Monday, August 28, 2017

#सुनो_ मनोरमा-5

आज सुबह से बारिश है. सुबह की बारिश में जब आँख खुलती है तो मेरी स्मृतियाँ मेरा थोड़ा साथ छोड़ना शुरू कर देती है फिर मैं खुद एकत्रित करता हूँ और कुछ करवटों के सहारे फिर से याद करने की कोशिश करता हूँ. मैं थोड़ा बदल गया हूँ पहले मैं बारिशों को कुछ इस तरह से याद रखता था कि हर बारिश के साथ मेरे पास एक किस्सा हुआ करता था अब मेरे पास केवल बारिश है. कई बार मेरा दिल तुमसे जुड़ी मेरी कुछ नाराजगियों को जोडकर देखना शुरू कर देता है मगर फिर भी मैं किसी निष्कर्ष पर नही पहुंच पाता हूँ, इसलिए मुझे तुमसे कोई शिकायत नही है. मैं इतना जरुर करता हूँ कि बारिश में अपनी कुछ शिकायतों की कागज़ की तरह तह बनाता हूँ उसे एक नाव की शक्ल दे देता हूँ उसके बाद मन के पतनाले के ठीक नीचे उसे अकेला छोड़ देता हूँ वो थोड़ी देर डोलती है फिर धीरे-धीरे बहती हुई दृश्य से ओझल हो जाती है.
मैं थोड़ी देर से आँख बंद करके पड़ा हुआ हूँ बारिश मेरे कान में आकर कुछ कहती है मगर मेरी आँख बंद है इसलिए मेरे कान की दिलचस्पी बारिश में बढ़ गयी है. बारिश मेरे कान पर पर सूखते हुए तुम्हारे स्पर्श देखती है मगर वो उनके लिए खुद एक छाता तान देती है बारिश तक नही चाहती कि नमी या तरलता के किसी आवेग में वो स्पर्श बह जाए मेरा कान यह देखकर थोड़ी हैरत में मगर मेरा नाक बारिश की इस कृपा के पीछे के कारण को ठीक से समझता है. आँख बंद करके जब मैं यह सब देख रहा हूँ फिर ऐसे में  बारिश को देखने के लिए मेरे पास न वक्त बचता है और मैं बहुत उत्साहित ही महसूस करता हूँ. हालांकि यह बात बारिश को खराब लगती है.
कल शाम मैं जब लौट रहा था मुझे रास्ते में एक आदमी मिला देखने में मुझे वो कोई यात्री लगा क्योंकि उसके पास सवाल बहुत थे. उसके सवालों की तुलना में मेरे पास जवाब कम थे मगर मैंने उसके सामने ऐसा प्रतीत नही होने दिया और उसके सवालों के बदलें उससे सवाल करने लगा. यह भी जवाबों से बचने का एक तरीका है जो मैंने कभी तुमसे सीखा था कल इस तरह से मैंने तुम्हें याद भी किया. मैं अपने मन की इस चालाकी पर बहुत मुग्ध तो नही था क्योंकि इसके कारण यात्री थोड़ा भ्रमित हो गया था. किसी यात्री को भ्रम में डालने की दुविधा से मैं काफी देर तक परेशान भी रहा हालांकि मैं उसको जाते वक्त यह कहा कि मेरी बात को अंतिम सत्य मत मानना मेरे पास केवल अनुमान है इसलिए जब भी कोई निर्णय करना तो अपने विवेक का जरुर प्रयोग करना.
जाते-जाते उसनें मुझे एक बात पूछी कि क्या कल बारिश होने की संभावना है? मैंने कहा बारिश के बारें में मेरे अनुमान प्राय: गलत साबित होती है इसलिए कुछ पक्का नही कह सकता हूँ मगर इतना जरुर है जिस दिन रात को आसमान को अच्छी नींद आती है उस दिन सुबह बारिश जरुर होती है वो मेरी इस काव्यात्मक बात पर हंसा मगर अच्छी बात है उसके फिर कोई सवाल नही किया.
शायद रात भर आसमान सोता रहा और बादलों ने अपने षड्यंत्रों से बूंदों को धरती के पास भेजने के लिए राजी कर लिया इसलिए सुबह से लगातार बारिश हो रही है. रह-रह कर बादल भी गरज रहे है मगर मैं इसे बादलों की गुस्ताखी समझता हूँ जब बूंदे धरती पर फिर बिखर रही होती है बादलों को आदर से उनको देखना चाहिए बादलों का शोर बूंदों के उत्सव में एक अवांछित बाधा है. बादल मुझे कम पसंद करते है इसलिए इस बार उन्होंने मेरी डाक जान बूझकर गुम कर दी है. जब बारिश एक पास तुम्हारी चिट्ठियाँ ही नही है तो मैं जागकर भी क्या करूंगा.
फिलहाल सोने जा रहा हूँ फिर से जानता हूँ सुबह की बारिश को यह बात अच्छी लगेगी मगर तुम्हें अच्छी नही लगेगी. आजकल मैं वही सब कर रहा हूँ जो तुम्हें अच्छा नही लगता है. न जाने क्यों?


