और धर्मग्रंथों/आध्यात्मवाद सबकी आलोचना झेलती हुई मदिरा का अस्तित्व समाज़ मे बरसों से बना हुआ है और शायद आगे भी बना रहेगा।

यथास्थितिवाद

जीवन मे यथास्थितिवाद का आ जाना सबसे बडी चुनौति होती है कई बार जीवन जड और गतिशीलता के मध्य रेंगता नजर आता है मनुष्य जीवन की उपयोगिता इसके गतिशील रहने में ही है स्थाई अनुराग भी जडता का ही प्रतीक है इसलिए यात्रा अनवरत जारी रखते हुए जीवन को प्रयोगधर्मी बनाए रखने की जरुरत सबसे महत्वपूर्ण है इन सब कवायद के बीच यदि कुछ समाज़ के लिए रचनात्मक योगदान हो जाए तो वह भी किसी बडी उपलब्धि से कम नही होता है।
मार्ग और साधन का सवाल बडा है लेकिन सबसे बडा सवाल है निजात्म की कमजोरियों का अतिक्रमण करते हुए अपनी दिशा को निर्धारित करना अक्सर मन की सूक्ष्म कमजोरियां हमारे निर्णयों पर हावी रहती है लेकिन प्रज्ञाशील मनुष्य को चाहिए कि परिस्थितियों की चुनौतियों के बीच वह यह तय करे कि उसका सच क्या है? तथा वो जीवन की जिस कक्षा मे प्रेक्षेपित हुआ बैठा है वहाँ रचनात्मक और सृजनशीलता के कितनी संभावनाएं शेष है अन्यथा यथास्थिति का कम्फर्ट जोन इतना बडा होता चला जाता है कि मन हर नए परिवर्तन का विरोध करना आरम्भ कर देता है।

पाश कहता है----

पाश कहता है----
सबसे बुरा है सपनों का मर जाना
लेकिन
मै कहता हूँ
सबसे बुरा है दोस्ती के बीच समझदारी उग आना
उससे भी बुरा है
दोस्ती के बीच संकोच की काई जम जाना
जिस पर फिसलने के डर से हम
रिश्तों की गहराई मे उतरने से डरने लगते है
और किनारे-किनारे चलते दो दोस्त
कभी शिद्दत से नही मिला करते
ये बात मै नही सभी जानते है।

