Monday, October 28, 2013

दुविधा

जिस विश्वविद्यालय में मैं पिछले छह सालों से बतौर एडहोक़ मास्टर पढ़ा रहा हूँ वहां इन दिनों एडमिशन चल रहे होते हैं साइंस फैकल्टी में एडमिशन की ज्यादा मारामारी रहती है इसलिए मेरे गाँव और रिश्तेदारी निकाल कर आए लोगो के लिए मै बड़ा सहारा नजर आता हूँ वो चाहते हैं कि मै कुलपति की माफिक उनकी मदद करु भले ही उनका बच्चा मेरिट में भी ना आया हो लेकिन एडमिशन करवा दूं मै उनकी दिल से मदद करना भी चाहता हूँ लेकिन उनको यह समझाना बेहद मुश्किल काम है कि अलबत्ता तो मेरे जैसे कृपापात्री अस्थाई मास्टर की विश्वविद्यालय में कोई निजि हैसियत नही होती है फिर मामला साइंस फैकल्टी से जुड़ा होता है वहां के तो बाबू भी इतने रूखे किस्म के होते है कि पूछिए मत जब आप अपने परिचित का फोर्म हाथ में लेकर उनके कान में बुदबुदाते हैं कि मै फलाँ विभाग में एड्होक हूँ तो वो ऐसी हिकारत से देखते है कि साथ खड़े परिचित के सामने ही इज्जत का फालूदा बन जाता है बड़ी असहज स्थिति होती हैं साहब उसके बाद जो सिफारिश के लिए हमें तलाश कर आया होता है उसके असहज होने का नम्बर आता है वो खिसिया कर अजीब अजीब बातें बोलता हैं फिर उसकी गलतफहमी दूर होती हैं कि सहाब प्रोफेसर नही है एक टम्प्रेरी मास्टर हैं जो अपना टाईम पास कर रहा है बेचारा जबकि गाँव में घरवाले बड़े फख्र से बताते है कि हमारा लडका यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर है। इस परीक्षा काल में विवि के कुछेक चपराशि जरुर काम आते हैं जो अपने संपर्को का प्रयोग एडमिशन में मदद के लिए करते हैं उनका भाईचारा हमेशा काम आता है।

No comments:

Post a Comment