Sunday, August 27, 2017

#सुनो_मनोरमा -4

कुछ  फूल तुम्हारे लिए लाया था. इन फूलों के शायद कुछ वैज्ञानिक नाम भी तय किए गये हो मगर मैं इन्हें इनके नाम नही जानता हूँ. मैं इन्हें केवल इनकी गन्ध से जानता हूँ तुम शायद इन्हें इनके रंग भेद से भी जान सकोगी. रंगो को लेकर मेरा बोध थोड़ा कमजोर किस्म का है मेरे पास कुछ अलग अलग किस्म की गंध जरुर संरक्षित है जिन्हें मैं पहचान सकता हूँ.

जब मैं लौट रहा था ये फूल मुझे पत्तियों के पर अटके हुए मिले तब मैंने यह जाना कि फूल हमेशा धरती ही नही चाहता है वो कभी कभी हवा का तिरस्कार करता हुआ मध्य में रहना चाहता है इसलिए मुझे ये फूल पसंद आए मैं इनके एकांत को भंग करने का दोषी जरुर हूँ मगर मुझे पूरी उम्मीद है ये तुम्हारे एकांत के सच्चे साथी जरुर बनेंगे.

कल मुझे शाम को ऐसा लगा कि आज शाम कुछ जल्दी खत्म होने वाली है इसलिए मैंने हांफकर भागते हुए सूरज का एक फोटो खींच लिया फोटो हालांकि उतना अच्छा नही आया मगर मेरी इस हरकत से शाम को मुझ  पर थोड़ा प्यार जरुर आया ये बात मुझे सबसे पहले दिखे तारे ने हंसते-हसंते बताई. उसके बाद मैंने उसकी हंसी का अलग अलग भाषाओं में अनुवाद किया और मैंने उसको वादा किया कि मैं एक ऐसी लिपि विकसित करूंगा जिसको सिर्फ वो पढ़ सकेगा. तारे ने मुझसे कहा नही उसे भाषा में कूटनीति नही चाहिए इसलिए उसने कहा कि वो मेरे अनुवाद से खुश है. इसके बाद रात आ गई और हमारी बातें अँधेरे की ओट में छिपकर सोने चली गई.

मेरे पास कुछ छोटे-छोटे पत्थर के टुकड़े है मुझे उनके आकार ने आकर्षित किया तो मैंने उन्हें अपनी जेब में भर लिया मगर थोड़ी ही देर बाद मुझे उनका बोझ थोड़ा भारी लगने लगा उसके बाद मैंने उनको एक एक करके आसमान में उछाल दिया वो सब अलग अलग जगह पर गिरे इस तरह से पत्थरों को अलग करने का दोष मुझे लगा. मैं जब भी उन पत्थरों को याद करता हूँ तो मुझे अपने मनुष्य होने का विश्वास पुख्ता होता जाता है. मनुष्य ऐसे ही बोझ के कारण अपने आकर्षण को इधर-उधर फेंकने के लिए जाना जाता है. यह सोचकर मैं अपनी ग्लानी कम करने की कोशिश करता हूँ मगर फिर भी मुझे सपनें में वो पत्थर के टुकड़े एक साथ दिखाई देते है वो मुझे अक्सर कहते है  कि वो सब फिर से आपस में मिल गए है वो मेरी औसत बल पर हंसते है मगर मुझे उनकी हंसी देखकर अच्छा लगता है.

मिलने और बिछड़ने के मध्य पर एक जगह ऐसी होती है जहां न मिलना होता है और न बिछड़ना ही उस जगह का मानचित्र मेरे एक जेब में रखा हुआ था मगर मैं अपनी जेब तक जाने का रास्ता भूल गया हूँ इसलिए मेरे हाथ हवा में जीसस की तरह लटक रहे है तुम्हें यह करूणा से भरें नजर आते होंगे मगर सच बात तो यह है कि ये अपना रास्ता तलाश रहे है इसलिए इनकी गति को देखा नही बस महसूस किया जा सकता है.

आओ ! ये फूल तुम्हें दे दूं फिर उसके बाद मैं फूलों की स्मृतियों से मुक्ति पा लूंगा.
©डॉ. अजित

#सुनो_मनोरमा  

#सुनो_मनोरमा-3

जरूरी नही कि वही बात तुम्हारी हो जिसमें तुम्हारे नाम का जिक्र हो। कई बार मैं बातें जहां की करता हूँ मगर उसमें जगह-जगह तुम बैठी रहती हो। उदासी मेरे मन का स्थायी भाव है मगर कई बार मैं उदासी को ताश के पत्तों की तरह अलग थलग कर देता हूँ फिर मैं जिंदगी की कुछ बड़ी अकेली शय में तुम्हें हैरत से खड़ा पाता हूँ। क्या तुम सच मे मुझे उदास देखने की आदी हो गई हो?

