Saturday, August 1, 2015

अफ़सोस

अफ़सोस की शक्ल बदरंग होती है। ये न आता हुआ अच्छा लगता है न जाता हुआ। दिल जब धड़कते हुए इतनी आवाज़ करने लगता है कि आपके कान चाहकर भी अनसुना न कर सके तब पता चलता है दिल की बस्ती का आख़िरी पैरोकार भी इलज़ाम की तसदीक करके कहीं आगे निकल गया है। ज़ज्बात गैर जरूरी जाया न हो इस बात का इल्म रखते हुए भी अक्सर गलतफहमियों के शिकारे अपनेपन की झील में डूब जातें हैं। इंसानी वकार का ये कैसा दयार बनता जाता है जहां यकीं रोज़ नई शक्ल इख़्तियार कर लेता है।
ज़बां  नादाँ है ये जेहन की बारिकियों से वाकिफ नही होती है कभी दिल्लगी तो कभी दिल की लगी में ये उन वाकयो का जिक्र करते हुए फिसल जाती है जो जिक्र कभी अफ़साने में भी नही थे।
मुसलल रूप से किसी की निगाहों में अपने भरोसे का मुस्तकबिल तलाशना बेहद थकावट भरा काम है। बेसाख्ता ख्यालों की तुरपाई करते समय महज़ ऊँगली ही नही दिल के नरम गलियारें भी जख्मी हो जातें हैं। लफ्ज़ दर लफ्ज़ मरासिम के रेगिस्तान में तन्हा भटकतें दिल जेहन और जज्बात का कोरस न जाने कौन सी मौसकी छेड़ देता है और फिर कुछ भी सुनना मुनासिब नही लगता है।
दरअसल तुम्हारी निगाह में सिफर हो जाना सदी का सबसे बड़ा हादसा है यह महज एक हादसा ही नही रह जाता है ये खुद के रूह को जिल्लत के हवाले करने जैसा तजरबा देकर जाता है। दानिस्ता या गैर दानिस्ता कुछ लम्हें इस तरह हमारे दरम्यां दीवार की माफिक आकर खड़े हो जाते है कि उनके आरपार न मेरी आवाज़ जा सकती है न मेरी रूह की पाक गुहार तुम तलक पहूँचती है। वक्त कुछ इस तरह की लिखावट में मेरे माथे पर न जी गई तफ़रीह की तकरीरे लिखता है कि तुम्हें मेरा वजूद ही नाकाबिल ए बर्दाश्त हो जाता है।
बहरहाल ताल्लुकात में बहुत ज्यादा तकरीरे लफ्ज़ का वजन कम करती है इसलिए खुद की सफाई में कुछ कहने का वकार मेरे पास नही है। तुम जिस मेयार से मेरे बारें में राय कायम करती चली जाती हो उसकी बुनियाद बहुत गहरी नही है इसलिए मेरी तकलीफ बस इतनी सी है एक मुतमईन से सफर में तुम्हारी किस्सागोई में मेरा वजूद हाशिए पर बचा हुआ है,कहीं ऐसा न हो तल्खियों की आंधी में मेरे वजूद की पाकीजगी तौहीन का सबब बन तेरे दर से हवा हो जाएं इसलिए अपनी तमाम काहिली जाहिली के बावजूद मैं दुआं फूंकता हूँ कि रब तुम्हें इल्म की रोशनी और अदब का काजल अता फरमाए ताकि तुम सही गलत में फर्क कर सको मेरी रिहाई का मुस्तकबिल तुम्हारी मुंसफी में नही तुम्हारी रूहानी मौजूदगी में मुकर्रर हो बस मेरी इतनी सी ही आख़िरी ख्वाहिश है।

© डॉ.अजित

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