Sunday, October 20, 2013

एक किरदार ऐसा भी- 3


बातें गांव की----

एक किरदार ऐसा भी- 3

गांव के कुछ आम दिखने वाले किरदारों का जिक्र जब चल ही निकला है तब मेरे जेहन मे एक के बाद एक ऐसे किरदार सामने आ रहे है जो गांव की जीवनशैली और वहाँ के सामाजिक परिवेश के लिहाज़ से कोई खास नही रहे है लेकिन उनकी विशिष्टता उनके होने मे रही है वैसे तो हर शख्स के अन्दर कोई न कोई काबलियत होती ही है लेकिन अपने फन को अपने जीने की वजह बना लेने वाले शख्स विरले ही होते है आज एक ऐसे ही शख्स से आपका परिचय करवा रहा हूँ जो हमारे गांव का अजीब ही फनकार था।
वो शख्स जन्मांध था नाम था रमेश गांव के दलित परिवार मे उसका जन्म हुआ और गांव के लोग उसे रमेश अन्धा कहते थे हालांकि नाम के साथ अन्धा सम्बोधन कतिपय व्यंग्य के रुप मे नही था लेकिन गांव मे नाम के साथ बौंग (उपनाम) जोडने की आदत रहती है इसलिए उसके अन्धेपन की वजह से लोग उसको रमेश अन्धा कहते थे वो जन्मांध था लेकिन प्रकृति अपनी विकृति के साथ भी न्याय का नुक्ता लगा कर भेजती है यही नुक्ता दूनिया को फन नजर आने लगता है रमेश की कहानी भी ठीक ऐसी है जहाँ वह एक तरफ निपट अन्धता से पीडित था वही उसका सवेंदी तंत्र (सेंसेरी सिस्टम) सामान्य इंसान से कही गुना अधिक विकसित था उसकी कहानी आज के वक्त में डिस्कवरी जैसे चैनल के लिए डाक्यूमेंटरी फिल्म का विषय बन सकती थी। रमेश के पास परिवार के नाम पर केवल उसकी मां थी वो भी जल्दी ही उसका साथ छोड गई उसके बाद वह नितांत ही अकेला हो गया था गांव का ही एक दलित परिवार में उसके लिए दो वक्त की रोटी का प्रबंध करता था लेकिन रमेश कभी उस परिवार पर उस रुप मे निर्भर नही रहा कि वह अपनी विकलांगता के साथ निठल्ला पडा खाता रहे...रमेश एक प्रतिभाशाली इंसान था और उसने अपने विकसित संवेदी तंत्र को ही अपना फन बना लिया और इसी से उसकी रोजी,रोटी,बीडी और दारु आदि का प्रबंध हो जाया करता था। मुझे याद है वो गले में एक बस कडैंक्टर वाला काला बैग और कांधे पर एक प्लास्टिक की फोल्डिंग कुर्सी लटका कर सुबह सुबह गांव के बस स्टैंड पर आ जाता था मैने जब से होश सम्भाला उसको गांव के बस स्टैंड पर ही प्राईवेट बस के एजेंट के रुप मे काम करते पाया। गांव के बस स्टैंड पर वह प्राईवेट बस का एजेंट था वहाँ एजेंट का  मतलब प्राईवेट बस आपरेटर्स का एक प्रतिनिधि जो यांत्रियों को बस के समय से आने की/विलम्ब से आने या आखिरी गाडी की सूचना देता था वो गांव के बस स्टैंड का पूछताछ ब्यूरों था गांव मे आने वाले हर बस उसको रुपया दो रुपया देती थी वह गांव मे आने वाली बसों के कंडक्टर के लिए राह आसान करता था मसलन कंडक्टर को यात्रियों को इकट्टा नही करना पडता था एक जन्मांध इंसान के लिए देखने मे यह काम बेहद जटिल प्रतीत होता है लेकिन रमेश के लिए यह उतना ही सहज़ था जितना एक सामान्य इंसान के लिए यही उसकी प्रतिभा थी वह अंधा भले ही था लेकिन उसका फन देखिए कि वो दूर से आती गाडी का हार्न सुनकर बता देता था कि फलां नम्बर की बस आ रही है यही नही वह अनपढ होते हुए भी बस के पीछे नम्बर प्लेट पर हाथ फिरा कर बता देता था कि इस गाडी का नम्बर यह है...