मेरी मुस्कुराहटों की गति किसी निर्जन रेगिस्तान में शाम की समय घूमती पनचक्की की जैसी है जो बस हवा के खत पहुंचाने के लिए घूमती है उसकी मद्धम गति देख कभी कभी कभी लगता है उन्हें भी थोड़ा विश्राम चाहिए मगर हवा से निवेदन करने का साहस उनके पास नही है वो कृतज्ञता में विवश है। मैं मुस्कानों को इसलिए भी स्थगित रखता हूँ क्योंकि मैं अपनी उदासी को कृतघ्न नही देखना चाहता।

वैसे आज मेरी बातें जरूर उदासी भरी है मगर असल मे मैं खुश हूँ। जानता हूँ तुम पहला अनुमान यही लगाओगी कि जो आदमी यह कहता है कि आज असल मे मैं खुश हूँ वो दरअसल अंदर के किसी एक कोने से कमअसल होकर खुश होता है।
मेरी बातों में कोई नाटकीयता नही है और यकीन करना मैं तुम्हें लेकर बिल्कुल भी भविष्यवक्ता के स्वर में बात नही करना चाहता हूँ।

मेरे लिए तुम अज्ञात ही ठीक हो बोध की चादर से मैं रौशनदान नही ढकना चाहता हूँ भले मेरे मन की खिड़कियां पर्दे के बिना धूल से भर जाए मगर मैं हवा और रौशनी के अनुपात से परे तुम्हें अनुभूति और स्पर्शों  के परिचय के साथ मिलना पसन्द करूँगा।
अब बात मेरी पसन्द की होने लगी है इसलिए मैं विषय बदलना चाहूंगा क्योंकि मनुष्य अपनी पसन्द की बात करते करते अनुराग के राग पर मंत्रमुग्ध हो ध्यानस्थ होने लगता है फिर उसे अधिकार की समाधि प्राप्य लगने लगती है फिलहाल मेरी दशा और दिशा दोनों की एकरेखीय नही मैं अलग अलग आकृतियों के मध्य फंसा हूँ और यही से उनकी ज्यामितीय गुणवत्ता से उकता कर तुम्हें आवाज़ दे रहा हूँ इस उम्मीद के साथ कि ये आवाज़ देर सबेर तुम तक जरूर पहुंच रही होगी।

