Friday, December 30, 2016

दृश्यांतर

दृश्य एक:

तुम क्यों उसको अभी तक खोज रही हो?
वो तो कब का चला गया नेपथ्य में
क्या तुम्हें उसके जाने का दुःख है?
क्या तुम्हें उससे कोई अनुराग हो गया था?
क्या तुम्हारे कुछ सवाल प्रतिक्षारत है?
क्या तुम्हें क्षोभ है किसी बात का?
क्या तुम्हें रोष है किसी व्यवहार का?

नही !

फिर?

क्या केवल तुम्हें दिख रहे है,मेरे अंदर एक बड़ा शून्य है. एक निर्वात की अनुगूंज अन्तस् में बह रही है।मेरे जीवन में क्या की उपयोगिता शेष नही बची है।

तुम्हें खेद है किसी बात का?

नही ! मेरे प्रश्नों पर पूर्ण विराम लग गया है अब कोई आंतरिक कोलाहल नही है।

तुम उसे खोज रही हो?

हो सके तो प्रश्नों की पुनरावृत्ति न करो !
यदि करना अनिवार्य लगे तो मेरे मौन को सही प्रश्न का जवाब समझना तुम्हारी जिम्मेदारी होगी।

उसे खोजा या पाया नही जा सकता है वो जीवन में घटित होता है अस्तित्व के एक हस्तक्षेप की शक्ल में और चला जाता है अपनी तय सीमा में हमें रूपांतरित करके।

तो क्या तुम अब मुक्त हो गई हो?

मैं मुक्त हो गई हूँ या नही ये अभी बता पाना मेरे लिए थोड़ा मुश्किल होगा क्योंकि फ़िलहाल मैं जरा से सम्मोहन में और जरा से विस्मय में हूँ।

तो मै चली जाऊं?

नही अभी थोड़ी देर बैठो शायद मै तुम्हारे आने को जाना और जाने को आना समझ कोई गीत गुनगुनाउँ या फिर तुम्हें जाते हुए एक कंकड़ दे दूं और कहूँ इसे आसमान की तरफ उछाल देना।

©डॉ.अजित

Sunday, December 25, 2016

ब्रेकअप नोट्स- चार

ब्रेकअप के बारे 'हुआ' शब्द कहा जाता जबकि ये 'किया' जाता है। दरअसल किसी का ब्रेकअप होता तो वो भूल जाता वाक्य में काल दोष वो समझ नही पाता कि ये हुआ है या किया गया है। उसकी गणनाएं बिगड़ जाती सब की सब। ब्रेकअप सिखाता कुछ ऐसे वाक्य में प्रयोग जिनको जिंदगी के व्याकरण में समझा जाता था बेहद निर्मम। ब्रेकअप के बाद आदमी सीख जाता किंतु परंतु के व्यवहारिक अर्थ जीवन में और पहली बार कल्पना भी सोचने लगती बेहद लौकिक बातें।
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ब्रेकअप एक आकस्मिक मनोदशा है जिसकी किसी किस्म की तैयारी नही होती है इसलिए कुछ दिन यह तय करने में लगते कि जो हुआ क्या उसे अभी होना था? ब्रेकअप टलता रहा होता है कई बार मगर जब ये होता है तब आता अपने पूरे वेग के साथ और बदल देता हमारी दुनिया एक ही पल में। ब्रेकअप इस तरह बदलता हमें कि प्रेम करते लोग लगने लगते झूठे उनकी मुस्कान में देखने लगते हम अभिनय। ब्रेकअप के बाद किसी को आगाह करने का मन नही होता हम देखना चाहतें है उन्हें खुद चोट खाते देखना।
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ब्रेकअप कुछ अर्थों में एक दैवीय घटना है जो जीवन को पहले अस्त व्यस्त करती और बाद में तटस्थ कर देती। ये अनासक्ति का एक लौकिक प्रशिक्षण है जो मनुष्य को अकेला रहना सिखाती। ब्रेकअप के बाद जीवन में जो बोध उद्घघटित होता वो मनुष्य को एक अकेली इकाई के रूप में स्थापित करता है। अपने ग्रह पर खुद के होने और न होने की उपयोगिता मनुष्य ब्रेकअप के बाद समझ पाता।
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ब्रेकअप जीवन से प्रेम समाप्त नही करता वस्तुतः आदमी प्यार करने और प्यार को सम्भाल पाने का नैतिक साहस खो देता है ब्रेकअप के बाद। वो महसूस कर सकता है अंजुली भर पानी का बोझ। ब्रेकअप संवदेनशीलता को चरम पर ले जाकर छोड़ देता बिलकुल अकेला। ब्रेकअप के बाद आहत कर सकता एक मामूली सा सवाल ब्रेकअप के बाद खुश कर सकती एक छोटी सी मुस्कान।
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ब्रेकअप दर्ज होता है जीवन के खराब अनुभव में जबकि ये आता जीवन के सबसे अच्छे पलों के ठीक बाद। ये स्मृतियों में चाहता एक तात्कालिक आरक्षण। उसके बाद कोमल भावनाओं का बढ़ जाता वर्ग संघर्ष। खीझ आत्मदोष और गुस्से के प्रहरियों के साथ मन के वातायन में अकेला टहलता है ब्रेकअप। कारक-कारण की उपकल्पनाओं के मध्य ब्रेकअप पसार देता एक गहरा मौन। ब्रेकअप जीवन में लाता मौन से भरा ऐसा एकान्त जिसमें दूर दूर तक नही होती शान्ति।