Saturday, October 26, 2013

देहाती मन के संकोच----

देहाती मन के संकोच----

मेरे हिसाब ये कहानी हर उस शख्स की है जो मेरी तरह से गांव-देहात से ताल्लुक रखता है और पढने या नौकरी के सिलसिले में कई साल पहले शहर आया था फिर वक्त और हालात ने ऐसी करवट ली कि शहर का ही होकर रह गया लेकिन उसके चित्त में गांव-देहात के संस्कार अभी तक शहरीकरण की प्रक्रिया में पूरी तरह से मृत नही हुए है उन्हे खुराक भी हम खुद ही देते है क्योंकि भले ही शहरीकरण की प्रक्रिया में हमारे रुपांतरण की भरसक कोशिसे जारी रहती है लेकिन फिर भी मन की प्रवृत्तियों का कुछ ऐसा हिस्सा जरुर है जो अभी तक बदल नही पाया है।
इससे कोई सन्देह नही है शहर की रंगीनयत हर देहात के आदमी के दिल में कौतुहल और आकर्षण पैदा करती रही है लेकिन पहले यह अस्थाई किस्म की होती थी मसलन गांव का आदमी शहर में आकर एकाध दिन बाद ही अपनी जडो की तरफ लौटने के लिए बैचेन हो उठता था आज भी बहुत से लोग ऐसे है जो शहरों में रहते है लेकिन जब भी गांव से उनके माता-पिता उनके पास कुछ दिन रहने के लिए आतें है तब कुछ दिन तो वो पोत्र-पोत्री मोह में शहर के दबडों में पडे रहते है लेकिन कुछ ही दिन बाद उनके मन में उच्चाटन पैदा हो जाता है क्योंकि उन्हे शहर में अपने वय का सामाजिक तंत्र नही मिल पाता है इसलिए वें कुछ दिन रहने के बाद जल्दी ही गांव लौट जाते है।
मेरे जैसे बहुत से देहाती लोगो को शहर के प्रति अजीब किस्म के मानसिक संकोच रहते है या यूँ समझ लीजिए अप्राप्य चीजें जब आपकी पहूंच में आ जाती है तो आप उन्हे स्वीकार करनें में काफी समय लेते और बहुत सी चीजें बाद तक भी स्वीकार नही कर पातें है। शहर के जीवन में एक गति है और यह गति यहाँ सभी के लिए अनिवार्य है यदि आप इस गति से कदमताल नही मिला पा रहे है तो फिर आप पिछडते ही जाएंगे और यह गति आपको बहुत सी चालाकियाँ सीखने के लिए भी बाध्य करती है यदि आपके मूल व्यवहार में हद दर्जे के व्यवहारिकता नही है या ये चालाकियाँ आपके अभ्यास का विषय नही है ऐसे में आप बहुत सी परिस्थितियों में असहज़ महसूस करते है। मै खुद अभी तक ये सारी बेशर्मी नही सीख पाया हूँ बेशर्मी इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि यह कुछ खास किस्म के पैतरें है जो आपके आधुनिक और समझदार होने के पैमाने समझे जाते है हालांकि परिस्थितियां भी आपको बहुत कुछ सिखा देती है।
गांव-देहात के मन का संकोच इस कदर हम पर हावी रहता है कि हम बेवजह की नैतिकता बोध के बोझ के तले दबे फिरते रहते है मै खुद का ही उदाहरण दे रहा हूँ पहले अक्सर ऐसा होता था कि यदि किसी ब्रांडेड कम्पनी के शो रुम में यदि मै अपने लिए कपडे या जूते खरीदने गया और सेल्समैन नें मुझे कपडे/जूते दिखाने शुरु किए अलबत्ता तो मै ज्यादा च्वाईस से देख ही नही पाता था क्योंकि मन ही मन यह ख्याल आता था कि ये क्या सोचेगा कि मैने इतना बडा ढेर लगवा लिया है लेकिन अगर ज्यादा आईटम निकलवा भी लिए तो मन ही मन इनमे से एक जरुर खरीदना है यह नैतिक दबाव मन पर इस कदर हावी होने लगता था कि ब्याँ नही किया जा सकता है मै शहरी कल्चर के हिसाब से आधा-एक घंटे शो रुम की एक-एक चीज़ देखने के बाद साफगोई से यह मना कर बाहर निकलने की मनस्थिति में नही होता था कि मुझे इनमें से एक भी पसन्द नही है मेरे लिए ज्यादा आईटम देखना खुद ब खुद एक नैतिक दबाव बनाता चला जाता कि मुझे यहाँ से कुछ न कुछ खरीदकर ही लौटना है वरना इन सेल्समैन या शो रुम के मालिक को बुरा लगेगा कि हमारा कितना समय भी बरबाद किया और लिया कुछ भी नही। मेरे जीवन में ऐसे दर्जनों उदाहरण है कि मैने बिना अपनी पसंद के कपडे-जूते महज़ इसी बिनाह पर खरीदें क्योंकि मुझे बेशर्मी से एक भी चीज़ पसन्द नही आयी यह कहना नही आता था मेरे लिए फिर सेल्समैन ही मेरी च्वाईस का निर्धारक बन जाता था मै अपनी ग्लानि दूर करने के लिए उससे ही पूछने लगता भाईसाहब आप ही बताओं कौन सा अच्छा लग रहा है और फिर जिसको वह रिकमंड कर देता है मै बैमन से उसको खरीद लाता क्योंकि क्योंकि किसी का समय खराब करकें मना करना मेरी फितरत मे नही था यह संकोच देहात के संस्कारों की ही उपज था जहाँ यह सब जन्म घूट्टी के साथ ही घोल कर पिलाया जाता था, हालांकि अब मैने मना करना सीख लिया है लेकिन फिर भी पूरी तरह से आज भी नही सीख पाया हूँ मेरे जैसे ग्राहक ऐसे भव्य शो रुम मालिकों के लिए बडे सोफ्ट टारगेट होते है जो समय भी कम लेते है और माल भी हर हाल मे खरीदकर ले जातें है अन्यथ शहरी लोग काउंटर पर सामान का ढेर लगवाने के बाद भी साफ मना करके विजयी भाव से निकल जाते है ऐसा मैने अक्सर देखा है।
गांव देहात का आदमी जब शहर मे आता है एक तरफ तो उसमे मन में शहर की चकाचौंध के प्रति आकर्षण होता है वही मन में ढेर सारे संकोच होते है जब मै शुरु में दिल्ली जाता था तब मन मे बडा ही भय लगता था ऐसा लगता था कि रोड पार करते समय सामने से आने वाली ब्लू लाईन/डीटीसी मुझे ही रोंदने के लिए आ रही है मै पता पूछने के मामलें भी बडा संकोची था एक बार किसी से पता पूछने के बाद उसे ही ब्रहम वाक्य मान लेता था फिर उसको किसी दूसरे से टैली करने का आत्मविश्वास नही जुटा पाता था अलबत्ता तो मेरी कोशिस यही रहती थी कि मुझे भले ही आटो से कई गुना पैसा देना पडे  लेकिन मै बस से न जाऊँ लेकिन अगर फिर भी मजबूरी मे जाना भी पडता तो बस मे सवार होते ही मेरी कोशिस होती कि कंडक्टर के पास वाली सीट मिल जाए ताकि उसका कहा जा सके कि भाई मुझे फलां जगह उतार देना ऐसा कई बार हुआ है कि बस में पीछे सीट खाली पडी है लेकिन मै नही बैठा अपने मानसिक भय की वजह से कंडक्टर के पास ही खडा रहा और कंडक्टर से आग्रह करने के लिए बडी मानसिक भूमिका बनानी पडती थी क्योंकि ऐसी बसों के कंडक्टर पहले से ही चिढचिडे किस्म के होते है। मेरे इस मानसिक संकोच का बहुत बार लाभ दिल्ली के ऑटो वालों ने उठाया है वो समझ जाते थे कि बंदा अंजान है इसलिए मांग लो अंट-शंट दाम.....ये बाद मे धक्के खाकर मौल-भाव करना आया वरना पहले तो यही मानता था कि ऑटो वालो के रेट एकदम वाजिब और फिक्स किस्म के होते है। आज भी कोशिस करता हूँ कि दिल्ली कम ही जाना पडे बस एक सुकून है दिल्ली में मेट्रो चलने के बाद मेरे जैसे देहाती जीव की राह थोडी आसान जरुर हो गई है।
एक और संकोच का जिक्र कर रहा हूँ अभिजात्य किस्म के कैफे या रेस्ट्रारेंट अक्सर लोगो के लिए मीटिंग पाईंट भी होते है। बारिस्ता,कोस्ता,कैफे कॉफी डे आधुनिक शहरी अड्डे है जहाँ लोग गप्पबाजी करते है शुरुवाती दिनों यहाँ जाने के लिए मुझे अपना काफी आत्मविश्वास इकट्टा करना पडता था क्योंकि वहाँ के अंगरेजीपरस्त माहौल में जाने के लिए एक खास किस्म का आत्मविश्वास चाहिए होता है अपने कुछ दोस्तों के आग्रह पर कई बार गया हूँ अलबत्ता तो मुझे कॉपी पसन्द नही है लेकिन फिर भी आधुनिक होने की यह भी एक अनिवार्य शर्त है कि आप चाय की बजाए कॉपी पसन्द करते हो जबकि देहाती जीव गांव मे केतली भर चाय पीने-पिलाने के आदी रहें है। बहरहाल ऐसी जगहों पर भी एक अजीब सा संकोच घेर लेता है पहले तो वेटर ही हमारी बॉडी लैंग्वेज़ से यह पहचान लेता है कि ये कोई दूसरे ग्रह का जीव है इसलिए वह नोटिस ही नही करता फिर उसको बुलाना पडता है  वो भी सुसरा ऐसी अंग्रेजी पेलता कि हम उससे नजरे चुराने लगते और मेन्यू कार्ड पर नजरे गडा देते और फिर हडबडी में प्राय: महंगी और कडवी स्वादहीन कॉफी आर्डर देते फिर तो वेटर के शक की पुष्टि ही हो जाती थी मै कई बार सोचता हूँ कि ये वेटर जब अकेले में आपस मे बातें करते होंगे तो ग्राहकों की वैरायटी के हिसाब से हम जैसे लोगो पर कैसा तब्सरा करते होंगे। इसके अलावा मै देखता हूँ शहरी लोग कम से कम खर्चे पर ऐसे अभिजात्य किस्म के कॉफी हाऊस में कई-कई घंटे गप्पबाजी में बिता देते है और हमारे जैसे देहाती जीव मुश्किल से एक घंटे बैठने के बाद सोचने लगते कि कुछ और आर्डर दिया जाए ताकि हमारा यहा ऐसे खाली बैठना कैफे हाऊस के मालिको/वेटरों को नागवार न गुजरें और हर घंटे के बाद कुछ न कुछ आर्डर देते ही रहते ऐसे में सबसे कम समय बिताने के बाद भी सबसे ज्यादा बिल पे करके हम बाहर निकलते है।
इसके अलावा शहर के मांगलिक आयोजनों में शगुन का लिफाफा देने की अनिवार्यता भी प्राय: पहले संकोच का विषय बनती थी क्योंकि हमने गांव में केवल लडकी के विवाह में कन्यादान देना सीखा था लेकिन शहर में ऐसा कोई आयोजन नही है जिसमे लिफाफा न चलता हो चाहे लडके की शादी हो,महूर्त हो,ग्रहप्रवेश हो,विवाह की वर्षगांठ हो, जन्मदिन हो कुछ भी हो आप खाली हाथ दावत उडाने नही पहूंच सकते है यहाँ धन प्रेम का प्रतीक है और लिफाफा लेने देने में भी एक अजीब सा दिखावी अभिनय देखने को मिलता है मसलन लेने वाला ऊपरी मन से मना करेगा न लेने के लिए हाथ पैर फैंकेगा लेकिन मन ही मन लेना भी चाहेगा फिर मित्रगण उसकी जेब में जबरदस्ती लिफाफा ठूंस देंगे इस प्रपंच में  ऐसा सीन क्रिएट होता है कि पूछिए मत....यह भी उतना ही सच है कि शहर मे लोग कोई आयोजन करने से पहले एक मोटे तौर पर यह अनुमान लगा लेते है कि इतना तो शगुन के लिफाफे से ही कैश बैक हो जाएगा....:) खैर ! मै परम्परा पर सवाल नही खडे कर रहा हूँ लेकिन लडकी के कन्यादान के अलावा हर जगह लिफाफा देने में मेरे जैसे जीव को आज भी संकोच होता है।
....तो साहब ये कुछ देहाती जीव के मानसिक संकोच है जो शहर मे एक दशक बिता देने के बाद भी पूरी तरह से खत्म नही हुए है हालांकि अब मैने भी चालाकियाँ सीख ली है क्योंकि यहाँ प्रासंगिक बने रहने के लिए ये सब जरुरी है लेकिन दिल अपना आज भी मुहल्ले के नुक्कड पर खडे चाट वाले की टिक्की-चाट पर आता है न कि मैकडॉनाल्ड के मैक वैज़ी पर.....।
शेष फिर....

