Sunday, October 20, 2013

बैंड बाजा बारात......

बातें गाँव देहात की-----

बैंड बाजा बारात......

अब गाँव में भी बैंड की जगह डीजे ले रहे है वहां छोटे वाहनों पर डीजे का सिस्टम चलता है और युवा धड़कने उस पर झूमती है लेकिन एक दौर वह भी था जब बैंड का अपना एक अलग रूतबा होता था और कुछ खास बैंड आपकी हैसियत भी तय करते थे मसलन उनको एफोर्ड करना सबके बस की बात नही होती थी हमारे पड़ोस के गाँव गढ़ी अब्दुल्ला का बैंड भी जिले भर में मशहूर था उस दौर में भी उनके पास ठेली हुआ करती थी मुजफ्फरनगर में मीरापुर का भी बैंड बेहद मशहूर रहा है उनके पास कैसिओ का कीबोर्ड भी हुआ करता था..गाँव की बारात में एक जिम्मेदार शख्स की मौजूदगी अनिवार्य होती थी जो बारात के मस्ती में चूर युवाओ को धमका कर बारात को आगे ले जा सके क्योंकि युवाओं की जिद ज्यादा देर डांस करने की होती थी ऐसे में ठेली खींचने वाले शख्स की बड़ी मुसीबत होती थी वो आगे बढे और मय में डूबे दुल्हे के दोस्त ठेली को उतना ही पीछे धकेल देते थे ऐसे में उस जिम्मेदार शख्स का आदेश ही काम आता है उन दिनों रिश्तों की लिहाज़ भी होती थी अपने बाप से ज्यादा डर ताऊ से लगा करता था इसलिए कोई भी पीकर कम से कम अपने ताऊ के सामने नही पड़ता था...चाचा का रिश्ता दोस्तनुमा ही होता था.और पीने का काम भी बेहद गोपनीय होता था आज की तरह बियर की भी सामजिक स्वीकृति नही होती थी.
बारात में ऐसे ताऊ टाइप के लोग किसी खलनायक से कम नही होते थे लेकिन सब एक सिस्टम का हिस्सा होता था जहाँ नाचने वाले को भी पता होता था कि वो शादी ब्याह के नाम पर कितनी छुट ले सकता है. गाँव में बैंड के सामने नाचने वाले भी बहुत शरमा कर खुल पाते थे कुछ ही ऐसे होते जो शुरू से लेकर आखिर तक डांस में मस्त रहते थे और जो खुलकर नाच रहा होता था उसके बारे में सब की ये एक ही राय बनती थी कि इसने सोमरस का पान किया हुआ है. बारात में नाचने कि एक प्रेरणा और भी होती थी जिस गाँव बारात जाती थी उस गाँव में छतो पर बहुएं और लड़कियां बारात देखने आती थी वे भी नाचते हुए बांको को देखती और नाचने वाले बांके भी उन्हें देख कर खूब नाचते हालंकि उसमे कोई बेहूदगी की गूंजाइश बेहद कम कम ही होती थी सब सब गतिशील रहता दुल्हे का आगे नाचने वाले नाचते जाते और बारात आगे बढती जाती बस छतो पर चेहरे बदल जाते.
आज तो दूल्हा भी नाच लेता है और उसके दोस्त उसको नचा लेते है लेकिन गाँव में दुल्हे का नाचना ठीक नही माना जाता था उससे गंभीरता की ही अपेक्षा की जाती थी..इसलिए मेरे दौर के दोस्त अपने दुल्हे बने दोस्त को नाचने का आग्रह भी नहीं करते थे...बैंड में झूँन झूना बजाने वाले की भी बड़ी मुसीबत रहती थी कोई भी मस्ती में चूर नाचने वाला उसके हाथ से छीन कर खुद बजाने लगता ऐसे में बैंड कि रिदम भी बिगड़ जाती थी फिर बैंड मास्टर गाना बीच में रोक कर दूसरा गाना शुरू करता...ठेली पर चढ़े गायक की भी कम मुसीबत नही होती थी उसकी कुछ उपद्रवी किस्म के बाराती फरमाईश के नाम पर उसकी जान निकाल लेते थे कई बार उसको वो गाना गाने के लिए कहते जो उसको याद भी न हो ऐसे शराबी दोस्तों से बचना उसके लिए मुश्किल काम होता था.
और बैंड में शेष नाग के जैसे बड़े भोंपू कंधे पर लादे दो बुजुर्ग जरुर होते थे जो कभी कभार ही फूंक मारते थे और इसी में उनकी सांस फूल जाती थी फिर वो बीडी पीकर दम भरते थे...बारात में नाचने वाले हर शख्स का चरित्र सामंती होता था वो ईनाम में दस रुपए में बैंड मास्टर को तरसा तरसा कर देता था कई बार उस पर गर्दन मटकवाने के बाद ही उसके हाथ से दस का नोट छूटता था. बैंड मास्टर भी उनकी ये चाल और चेहरा अच्छी तरह से जानता था इसलिए वो भी इस दांव में रहता कि कैसे एक ही बार में ईनाम के दस रूपये झटक लूं.
एक और मजेदार बात होती थी लड़के की शादी में शादी के दिन से पहले चाचा ताऊ एक बार जरुर नाराज़ होते थे कि हमारी रिश्ते में पूछ प्रतीति नही हुई और उनको फूफा मना कर लाते थे इस बिनाह पर कि हम तो आपके भी मेहमान है और वो मान भी जाते थे उसके बाद उस शादी में लड़के का बाप आराम करता था और चाचा ताऊ जमकर मेजबानी करते लेकिन इस मान मुनव्वल की कीमत फूफा नाम का प्राणी भी खूब वसूलता था वो फिर पूरी शादी में वीवीआईपी किस्म का ट्रीटमेंट और प्रोटोकाल लेता था.
तो साहब ऐसी होती थी गाँव कि शादियाँ....अब धीरे धीरे वहां भी बदलाव कि बयार बह रही है...इससे पहले शादी नाम के इस आयोजन का नगरीकरण हो जाए क्या बुरा है जो मेरे जैसा निठल्ला आदमी उसकी किस्सागोई आपके साथ कर ले....
शेष फिर.....

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