© डॉ.अजित
#ब्रेकअपनोट्स

Friday, December 23, 2016

ब्रेकअप नोट्स

ब्रेकअप की भूमिका इतने संदिग्ध ढंग से लिखी जाती कि इसके घटित होने पर एकबारगी खुद पर से यकीन उठ जाता। विश्वास के संदेह में रूपांतरण का नाम ब्रेकअप होता। ये ऐच्छिक चुनाव प्रतीत जरूर होता था परन्तु इसमें हमेशा एकतरफा अतिवाद शामिल रहता जिसकी कीमत चुकानी पड़ती उसे ज्यादा जिसे खुद की मुहब्बत पर ज्यादा यकीन होता।
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जिनका ब्रेकअप हुआ उनके चेहरे पर साफ़ पढ़ा जा सकता था चंद्रमा का तापमान उनकी आँखें देख बताई जा सकती उस जगह की समुन्द्र तल से दूरी। उनकी हथेलियों पर पढ़ा जा सकता निर्वासित द्वीप का मानचित्र। ब्रेकअप के बाद कदमों के अक्ष झुक जाते एक तरफ जैसे किसी राष्ट्रीय शोक में एक तरफ झुका दिया जाता है राष्ट्रीय ध्वज। ब्रेकअप अस्तित्व के अपमान का एक स्वघोषित राष्ट्रीय शोक है।
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ब्रेकअप के कारण बताए नही जाते ब्रेकअप के किस्से सुनाए नही जाते युद्ध के दस्तावेज की तरह इसकी गोपनीयत बचाए रखने की जिम्मेदारी उसके हिस्से आती जो हार गया होता किसी अपने से ही एक युद्ध। ब्रेकअप के बाद स्मृतियों को देखा जाता सबसे अधिक उपेक्षा के साथ समझ में नही आता उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाए क्योंकी उन्हें मिटा सकते नही और उनका बोझ सम्भालनें से साफ़ इंकार कर देता है मन का संतुलन सिद्धांत।
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ब्रेकअप का कोई संदर्भ नही मिलता ना ही इसका कोई भाष्य किसी भी साहित्य में उपलब्ध है ये शब्द उत्तर आधुनिक है मगर इसके प्रभाव पाषाण काल में भी ठीक ऐसे ही थे जैसे आधुनिक काल में है। दर्शन की टीकाओं से लेकर काव्यशास्त्र के काव्य हेतु तक में ब्रेकअप बसा हुआ है बेहद निर्मम ढंग से। शब्द यदि ब्रह्म है तो ब्रेकअप के ब्रह्मत्व के समक्ष मनुष्य बेहद मजबूर होता है इसलिए वो ब्रेकअप को स्वीकार करता है ईश्वर की आज्ञा समझकर।
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अलग अलग रिश्तों में ब्रेकअप जी रहे दो लोग आपस में जल्दी मित्र नही बन पाते है। न ही घायल की गति घायल जाने जैसे सूत्र वाक्य इस घटना पर लागू होते है। ब्रेकअप के बाद दुःख को बांटना अच्छा नही लगता ब्रेकअप इस मामले में है थोड़ा आत्ममुग्ध वो हंसता है उन दूसरे दुखों पर जो चर्चा का विषय बन गए होते। ब्रेकअप एक नितांत ही एकांतिक चीज है जिसके बाद पर अपने कष्टों पर बातें करना सम्मानजनक नही लगता है यह मनुष्य को परिपक्वता के साथ अकेला रहने के लिए अनचाहा प्रशिक्षण दे जाता है।
© डॉ.अजित

#ब्रेकअपनोट्स

Thursday, December 22, 2016

ब्रेकअप

ब्रेकअप पर 'ब्रेकअप सांग' गाने वाले विरले होते है, शायद फिल्म फंतासी की एक दुनिया है इसलिए फिल्म में ब्रेकअप सांग गाने की कल्पना की जा सकती है। जिनका हाल ही में ब्रेकअप हुआ है उन्हें ऐसे गाने एक सम्बल दे सकते है इसकी संभावना थोड़ी कम नजर आती है क्योंकि ब्रेकअप के बाद ब्रेकअप का जश्न मनाना थोड़ा मुश्किल काम है। दर्शन की भाषा में कहूँ तो जुड़ना और टूटना शाश्वत प्रक्रिया विज्ञानवादी मस्तिष्क इसे अणुवाद के माध्यम से समझ सकते है। ब्रेकअप के प्रभाव विशुद्ध रूप से मनोवैज्ञानिक होते है कभी आत्मदोष तो कभी परनिंदा के मध्य फंसा हुआ वजूद अलग अलग किस्म से रिश्तों को परिभाषित करता है। कभी मैंने ब्रेकअप कुछ फुटकर नोट्स लिखे थे उन्हें आज आपके साथ शेयर कर रहा हूँ इस उम्मीद से कि ये कभी जरूर पढ़ने लायक समझें जाएंगे।
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' ब्रेकअप महज दो शब्दों का योग नही था, इसकी ध्वनि में एक विचित्र सी खीझ थी खुद के प्रति एक अनजाना गुस्सा इसमें शामिल था, खुद के बारे में हाउ स्टुपिड जैसे कथन घनघोर हो गरजते थे। शब्दकोश में अकेला शब्द था ब्रेकअप। संज्ञा से विशेषण बना था मगर व्याकरण के लिहाज से इसमें था वाक्य दोष इसका वाक्य में प्रयोग छोड़ जाता था ऐसी त्रुटि की पूर्ण विराम लगाने के लिए उठी कलम उठी ही रह जाती नही मिलती थी उसको रखने की जगह। ब्रेकअप तरल था पानी की तरह ब्रेकअप ठोस था पारे की तरह।
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ब्रेकअप के बाद की सुबह रात की प्रतिलिपि मांगकर लाती थी उधार इसलिए सूरज निकलता था कुछ देर की विलम्ब से। ये अगला दिन गायब हो जाना चाहता था विश्व के कैलेंडर से यहां तक मंजन करते समय हम चाहते है कि आज पेस्ट ब्रश से न करके अंगुली से किया जाए क्योंकि उस दिन चुभती थी ब्रश की ध्वनि भी।  ब्रेकअप से अगला दिन दरअसल रात की तरह ही था बस फर्क इतना लगता कि हम आँख बंद करके अंधेरे में अँधेरे को नही देख सकते थे।
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ब्रेकअप एक थकन भरी सांत्वना थी जो बताती कि मनुष्य के तौर पर विकल्पहीनता सबके हिस्से में आती है एकदिन। उम्मीद दुबकी रहती मन के एक कोने में कि शायद एकदिन फिर से सब ठीक हो जाए। 'शायद' बोलचाल के शब्द के बाद सबसे गहरा अर्थ ब्रेकअप के बाद ही समझ जाता है। जैन मुनियों ने यही से लिया होगा अपने दर्शन का 'स्यादवाद'।
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ब्रेकअप की घोषणा प्रायः एकतरफा होती दोनों चाहकर भी एकस्वर में नही कर पाते घोषणा ब्रेकअप की। इसमें एक वक्त होता और एक श्रोता यह दुनिया की सबसे विकट जनसभा होती जिसमें नही जरूरत पड़ती किसी लाउडस्पीकर की। ब्रेकअप अंतिम उपाय नही होता हां ! बस इसे चुन लिया जाता अंतिम उपाय से कुछ देर पहले।
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ब्रेकअप के बाद ईश्वर देख पाता मनुष्य के एकान्त को भीड़ में उसको चिन्हित करना होता ईश्वर के लिए बेहद आसान ईश्वर के अलावा कोई एक दोस्त भी देख सकता था लगभग समान रूप से। ब्रेकअप दोस्त को बना देता एक पल में ईश्वर जिसको गले लगाकर रोया जा सकता बेसबब मगर ब्रेकअप नही मिलने देता था ऐसे ईश्वर बने दोस्त से कभी भी।

