Saturday, October 26, 2013

देहाती मन के संकोच----

देहाती मन के संकोच----

मेरे हिसाब ये कहानी हर उस शख्स की है जो मेरी तरह से गांव-देहात से ताल्लुक रखता है और पढने या नौकरी के सिलसिले में कई साल पहले शहर आया था फिर वक्त और हालात ने ऐसी करवट ली कि शहर का ही होकर रह गया लेकिन उसके चित्त में गांव-देहात के संस्कार अभी तक शहरीकरण की प्रक्रिया में पूरी तरह से मृत नही हुए है उन्हे खुराक भी हम खुद ही देते है क्योंकि भले ही शहरीकरण की प्रक्रिया में हमारे रुपांतरण की भरसक कोशिसे जारी रहती है लेकिन फिर भी मन की प्रवृत्तियों का कुछ ऐसा हिस्सा जरुर है जो अभी तक बदल नही पाया है।
इससे कोई सन्देह नही है शहर की रंगीनयत हर देहात के आदमी के दिल में कौतुहल और आकर्षण पैदा करती रही है लेकिन पहले यह अस्थाई किस्म की होती थी मसलन गांव का आदमी शहर में आकर एकाध दिन बाद ही अपनी जडो की तरफ लौटने के लिए बैचेन हो उठता था आज भी बहुत से लोग ऐसे है जो शहरों में रहते है लेकिन जब भी गांव से उनके माता-पिता उनके पास कुछ दिन रहने के लिए आतें है तब कुछ दिन तो वो पोत्र-पोत्री मोह में शहर के दबडों में पडे रहते है लेकिन कुछ ही दिन बाद उनके मन में उच्चाटन पैदा हो जाता है क्योंकि उन्हे शहर में अपने वय का सामाजिक तंत्र नही मिल पाता है इसलिए वें कुछ दिन रहने के बाद जल्दी ही गांव लौट जाते है।
मेरे जैसे बहुत से देहाती लोगो को शहर के प्रति अजीब किस्म के मानसिक संकोच रहते है या यूँ समझ लीजिए अप्राप्य चीजें जब आपकी पहूंच में आ जाती है तो आप उन्हे स्वीकार करनें में काफी समय लेते और बहुत सी चीजें बाद तक भी स्वीकार नही कर पातें है। शहर के जीवन में एक गति है और यह गति यहाँ सभी के लिए अनिवार्य है यदि आप इस गति से कदमताल नही मिला पा रहे है तो फिर आप पिछडते ही जाएंगे और यह गति आपको बहुत सी चालाकियाँ सीखने के लिए भी बाध्य करती है यदि आपके मूल व्यवहार में हद दर्जे के व्यवहारिकता नही है या ये चालाकियाँ आपके अभ्यास का विषय नही है ऐसे में आप बहुत सी परिस्थितियों में असहज़ महसूस करते है। मै खुद अभी तक ये सारी बेशर्मी नही सीख पाया हूँ बेशर्मी इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि यह कुछ खास किस्म के पैतरें है जो आपके आधुनिक और समझदार होने के पैमाने समझे जाते है हालांकि परिस्थितियां भी आपको बहुत कुछ सिखा देती है।
गांव-देहात के मन का संकोच इस कदर हम पर हावी रहता है कि हम बेवजह की नैतिकता बोध के बोझ के तले दबे फिरते रहते है मै खुद का ही उदाहरण दे रहा हूँ पहले अक्सर ऐसा होता था कि यदि किसी ब्रांडेड कम्पनी के शो रुम में यदि मै अपने लिए कपडे या जूते खरीदने गया और सेल्समैन नें मुझे कपडे/जूते दिखाने शुरु किए अलबत्ता तो मै ज्यादा च्वाईस से देख ही नही पाता था क्योंकि मन ही मन यह ख्याल आता था कि ये क्या सोचेगा कि मैने इतना बडा ढेर लगवा लिया है लेकिन अगर ज्यादा आईटम निकलवा भी लिए तो मन ही मन इनमे से एक जरुर खरीदना है यह नैतिक दबाव मन पर इस कदर हावी होने लगता था कि ब्याँ नही किया जा सकता है मै शहरी कल्चर के हिसाब से आधा-एक घंटे शो रुम की एक-एक चीज़ देखने के बाद साफगोई से यह मना कर बाहर निकलने की मनस्थिति में नही होता था कि मुझे इनमें से एक भी पसन्द