Thursday, August 6, 2015

सराय

दिल की बस्ती में अधूरेपन कुछ मुहल्ले हैं. कुछ तंग गलिया अंत पर जाकर आपस में मिल जाती हैं.दीवार दिखती जरूर है मगर उसके सहारे खड़ा नही हुआ जा सकता है.स्मृतियों के जंगल से कभी कभी ठंडी हवा आती है अफ़सोस ये हवा भी इस दीवार को लांघ नही पाती.हम जब खुद को  कुछ आवारा टीलो के ओट लेने के आदी बना चुके होते  हैं तब इन गलियों में आकर सच में हमारा दिशाबोध समाप्त हो जाता है.खुद के सबसे सुखद पल को इसी दीवार सहारे उकडू बैठ कर सोचने लगते है.दरअसल वक्त के बीतने के बावजूद भी बहुत कुछ हमारे अंदर ऐसा बच जाता है जो न बीत पाता है और न रीत ही पाता है. समय का एक छिपा हुआ सच हमें चौकाने का भी है. अंतर्मन हमेशा अनापेक्षित को सोचने से इंकार करता है मगर जब वो घटित हो जाता है तब दिल में अफ़सोस के बादल जरूर आकर बेमौसमी बारिश कर जाते हैं.
जीवन को एक यात्रा भी मान लिया जाए तब भी हमारी मंजिल के अदलते बदलते पतों की वजह से यह तय करना जरा मुश्किल होता है कि किसका साथ और किसका हाथ कब कहाँ छूटने वाला है.जीवन में सबसे उपेक्षित पड़े पल दुःख की घडी के सच्चे साथी सिद्ध होते हैं.एक वक्त पर जो लोग जीवन में अपरिहार्य रूप से शामिल थे वे कब किस असावधानी की वजह से हाथ छोड़ देते हैं पता ही नही चलता है. कुछ ऐसे लोग जिन पर हमारी 'एक्सक्लूसिव खोज' का दावा रहा होता है वो कब बेहद मामूली चीज़ों के लिए अपना चयन अलग दिशा में सिद्ध करने में लग जातें हैं.
दरअसल किसी का मिलना और मिलकर बिछड़ना एकबारगी फिर भी स्वीकार किया जा सकता है मगर समय की अवांछित षडयंत्रो और समय के एक खास दबाव से उपजे विकल्प को देखते हुए अपनी स्मृतियों के सबसे निर्वासित कोने में छोड़ कर आने में जो थकान होती है उसकी टीस गाहे बगाहे दिलों में बेचैनियों के लिफ़ाफ़े खुले छोड़ देती है उनसे रिसते लम्हों की नमी से दिल ओ जेहन की आद्रता हमेशा बढ़ाती रहती है.यह एक जानलेवा बात जरूर है. 
धीरे धीरे सब कुछ व्यवथित दिखता है क्योंकि समय इस नियति की चक्र पर हंसकर आगे बढ़ जाता है और हम पीछे मुड़कर देखते हुए अपनी आस्तीन अक्सर शाम को गीली करते रहते है.शाम और रात आवारा किस्सों और खयालो की सराय हैं जहाँ के नीम अँधेरे में हम चुपचाप सिसकते है और अपनी रौशनी पैदा कर लेते हैं. ये हंसी ये मुस्कुराहट इसी रौशनी की पैदाइश है जिस पर दुनिया फ़िदा होती है.

'मन की सराय'