(जारी)

©डॉ.अजित 

Wednesday, December 14, 2016

नदी

दृश्य एक:

पहाड़ झरनें से कहता है मेरे तलवे पर एक पता लिखा है उसे नदी के पास पहुँचा देना।
झरना जवाब देता है नदी उसे अपना दोस्त नही मानती इसलिए वो नदी से मिलने जाने में खुद के अंदर आकर्षण का अभाव पाता है।
पहाड़ झरने की पीठ पर आंसू से आग लिखता है जो नीचे जाकर पानी बन जाती है मगर पत्थर और शैवाल उस पानी में तपन महसूस करते है।

दृश्य दो:
नदी अपने किनारे से कहती है देखना मेरी आँख में कुछ चला गया है। किनारा कहता है ये तो असल के आंसू है मगर आँख में कुछ नही है।
नदी किनारे को उसी पल छोड़ कर आगे बढ़ जाती है। किनारों की आँख में अधूरा काजल पड़ा है उनकी माँ ने उलटे दिए पर स्याही निकाली थी मगर उनकी उंगलियों की कोमलता अनुपस्थित हो गई है इसलिए उन्हें डर था  कहीं खुद ही आँख को जख्मी न कर दें।
जिसकी आँख जख्मी है वो बेफिक्र है उसे बताने वाला कोई नही है।

दृश्य तीन:
आसमान आलथी-पालथी मारकर बैठा है हवा उसके बालों में हाथों से कंघी कर रही है। आसमान जमीन के कान को देखकर ये अनुमान लगा रहा है कौन सा कान छोटा है और कौन सा बड़ा।
आसमान धरती के बोझ को तोलना चाहता है इसलिए कान धरती की नाभि पर लगा देता है अंदर कोई कोलाहल नही है। आसमान बाहर के कोलाहल पर विस्मय से भरता है वो अपनी आँखें बंद लेता है। पहली बार ऐसा होता है कि आसमान को आँख बंद करने पर चक्कर नही आए। इस पर आसमान हंसता है तभी बारिश हो जाती है। धरती आसमान की पीठ देख पाती है बस।

©डॉ.अजित

Tuesday, December 13, 2016

बातें

दृश्य एक:
पैरिस के एक ब्यूटी सैलून में दो स्त्री आपस में बात कर रही है।
क्या तुम मिरर पर यकीन करती हो?
नही मैं खुद पर थोड़ा यकीन करती हूँ
यकीन भी क्या थोड़ा या ज्यादा हो सकता है?
मेरा मतलब था कभी यकीन होता है कभी नही
अच्छा ! ख़ूबसूरती क्या मन की हो सकती है?
आई डोंट थिंक सो !
और तन की?
खूबसूरती तन की नही होती,तन को बस नोटिस किया जा सकता है
अगर मै कहूँ तन को केवल जज किया जा सकता है?
मन को जज किया जाता है तन को डिफाइन किया जा सकता है
तो क्या मन को डिफाइन नही किया जा सकता?
शायद नही
अच्छा आख़िरी बार बेफिक्री में तुमने मिरर कब देखा था?
अभी अभी देखा है तुम्हारी आँखों में
आँखें क्या मिरर हो सकती है?
आँखों को मिरर नही कहना चाहिए ऐसा कहना कम्प्रेजन करना होगा
फिर क्या कहना चाहिए?
कुछ नही कहना चाहिए बस प्यार से आँख में देखना चाहिए
तुम यहां किस लिए हो? खूबसूरत दिखने के लिए?
नही मैं यहां आकर देखना चाहती खूबसूरती क्या रची जा सकती है?
तो क्या पाया तुमनें
मैं यहां कुछ पाने नही खोने आती हूँ
हम्म !