डिस्कलेमर: यह लेखक की निजी व्यक्तित्व की कमजोरी भी हो सकती है देहात से आए सभी लोग ऐसा सोचते-समझते-जीते हो यह आवश्यक नही है।

दीवाली


अपनी शर्तो पर जीने की आजादी लेने के लिए  मुद्रा की क्रांति जरुरी होतीन है  क्या तो आप फ़कीर हो जाए या फिर इतने अमीर की लोग बाध्य हो जाए आपकी जैसी भी  जीवनशैली हो उसको  स्वीकार करने के लिए...बाकी बीच में बहुत से त्रिशंकु बने भी लटके रहते है मेरी तरह से. मैं यह कतई नहीं कह रहा हूँ की पैसा ही सबकुछ है ऐसा नही पैसा सबकुछ नहीं है फिर भी दोस्तों बहुत कुछ तो जरुर है. आप चेतनासंपन्न भी हो और आर्थिक रूप से संपन्न भी यह इस कलि काल का सबसे बड़ा दुर्लभ संयोग है. अमूमन पैसा आपको दम्भी और स्वेच्छाचारी बना देता है लेकिन यदि आप चेतना और संवेदना के स्तर पर विकसित है तो आप इसका उपयोग एक साधन के रूप में कर सकते है मेरे हिसाब से मुद्रा एक साधन है लेकिन अक्सर लोग इसे साध्य मान बैठते है.... 
(दीवाली के नजदीक आते आते ऐसे मुद्रा प्रधान विचार आने ही लगते है शायद लक्ष्मी के वाहन उल्लू का असर होता है जो मेरे दिमाग पर अकेला ही सवार हो जाता है और लक्ष्मी मैय्या पैदल ही आपके दर पर दस्तक देती रहती है) :)  

