Sunday, August 27, 2017

#सुनो_मनोरमा-3

जरूरी नही कि वही बात तुम्हारी हो जिसमें तुम्हारे नाम का जिक्र हो। कई बार मैं बातें जहां की करता हूँ मगर उसमें जगह-जगह तुम बैठी रहती हो। उदासी मेरे मन का स्थायी भाव है मगर कई बार मैं उदासी को ताश के पत्तों की तरह अलग थलग कर देता हूँ फिर मैं जिंदगी की कुछ बड़ी अकेली शय में तुम्हें हैरत से खड़ा पाता हूँ। क्या तुम सच मे मुझे उदास देखने की आदी हो गई हो?

मेरी मुस्कुराहटों की गति किसी निर्जन रेगिस्तान में शाम की समय घूमती पनचक्की की जैसी है जो बस हवा के खत पहुंचाने के लिए घूमती है उसकी मद्धम गति देख कभी कभी कभी लगता है उन्हें भी थोड़ा विश्राम चाहिए मगर हवा से निवेदन करने का साहस उनके पास नही है वो कृतज्ञता में विवश है। मैं मुस्कानों को इसलिए भी स्थगित रखता हूँ क्योंकि मैं अपनी उदासी को कृतघ्न नही देखना चाहता।

वैसे आज मेरी बातें जरूर उदासी भरी है मगर असल मे मैं खुश हूँ। जानता हूँ तुम पहला अनुमान यही लगाओगी कि जो आदमी यह कहता है कि आज असल मे मैं खुश हूँ वो दरअसल अंदर के किसी एक कोने से कमअसल होकर खुश होता है।
मेरी बातों में कोई नाटकीयता नही है और यकीन करना मैं तुम्हें लेकर बिल्कुल भी भविष्यवक्ता के स्वर में बात नही करना चाहता हूँ।

मेरे लिए तुम अज्ञात ही ठीक हो बोध की चादर से मैं रौशनदान नही ढकना चाहता हूँ भले मेरे मन की खिड़कियां पर्दे के बिना धूल से भर जाए मगर मैं हवा और रौशनी के अनुपात से परे तुम्हें अनुभूति और स्पर्शों  के परिचय के साथ मिलना पसन्द करूँगा।
अब बात मेरी पसन्द की होने लगी है इसलिए मैं विषय बदलना चाहूंगा क्योंकि मनुष्य अपनी पसन्द की बात करते करते अनुराग के राग पर मंत्रमुग्ध हो ध्यानस्थ होने लगता है फिर उसे अधिकार की समाधि प्राप्य लगने लगती है फिलहाल मेरी दशा और दिशा दोनों की एकरेखीय नही मैं अलग अलग आकृतियों के मध्य फंसा हूँ और यही से उनकी ज्यामितीय गुणवत्ता से उकता कर तुम्हें आवाज़ दे रहा हूँ इस उम्मीद के साथ कि ये आवाज़ देर सबेर तुम तक जरूर पहुंच रही होगी।

#सुनो_मनोरमा

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