दृश्य दो:
ये अफ्रीकी देश की एक सुबह है। कॉफी उबल रही है। दो स्त्रियां लोकगीत गुनगुना रही है। प्रतिक्षा उनकी आँखों में पढ़ी जा सकती है। एक स्त्री कहती है धूप से कुछ अनुमान नही लगता है ये समय की बंधुआ मजदूर बिलकुल नही है ये आसमान की बेटी है जो धरती पर खेलने आती है हम इसे देख सकते है मगर छू नही सकते।
इस पर दूसरी स्त्री मुस्कुराती है अनुमान लगाना मनुष्य की एक सुविधा है सुख के अनुमान पर दुःख विलंबित किया जा सकता है। हवा के अनुमान पर बादल को नाचते हुए देखने की आस पाली जा सकती है।
तभी एक पुरुष आता है वो कॉफी मांगता है
दोनों स्त्रियां एक स्वर में सोचती है माँगना पुरुष की एक सुविधा है
और देना स्त्री का सुख
दोनों स्त्री आसमान की तरफ देखती है और अपने अपने अनुमान वापिस आसमान के पास रवाना करती है।
अनुमान से मुक्ति स्त्री की आदि कामना है इसी को गीत बनाकर गुनगुनाने लगती है। ये विश्व का एक लोकप्रिय लोकगीत है जिसे किसी भी भाषा में गुनगुनाया जा सकता है।

© डॉ.अजित

Monday, December 12, 2016

फादर

दृश्य एक:

फादर से  हैरी पूछता है
'फादर ! सबसे लकी पेरेंट्स कौन होते है?
फादर मुस्कुराते हुए जवाब देते है माई डियर चाइल्ड दुनिया में सबसे हैप्पी पेरेंट्स वो होते है जो एक दुसरे से सच में प्यार करते है
मगर फादर मैंने तो लकी पेरेंट्स के बारे में पूछा था,हैरी दोबारा सवाल दोहराता है
फादर कहते है लकी होने से ज्यादा खुश होना ज्यादा जरूरी है
फिर हैरी कोई सवाल नही करता है वो खुशी को समझना चाहता है मगर उसके लिए किसी और दिन फादर से सवाल करेगा वो फादर को थैंक यू बोलता है और चला जाता है।

दृश्य दो:
एक यंग कपल चर्च में आता है
दोनों एक दुसरे का हाथ जुम्बिश के साथ थामे हुए है
दोनों जीसस से प्रेयर करते है
दोनों की आँखें बंद है
दोनों फादर से अलग अलग बात पूछते है
पहले लड़का सवाल करता है
फादर ! लव हमेशा ट्रू कैसे बना रहा सकता?
फादर लड़की की आँखों में देख जवाब देते है
लव तभी तक ट्रू बना रह सकता है जब तक उसमें कोई कंडीशन न हो
लड़का जवाब से संतुष्ट नही होता वो कहता है
कोई कंडीशन न हो यह खुद में एक कंडीशन है
इसी बीच लड़की अपना सवाल रखती है
फादर ! दुनिया में प्योर क्या है?
फादर दोनों को एक साथ देखते है और कहते है
प्योर की तलाश दुनिया में एकमात्र प्योर चीज है
बाकि सब में अलग अलग डिग्रीज़ में स्टैंडर्ड एरर है
दोनों फादर के गणितज्ञ की तरह बोलने पर हैरान है
दोनों जीसस के पास सवाल छोड़ लौट आते है।

दृश्य तीन:
फादर बाइबिल को चर्च की प्यानों पर रख देते है
प्यानों के कुछ कॉर्ड्स दबतें है
एक साथ कई सुर निकलते है
फादर तुरन्त बाइबिल उठा लेते है
और चौंक कर देखते है किसी ने देखा या सुना तो नही
यह देख जीसस की मुस्कुराहट बढ़ जाती है
मगर उसे फादर नही देख सकते है।

दृश्य चार:
फादर अब चर्च की लाईब्रेरी में है
मार्गेट लिसा चर्च में है
किताबें प्रार्थनारत है
और मनुष्य सब कुछ ठीक होने की उम्मीद में है
मार्गेट लिसा जीसस से कहती है
चर्च में फादर के बिना उसे अच्छा लगता है
उसे लगता है वो सीधा जीसस से बात कर सकती है
उसे चर्च में फादर तब चाहिए
जब उसे जीसस से बात न करनी हो
तभी फादर आते है
मार्गेट उन्हें गुड इवनिंग फादर कहती है
जवाब में फादर गुड मॉर्निंग लिसा कहते है
चर्च की घड़ी अब मुस्कुराती है
जीसस अब एक पल के लिए आँखें बंद कर लेते है।