नही है मेरे लिए ज्यादा आईटम देखना खुद ब खुद एक नैतिक दबाव बनाता चला जाता कि मुझे यहाँ से कुछ न कुछ खरीदकर ही लौटना है वरना इन सेल्समैन या शो रुम के मालिक को बुरा लगेगा कि हमारा कितना समय भी बरबाद किया और लिया कुछ भी नही। मेरे जीवन में ऐसे दर्जनों उदाहरण है कि मैने बिना अपनी पसंद के कपडे-जूते महज़ इसी बिनाह पर खरीदें क्योंकि मुझे बेशर्मी से एक भी चीज़ पसन्द नही आयी यह कहना नही आता था मेरे लिए फिर सेल्समैन ही मेरी च्वाईस का निर्धारक बन जाता था मै अपनी ग्लानि दूर करने के लिए उससे ही पूछने लगता भाईसाहब आप ही बताओं कौन सा अच्छा लग रहा है और फिर जिसको वह रिकमंड कर देता है मै बैमन से उसको खरीद लाता क्योंकि क्योंकि किसी का समय खराब करकें मना करना मेरी फितरत मे नही था यह संकोच देहात के संस्कारों की ही उपज था जहाँ यह सब जन्म घूट्टी के साथ ही घोल कर पिलाया जाता था, हालांकि अब मैने मना करना सीख लिया है लेकिन फिर भी पूरी तरह से आज भी नही सीख पाया हूँ मेरे जैसे ग्राहक ऐसे भव्य शो रुम मालिकों के लिए बडे सोफ्ट टारगेट होते है जो समय भी कम लेते है और माल भी हर हाल मे खरीदकर ले जातें है अन्यथ शहरी लोग काउंटर पर सामान का ढेर लगवाने के बाद भी साफ मना करके विजयी भाव से निकल जाते है ऐसा मैने अक्सर देखा है।
गांव देहात का आदमी जब शहर मे आता है एक तरफ तो उसमे मन में शहर की चकाचौंध के प्रति आकर्षण होता है वही मन में ढेर सारे संकोच होते है जब मै शुरु में दिल्ली जाता था तब मन मे बडा ही भय लगता था ऐसा लगता था कि रोड पार करते समय सामने से आने वाली ब्लू लाईन/डीटीसी मुझे ही रोंदने के लिए आ रही है मै पता पूछने के मामलें भी बडा संकोची था एक बार किसी से पता पूछने के बाद उसे ही ब्रहम वाक्य मान लेता था फिर उसको किसी दूसरे से टैली करने का आत्मविश्वास नही जुटा पाता था अलबत्ता तो मेरी कोशिस यही रहती थी कि मुझे भले ही आटो से कई गुना पैसा देना पडे  लेकिन मै बस से न जाऊँ लेकिन अगर फिर भी मजबूरी मे जाना भी पडता तो बस मे सवार होते ही मेरी कोशिस होती कि कंडक्टर के पास वाली सीट मिल जाए ताकि उसका कहा जा सके कि भाई मुझे फलां जगह उतार देना ऐसा कई बार हुआ है कि बस में पीछे सीट खाली पडी है लेकिन मै नही बैठा अपने मानसिक भय की वजह से कंडक्टर के पास ही खडा रहा और कंडक्टर से आग्रह करने के लिए बडी मानसिक भूमिका बनानी पडती थी क्योंकि ऐसी बसों के कंडक्टर पहले से ही चिढचिडे किस्म के होते है। मेरे इस मानसिक संकोच का बहुत बार लाभ दिल्ली के ऑटो वालों ने उठाया है वो समझ जाते थे कि बंदा अंजान है इसलिए मांग लो अंट-शंट दाम.....ये बाद मे धक्के खाकर मौल-भाव करना आया वरना पहले तो यही मानता था कि ऑटो वालो के रेट एकदम वाजिब और फिक्स किस्म के होते है। आज भी कोशिस करता हूँ कि दिल्ली कम ही जाना पडे बस एक सुकून है दिल्ली में मेट्रो चलने के बाद मेरे जैसे देहाती जीव की राह थोडी आसान जरुर हो गई है।