Sunday, October 20, 2013

वसीयत

वो खत आज पोस्ट कर दिए जिन पर पतें नही लिखे थे इससे पहले वो यादों की तरह बैरंग लौट आयें मुझे अपना पता बदलना होगा फिर उनके बोझ तले मुहल्लें का डाकिया अभिशप्त जिन्दगी का ईनाम माँगता अगली दीवाली तक मेरे नए पते लिए मुझे ढूंडता हुआ आ धमकेगा और मैं साफ़ मुकर जाऊंगा कि मैने होश में ऐसे कोई खत लिखे ही नही यही मेरी वसीयत है।

-अतीत का जिरॉक्स

सपनों की पीछे भागना और दूसरों के सपने जीने लगना मन की उतार-चढाव के बीच अपने वजूद को टटोलना खुद को एकत्रित करना और फिर चलने की तैयारी करना किसी बडे मैराथन से कम नही है। प्रासंगिकता बचाए रखने के लिए जिस जुनून की जरुरत होती है वह हौसलों से उधार मांगना पडता है।
मेरे एक मित्र कहा करते थे कि कभी चूहों की खाल से नगाडे नही बना करते है डॉ.साहब...तब मै उनको खारिज़ करता हुआ आगे बढता था अब यह तय करना मुश्किल होता है कि मेरी गति मुझे आगे ले जा रही है या एक आवृत्ति के साथ वृत्त की कक्षा मे स्थापित करके मेरा आघूर्ण जांच रही है। संशय,अभिप्रेरणा,सकार-नकार से परे ब्रह्माडीय पिंड की भांति मै अपनी धूरी का चक्कर लगाता हांफता और बडबडाता यहाँ तक आ पहूंचा हूँ मेरी दूरी को नापने के लिए प्रकाश वर्ष की नही मन की कमजोरियों को नापने वाला पैमाना विकसित करना होगा जहाँ मुझ से मुझ तक की दूरी भी इतने अक्षाशों में बटी है कि एक शायद जीवन का ग्राफ भी उसके रेखांकन के लिए कम पड जाएगा।

-----अतीत का जिरॉक्स बारस्ता एचीवेमेंट मोटिवेशन

बैंड बाजा बारात......

बातें गाँव देहात की-----

बैंड बाजा बारात......