#सुनो_मनोरमा

Friday, August 25, 2017

#सुनो_मनोरमा-2

डियर मनोरमा,
परसों मैं घर से अचानक निकल आया है. थोड़ी देर मैंने सोचा कि मुझे कहाँ जाना चाहिए? फिर मुझे ये सवाल जंचा नही इसलिए  मैंने इसका जवाब नही तलाशा ,और कहीं के लिए निकल गया. घर एक खूबसूरत अहसास का नाम है ये आपको एक सुविधा देता है कि एक दिन लौटकर आने के लिए आपके पास एक ऐसी जगह है जहां आपका परिचय महत्वपूर्ण नही है. मगर कुछ दिनों से मैंने अपने घर से कुछ बातें की मसलन कि मेरे कितने दिन न लौटने पर उसे मेरी फ़िक्र होगी. घर कोई जवाब नही देता है शायद घर का ढांचा सवाल की बुनियाद पर खड़ा होता है इसलिए वो ताउम्र सवाल ही करता रहता है वो कोई जवाब नही देता है. प्राय: अस्तित्व का सवाल और एक अस्तित्व का लौकिक विस्तार घर को आकार देता है इसलिए घर ने चुपचाप मेरी बात सुनी. मैं थोड़ी देर दर ओ’ दीवारों को देखता रहा मगर उनकी अपनी एक बुद्ध साधना है इसलिए उनको देखा भी मुझे एक सीमा के बाद उनके ध्यान में खलल लगने लगा इसलिए मैंने देखना बंद किया और अँधेरे में घर की दीवार को अनुमान की मदद से छूते हुए बाहर निकल आया. निसंदेह बाहर रौशनी थी मगर वो अंदर जितनी अपेक्षित थी बाहर आकर मुझे वो उतनी ही अनापेक्षित लगी.
आज मैं जहां पर हूँ यह एक कमरा है मैं इसे घर कहने की आजादी से फिलहाल मुक्त हूँ. ये कमरा इस अनजान सफर पर मेरा नया दोस्त बना है मगर ये दोस्ती बेहद कम दिनों की है ये बात हम दोनों जानते है इसलिए मेरे मन को अनावृत्त होने में कोई भय नही लगा. घर की तरह इस कमरे के कान नही है इसकी चारों दीवारें आपस में कोई रिश्ता नही रखना चाहती है उनका अपना स्वतंत्र आयतन है. इस कमरे की दीवार पर एक तस्वीर टंगी है जिसे मैं एक पेंटिंग समझ सकता हूँ मगर इसमें एक नाव इस दशा में किनारे पर खड़ी है कि मैं इसे जीवन भी समझ सकता हूँ. इस चित्र में लहर थोड़ी शांत है इसलिए नाव को किनारे पर खड़ा देख मैं किसी यात्रा की कल्पना नही कर पाता हूँ. इस तस्वीर को देखकर मुझे तुम्हारी वो बात जरुर याद आती है जो तुम अक्सर कहा करती थी कि ‘ मेरे अनुमान हमेशा इसलिए गलत होते है कि मैं हर कहानी का सुखान्त चाहता हूँ’
रोज़ सुबह मैं खिड़की से दूर तक देखने की कोशिश करता हूँ मगर कभी-कभी स्व शर्मिंदगी में मुझे बिलकुल नजदीक देखने का भी जी चाहता है और मैं देखता-देखता अपने पैरो की तरफ लौट आता हूँ  मेरे पैरो की बनावट पर बचपन में मेरी मां बहुत मुग्ध हुआ करती थी ऐसा कुछ लोगो ने मुझे बताया था. मगर जैसे ही मैं बड़ा हुआ  मेरे पैर समतल धरातल पर थोड़े कमजोर साबित हुए धीरे-धीरे मेरे पैरों में एक ख़ास किस्म का वास्तु दोष व्याप्त हो गया, इसलिए मुझे खुद के बारें मे कभी कभी ऐसा जरुर लगता कि मेरी कदम जिस तरफ चलते है उन रास्तों का भूगोल थोड़ा बदल जाता है. मैं इस बात पर थोड़ा चिंतित भी रहता था मगर जब मेरी दोस्ती कुछ पहाड़ों से हुई तो उन्होंने मेरे मन के इस अन्धविश्वास को बेहद छोटा साबित किया. पहाड़ के सुनसान रास्तों पर उगी खरपतवारों ने मेरे पैरों की पैमाईश ली और बाद में मेरे तलवों को बताया कि मेरे पैरों पर कुछ नदियों ने अपने खत गुप्त भाषा में लिखे हुए है इसलिए मैं जब तक समंदर के किनारे तक नही चला जाता मेरी आवारगी का ये वास्तु दोष कुछ न कुछ असुविधा उत्पन्न करता ही रहेगा.  मेरे होने से किस किस किस्म की असुविधाएं उत्पन्न हो सकती है तुम उसकी साक्षी हो उनका जिक्र करने की शायद जरूरत नही है.
अगली बार मैं घर से निकल कर अगर कहीं जाउंगा तो वो कोई समंदर का किनारा ही होगा.शुभता-अशुभता से इतर मैं चाहता हूँ कि जिस जिम्मेदारी के लिए मुझे चुना गया है मैं उससे जल्द मुक्त हो जाऊँ.  मुक्ति एक चाह है जिसके लिए आदमी छटपटाता रहता है. चाहना का होना जिन्दा होने का प्रमाण है इसलिए मेरा निरपेक्षता का प्रयास प्राय: व्यर्थ ही साबित हुआ है.
अभी मैंने अपनी नब्ज़ देखी ये थोड़ी तेज़ चल रही है मगर यकीन करना मुझे बिलकुल डर नही लगा और न ही यह लगा कि एक अनजान जगह आकर कहीं मैं बीमार न पड़ जाऊं क्योंकि मुझे पता है ये किसी शारीरिक व्याधि का संकेत नही है दरअसल मैं तुमसे बातें कर रहा हूँ इसलिए मेरी देह थोड़ी हांफ रही है उसे मेरे मन ईर्ष्या हो रही है बाहर की दुनिया तो बहुत बाद में आती है पहले तो खुद तन और मन एकदूसरे को नीचा दिखाने की फिराक में लगे रहते है.
अच्छा फिलहाल के लिए इतना ही.
बाकी बाद में कहूंगा.

