Monday, October 28, 2013

होली

होली हुडदंग है न कि शास्त्रीय मस्ती का उत्सव। गांव के बच्चें फिर् भी शालीन रहते है लेकिन शहर मे अभी से देख रहा हूँ बसों में तथा दो पहिया चालकों की कनपटिया गुब्बारों से पिट रही है शहरी हुडदंगी बच्चे इतने निरकुंश हो कर गुब्बारे मार रहे है कि वह किसी को किस स्तर का नुकसान पहूंचा सकता है इसकी कोई न उन्हे कोई फिक्र है और न तमीज़..। माफ कीजिए बच्चों को शरारत और मस्ती के नाम पर मै ऐसी छूट देने के पक्ष में कतई नही हूँ जिससे बस के यात्री शहर में आने से पहले ही बेचारे आतंकित हो जाएं कि कब कहाँ कैसे गुब्बारा उनकी कनपटी लाल कर देगा।
अब गांव का किस्सा, गांव में मजाक का सात्विक स्वरुप लगभग दो पीढी पहले ही बात है जब लोग दिल के सच्चे और जबान के पक्के हुआ करते थे वर्तमान में होली गांव के ऐसे निठल्ले अधेड युवाओं के लिए दारुबाजी और फिर अपनी स्त्री देह को स्पृश करने आदिम इच्छा तथा यौन कुंठाओं को आरोपित का त्यौहार है जिसमें वें इस मस्ती के नाम पर मुहल्ले भर की भाभीयों को न केवल तंग करते है बल्कि बलात रंग से गाल लाल करके अपने पुरुषवादी चेहरे को पुरस्कृत करते हैं।
मथुरा,वंदावन की फूलो की होली या लठ्ठमार होली से भी कोई उदाहरण तय नही किया जा सकता है क्योंकि वह केवल वही तक सीमित है। सच तो यह है कि पुरुषों के निरंकुश और अराजक होने आदिम प्रवृत्ति को अप्रत्यक्ष रुप से पोषित करता है यह होली का त्यौहार जिसको जब भी ,जैसे भी, अवसर मिलें वह अपने प्रभुत्व और कुंठाओं को आप पर आरोपित करके मानसिक सुख लेना चाहता है और नाम दे देता है त्यौहारी मस्ती का।
रहा होगा कभी सौम्य,सात्विक स्वरुप जिसमें हास-परिहास हुआ करता होगा एक गरिमा हुआ करती होगी लेकिन इस दौर की होली देखकर तो यही जी करता है अब बुरा ही मानकर काम चलेगा वो जुमला अब अप्रासंगिक हो गया है बुरा न मानो होली है !
(होली के दिन गांवों में पार्टीबाजी के चलते कितनी ह्त्याएं होती है पुलिस कैसे अतिसम्वेदनशील गांव को लेकर चौकन्नी रहती है उसका जिक्र नही कर रहा हूँ वरना आपकी होली का मजा खराब हो जायेगा लेकिन वो भी एक बडा कडवा सच है)

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