Monday, October 28, 2013

मदिरा महात्म

प्राय: मदिरा विवेक हर लेती है इसमे कोई सन्देह नही है लेकिन सच तो यह भी उतना ही है कि मदिरा आदमी के चैतन्यता की परीक्षा भी लेती है सामान्य चेतना का व्यक्ति मदिरा की आसक्ति में अपना घर परिवार बीवी बच्चे और सम्पत्ति का क्षरण कर देता है जबकि चेतना सम्पन्न व्यक्ति के लिए यह पेय एक मूल चरित्र की तरफ लौटने और भावनात्मक विरेचन के रुप मे उपयोगी हो सकता है उसके लिए मदिरा कोई साध्य नही होती है अपितु एक साधन होती है जिसके प्रभाव में वो आवरण के बोझ से निकल कर उनमुक्त और अपने दिगम्बर मौलिक स्वरुप की यात्रा की अनुभूति करता है हालांकि नितांत ही रासायनिक प्रक्रिया होने की वजह से यह प्रभाव स्थाई नही होता है परंतु लोक साधना मे रत एक संघर्षरत इंसान के पास इतना सामाजिक साहस नही बचता है कि वह क्न्द्राओं मे एकांत सिद्ध हो सके। मदिरा वास्तव मे न प्रशंसा की चीज़ है और न ही आलोचना की इसकी आलोचना करने वाले भी अन्दर से डरे हुए लोग होते है जिन्हे भय होता है कि वे किसी भी पल कमजोर पड सकते है और मदिरा उनके लिए व्यसन बन सकते है युक्तिकरण करके वो भले ही इसे खारिज करते रहते हो परंतु उनके अन्दर भी चखने की एक आदिम चाह जिन्दा रहती है भले ही वो इसे सार्वजनिक रुप से स्वीकार न करें ऐसे भीरु लोगो के लिए मदिरा से परहेज करना ही श्रेष्ट है यह पेय उनके लिए नही बना है इसकी दिव्यता के बोध के लिए आत्मानुशासन की जरुरत पडती है अन्यथा यह आपको किस हद तक बरबाद कर सकती है उसकी कोई सीमा नही है।
इंसान की निजी कमजोरियों ने मदिरा का सार्वजनिक चरित्र इतना घृणास्पद बना दिया है हम प्राय: इसको खारिज़ करके ही सामाजिक रुप से 'भले' होने की स्वघोषणा करते है मेरे संज्ञान मे ऐसा भी नही है कि सभी मदिरा सेवी घोर किस्म के अराजक प्राणी हो बल्कि मुझे तो वो दिल के ज्यादा सच्चे लगे जो दोस्ती के नाम पर अपना मर्दाना अभिमान त्यागकर दो घूंट अन्दर जाते ही रोने लगते है दूनिया कहती है कि मदिरा रो रही है यह आदमी नही जबकि सच तो यह होता है वो आदमी रो रहा होता है बस हम पहचान नही पाते है और उपेक्षा भाव से उसकी खिल्ली भी उडाते है।
यह मनुष्य के सामान्य मनोविज्ञान पर काम करती है जब उसकी पीडाएं इतनी घनीभूत हो उठती है कि वह अन्दर से भर जाता है ऐसे में मदिरा उसको रिक्त करने का साधन है इसलिए मजदूर भी मदिरा का प्रेमी होता है और धनिक भी दो विरोधाभासों के बीच विवादों और धर्मग्रंथों/आध्यात्मवाद सबकी आलोचना झेलती हुई मदिरा का अस्तित्व समाज़ मे बरसों से बना हुआ है और शायद आगे भी बना रहेगा।

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