मैने उन
लोगो की बात कर रहा हूँ जो मेरी पीढी के है और गांव से शहर में पहले पढाई और बाद
में कामकाज़ के सिलसिले में बस गए है आज भी शहर मे रहने के बावजूद अपनी जीवन शैली
मे देहात का दखल इतना बना हुआ है कि हम खुद को शहर की जीवन शैली के अनुकूल नही ढाल
पाए हैं यह कोई गर्व या आत्मप्रशंसा की भी बात नही है प्रत्येक जीवनशैली और
रहन-सहन की अपनी एक मौलिकता होती है इसलिए मेरा मंतव्य किसी को बेहतर या किसी को
कमतर आंकना नही है लेकिन जो कशमकश से मेरा जैसा जीव रोज़ रुबरु होता है (हो सकता है
एकाध और भी निकल जाए) वो अपने आप में अजीब ही है। मसलन आज भी मेरी जीवनशैली में
खान-पान के रुप में फल स्थान नही बना पायें हैं आज भी फल खरीदने के लिए आंतरिक
प्रेरणा का नितांत ही अभाव पाता हूँ ऐसा नही है कोई आर्थिक अचडने हो लेकिन रोजाना
घर लौटते समय फलों की ठेलियों के पास से अजीब से अन्यमयस्क मन:स्थिति से गुजर जाता
हूँ कई बार ऐसा भी हुआ कि मैने बाईक के ब्रेक मारे और ठेली वाले ने आशा भरी निगाह
से मेरी तरफ देखा भी लेकिन फिर इरादा बदल गया और मै चल दिया....आज भी घर मे रोजाना
फल खरीदना या घर मे हमेशा फल रखे रहना अपनी आदत मे शामिल नही हो पाया है जबकि अपने
कुछ दोस्तों के यहाँ देखता हूँ कि बारह मास उनके यहाँ फल मिलेगा फल के प्रति
आकर्षण न होने वजह की पडताल करने के लिए मै देहात के बचपन मे लौटने की कोशिस करता
हूँ तब वहाँ पाता हूँ कि वहाँ भी हमारे बाप-परदादा बाजार से शायद ही कभी फल खरीद
कर लाते हो सब्जियाँ भी अक्सर खुद के ही खेत में या गांव मे उपलब्ध हो जाती
थी...घर पर एकमात्र लोक स्वीकृति प्राप्त और प्राप्य फल था केला...गांव के जीवन
में केला एक ऐसा फल है जो मामाओं और फूफाओं के पल्ले ऐसे बंधे था जैसे चोली-दामन
का साथ हो...उनका गांव मे जब भी आना होता
था तब उनके हाथ में स्थाई रुप से काली पॉलीथीन में दर्जन भर केले होना अनिवार्य
होता था अन्यथा उनकी मेहमान के रुप में बच्चो के द्वारा स्वीकृति संदिग्ध हुआ करती
थी...उस दौर मे शायद केले के विक्रेताओं नें भी काली पॉलीथीन उन केला-पिपासु
बच्चों के भय से चुनी होगी ताकि उनका खरीददार सुरक्षित रुप से अपने फल
रिश्तेंदारों के घर पहूंचा सकें...कई बार तो मुहल्ले के बच्चे बाहर से हे मामा
जी.....फूफाजी कहकर आगुंतक मेहमान कर चिपट जाते थे और गर्दन हिलाकर नमस्तें ठोकनें
के बाद सीधे नजर केलो की पन्नी पर पडती और बाहर से केलों का भोग लगना शुरु हो जाता
गांव में कुछ ऐसे भी किस्से मशहूर रहें है कि मेहमान किसी और का और केलों की पन्नी
पडौसी के बच्चें ले उडें.....खैर....इसलिए केला ही एक मात्र एक फल ऐसा है जो हमने
बचपन मे खाया वह भी खरीदकर नही इसलिए केला खरीदना हमने सीखा ही नही बल्कि फ्री का
केला खाना आज भी पसन्द है यदि घर पर मिल जाएं बस खरीदकर लाना न पडे... आज भी मुझे
वह दिन याद है जब हम पूजा में रखे केले चुपचाप उठाकर निकल लेते थे और भगवान बिना
भोग के रहते थे।
इसलिए
आज भी फल खरीदने का अभ्यास विकसित नही हो पाया है हाँ कभी-कभी अपनी इस कमी के
प्रतिपूर्ति के हम जिद में इतने भी फल खरीद लाते है कि वो खाने से पहले सड जाते है
या फिर गैर मौसमी फल खरीदकर अपनी इस आदत को सांत्वना देने की कोशिस करते है....खैर
कुल मिलाकर बच्चों को फल जरुर खिलाने चाहिए अन्यथा वो कल हमारी तरह से फलों के
बारे असामान्य दृष्टिकोण लेकर बडे होंगे.... !
फल के
अलावा यही स्थिति जूस पीने की भी है मै अपने अधिकांश दोस्तों को देखता हूँ वो जूस
भी अनिवार्य रुप से पीते है जबकि मेरा हलक जूस पीने के मामलें भी सूख जाता है इसकी
बनस्पित मुझे लस्सी पीना ज्यादा पसन्द है साथ ही कोल्ड ड्रिंक भी पी लेता हूँ
क्योंकि बचपन में दो रुपये की सोडा वाटर (कंचे वाली) अपने लिए बडे आकर्षण की चीज़
थी उसमे भी मसाला (काला नमक) का बफर बनाकर पिया करते थे हालांकि घर वालो की तरफ से
उसकी भी मनाही थी लेकिन फिर हम पैसे जोड कर बनिए के यहाँ पहूंच जाते थे और वह बोरी
मे बर्फ के बीच से सोडा वाटर की बोतल देता था और वो नमक डालने के बाद जो उबलती थी
फिर उसकी एक बून्द भी बर्बाद न होने देने की चुनौति गजब के तनाव से भर देती
थी....और यदा-कदा सोडे का उफान नाक से भी निकलता था....क्या दिन थे वो भी...।
इसलिए
आज भी आकर्षण के रुप में सोडा युक्त पेय मन और शरीर को स्वीकार्य है लेकिन जूस नही
जबकि यह भी जानता हूँ कि जूस फायदेमंद है और फल खरीदने के लिए जन्मजात और पैतृक
रुप से अभिप्रेरणा का स्थाई अभाव अक्सर महसूस करता हूँ ऐसा भी नही है मेरे घर पर
फल नही खरीदे जाते है मै भी फल खरीदता हूँ लेकिन तब जब मुझ पर मेरा देहाती मन हावी
न हो और मै तब बच्चो के पोषण या पत्नि के व्रत की फिकर में फलों को खरीद कर घर
लाता हूँ...।
है न
बडी अजीब,असामान्य और थोडी रोचक दास्तान...
डिसक्लेमर:
यह पोस्ट नितांत ही मेरे व्यक्तिगत मत/जीवनशैली का समर्थन करती है इसका सर्वमान्य
होना संदिग्ध है और न ही ऐसा करना लेखक का उद्देश्य है।
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