#सुनो_मनोरमा 

#सुनो_मनोरमा -1

सुनो मनोरमा !
जब मैं कहता हूँ सुनो मनोरमा ! इसका एक अर्थ यह भी होता है कि मैं कुछ कहना चाहता हूँ मगर मैं कहने से अधिक सुनाना चाहता हूँ. क्या कहना और सुनाना दो अलग बातें हो सकती है? इस पर ध्वनिविज्ञानी भले ही सहमत नही हो मगर मेरा मन इस पर सहमत है कि दोनों अलग बातें है.
आज तुम्हें कुछ सुनना है और आज ही नही लगातार मैं विषयांतर करता हुआ तुम्हें कुछ न कुछ सुनाऊंगा. हो सकता है इन बातों में कोई रस या अर्थ की भूमिका न हो मगर ये बातें कुछ कुछ वैसी है जैसे बसंत बीत जाने पर कुछ हरी पत्तियाँ जिद पर उतर आती है वे अपने यौवन की खुमारी को खोना नही चाहती है.
मेरे बातों में प्रेम का वात्सल्य है मगर उसमे कोई करुणा नही है ये जगह-जगह से खुरदरी और महीन है. हो सकता है तुम्हें मेरी बातों में एक ही स्वर की पुनरावृत्ति लगे मगर ये दरअसल कुछ बिखरी हुई खुदरा बातें है इसलिए मैं इसे गान की प्रकृति के नाम पर छूट देने का साहस नही रखता हूँ.
मैं कहूंगा और अपने छिटपुट अधिकार से कहूंगा तुम्हें सुनाकर मैं मुक्ति का अभिलाषी नही हूँ और न ही मेरी पास हृदय में किसी किस्म की कोई सन्निकटता आ गई है .मगर मैं तुम्हें सुनाना चाहता हूँ अपने सबसे उदास गीत और अपने एकांत के सबसे उत्सवधर्मी क्षण. दोनों बातों में एक खास किस्म का विरोधाभास दिख रहा है मगर वास्तव में यह कोई विरोधाभास नही नही ये दरअसल कुछ असंगत समय के कतरने है जिनकी मदद से मैं मन के भूगोल पर पर कुछ निकटता के ज्यामितीय चित्र बनाता हूँ जो दूर से तुम्हें देखने किसी सघन जंगल का मानसचित्र प्रतीत होंगे मगर नजदीक से देखने पर तुम साफ़ तौर पर देख सकोगी कि एक रास्ता गोल-गोल घूमकर कैसे वही आकर मिल जाता है जहां से यह शुरू होता है.
मेरी बातें सुनकर तुम्हें रास्तों के सम्मोहन और मृग मरीचिकाओं के दर्शन होंगे हो सकता है तुम्हे लगे कि तुम किस अजीब से बंधन में बन्ध गई हो,मगर इतना तय है इन बातों के मध्य तुम किसी किस्म का निर्वात नही महसूस करोगी बल्कि ऐसा हो सकता है कि इन बातों की कडियाँ  आपस में जोड़ते हुए  तुम्हारी उंगलियाँ थोड़ी थकान महसूस करें मगर इन्ही बातों में हर किस्म की थकान से सुस्ताने के पते भी बंदरवार की शक्ल में तुम पढ़ सकोगी बस तुम्हें अपने मन की खिड़कियाँ जरुर खोलनी होगी ताकि हवा की आवाजाही ठीक से हो सके.
मनोरमा, मैं चाहता हूँ तुम इन बातों को बिना किसी विश्लेषण और सम्पादन के सुनों ठीक वैसे जैसे यह एक मानस का पवित्र पाठ हो, पवित्र इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि यह कोई कथा नही है और न ही किसी कथा की भूमिका है यह दरअसल किसी सुनसान रास्ते पर खुद के डर से लड़ने के लिए खुद से बातचीत है जिसमें जगह से जगह ईश्वर बैठा. एक ऐसा निरुपाय ईश्वर जो मनुष्य के डर और कामना को प्रार्थना की शक्ल में सुनता है और बाद में हंसता है. मैं इसी हंसी से आतंकित होकर तुमसे कुछ सुनाने आया हूँ
क्या तुम सच में मुझे सुनोगी मनोरमा?  मुझे नही मेरी बातों को जरुर सुनना जहां-जहां इन बातों मैं शामिल होता हूँ तुम मुझे छोड़ते जाना मगर बातों को सुनते और चुनते हुए जाना और जहां-जहां बातों से मैं निकलता जाऊँ वहां खुद को शामिल करते जाना. इसके बाद मुझे उम्मीद है कि तुम हर बात ठीक वैसे ही सुन सकोगी जैसा मैं तुम्हें सुनाना चाहता हूँ.
ये कोई भूमिका नही है बस एक जरूरी तैयारी है जो मैं खुद को सुना रहा हूँ अब अगला नम्बर तुम्हारे सुनने का है. तैयार रहना!
 ©डॉ. अजित