रमेश रुपये के नोट पर हाथ फिरा कर बता देता था कि यह इतने रुपये का  नोट है यह सब तो उसके विकसित संवेदी तंत्र का कमाल था जो उसकी अन्धेपन की वजह से विकसित हो गया था इसके अलावा जब कभी बस समय से पहले आ जाती थी तब वह बस मे अन्दर बैठ जाता  और बस की लोहे की बॉडी को पर अपने हाथ चलाता तथा उस निर्जीव टीन को गजब की ढोलक बना देता था फिर वो अपनी मस्ती में गाता उसके पास एक और कला थी वह मूंह से ब्रास बैंड की आवाज़ निकाल लेता था फिर ढोलक और ब्रास बैंड की जुगलबंदी मे गाकर शमां बांध देता था लेकिन स्वाभिमानी इतना था कि उसने कभी गाकर भीख नही मांगी....वह स्वांत सुखाए भाव से गाता था यात्रियों का मनोरंजन करता था उसके गाने के बाद कभी लोग खुश होकर दो चार रुपये दे देते थे और कभी नही भी देते थे लेकिन वह अपनी धुन मे मस्त गाता रहता था....गांव के बस स्टैंड पर जैसे ही बस आती वह एक सचेत उद्घोषक की भांति अपने बैग से निकाल कर सीटी बजाता और फिर एक खास शैली में लोगो को सूचित करता कि फलां-फलां जगह जाने वाले यात्री बस में बैठ जाएं....।
रमेश इसके अलावा मिमिक्री आर्टिस्ट भी था वह फिल्म अभिनेताओं से लेकर जंगली जानवरों तक की आवाज़ बखूबी निकाल लेता था उसका अपना एक अलग ही अन्दाज़-ए-ब्याँ हुआ करता था यह भी उसकी शख्सियत और फनकारी का बडा रोचक पहलू था। गांव के एक दलित परिवार से ताल्लुक रखने के बावजूद भी वह गांव के सभी वर्गो के लोगो के लिए स्नेह का पात्र था लोग-बाग उसके फन की कद्र करते थे।
गांव के बस स्टैंड की किस्सागोई और चहलपहल का एक बडा हिस्सा रमेशा हुआ करता था वो कई बार लोगो की फरमाईश पर भी गाना सुना देता था लेकिन ये सब उसके मूड पर निर्भर होता था अगर उसका मूड नही है तो वह साफ मना कर देता था उसकी साफगोई गजब की होती थी मुझे याद उस दौरान मेरे पिताजी गांव के प्रधान थे और उसने उन्हे ही वोट दी थी लेकिन मेरे पिताजी की कार्यशैली से रमेश थोडा नाखुश था शायद सुनी-सुनाई बातों सें उसे लगता था कि गांव के दलितों का जो भला पिताजी कर सकते थे वो नही कर रहे है एक बार मै बस स्टैंड पर खडा उससे बात करने लगा उसने साफ-साफ मुझे कह दिया उसने कितनी उम्मीद से मेरे पिताजी को वोट दी थी लेकिन अंतत: मेरे पिताजी भी दूसरों ग्राम प्रधानों की तरह ही निकले.....ऐसी थी रमेश की साफगोई...।
एकाध बार वो हमारी बैठक पर भी आया और मेरी फरमाईश पर भी उसने कुछ गाने सुनाएं उसकी मूंह से बैंड की आवाज़ निकालना और कुर्सी के हत्थे को ढोलक बना देने की कला गजब की थी। बस स्टैंड पर शाम तक उसके पास उसकी दिहाडी लायक पैसे जमा हो जाते थे फिर वह अपनी फोल्डिंग कुर्सी को फोल्ड कर अपने कंधे पर टांग अपने घर चला आता था...। जीवन के उत्तार्द्ध में शाम को प्राय: पव्वा पीने की लत ने उसको कमजोर कर दिया था वह एक समय ही खाना खाता था बस यही शराब रमेश की मौत की वजह बनी और सबका मनोरंजन करने वाला रमेश एक दिन चिरनिन्द्रा मे विलीन हो गया।
हमारे गांव का रमेश अंधा एक बहुमुखी प्रतिभा का धनी इंसान था जो जब तक जिया आत्मनिर्भर होकर और स्वाभिमान के साथ जिया वो फक्कड था मस्त था और अपनी ही धुन मे जीने वाला इंसान था वो जब तक जिया अपनी शर्तो के साथ जिया उसने कभी अपने शारीरिक दोष को कमजोरी के रुप में नही प्रस्तुत किया बल्कि वह अपने फन से वह सम्मान से जीने की कला जानता था यही वजह है कि आज भी गांव का बस स्टैंड रमेश की विसिल को बहुत शिद्दत से याद करता था खासकर मै....।

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