अब गाँव में भी बैंड की जगह डीजे ले रहे है वहां छोटे वाहनों पर डीजे का सिस्टम चलता है और युवा धड़कने उस पर झूमती है लेकिन एक दौर वह भी था जब बैंड का अपना एक अलग रूतबा होता था और कुछ खास बैंड आपकी हैसियत भी तय करते थे मसलन उनको एफोर्ड करना सबके बस की बात नही होती थी हमारे पड़ोस के गाँव गढ़ी अब्दुल्ला का बैंड भी जिले भर में मशहूर था उस दौर में भी उनके पास ठेली हुआ करती थी मुजफ्फरनगर में मीरापुर का भी बैंड बेहद मशहूर रहा है उनके पास कैसिओ का कीबोर्ड भी हुआ करता था..गाँव की बारात में एक जिम्मेदार शख्स की मौजूदगी अनिवार्य होती थी जो बारात के मस्ती में चूर युवाओ को धमका कर बारात को आगे ले जा सके क्योंकि युवाओं की जिद ज्यादा देर डांस करने की होती थी ऐसे में ठेली खींचने वाले शख्स की बड़ी मुसीबत होती थी वो आगे बढे और मय में डूबे दुल्हे के दोस्त ठेली को उतना ही पीछे धकेल देते थे ऐसे में उस जिम्मेदार शख्स का आदेश ही काम आता है उन दिनों रिश्तों की लिहाज़ भी होती थी अपने बाप से ज्यादा डर ताऊ से लगा करता था इसलिए कोई भी पीकर कम से कम अपने ताऊ के सामने नही पड़ता था...चाचा का रिश्ता दोस्तनुमा ही होता था.और पीने का काम भी बेहद गोपनीय होता था आज की तरह बियर की भी सामजिक स्वीकृति नही होती थी.
बारात में ऐसे ताऊ टाइप के लोग किसी खलनायक से कम नही होते थे लेकिन सब एक सिस्टम का हिस्सा होता था जहाँ नाचने वाले को भी पता होता था कि वो शादी ब्याह के नाम पर कितनी छुट ले सकता है. गाँव में बैंड के सामने नाचने वाले भी बहुत शरमा कर खुल पाते थे कुछ ही ऐसे होते जो शुरू से लेकर आखिर तक डांस में मस्त रहते थे और जो खुलकर नाच रहा होता था उसके बारे में सब की ये एक ही राय बनती थी कि इसने सोमरस का पान किया हुआ है. बारात में नाचने कि एक प्रेरणा और भी होती थी जिस गाँव बारात जाती थी उस गाँव में छतो पर बहुएं और लड़कियां बारात देखने आती थी वे भी नाचते हुए बांको को देखती और नाचने वाले बांके भी उन्हें देख कर खूब नाचते हालंकि उसमे कोई बेहूदगी की गूंजाइश बेहद कम कम ही होती थी सब सब गतिशील रहता दुल्हे का आगे नाचने वाले नाचते जाते और बारात आगे बढती जाती बस छतो पर चेहरे बदल जाते.
आज तो दूल्हा भी नाच लेता है और उसके दोस्त उसको नचा लेते है लेकिन गाँव में दुल्हे का नाचना ठीक नही माना जाता था उससे गंभीरता की ही अपेक्षा की जाती थी..इसलिए मेरे दौर के दोस्त अपने दुल्हे बने दोस्त को नाचने का आग्रह भी नहीं करते थे...बैंड में झूँन झूना बजाने वाले की भी बड़ी मुसीबत रहती थी कोई भी मस्ती में चूर नाचने वाला उसके हाथ से छीन कर खुद बजाने लगता ऐसे में बैंड कि रिदम भी बिगड़ जाती थी फिर बैंड मास्टर गाना बीच में रोक कर दूसरा गाना शुरू करता...ठेली पर चढ़े गायक की भी कम मुसीबत नही होती थी उसकी कुछ उपद्रवी किस्म के बाराती फरमाईश के नाम पर उसकी जान निकाल लेते थे कई बार उसको वो गाना गाने के लिए कहते जो उसको याद भी न हो ऐसे शराबी दोस्तों से बचना उसके लिए मुश्किल काम होता था.
और बैंड में शेष नाग के जैसे बड़े भोंपू कंधे पर लादे दो बुजुर्ग जरुर होते थे जो कभी कभार ही फूंक मारते थे और इसी में उनकी सांस फूल जाती थी फिर वो बीडी पीकर दम भरते थे...बारात में नाचने वाले हर शख्स का चरित्र सामंती होता था वो ईनाम में दस रुपए में बैंड मास्टर को तरसा तरसा कर देता था कई बार उस पर गर्दन मटकवाने के बाद ही उसके हाथ से दस का नोट छूटता था. बैंड मास्टर भी उनकी ये चाल और चेहरा अच्छी तरह से जानता था इसलिए वो भी इस दांव में रहता कि कैसे एक ही बार में ईनाम के दस रूपये झटक लूं.
एक और मजेदार बात होती थी लड़के की शादी में शादी के दिन से पहले चाचा ताऊ एक बार जरुर नाराज़ होते थे कि हमारी रिश्ते में पूछ प्रतीति नही हुई और उनको फूफा मना कर लाते थे इस बिनाह पर कि हम तो आपके भी मेहमान है और वो मान भी जाते थे उसके बाद उस शादी में लड़के का बाप आराम करता था और चाचा ताऊ जमकर मेजबानी करते लेकिन इस मान मुनव्वल की कीमत फूफा नाम का प्राणी भी खूब वसूलता था वो फिर पूरी शादी में वीवीआईपी किस्म का ट्रीटमेंट और प्रोटोकाल लेता था.
तो साहब ऐसी होती थी गाँव कि शादियाँ....अब धीरे धीरे वहां भी बदलाव कि बयार बह रही है...इससे पहले शादी नाम के इस आयोजन का नगरीकरण हो जाए क्या बुरा है जो मेरे जैसा निठल्ला आदमी उसकी किस्सागोई आपके साथ कर ले....
शेष फिर.....

यादों के सहारे बचत की बातें.....

यादों के सहारे बचत की बातें......