#सुनो_मनोरमा 

Monday, August 21, 2017

नाटक

दृश्य एक:
नभ धवल मंजरी सी  बदरियो से आच्छदित है. उसका अन्तस पुलकित है मानों देवयोग से उसकी छोटी छोटी पुत्रियों के पैरों में स्वेत नुपुर बाँध दिए  गए हो .वायु के पुत्रों को उनके साथ खेलता देखकर नभ का चित्त आह्लादित है. पृथ्वी के पास मंगलाचरण के समाचार भेजने के लिए वर्षा की नन्ही बूंदों को पंचामृत से स्नान कराया जा रहा है उन्हें पृथ्वी पर जाकर ठीक उस स्थान पर बरसना है जहां पृथ्वी ने अपनी उत्कट प्यास को प्राण प्रतिष्ठित किया गया है. नभ के गुप्तचर वर्षा की सेनानायिका को पृथ्वी के सबसे उपेक्षित स्थानों के मानचित्र सौंप रहें है और उन्हें आवश्यक दिशा-निर्देश भी दे वो बिलकुल नही चाहते है कि इस बार की वर्षा अपने किसी अनुमान से चूक जाए और पृथ्वी के ताप के जरिए नभ के पास यह समाचार पहुंचे कि नभ और पृथ्वी के मध्य का संसार लगभग यह मान चुका है कि दोनों के सामीप्य की संभावना नगण्य है. पृथ्वी का द्वन्द यह है कि उसके पास कोई अनुमान नही है वह प्रतिक्षा के सुख को आम मंजरी की तरह खिलते हुए देखती जरुर है मगर उसके मन के संदेह ने  उसके आसपास एक मोटी परत दुश्चिंताओ की बना देते है जिसे नभ के प्रेम के द्वार भी भेद पाना संभव नही है.
दृश्य दो:
 धरती जब यहाँ से चली गई थी तो यहाँ केवल धरती की उखड़ी हुई त्वचा शेष बची थी उसमें न कोई गंध थी और न उसका कोई घनत्व ही शेष था. उसे हाथ में लेने पर भार का बोध नही होता था इसलिए उसने इसे धरती का सबसे का निर्वासित कोना कहा. एक बड़े अंतराल तक यह कोना अपने एकांत के शोक पर एकदम चुप रहा मानो उसके आंसूओं ने बाहर आने से मना कर दिया हो. धरती का यह कोना चुपचाप सिसकता था मगर इसकी सूचना किसी तक नही जाती थी. निर्वासन एक  युग के बाद अब यहाँ कुछ बदल रहा है. आवारा खरपतवार पर पहली बार कुछ रंग बिरंगे फूल खिले है उन्हें बारिश का स्नेह नही मिला मगर वो मात्र बादलों के काले रंग को देखकर अपने अंदर की प्यास को छिपा कर खिल आए है.
इस कोने में एक उपवन ठीक वैसा बन गया है जैसे यहाँ अभी इंद्र की सभा का कोई नूतन नाटक अभी मंचित किया जाएगा. पराग और परागकणों में बड़े और छोटे भाई वाली लड़ाईयां चल रही है वे अपना अपना सामान एक दुसरे से छिपा रहें है. धरती के इस निर्वासित कोने में भंवरो को आने की अनुमति नही है यदि कोई भटक कर आ भी गया तो यहाँ की शांत नीरवता उसकी बड़ी पवित्रता के साथ हत्या कर देगी.  धरती का यह निर्वासित कोना इनदिनों रस विमर्श के कारण एक रूपक बन गया है आश्चर्य इस बात का है कि इस बात की धरती को खबर नही है. जिस दिन धरती को इस मोक्षमय यौवन का बोध होगा धरती थोड़ी देर के लिए नि:श्वास होकर सीधी लेट जाएगी तब वो आसमान को देखेगी और कहेगी ‘ दृष्टि से ओझल होना प्रेम में खो जाना नही होता हो’ !
दृश्य तीन:
धरती और आसमान के मध्य एक रंगशाला है जिसे वैकल्पिक तौर पर नाट्यशाला भी कहा जा सकता है. इसके निर्माण में धरती और आसमान की पूंजी लगी है मगर इस पर किसी का कोई दावा नही है यह एक प्रकार से अखिल ब्रह्माण्ड की सम्पत्ति है. रंगशाला में मनुष्यों की पीठ पर प्रकाशित पराजय के चित्र, भित्तिचित्र के रूप पर मौजूद है घर से निकाले गए देवाताओं के लिए यह अस्थायी मनोरंजन के साधन है. इन देवताओं का स्थायी मनोरंजन मनुष्य की पराजय है.
धरती के आग्रह और आसमान के आदेश पर मैंने एक नाट्यशाला के लिए एक नाटक लिखा है. नाटक की दुविधा यह है कि इसमें कोई नायक नही है धरती इस बात पर खुश है मगर आसमान मुझे थोड़ा नाराज़ दिख रहा है. नाटक में प्रेम को त्रासद  कुछ इस तरह से कहा जाना है कि प्रेम पर सबका भरोसा और अधिक गहरा हो जाए और कोई भी खुद को बर्बाद करने में लेशमात्र भी संकोच न करें.
इस नाटक में प्रेम का दिव्य और लौकिक संस्करण दोनों उपस्थित करना है इसलिए मैनें नाटक में नायकत्व को अप्रकाशित रखने की बात सोची मुझे लगा कि दोनों बातों के साथ नायक को प्रस्तुत करना प्रेम का अपमान होगा. अभी इस नाटक के कुल तीन अंक मैंने लिखे है चौथा लिखने के लिए मैंने धरती से कहा है कि वो मेरे लिए  रौशनाई का प्रबंध कर दें  चूंकि ऊपर से आसमान मुझे लिखते हुए देख रहा है इसलिए मुझे नाटक का अंत छिपाना है और इस अंत को छिपाने के लिए जिस रौशनाई की मुझे जरूरत है वो केवल धरती ही मुझे उपलब्ध करा सकती है.
मुझे संदेह है यदि आसमान ने इस नाटक का अंत पढ़ लिया तो नाटक के मंचन के दिन बारिश भेजकर इसकी प्रस्तुति को जरुर बाधित कर देगा जबकि इस नाटक के अंत में आसमान नायक प्रतीत हो रहा है ये अलग बात है कि इस नाटक में कोई भी नायक नही है.