Monday, August 3, 2015

सावन

सावन का महीना आधा साल बीतने पर हर साल आता है। जब आधा बीत चुका होता है तब यह हरजाईयों के दिल को तसल्ली देने के लिए अपने साथ बारिश बूंदो की झड़ी भी लाता है। न जाने क्यों सावन इस बात से अनजाना रहता है कि आधा साल बीतते बीतते मन की अंधेरी गलियों में रोज़ होती बारिश ने अंदर लगभग बाढ़ जैसी स्थिति बना दी होती है अब बचे हुए पांच चार महीनों में कुछ लोग उसकी की सीलन में दिल को जलाकर रोशनी की नाकाम सी कोशिस करने वाले होतें हैं। सावन का महीना मुझे कोई ईश्वरीय षड्यंत्र का हिस्सा लगने लगता है मानों बाहर की बारिश अंदर की बारिश से कोई बदला लेना चाहती हो। दिल के गलियारों से गुजरते हुए हम मन के उस निर्जन टापू पर बैठ अंखड रुद्राभिषेक को देख सकते है जो मन की छोटी छोटी कामनाओं की पूर्ति ना होने पर भी चेतना के शिव तत्व पर रोज़ नियमित रूप से करता जाता है। किसी की स्मृतियों के स्तम्भन में मन वचन कर्म की त्रियुक्ति से हरी भरी बेल पत्र का अर्घ्य देते हुए उसे शीत आंसूओं के भाप से धोते है हमारी अनामिका के निशान उन पर स्थाई रूप से छपे होते है।
दरअसल सावन का महीना उपासना और मन के अनुराग के बिना शर्त अपर्ण का महीना समझा जाता है मगर सही गलत की भौगोलिक सीमा रेखाओं में फंसे दिलों के लिए यह मन के रास्ते कुछ कोमल अहसासों के तर्पण का महीना बन जाता है। कुछ ऐसे विरक्त साधकों की पड़ताल करते हुए अपने चित्त में अवस्थित शिव शक्ति की अनुमति अनिवार्य होती है तभी अनहद के नाद में मध्य सूक्ष्म आहों की शंख ध्वनि हमारी प्रखर चैतन्यता को जाग्रत करती है और हम टिप टिप पड़ती बूंदों के मध्य प्रेम के पंचामृत का आचमन कर पातें हैं।
सावन का महीना मुक्ति के पांचजन्य शंख में ध्वनि फूंकता है तभी तो इस ध्वनि से जहां अंदर कुछ टूटता है हम  अतीत के आरोग्य के लिए महा मृत्युंजय मंत्र का जाप मन ही मन करने लगते है।मन का पंचाग उसी क्षण सावन की घोषणा कर देता है बाकि काल गणना के लिहाज़ से साल में एक बार सावन आता है जबकि काल से होड़ में लगे कुछ निर्वासित लोगो के बारह महीने के सावन में ही जीतें है।

'सावन में मन'

Saturday, August 1, 2015

चाँद

आसमां के रास्तें एक चांद रोज़ जमीं पर उतरता है। जिसे मै देखता हूं और नरगिस के फूलों की मानिंद उसे छूकर खुशबू को रुह का पता देना चाहता हूं मगर वो बेफिक्र मेरी बेकली देख सिर्फ मुस्कुरा भर देता है। उसकी अधखिली हंसी के नूर से मेरे जिस्म की महीन परत बिखर जाती है उसकी रोशनी में मै खुद को पहले से ज्यादा साफ पाता हूं। दिल के गलियारों में सूफियों की टोली बसती है जो मुझे कलन्दर होने का इल्म अता करना चाहती है मगर उसे अभी मेरे गाफिल होने को लेकर शक ओ सुबहा है।
कभी कभी कायनात भी सब्र का इम्तेहान लेने लगती है चांद के पास तारों की गवाही है इसलिए वो खुद को सिर्फ मेरा होने का समन तामील नही होने देता उसके पास बारिश की बूदों के छोटे छोटे वजीफे है जो उसने बादलों से उधार लिए थे मुझ से रोज़ चांद चंद आवारा मसीहाओं के पते पूछता है और रोज़ अपनी याददाश्त का हवाला देकर बच जाता हूं। मेरे अपने वजूद के डर मुझ पर इस कदर तारी है कि मै ख्यालों की कतरन से किस्सागोई की पंतग उडाता हूं मगर उसकी डोर मेरे हाथ में नही है उसे वफा के कारोबारियों ने मुझसे छीन लिया है। मरासिम के खलीफाओं की बसती का मै अकेला गैर इल्मदार फकीर हूं।
चांद से मै इल्तज़ा की शक्ल में गुजारिश सौपता हूं खुद को खारिज़ करके अपने इश्क और जुनून की गवाही देता हूं मगर वो मेरा हाकिम बनने से मुकर जाता है जबकि उसने तन्हाई की सिसकियों में मेरी माथे पर भरोसे और उम्मीद का बोसा रफू किया था। पता नही मुझमें और चांद में कौन किसका मुरीद है कौन किसका मुर्शिद है। चांद को मुझसे इश्क है यह नही जानता मगर रात के तीसरे पहरें मे जब चांद सबसे अकेला होता है तब उसे मेरी तलब जरुर लगती है तभी तो वो खिडकी से रोशनी की शक्ल में मेरे सिराहने दाखिल होता है उसे पता है उस वक्त मै ख्वाबों में उसी को तलाश रहा हूं।
तमाम इल्म और अदब की पैबन्द के बावजूद मेरे अक्स में रोशनी आरपार दाखिल होती है मेरा वजूद वक्त की नमी से पसरी सीलन की वजह से इतना चुपचाप करवट बदलता है कि खुद मुझे खबर नही होती है। चांद मेरी बर्बादियों का चुस्त तमाशबीन है वो रुह की हरारत की वजह जानता हुआ इल्म के दवाखाने से मेरे लिए शिफा का शरबत नही लाता उसकी ठंडी आहों में तपन है जिसमें मै रोज जलता हूं एकदिन ऐसे ही जलता हुआ चांदनी के बीच कोयले से राख में तब्दील हो जाउंगा।