© डॉ.अजित

Wednesday, November 30, 2016

डियर दीपिका

रौशनी के दो फाहे आसमान में भटक गए है।वो धरती का पता भूल गए है, तुम उन्हें रस्ता बता सकती हो वो उम्मीद से तुम्हारी तरफ देख रहे है उनके मन में अँधेरे से न मिलनें का सन्ताप है। अँधेरे से मिलने की शिद्दत रौशनी के अलावा कौन महसूस कर सकता है? तुम उन्हें देख रही हो और महज देख ही नही रही हो उनसे बातें कर रही हो इसलिए मैं तुम्हें धरती की सबसे पवित्र चीज़ घोषित करना चाहता हूँ।
तुम्हारी आँखों में करुणा और प्रेम एक साथ रहता है।तुम्हारे लबों में अनकहे किस्से बेरुखी के शिकार नही होते बल्कि वो लफ्जों की जादुगिरी को भूला देते है फिर वो औघड़ अकेले कायनात में सफर करते हैं।
तुम्हारे माथे पर एक सूखा समंदर रहता है जिसके पास नदी के कोई किस्से नही है न उसके पास पानी है मगर वो धरती पर बारिश होने की सबसे सटीक भविष्यवाणी कर सकता है, ये अलग बात है तुम उसको कभी तकलीफ नही देती हो।
तुम्हारी आँखों में ख़्वाबों के अलावा ख्यालों की एक निर्वासित दुनिया है जिसमें सही गलत के मुकदमों में फंसे लोगो को बिना शर्त प्राश्रय मिलता है। तुम्हारी दो आँखें इस धरती के दो उपग्रह है जिन पर तब जीवन तलाशा जाएगा जब धरती रहने लायक न बचेगी। तुम पलक झपकती हो तो धरती और आसमान एक दुसरे के कान में अपनी शिकायते कह आतें है ये छोटा सा अंतराल दो नाराज़ दोस्तों को कभी जुदा नही होने देता है।
तुम मुस्कुराती हो कंक्रीट के जंगल में भी नदी बहने लगती है ऊंची इमारतों पर बूढ़े पेड़ो की आत्माएं सुस्ताने चली आती है तुम्हारे हंसने पर शहर के कोलाहल में भी पत्थर हुए हृदय कागज़ की बांसुरी सुर में बज़ा सकते है जिसे सुन दो अपरिचित भी एक साथ निर्द्वन्द सोने का विचार कर सकते है।
तुम्हारे कानों की तलहटी में कुछ आवारा वनस्पतियां अपनी औषधि युक्त गंध को किशोरोचित्त लज्जा के साथ बचाए हुए है तथा तुम्हारी गन्ध में उनकी आरोग्य स्मृति जिन्दा है जिसे बिना स्पर्श के भी महसूस किया जा सकता है, और जिसे वक्त की चालाकियों ने बीमार किया हो उनके लिए ये तलहटी मृत संजीवनी के यज्ञ धूम्र जैसा  अलौकिक उपचार है।
तुम मनुष्य की पवित्र कामनाओं का मात्र एक दैहिक दस्तावेज़ भर नही हो तुम आदि और अंत में मध्य बहती एक विराट नदी हो जिसके किनारे नँगे पैर चला जा सकता है आत्महत्या से इतर मृत्यु की कामना से एक गहरी डुबकी लगाई जा सकती है।
तुम्हारे रहते मृत्यु स्थगित रहती है और जीवन अपने सीमांकन के चलते दौड़ दौड़ कर थकता जाता है। तुम पराजित लोगो को न थकने देती हो और मरने देती हो तुम उन्हें जीवन की शक्ल में मोक्ष की प्रेरणा देती हो तभी तुम्हें देख सामवेद के मंत्र स्वतः कानों में अनहद नाद के साथ बजने लगते है।
तुम दीपिका हो,तुम जीवन हो, तुम मृत्यु और जीवन के मध्य टँगी एक रोशनाई की दवात हो जिसके सहारे किस्तों में ही सही जीवन की हकीकत लिखी जा सकती है। तुम सलामत रहो ताकि मनुष्य के जीवन को कहने की हिम्मत बची रहे तुम निमित्त भी हो और नही भी हो
तुम हो इसमें अस्तित्व का कोई निर्धारित प्रयोजन है जिसे न ही समझा जाए तो सबके लिए बेहतर है।

'डियर दीपिका'

Wednesday, November 23, 2016

'अंतिम खत'

तुम प्रशंसा के रास्ते आई और आलोचना के रास्ते चली भी गई मुझे तक पहुंचने का मार्ग ना प्रशंसा का था ना आलोचना का।
सच तो यह है मुझ तक पहुँचने का कोई मार्ग ही नही था मै आगे की तरफ दौड़ता जा रहा था क्योंकि मेरे कदमों के नीचे से रास्ता बड़ी तेजी से निकल रहा था। मेरे हाँफते हाँफते तुम मेरी धड़कने गिनने लगी थी ये जरूर तुम्हारा बड़ा कौशल कहा जा सकता है।
तुम्हें लगा मुझे खुद नही पता कि मै अच्छा लिखता हूँ। मुझे ये तो पता था मै ठीक लिखता हूँ मुझे सदैव से यह बात भी पता थी कि मै अच्छा भले ही न लिखता हूँ मगर सच्चा जरूर लिखता हूँ जिसके अच्छा लगने की सम्भावना हमेशा रहती है
लिखना मेरे लिए खुद से प्रेम करने का एक तरीका भर रहा है इसको प्रभाव उत्पादन करने या किसी के एकांत को आहरण करने का टूल मैंने कभी नही समझा।
तुम्हारे पास एक आइडियल किस्म का फ्रेम था न जाने तुम्हें यह सन्देश कैसे संप्रेषित हो गया कि मै उसमें आने के लिए खुद को कटाई छंटाई के लिए प्रस्तुत कर सकता हूँ
जबकि सच तो यह था मेरे कंधो पर पत्थर का लेप चढ़ा था मेरी छाती भोगे हुए यथार्थ से सपाट मगर कठोर थी मेरे पैर घुटनों तक वक्त की कीचड़ में सने हुए थे ऐसे में मेरे वजूद पर तुम्हारी चाहतों का रन्दा भला कैसे चल पाता?
तुम्हारे फ्रेम के लिए मै एक पात्र व्यक्ति प्रतीत हो सकता था मगर सुपात्र नही अफ़सोस तुम पात्र पर ही अटक गई तुम्हें सुपात्र के लिए जाना चाहिए था।
मुझ से निराश लोगो में तुम्हें थोड़ा गुमसुम खड़े देखना निसन्देह मुझे बिलकुल भी अच्छा नही लग रहा है क्योंकि मैं नही चाहता था तुम उनमे शामिल हो जाओं जिन्हें मै कभी काम का लगा था और बाद में चालाक छद्म धूर्त और डरपोक।
मेरे लिए जीवन की कोई एक स्थापित परिभाषा नही है अवसरवादियों की तरह मै लगभग रोज़ जन्म लेता हूँ और रोज मर जाता हूँ न मेरे पास कहीं पहूंचने की जल्दी या वजह है।
मेरे अधिकतम प्रयास यही होते है किसी को मेरी वजह से कष्ट न मिलें मगर किसी के चयन संयोजन या संपादन पर मेरा वश भी नही है।
कभी कभी अपने संचित अकर्मो के बल पर तुम्हारे सहित उन तमाम लोगो से माफी मांगने का मन होता है जिन्हें मेरी वजह से किसी भी किस्म का भावनात्मक कष्ट पहूंचा है यह जानते हुए कि मेरा कोई दोष नही है अगर दोष है भी तो बस इतना है कि मै खुद को रहस्यमयी और गुह्य नही रख पाया जैसे ही मै अपने अज्ञात के साथ प्रकट हुआ फिर सम्बंधों की दशा और दिशा दोनों ही तय करना मेरे अधिकार में नही रहा।
अभी समय शेष है स्मृतियों के धुंधलें होने में वक्त लगता है मगर अच्छी बात यही है ये धुंधली पड़ ही जाती है। कोशिस करना मुझे एक सम्मानजनक ढंग से विस्मृत कर सकों सम्मान का आग्रह मात्र इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि निजी तौर मै तुम्हारा बहुत सम्मान करता हूँ।
तुम अपने आप में दिव्य हो बस एक अनुचित समय और गलत ग्रह नक्षत्रों में तुम्हारा पंचांग तुम्हें मेरी तरफ ले आया मेरी दुनिया गुरुत्वाकर्षण रहित ग्रह की दुनिया है। यहां जीवन जरूर है मगर एक दूसरी शक्ल में जिसकों बिना शर्तों के जी पाना किसी के लिए भी असम्भव है।
मै कैसे कैसे भ्रम के सहारे जी रहा हूँ ये बस मै ही जानता हूँ।
'अंतिम खत'