12 वी दर्जे में अर्थशास्त्र की किताब में पढ़ा था की ब्याज बचत का पुरस्कार है उस वक़्त केवल परीक्षा के लिहाज़ से केवल परिभाषा याद कर ली थी उस वक़्त इस परिभाषा में छिपी नसीहत को नही समझ पाया था और आज भी बचत के मामले में एकदम से निबट बुद्धू इंसान हूँ कहने को तो दो बैंक अकाउंट है लेकिन दोनों में जिस दिन मुद्रा आती है बेचारी उसके एकाध घंटे बाद ही एटीएम के हलक से मैं निगलवा लेता हूँ हाँ बस काम चल रहा है जैसे तैसे इसलिए सोचता नहीं हूँ सच तो यह भी है कि अभी आमदनी इतनी है भी नहीं कि बचत के रूप में इन्वेस्ट कर सकूँ अभी तो गाँव की एक कहावत के हिसाब से 'गेल गल्ला गेल पल्ला' (तुरंत आमंदनी और तुरंत खर्च ) करके जिंदगी चल रही है कभी कभी कुछ भाई-बंधू और दोस्त सलाह देते है कि कम से कम एक मेडिक्लैम पालिसी तो ले ही लो क्योंकि बुरा वक़्त बता कर नहीं आता है उस वक्त उनकी बात ठीक लगती है लेकिन बाद में सायास भूल जाता हूँ. आज बचत पुराण बांचने की एक वजह और भी है आज मुझे अपने माँ (दादी जी ) की एक आदत याद आ रही थी वैसे तो हम गाँव के बड़े जमीदार रहे है लेकिन कभी उस किस्म साहूकार कभी नहीं रहे कि हमारा पैसा गाँव में ब्याज पर चलता हो बस अपना काम चलता रहा है वजह एक यह भी थी कि मेरे पिताजी हद दर्जे के खर्चीले इंसान रहे है उनकी इस आदत से बहुत से लोगो को प्रश्रय मिलता रहा है....मेरी माँ (दादी जी ) को हमने बचपन से छोटी छोटी बचत करते देखा है उनके पास अनुभव था एक प्रतिबद्धता थी कि हमे आत्मनिर्भर बनाना है और हमे इस भाव से बड़ा करना है कि कभी अपनी पैतृक संपत्ति पर अभिमान नही करना है उन्होंने हमने यह सिखाया कि खुद के श्रम से अर्जित मुद्रा पर ही हमारा अधिकार होता है हम उसे अपने मन के मुताबिक़ खर्च कर सके उनकी मान्यता रही है कि पैतृक संपत्ति को लेकर हमारी दो ही जिम्मेदारियां है एक तो वह सुरक्षित रहे दूसरा उसको हम अपनी अगली पीढ़ी को यथारूप में स्थानांतरित कर सके.
मैं जब शायद पांचवी पढता था तब उन्होंने मेरे नाम से 25 रूपये महीने की गाँव के डाकघर में आरडी शुरू करवाई थी मेरी ही नहीं मेरे बाकि भाई बहनों के नाम से भी ही उन्होंने यही खाता खुलवाया था...वो हर महीने जमा करती रहती है और हमे याद भी नहीं था कि हमारे नाम से ऐसे कोई खाते भी है. वो साल दर साल जमा करती रही और जब वो राशि दो हजार हो गयी फिर उन्होंने उसके हमारे नाम से किसान विकास पत्र खरीद लिए बाद में हर पांच साल में वो रकम दुगनी होने पर उसको बदलवा देती थी...उन्होंने हमे भी नहीं बताया था कि ऐसी कोई बचत हमारे नाम से हो रही है...फिर एक दिन उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और कहा कि ये मैंने तुम सब के नाम थोड़ी सी बचत की है अब ये कागज़ तुम सब अपने अपने पास रखो...और जब जीवन में ऐसी भीड़ आ पड़े कि कंही से पैसे न मिल रहे हो और बेहद वाजिब ढंग से तुम्हे पैसो कि सख्त जरुरत हो तब इनको तुडवा कर अपना काम चला लेना ये पैसा तुम्हारे तब काम आएगा....उनके ये वचन किसी आशीर्वाद की तरह से एकदम से सही सच हुए आप यकीन नहीं करेंगे की एक वक्त मुझ पर ऐसा ही आन पड़ा था की कही से भी पैसा नहीं मिल पा रहा था और मुझे पैसो की सख्त जरुरत थी तब मुझे अपनी माँ के दिए किसान विकास पत्र की याद आयी और वो 25 रूपए महीने की मासिक बचत से बने किसान विकास पत्र ने मेरी पूरे 15000 की मदद की....और मेरे बड़े छोटे भाई-बहन के भी ऐसे ही वक्त में वो पैसा काम आया....तब मुझे एहसास हुआ की घर के बड़े बुजुर्ग वास्तव में कितने दूरदर्शी होते हैं और वो धन की उपयोगिता हम से बेहतर समझते थे क्योंकि उन्होंने अभाव देखा होता था... आज जब हम बचत के नाम पर सोचते है कि क्यों अपनी जरूरतों का गला घोंटा जाए ऐसे में उस दौर के लोग याद आते है जो अपने वर्तमान को संघर्ष की चक्की में पीस कर हमारा भविष्य सुरक्षित कर रहे थे.

मनुष्य बनाम देवता


मुझे मनुष्य मानवीय कमजोरियों के साथ ही प्रिय है यदि कोई इंसान देवत्व को प्राप्त हो जाता है फिर वह प्रेम करने के काबिल नही बचता है फिर तो उसकी उपासना ही की जा सकती है जैसे निर्जीव पत्थरों की मन्दिरों में की जाती है उस देवत्व के साथ मनुष्य कितना मजबूर होगा जहाँ वह हमेशा एक स्थिति में बना रहें इसलिए मुझे वक्त और हालात से मजबूर इंसान उतना मजबूर नही लगता है जितने देवत्व प्राप्त करने में दिन-भर लंद-फंद करने वाला शातिर मनुष्य लगता है।
मनुष्य अपने सच-झूठ,अहंकार,विकार,अपेक्षा,सुख-दुख के साथ ही मनुष्य है इससे इतर का दावा करना फिर देवता बनने जैसा है देवता बनने मे कोई बुराई नही है लेकिन फिर आप यह दावा नही कर सकते है कि मै सबके दुख मे दुखी हो जाता हूँ फिर आपके लिए अपने होने का सुख इतना बडा और व्यापक होता है कि उसके बाद आपको सभी लोग जंतु दिखने लगते है।
सकार-नकार पर भाषण झाडने वाले भी कम खतरनाक जीव नही है मेरी समझ से सकार और नकार कुछ नही है केवल दो किस्म की मनस्थितियां है या यूँ कहूँ कि दो किस्म के इमोशनल बफर है जिसमे आदमी बौराया फिरता है यहाँ मै कहता हूँ कि सकार और नकार दोनो को छोडो केवल स्वीकार भाव में जीने का अभ्यास विकसित करो।
मनुष्य तभी तक मनुष्य है जब वह गलती करता है घबराता है फिर गलती करता है टूटता है फिर संभलता है...सच-झूठ पाप-पुण्य से सबके अपने अपने खांचे है जिसमे हम दूसरों को फिट करने की जिद पाल लेते है और फिर निराश घूमते है।
इसलिए कहता हूँ हे ! दूनिया के महान असफल लोगो....सच-झूठ,पाप-पुण्य के मुकदमें में फंसे हुए लोगो....निराश-अवसाद मे डूबे हुए लोगो मेरे लिए आप सम्मानीय है प्रिय है क्योंकि आपने जीवन का हिस्सा जिया है जो देवता बनने के चक्कर में मेरे काबिल दोस्त नही जी पायें है। 

मुसाफिर और अमीर कनबतियां...


मुसाफिर और अमीर कनबतियां....