एक और संकोच का जिक्र कर रहा हूँ अभिजात्य किस्म के कैफे या रेस्ट्रारेंट अक्सर लोगो के लिए मीटिंग पाईंट भी होते है। बारिस्ता,कोस्ता,कैफे कॉफी डे आधुनिक शहरी अड्डे है जहाँ लोग गप्पबाजी करते है शुरुवाती दिनों यहाँ जाने के लिए मुझे अपना काफी आत्मविश्वास इकट्टा करना पडता था क्योंकि वहाँ के अंगरेजीपरस्त माहौल में जाने के लिए एक खास किस्म का आत्मविश्वास चाहिए होता है अपने कुछ दोस्तों के आग्रह पर कई बार गया हूँ अलबत्ता तो मुझे कॉपी पसन्द नही है लेकिन फिर भी आधुनिक होने की यह भी एक अनिवार्य शर्त है कि आप चाय की बजाए कॉपी पसन्द करते हो जबकि देहाती जीव गांव मे केतली भर चाय पीने-पिलाने के आदी रहें है। बहरहाल ऐसी जगहों पर भी एक अजीब सा संकोच घेर लेता है पहले तो वेटर ही हमारी बॉडी लैंग्वेज़ से यह पहचान लेता है कि ये कोई दूसरे ग्रह का जीव है इसलिए वह नोटिस ही नही करता फिर उसको बुलाना पडता है  वो भी सुसरा ऐसी अंग्रेजी पेलता कि हम उससे नजरे चुराने लगते और मेन्यू कार्ड पर नजरे गडा देते और फिर हडबडी में प्राय: महंगी और कडवी स्वादहीन कॉफी आर्डर देते फिर तो वेटर के शक की पुष्टि ही हो जाती थी मै कई बार सोचता हूँ कि ये वेटर जब अकेले में आपस मे बातें करते होंगे तो ग्राहकों की वैरायटी के हिसाब से हम जैसे लोगो पर कैसा तब्सरा करते होंगे। इसके अलावा मै देखता हूँ शहरी लोग कम से कम खर्चे पर ऐसे अभिजात्य किस्म के कॉफी हाऊस में कई-कई घंटे गप्पबाजी में बिता देते है और हमारे जैसे देहाती जीव मुश्किल से एक घंटे बैठने के बाद सोचने लगते कि कुछ और आर्डर दिया जाए ताकि हमारा यहा ऐसे खाली बैठना कैफे हाऊस के मालिको/वेटरों को नागवार न गुजरें और हर घंटे के बाद कुछ न कुछ आर्डर देते ही रहते ऐसे में सबसे कम समय बिताने के बाद भी सबसे ज्यादा बिल पे करके हम बाहर निकलते है।
इसके अलावा शहर के मांगलिक आयोजनों में शगुन का लिफाफा देने की अनिवार्यता भी प्राय: पहले संकोच का विषय बनती थी क्योंकि हमने गांव में केवल लडकी के विवाह में कन्यादान देना सीखा था लेकिन शहर में ऐसा कोई आयोजन नही है जिसमे लिफाफा न चलता हो चाहे लडके की शादी हो,महूर्त हो,ग्रहप्रवेश हो,विवाह की वर्षगांठ हो, जन्मदिन हो कुछ भी हो आप खाली हाथ दावत उडाने नही पहूंच सकते है यहाँ धन प्रेम का प्रतीक है और लिफाफा लेने देने में भी एक अजीब सा दिखावी अभिनय देखने को मिलता है मसलन लेने वाला ऊपरी मन से मना करेगा न लेने के लिए हाथ पैर फैंकेगा लेकिन मन ही मन लेना भी चाहेगा फिर मित्रगण उसकी जेब में जबरदस्ती लिफाफा ठूंस देंगे इस प्रपंच में  ऐसा सीन क्रिएट होता है कि पूछिए मत....यह भी उतना ही सच है कि शहर मे लोग कोई आयोजन करने से पहले एक मोटे तौर पर यह अनुमान लगा लेते है कि इतना तो शगुन के लिफाफे से ही कैश बैक हो जाएगा....:) खैर ! मै परम्परा पर सवाल नही खडे कर रहा हूँ लेकिन लडकी के कन्यादान के अलावा हर जगह लिफाफा देने में मेरे जैसे जीव को आज भी संकोच होता है।
....तो साहब ये कुछ देहाती जीव के मानसिक संकोच है जो शहर मे एक दशक बिता देने के बाद भी पूरी तरह से खत्म नही हुए है हालांकि अब मैने भी चालाकियाँ सीख ली है क्योंकि यहाँ प्रासंगिक बने रहने के लिए ये सब जरुरी है लेकिन दिल अपना आज भी मुहल्ले के नुक्कड पर खडे चाट वाले की टिक्की-चाट पर आता है न कि मैकडॉनाल्ड के मैक वैज़ी पर.....।
शेष फिर....

डिस्कलेमर: यह लेखक की निजी व्यक्तित्व की कमजोरी भी हो सकती है देहात से आए सभी लोग ऐसा सोचते-समझते-जीते हो यह आवश्यक नही है।

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