...अब मैने गुनगुनाना बंद कर दिया है चंदा रे चंदा कभी तो ज़मी पर आ बैठेंगे बातें करेंगे !

©डॉ.अजित

अफ़सोस

अफ़सोस की शक्ल बदरंग होती है। ये न आता हुआ अच्छा लगता है न जाता हुआ। दिल जब धड़कते हुए इतनी आवाज़ करने लगता है कि आपके कान चाहकर भी अनसुना न कर सके तब पता चलता है दिल की बस्ती का आख़िरी पैरोकार भी इलज़ाम की तसदीक करके कहीं आगे निकल गया है। ज़ज्बात गैर जरूरी जाया न हो इस बात का इल्म रखते हुए भी अक्सर गलतफहमियों के शिकारे अपनेपन की झील में डूब जातें हैं। इंसानी वकार का ये कैसा दयार बनता जाता है जहां यकीं रोज़ नई शक्ल इख़्तियार कर लेता है।
ज़बां  नादाँ है ये जेहन की बारिकियों से वाकिफ नही होती है कभी दिल्लगी तो कभी दिल की लगी में ये उन वाकयो का जिक्र करते हुए फिसल जाती है जो जिक्र कभी अफ़साने में भी नही थे।
मुसलल रूप से किसी की निगाहों में अपने भरोसे का मुस्तकबिल तलाशना बेहद थकावट भरा काम है। बेसाख्ता ख्यालों की तुरपाई करते समय महज़ ऊँगली ही नही दिल के नरम गलियारें भी जख्मी हो जातें हैं। लफ्ज़ दर लफ्ज़ मरासिम के रेगिस्तान में तन्हा भटकतें दिल जेहन और जज्बात का कोरस न जाने कौन सी मौसकी छेड़ देता है और फिर कुछ भी सुनना मुनासिब नही लगता है।
दरअसल तुम्हारी निगाह में सिफर हो जाना सदी का सबसे बड़ा हादसा है यह महज एक हादसा ही नही रह जाता है ये खुद के रूह को जिल्लत के हवाले करने जैसा तजरबा देकर जाता है। दानिस्ता या गैर दानिस्ता कुछ लम्हें इस तरह हमारे दरम्यां दीवार की माफिक आकर खड़े हो जाते है कि उनके आरपार न मेरी आवाज़ जा सकती है न मेरी रूह की पाक गुहार तुम तलक पहूँचती है। वक्त कुछ इस तरह की लिखावट में मेरे माथे पर न जी गई तफ़रीह की तकरीरे लिखता है कि तुम्हें मेरा वजूद ही नाकाबिल ए बर्दाश्त हो जाता है।
बहरहाल ताल्लुकात में बहुत ज्यादा तकरीरे लफ्ज़ का वजन कम करती है इसलिए खुद की सफाई में कुछ कहने का वकार मेरे पास नही है। तुम जिस मेयार से मेरे बारें में राय कायम करती चली जाती हो उसकी बुनियाद बहुत गहरी नही है इसलिए मेरी तकलीफ बस इतनी सी है एक मुतमईन से सफर में तुम्हारी किस्सागोई में मेरा वजूद हाशिए पर बचा हुआ है,कहीं ऐसा न हो तल्खियों की आंधी में मेरे वजूद की पाकीजगी तौहीन का सबब बन तेरे दर से हवा हो जाएं इसलिए अपनी तमाम काहिली जाहिली के बावजूद मैं दुआं फूंकता हूँ कि रब तुम्हें इल्म की रोशनी और अदब का काजल अता फरमाए ताकि तुम सही गलत में फर्क कर सको मेरी रिहाई का मुस्तकबिल तुम्हारी मुंसफी में नही तुम्हारी रूहानी मौजूदगी में मुकर्रर हो बस मेरी इतनी सी ही आख़िरी ख्वाहिश है।

© डॉ.अजित