Sunday, October 20, 2013

मेरे दोस्त....


मेरे दोस्त....

लोग बुरे है कि आप खुद इतनी बुराई से लबरेज़ है कि आपको अच्छाई दिखाई नही देती है या फिर आप स्याह पक्ष देखने के आदी है। आपको अपनी गति भी जांचनी चाहिए कि आप वक्त से पीछे है या वक्त से आगे ऐसा भी हो सकता है कि वक्त के समानांतर होते हुए भी आप पिछडने का स्वांग रच रहे हो आपका नितांत ही निजी सच क्या है ये आपसे बेहतर कौन जान सकता है वैसे आपका सच भी रोज़ बदलता रहता है जो कभी आपको दिव्य होकर लोक की मृगमरीचिकाओं से मुक्त होने का बोध करा देता है तो कभी आपकी भावुकता आपको  लौकिक अपेक्षाओं का इस कदर दास बना देती है कि आप स्वयं के लिए सांत्वनाएं तलाशने और अपनी छ्द्म बौद्धिकता को लोक पर आरोपित करने मे ही अपनी सारी ऊर्जा लगा देते है।
दिन भर के छ्द्म बौद्धिक उपक्रमों का ईमानदारी से विश्लेषण करें तो आप पायेंगे कि आपके सारे प्रयास अपने अर्जित ज्ञान को विशेषीकृत ढंग से प्रस्तुत करने के होते है जिससे आप खुद को भीड से अलग घोषित कर सके आपको लगता है कि आपने जो जाना समझा और सीखा है  वह किन्ही अर्थों मे यूनिक है इसलिए आप जिद पर उतर आते है अपनी बात को स्वीकार कराने के लिए यह एक प्रकार की मनोदशा या इसे मनोविकार भी कहा जा सकता है जिसमें आप अपने होने की वजह अपने आस-पास की बौद्धिक स्वीकृति में तलाशते है।
सच तो यह भी है कि आप अन्दर से एक पराजित चेतना है हालांकि पराजित शब्द उसके लिए उपयुक्त लगता है जो कम से कम युद्ध मे तो उतरा हो आपने तो युद्ध न करने के लिए जो अपनी युक्ति विकसित की है उसे देखकर तो मुझे आपको पराजित कहना भी ठीक नही लग रहा है आपको बोध है कि आपके लिए युद्ध अनिवार्य है आप अपने लडने के क्रम को स्थगित कर सकते है लेकिन उसको समाप्त नही कर सकते इसलिए कायर न होने का दम्भ आपको युद्ध भूमि के इर्द-गिर्द घूमने के लिए बाध्य करता है लेकिन विशुद्ध रुप से आप अपने आत्म के साथ एक पलायनवादी चेतना है जो बुद्धि के कौशल से अपनी अकर्मण्यता और भीरुता को भी युक्तियों के माध्यम इस तरह प्रस्तुत करते है कि सुनने पढने वाले को आपसे रश्क हो जाता है उसे आप संघर्षरत योद्धा लगने लगते है आप अवचेतन में अपने इस प्रतीत करवाने की प्रवृत्ति से रोज लडते है बस यही आपका मानस युद्ध है जो खुद से रोज़ चलता है।
शब्द विलास मे माहिर होने की वजह से आपके आसपास एक ऐसा माहौल पैदा हो गया है जहाँ आप नायक है और कई लोगो के लिए प्रेरणा के केन्द्र भी लेकिन इन अपेक्षाओं के बोझ तले आपको अपने अस्तित्व को टटोलने वाले सवाल जब भी परेशान करते है तब आप नीरस,शुष्क और प्राय: कठोर हो जाते हो आत्म आलोचक बन जाते हो अपनी तरफ तेजी से करीब आती दूनिया के लिए एक झट से दीवार खडी कर देते हो क्योंकि तुम्हे पता है निकटता से तुम्हारे असामान्य जीवन की सच्चाई ज्यादा दिन छिप न सकेगी इसलिए भीड से दूर एकांत मे भागते हो लेकिन एकांत का भी अभ्यास नही है क्योंकि तुम ध्यानी नही हो इसलिए वहाँ का अकेलापन सताता है फिर अपने आसपास एक ऐसा वर्ग खडा करते हो जो तुम्हारी उलझी हुई जिन्दगी मे दिलचस्पी रखता है जिसके लिए तुम्हारे लिखे शब्द कई बार अभिप्रेरणा या दर्शन का बोध कराते है।
लक्ष्य,फोकस,संसाधन भविष्य का संभावित खतरा कुछ भी स्पष्ट रुप से समझ मे नही आता है या तुम समझना नही चाहते हो इसलिए इन सबको साधिकार विस्मृत करके आप अतीत उन किस्सों मे खो जाते है जहाँ से आपको अपने विशिष्ठ होने का बल मिलता है या फिर कलयुग मे चमत्कार की उम्मीद में आत्मसांत्वना देने लगते हो लेकिन मेरे दोस्त विशिष्ठ होने के लिए महज़ दर्शन की चासनी में लिपटी बौद्धिक जुगाली या अभिव्यक्ति की चालाकी से काम नही चलता है विशिष्ठ होने के लिए खुद को स्वाहा करना पडता है उसके बाद आपका व्यक्तित्व खुद प्रवाचक बन जाता है और आप मौन हो जाते है जब तक आप इसके उलट जीवन जी रहे हो समझ लो तब तक आप अपने मार्ग से विलग हो और ऐसी मृगमरीचिका के व्यामोह में पडे हो जो निश्चित रुप से तुम्हे बर्बाद करके ही दम लेगी अभी भी वक्त है संभल सकते हो तो संभल जाओ मेरे दोस्त....!

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