दो दिन पहले अचानक गाजियाबाद जाना पडा छोटे भाई को डेंगू का डंक लगा है मै घर से निकला और सिंहद्वार (जहाँ से दिल्ली-गाजियाबाद की बस मिलती है) पर बस की प्रतिक्षा करने लगा एकाध बस आयी भी लेकिन उनकी हालत देखकर बैठने की हिम्मत न हुई है मेरे दो मन हो रहे थे कि क्या तो वापिस घर चला जाऊँ और ट्रेन मे रिजर्वेशन होने पर जाने पर विचार करुँ या फिर किसी कार मे लिफ्ट मिल जाएं इस उधेडबुन में मन ही मन संकल्प करने लगा कि कार मे ही जाना है....इसी क्रम मे एक इनोवा कार आती दिखी तो मैने संकोच के साथ हाथ दे दिया उसने थोडी दूर जाकर गाडी रोक दी सामने की सीट पर एक सफारी सूट पहने लाला टाईप का इंसान बैठा था रुकते ही बोला कहाँ जाना है मैने कहा दिल्ली फिर उसने पूछा कि भाडा कितना दोगे मैने कहा 240 हालांकि बाद वापसी मे पता चला कि गाजियाबाद-हरिद्वार का बस का किराया 176 रुपये है...खैर नई इनोवा कार मे एसी में यात्रा करने की एवज़ मे मुझे 240 भी ज्यादा नही लगे।
कार मे बैठने के बाद मेरे अनुमान तंत्र ने काम करना शुरु कर दिया पहले मुझे लगा कि आगे की सीट पर बैठा शख्स गुजराती है शायद वाणिक बुद्धि के चलते लालच में मुझे बैठा भी लिया जब तक हमारे बीच मे मौन रहा तब तक रहस्य बना रहा उन्होने एक बार पूछा कि आप हरिद्वार मे क्या करते है मैने बता दिया कि एक विवि मे मास्टरी करता हूँ...गाजियाबाद तक मै प्राय:चुप रहा या एकाध अपने फोन रिसीव किए लेकिन आगे की सीट पर बैठे शख्स और ड्राईवर में यदा-कदा बात होती रही उनकी बातों मे मैने पहले तो कोई रुचि प्रदर्शित नही की लेकिन बाद मे मै खुद ब खुद उनकी बातचीत मे दिलचस्पी लेने लगा वजह साफ थी उनकी बातों में एक खास किस्म की दूनिया का जिक्र हो रहा था जो मेरे लिए अपरिहार्य किस्म की थी या यूँ कहिए कि अभिजात्य किस्म के लोगो की बतकही में मध्यमवर्गीय मन की रुचि पैदा हो जाना स्वाभाविक ही थी।
पहली बात तो मै यहाँ गलत हुआ कि आगे की सीट पर बैठा गुजराती व्यापारी है वह उस कार का मालिक नही था बल्कि वह कार के मालिक का वफादार सेवक (पीए टाईप ) था उस इनोवा कार का मालिक कोई मिलेनियर/बिलेनियर किस्म उद्योगपति था जो देहरादून में अपने बिजनेस के सिलसिले में आता-जाता रहता था वह भी प्लाईट से  कार तो उसके सेवक ही ले जाते है दिल्ली से देहरादून ताकि उसका जरुरी सामान ले जाया सके।
आगे की सीट पर बैठे पीए टाईप के शख्स और कार ड्राईवर की बातों से अमीर लोगो की दूनिया की कुछ रोचक बातें सुनने को मिली उसका सारांश इस प्रकार है---
1.      वो दोनो लोग किसी मिलेनियर/बिलेनियर किस्म के उद्योगपति के माहताहत काम करेंगे वाले कारिन्दे थे...उनके मालिक का बिजनेस आस्ट्रेलिया से लेकर स्पेन तक फैला हुआ है स्पेन की महारानी के साथ उनके व्यापारिक सम्बंध है वो अक्सर देश से बाहर ही रहते है। साहब अक्सर विदेश मे रहते है।
2.      उस बिजनेसमैने के बेटे ने सातवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली थी क्योंकि उसकी पत्नि उसकी जासूसी करती है उसे सन्देह था कि उसके किसी अन्य महिला से सम्बंध है वो उसके दोस्तों से पूछताछ करती थी कि यह ऑफिस न जाकर कहाँ घूमता है यह बात उसको नागवार गुजरी और उसने आत्महत्या कर ली...हालांकि उसके किसी हिमाचल की महिला से विवाहेत्तर सम्बंध थे यह बात पीए साहब ने बताई।
3.      बिजनेसमैने की पत्नि भी तुनकमिज़ाज़ ‘बुढिया’ है यह बात ड्राईवर ने बताई उसने बताया कि मैडम के ड्राईवर ने उसको बताया कि एक बार वह घर से नाराज़ होकर आधी रात को एयरपोर्ट चली गई थी।
4.      उनके साहब के पास प्राडो,ओडी,बीएमडब्ल्य़ू और मर्सडिज़ कारें है साहब को स्पीड से प्यार है यमुना एक्सप्रेस हाईवे पर प्राडो कार 240 किमी/घंटा ही दौड पायी इसलिए इससे नाखुश होकर साहब ने उसी दिन उसको बेचने का ऐलान कर दिया था फिर 1 करोड 56 लाख की ओडी विदेश से मंगवाई।
5.      बिहार मे किसी कार्यक्रम में वहाँ के एक मंत्री के साथ उनके साहब गए थे और मंत्री ने साहब की प्राडो कार मे ही बैठने की इच्छा व्यक्त की इसके बाद मंत्री और साहब को मिली पुलिस एस्कोर्ट पीछे छूट गई क्योंकि उनके पास केवल महिन्दा की जीप था और साहब अपनी प्राडो को दौडा रहे थे।
6.      साहब के यहाँ मंत्री/संत्री का आना जाना लगा रहता है साहब के रिश्तेदार भी रसूखदार लोग कोई सुप्रीमकोर्ट का सीनियर वकील है तो कोई किसी राज्य का एडवोकेट जनरल।
7.      साहब का देहरादून/मसूरी में कोई अभिजात्य किस्म का स्कूल भी है या फिर उनका कोई बच्चा पढता है (जैसा बातों से अनुमान लगा )
8.      साहब दरियादिल भी है अपनी किसी परिचित महिला के बेटो की शादी मे उन्होने उनकी बारात अपनी मर्सडिज़ गाडी मे निकलवाई थी।