Tuesday, November 1, 2016

आसमान का खत

प्रिय तुम्हें कह नही सकता हूँ तुम दूर जो इतनी हो। हर प्रिय चीज़ अक्सर दूर ही क्यों रहती है ये बात मुझे अज्ञात ईश्वर से समझनी थी। मेरे तुम्हारे दरम्यां सम्बोधन क्या हो ये बात मै फ़िलहाल सूरज की पहली किरण पर छोड़ता वो अपनी मर्जी से जो कहकर तुम्हें जगा सकती है। मुझे उम्मीद है उसकी आहट से जब तुम जगोगी तो तुम्हारे चेहरे पर एक प्रोमिल मुस्कान होगी और कहीं मेरा एक आवारा ख्याल तुम्हारे तकिए पर टिका होगा।

कल बादलों ने अपनी रंजिशें ताजा कर ली मेरे तुम्हारे दरम्यां वो इस कदर पसर गए है कि मुझे हम एक दुसरे को दिखाई न दिए मैंने जब उनसे वजह जाननी चाही तो उन्होंने कहा वो कभी कभी अपनी ऊब मिटाने के लिए ऐसी शर्ते लगा लेते है कि हम दोनों में कौन ज्यादा बैचेन नजर आता है।

तुम्हारे बालों में कंघी करती हवा मुझ तक नही आती है मै चाहता हूँ कि वो मुझ तक आए तो मै उसे कुछ तुम्हारे पुराने खत दे दूं। खत लौटाना अच्छा शगुन नही है मगर मै चाहता हूँ वो खत तुम्हारे अंदर हवा बो दे फिर उसके बाद यादों की एक हरी भरी फसल तुम्हारी गोद में लहरा उठे।
सुनो ! कल मै थोड़ी देर के लिए ऊकडू बैठ गया था,तब मैंने देखा तुम्हारी पीठ पर पर दिशाएं आईस पाईस खेल रही है उनके खेल में भरम नही था छल भी नही था हां ! एक कौतुहल जरूर था जिसके कारण सही लोग भटक जातें थे और वो तब मिलते जब एक दुसरे की शक्लें भूल चुके होते। ये देखकर यकीनन मुझे डर लगा मगर बहुत थोड़ी देर के लिए।

मैंने बारिश से तुम्हारा केंद्र पूछा तो वो हंसने लगी फिर उसने बड़ी विनम्रता से अपनी अज्ञानता की बात स्वीकार की और कहा वो मुझे धरती का केंद्र तो नही मगर धरती की ढलान बता सकती है उसने मुझसे कहा कि मुझे अपने पैरों में उलटे मौजे नही पहनने चाहिए इससे धरती मेरी एड़ी की नाप लेने से चूक जाती है यह सुनकर मै केंद्र और ढ़लान में कोई अंतर्सम्बन्ध विकसित नही कर पाया।

बादल पहाड़ नदी झरने सबसे मैंने एक ही बात अलग अलग समय पर पूछी कि तुम कैसी हो? सबने लगभग एक ही जवाब दिया वैसी तो बिलकुल नही जैसा मैं सोच रहा हूँ इनदिनों। मैंने कहा मेरे अनुमान पर अनुमान लगाना ठीक नही इस पर उन्होंने अपने अपने जल के कुछ छींटे मेरे माथे पर मारे मेरी आँखें आधी खुली आधी मिचि उसके बाद से मैं अपने बेवकूफाना सवाल पर थोड़ा सा खुद से नाराज़ हुआ,तुम कैसी हो यदि ये सवाल मुझे किसी और से ही पूछना पड़े तो फिर कायदे से मुझे ये सवाल पूछने का कोई हक नही बनता है।