© डॉ. अजित  

बोध

दृश्य एक:
नार्वे की एक सुबह है  धूप थोड़ी तेज निकली है.
मैं एक तिराहे पर खड़ा हूँ अचानक अंगड़ाई आई और मुझे तोड़कर चली गई. शरीर की झंझनाहट के बीच मेरी नजर सामने की एक खिड़की पर गई. वहां एक लड़की मुंह बाहर निकाल कर जोर जोर से एक गाना गा रही है. मुझे उसकी भाषा नही आती है मगर वो जब एक अंतरे के बाद हंसती है तो मुझे न जाने क्यों ऐसा लगने लगता है कि उसकी भाषा मुझे आती है. मैं थोड़ी देर मन ही मन उससे उस भाषा में बात करता हूँ फिर उसे लगता है कि मैं उसे गाना गाते हुए देख रहा हूँ  बावजूद इसके वो खुद के गाने पर इस कदर मुग्ध है उसे मेरे इस तरह देखे जाने से कोई असुविधा नही है थोड़ी देर बाद वो गाना बंद कर देती है मगर खिड़की खुली हुई है. मैं खुली खिड़की के अंदर यही से दाखिल होना चाहता हूँ ये गाने के बाद का एक सतही मानसिक कौतूहल भर है,मगर फिर मुझे उस लडकी का गाना याद आता है और यह महसूस करता हूँ कि अभी दाखिल होने के लिए मेरा कद छोटा है फिर मैं दौड़ना शुरू करता हूँ और थोड़ा थककर उस कैफे में बैठ जाता हूँ जहां लोग शिष्टाचारवश मुस्कुराते हुए मिल रहे है.कैफे में नेपथ्य में बचता धीमा संगीत भले ही वेस्टर्न है मगर मुझे उसमें फोक की खुशबू आ रही है.

दृश्य दो:
घास का मैदान है. धूल का नामो-निशान नही है. घास का अकेलापन हरियाली के बावजूद थोड़ा गहरा है. एक युवा दम्पत्ति अपने बच्चे के साथ अभी यहाँ आई है. बच्चा अभी चलना सीख रहा है उसके कदमों में लड़खडाहट है  फिलहाल घास के लिए यह एकमात्र हंसने की वजह है. अब वो बिना हवा के इन्तजार के हंस सकता है.
बच्चा अकेला एक अलग दिशा में जाना चाहता है मगर उसे करने के लिए शायद ईश्वर प्रेरित कर रहा है. फिलहाल ईश्वर के इस इच्छा में मां की चिंता बड़ी बाधा है. मां नही चाहती है कि बच्चा उसकी नजर से दूर रहे.
 बच्चा घास पर खेलता है तो घास को ऐसा लगता है कि जैसे उसका कोई बचपन का दोस्त मिल गया हो वो उसे अपने कंधे पर बैठाना चाहता है. बच्चा जब चलते हुए गिरता है तो घास उसके घुटने में गुदगुदी करता है इसके बाद बच्चा जोर से हंसता है बच्चे के माँ-बाप इस बात से यह अंदाजा लगाते है बच्चा यहाँ आकर खुश है.

दृश्य तीन:
पीटर एक बार में वेटर है. रोज़ शाम को बार की रंगीन दुनिया से उसे गुजरना होता है. ड्यूटी के दौरान उसने महसूस किया कि जो लोग अकेले शराब पीते है वो अधिक सहृदय होते है उनके हृदय में अधिक करुणा होती है. उत्सवधर्मिता मनुष्य को एक सतह पर केन्द्रित कर देती है इसलिए समूह में व्यक्ति हिंसक भी हो सकता है. विल्सन टेनिस उसका प्रिय ग्राहक है जबकि उसने उसको आज तक सबसे कम टिप दी है. वो एक अधेड़ है मगर उसके आने पर पीटर को अच्छा लगता है जब-जब लम्बे अंतराल के बाद टेनिस बार में आता है पीटर उससे एक बात जरुर कहता है आपको यहाँ कम जरुर चाहिए मगर इतना कम भी नही.
पीटर को टेनिस की पसंदीदा ड्रिंक का पता है वो उसके कदमों की गति से यह अनुमान लगा लेता है कि आज कौन सी ड्रिंक सर्व करनी है. टेनिस इस बात से खुश कम चिंतित अधिक होता है. आज टेनिस ने कम पी मगर देर तक बैठा रहा जाते वक्त उसने पीटर से कहा ‘ यू नो ! दुनिया में सबसे खराब चीज पता है क्या है? जब आपको कहीं जाते वक्त यह लगने लगे कि अब मुझे यहाँ जरुर जाना चाहिए’
पीटर इस बात पर केवल मुस्कुराता है और कहता है ‘ मेरे ख्याल से सबसे खराब चीज वह है जब हमें यह पता चल जाता है कि हमारे लिए क्या खराब है और क्या अच्छा !