..तो साहब इन सब बतकही के बीच मै गाजियाबाद पहूंच गया है बाहर से चमकीली दिखने वाली अमीरों की दूनिया मे भी काफी झोल होते है मुझे तब बशीर बद्र साहब का एक शे’र याद आ रहा था...
कुछ बडे लोगो की मरहूमियाँ न पूछ के बस
गरीब होने का अहसास अब नही होता....
हाँ एक बात मानवीय स्वभाव की जरुर लगी कि अमीर लोगो के सेवक भी भले ही हाई प्रोफाईल दिखते हो लेकिन उनके मन का लालच उन्हे हमेशा प्रभावित कर ही देता है तभी तो मेरे जैसे मुसाफिर को बडे लोगो की कार मे लिफ्ट मिल जाती है और आप सभी को सुनने को ऐसे अंजान किस्म की बतकही...। 

कभी आस्तिक कभी नास्तिक


कभी आस्तिक कभी नास्तिक

बचपन में जीवन की समस्याओं से लडने के लिए भगवान से बडा कोई सहारा नही होता है यह सिखाया गया था मेरी दादी जी खुद नित्यकर्म पूजा प्रकाश मे जीने वाली महिला रही है आज भी है प्रतिदिन घर के मन्दिर के मौजुद सभी देवी-देवताओं के दुध,गंगाजल,दही,शहद पंचामृत आदि से स्नान के बाद दुर्गा सप्तशती का पाठ और उसके उपरांत हवन करना उनकी पिछले पचास सालों की जीवनशैली का हिस्सा बना हुआ है। हमने जैसे होश सम्भाला उन्होने धार्मिक संस्कार के रुप में मेरे हाथ मे तुलसी की माला और दुर्गा सप्तशती की पुस्तक थमा दी थी वैसे तो अमूमन में किसान परिवारों में घर पर पुरुष लोग धार्मिक क्रियाकलापों से विलग ही रहते है लेकिन मेरी दादी जी 28 वर्ष की उम्र से वैधव्य भोगा है इसलिए उनके लिए सबसे बडा हारे का सहारा भगवान ही था उन्होने आजीवन संघर्ष किया आज भी कर रही है उन पर अलग से लिखूंगा किसी दिन। मेरे लिए सुबह स्नान के बाद ओम ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडाए विच्चै नम: इस बीज मंत्र की एक माला जपनी और उसके बाद दुर्गा सप्तशती का पाठ करना अनिवार्य था इसके बाद ही मै नाश्ता करता था आप शायद यकीन नही करेंगे मै बीए तक ऐसे ही धार्मिक और वेदपाठी बना रहा हर महीने पूर्णिमा का व्रत भी रखता था मेरे इस पांडित्य टाईप के जीवन के बारे में मेरे मित्र खुब मजाक किया करते थे लेकिन मै कोई प्रतिक्रिया न करते हुए इस भाव मे बना रहता है कि हे ! ईश्वर ये अज्ञानी है इनकी अपराध क्षमा करों ...मुझे बचपन का एक किस्सा याद है एक बार भैय्या दूज़ पर मै अपनी बुआ के यहाँ सहारनपुर गया वहाँ मैने सुबह उठते ही पूजा की इच्छा व्यक्त की उस वक्त मे 5 वी कक्षा मे पढता था मेरे इस कथन ने उनके पूरे परिवार मे कौतुहल और एक खास किस्म का मजाक का विषय बना दिया मै फिर भी डटा रहा और सबके बीच मे बैठकर पूजा की....।  
हमारे घर पर कर्मकांडी पंडितो द्वारा नियमित रुप पाठ वगैरह होते रहते थे उसमे भी संकल्प लेने वाला और प्रतिदिन पूजा अर्चना करने वाले घर के सदस्य के रुप में मै ही नामित रहा हूँ 10-12 दिन पाठ के बाद यज्ञ के बाद मुझे मुक्ति मिलती थी...वर्ष मे दोनों नवरात्री में मै व्रत रखता था...
और अब मै ना कोई पूजा करता हूँ ना कोई व्रत रखता हूँ ना कभी मन्दिर जाता हूँ इतवार और अन्य छूट्टी के दिन तो सुबह ही बिना कुल्ला-मंजन किए ही भोग लगा लेता हूँ धार्मिक कर्म सब काम पत्नि करती है। मेरे दादी जी के लिए भी मेरा यह परिमार्जित रुप कम आश्चर्य का विषय नही कई बार उन्होने मुझे नसीहत किया अब वो कुछ नही कहती है उन्हे लगता है कि शायद मै जो संघर्ष कर रहा हूँ उसकी एक वजह मेरा अधार्मिक होना भी है (वो मुझे नास्तिक नही मानती है) इसलिए रोजाना अपनी पूजा मे एक सुबह और एक शाम अतिरिक्त माला मेरे नाम से भी जपती है कि इस प्रार्थना के साथ हे ! प्रभु इस बच्चे के अपराध क्षमा करना यह अभी अज्ञानी है।
मै धार्मिक से लगभग नास्तिक कैसा बना इसका जिक्र किसी दूसरी पोस्ट में करुंगा....:)
ईश्वर मेरी मदद करें J