बहरहाल, इनदिनों मेरे पास कोई ख़ास बातें नही बची है मै आम बातों को ख़ास ढंग से प्रस्तुत करने का कौशल भी लगभग भूल चुका हूँ। बस तुमसे एक मुलाक़ात को लेकर उम्मीदजदां हूँ मै कुछ दिन लेटकर आराम करना चाहता हूँ और चाहता हूँ तुम मुझे ऊपर से देखों चाहतों और हसरतों के बीच महज एक निर्बन्ध दृष्टि से तुम मेरे माथे पर अपनी अनामिका से एक स्वास्तिक बनाओं ताकि ग्रहों नक्षत्रों की अशुभता कम हो सकें और मैं आश्वस्ति से तुम्हारी पनाह में कुछ लम्हें चैन से जी सकूँ।

फ़िलहाल इतनी ही तमन्ना है तमन्नाओं का यह पहला पुरजा तुम्हें भेज रहा हूँ तस्सवुर की शक्ल में तुम इसे पढ़कर  गुनगुनाओगी तो मैं समझ लूंगा एक पुराना खत सही वक्त और सही पते पर तामील हुआ है।

अंतराल पर टिका,
तुम्हारा आकाश

(आसमान का खत धरती के नाम)

©डॉ.अजित

Tuesday, October 4, 2016

काल चक्र

दृश्य एक:
धूप ढल चुकी है। सांझ अभी आई नही है। मुहल्लो से उबासी निकल कर गलियों में भटक रही है। उसके पास करवटों के कुछ खाली लिफाफे है। वो ध्यान से अपनी कलाई देखती है उस पर बंधी घड़ी का फीता थोड़ा ढीला करती है फिर एकटक घड़ी की सुईयों को देखती जाती है। एक ठंडी आह भरके घड़ी उतार कर टेबल पर रख देती है।

दृश्य दो:
वो अपने स्लीपर सीधे करती है। उसे कोई द्वंद नही है वो उदास भी नही है मगर फिर भी काफी देर से एक ही जगह बैठी है। अचानक वो कुछ गुनगुनाने लगती है उसे गीत का मुखड़ा ठीक से याद नही है वो बीच का कोई अंतरा गा रही है। इस तरह से कई अंतरे उसने अधूरे छोड़े और अधूरे ही गाए।

दृश्य तीन:
उसने खुद को आईने में देखा और खुद के होने की तसदीक की। अपने कानों को देखकर उसे सन्देह हो रहा है कि ये बोझ में दबे हुए है इसलिए उसने इयररिंग उतार दी है। थोड़ी देर कान को छोटे बच्चे की तरह छुआ। इस छुअन में कोई नयापन नही है उसके कान उसकी उंगलियों को शायद ठीक से पहचानते नही है। उसके कान गीले है जिन्हें साँसों से सुखने की जरूरत है। वो अनिच्छा से अपनी इच्छा से सवाल करती है उसे जवाब ना में मिलता है। उकता कर आईने के आगे से हट जाती है।

दृश्य चार:
उसके हाथ में एक किताब है। वो कुछ पन्ने पलट रही है। वो कहानी का सारांश चाहती है इसलिए कुछ कुछ हिस्से पढ़ती है मगर उसे कहानी के अंत का कोई अनुमान नही मिलता है। वो किताब का अंत पढ़कर उसे बन्द करके रख देती है।

दृश्य पांच:
उसके पास कुछ खत है। ये अलग अलग वक्त पर लिखे गए है मगर उनकी केंद्रीय विषय वस्तु में कोई ख़ास भिन्नता नही है। वो लिखावट से कल पकड़ने का कोण देखना चाहती है उसे लिखने वाले की हथेली की रेखाओं की प्रतिलिपि चाहिए। जब नही मिलती तो खुद की रेखाएं देखनें लगती है। उसकी रेखाओं का मानचित्र साफ़ है कोई किसी को समकोण पर नही काट रही है। उसकी हथेली सिंधु घाटी सभ्यता से इतर किसी कोई हुई सभ्यता का पता है मगर वो तथ्य और शोध को अनुपयोगी मानते हुए अपनी ऊंगलियां चटकाने लगती है।

दृश्य छह:
वो एक अंगड़ाई लेती है और खिड़की से आती रौशनी को देखने लगती है कुछ महीन कण रौशनी में साफ़ नज़र आ रहे वो फूंक से उसे उड़ाती है। उसकी फूंक से बिखरे कण एक त्रिकोण बनाते है जिसे देख उसकी आँखों में पहली बार हंसी नजर आती है। खिड़की पर खड़े होकर उसे बाहर का दिखाई नही दे रहा है ये खिड़की घर के अंदर ही है। खिड़की के नजदीक एक मकड़ी का जाला है जिसके मध्य में मकड़ी सो रही है वो अपनी फूंक से उसे भी जगाना चाहती है मगर उसकी फूंक केवल कणों को तोड़ सकती है वो मकड़ी और जाले तक नही पहुँच पाती है। वो खिड़की बंद करती है खिड़की बंद होने की आवाज़ दिल को अच्छी नही लगी।

दृश्य सात:
वो सड़क पर है। रास्ते उसके पैर के तलवों में गुदगुदी करना चाहते है मगर उसके तेज कदम देख वो समझ जाते है आज का दिन उपयुक्त नही है ऐसे सात्विक किस्म के मजाक के लिए। वो चौराहे पर जाकर आसमान की तरफ देखती है दाएं बाएं जाने की बजाए वो सीधा जाती है अपनी मूल सड़क को वो छोड़ना नही चाहती। दो नई सड़कों की तरफ अपने दोनों हाथ फैला कर उन्हें विलम्ब का संकेत देकर वो आगे निकल जाती है।