© डॉ.अजित  

Sunday, August 20, 2017

भटकाव

दृश्य एक:
निधि की एक किताब गुम हो गई है. वो उसे तलाश नही रही है बस उसे याद कर रही है. कई बार खोई हुई चीजों के गुम होने पर हम उसको तलाशना नही चाहते बस उसे याद कर-कर के घुलना चाहते है. निधि भी आज सुबह से बहुत धीरे-धीरे ऐसे ही घुल रही है. गुड या चीनी की तरह नही बल्कि रोशनाई की तरह.
वो खुद से सवाल करती है क्या कोई चीज़ हमें इसलिए प्यारी होती है कि उसके खो जाने पर हम उसका शोक मना सके. इसका जवाब उसे ठीक ठीक नही मिलता है. वो किसी वस्तु को खोने को सहेजने के कौशल से चूक जाना समझती है.
निधि के पास एक बेहद पुरानी किताब है जो कभी टेबल पर तो कभी बेड के नीचे पड़ी मिलती है मगर आज तक वो कभी ग़ुम नही हुई निधि के लिए उस किताब का कोई ख़ास मूल्य नही है मगर वो गुम नही हुई आजतक.
निधि उसे देखती है और मुस्कुरा कर बुक सेल्फ में रख देती है और अंत में खुद को यह दिलासा देती है कि जिसे खोना होता है वो खो ही जाता है एकदिन और जिसे साथ रहना होता है वो चलता रहता है चुपचाप अपनी गति से.
निधि को यह बात जरुर खराब लगी उसे अपनी एक जरूरी किताब खोने पर अपनी एक सामान्य किताब की उपस्थिति का बोध हुआ और फिर उसे उससे प्यार हुआ.

दृश्य दो:
पिता-पुत्र झील किनारे अकेले बैठे है. बेटा अपने पिता से पूछता है  
‘झील के नजदीक बैठना अच्छा क्यों लगता है’?
पिता इस सवाल पर थोड़ा चौंकता है फिर मुस्कुराते हुए  जवाब देता है
‘ शायद इसलिए क्योंकि मनुष्य जीवन में एक कोलाहल रहित ठहराव चाहता है’
पुत्र इस जवाब से संतुष्ट है फिर दोनों चुपचाप बैठे रहते है.
अचानक पिता सवाल करता है , क्या तुम आसमान के रंग को झील में देख पा रहे हो’?
बेटा कहता है ‘नही मुझे पानी में केवल बादल नजर आते है वो भी कभी-कभी’
फिर पिता झील देखना शुरू कर देता है और बेटा आसमान
दोनों एक दूसरे की आँखों में देखते है और समझ जाते है
रंग और गति दोनों दरअसल अवस्थाएं मात्र है
मनुष्य के पास अनुमान परिभाषा और व्यख्या मात्र है जिनकी
थोड़ी देर बाद
बेटा झील में एक छोटा पत्थर का टुकडा डालकर जल में कोलाहाल पैदा करता है
पिता आसमान में बादल देखकर बारिश का अनुमान लगाता है.

दृश्य तीन:  
जंगल में दो आदिवासी रास्ता भटक गये है.
वो अपने पदचिन्ह देखने की कोशिश कर रहे है
रास्ते उनकी मासूमियत पर फ़िदा है
वो पेड़ के तनों पर अपने कान लगाते है
अपने कबीले का पता उन्हें देना चाहते है
मगर पेड़ एक गैर की बारात में गये मेहमान की तरह चुप है
फिर अपनी बोली भाषा में आवाज़ लगाते है
जब आवाज़ की प्रतिध्वनि उन तक लौटकर आती है
वो समझ जाते है ये जंगल उनका नही है
वो रौशनी से अँधेरे की तरफ जाते है
फिर अकेले अकेले रास्ता तलाशने निकल जाते है
क्योंकि उन्हें पता है
साथ रहकर भटका जा सकता है
रास्ता हमेशा अकेले चलने से ही मिलता है.


© डॉ. अजित