सूत्रधार:
काल नित्य और अनन्त है। मन का अपना दिशाशूल है। जो विभक्त है सम्भव है वो उतना ही तटस्थ है। मन की अनन्त हजार कोने कहीं ख्वाब कहीं सपनें सलोने।
उचित अनुचित सब समय सापेक्ष जिसका स्थान जहाँ सुरक्षित उसके लिए नही है कुछ भी वर्जित।
अपने और सपनें साथ रहने की जिद है पाले एक तन्हा दिल भला कैसे सब सम्भालें।
नही ये कोई थकान नही। नही ये कोई उड़ान नही। खुद से एक अदद मुलाक़ात है जिसके पीछे दिन आगे रात है।
सवेरा हमेशा कल में नही होता है। सवेरा आज में भी होता है।

© डॉ.अजित

Sunday, October 2, 2016

लाइव

दृश्य एक:
बस में एक आदमी चढ़ता है। कद दरम्याना रंग काला शरीर पतला उम्र तकरीबन पचास के पार। बस तेज चल रही है सड़क टूटी फूटी हुई है सो आदमी लड़खड़ाता हुआ ड्राइवर के पास की सीट तक पहुँचता है।
ड्राइवर ने तेज आवाज़ में गाने बजाए हुए है वो भी ओल्डीज़।

दृश्य दो:
गानो की धुन पर वो आदमी झूमने लगता है। उसकी देह में वक्रता आने लगती है। गाने के लिरिक पर वो मुग्ध है और वाह वाह करता है। यहां से बाकि यात्रियों में ये सन्देश जाता है कि आदमी ने पी हुई है। जैसे जैसे वो सहज और मुक्त होता जाता है उसके पीए हुए की पुष्टि हो  जाती है।
अब वो समस्त बस यात्रियों के लिए कौतुहल और मनोंरजन का विषय बन गया है।

दृश्य तीन:
आज प्रकृति उसके साथ है अस्तित्व उसकी बंधी कलाओं को खोलने के लिए आतुर है इसलिए संयोग से अब जो गाना बजा वो है मेरा मन डोले मेरा तन डोले...! उधर बीन का लहरा बज रहा है इधर आदमी के सर पर साक्षात भरत मुनि ने हाथ रख दिया है। अब अपने पूरे 'रौ' में आ गया है सीट से खड़ा होता है और बस के बीच आकर डांस करने लगता है। उसकी भाव भंगिमाएं इतनी लाइव किस्म की है मानो वो शब्द शब्द संगीत को जी रहा है उसके स्टेप गति में बहुत संतुलित है। उसे नाचते देख लगता है वो नृत्य न जाने कब से उसके अंदर दबा हुआ था।

दृश्य चार:
बस में गाना और नाचना साथ चल रहा है बस के ड्राइवर और कंडक्टर को छोड़कर सब उस आदमी के डांस का लुत्फ़ उठा रहे है। ड्राइवर कंडक्टर उसको बैठाने के निर्णय पर विचारमग्न है। बस के यात्री आपसे में एक दुसरे के चेहरे को देख हंसते है फिर उस आदमी का डांस देखने लगते है।
ड्राइवर बार बार गाना बदल रहा है मगर उस आदमी के लिए अब गाना गौण हो गया है वो हर गाने पर उतनी ही तन्मयता से नाच सकता है। फ़िलहाल एक गाना बजा मैं हूँ खुश रंग हिना...इस गाने पर आदमी की आंखें छलक आई है शायद कोई दर्द पुराना याद आ गया है उसे।
ड्राइवर गाना बदल देता है वो कहता है इसे दोबारा बजाइए है ड्राइवर उसकी बात अनसुना कर देता है।

दृश्य पांच:
वो आदमी थकता है तो सीट पर बैठ जाता है मगर उसकी देह में नृत्य नही थका है। वो गाने के हिसाब से अपने चेहरे के एक्सप्रेशन बदलता है हाथ और कंधे मटकाता है। यात्री साक्षी भाव से हँसतें हुए उसे देखते है।

दृश्य छह:
कंडक्टर जोर से चिल्लाते हुए उसके बस स्टॉप का नाम लेता है ऐसा करके वो एक अवांछित हस्तक्षेप करता है। उस आदमी की तन्द्रा टूटती है वो गुनगुनाता हुआ खिड़की तक आता है। अपनी दुनिया में मग्न मुक्त लोक लज्जा से निस्पृह वो आधे घंटे से केवल खुद के साथ था। मदिरा इसका माध्यम जरूर बनी मगर मदिरा ने उसको हिंसक या बदतमीज़ नही बनाया। उसकी आँखों की चमक उतनी ही दिव्य थी जितनी यज्ञ के बाद किसी ऋषि की होती है।
उसने एक एक लम्हे में खुद को जीया और खुद को अनुभूत किया वो नाच रहा था तो ईश्वर उसे देख खुद का अवसाद मिटा रहा था।

दृश्य सात:
मैंने उसके उतरने से पहले उसको धन्यवाद कहा और उसके नृत्य की तारीफ़ की मगर वो मलंग था उसे किसी की तारीफ़ या निंदा की परवाह ही कब थी वो औघड़ अपनी दुनिया में मस्त था। उतरने से पहले वो मुड़ता है और अपनी उसी लय में सैल्यूट की मुद्रा बनाता है ये सैल्यूट मुझे नही था समस्त यात्रियों के लिए था उसकी आँखे जरूर मुझ पर थी।

नेपथ्य से:
मन करता है उदघोष। जीना महत्वपूर्ण है या जीने का अभिनय। ओढ़े हुए आवरण और छवि के पाखण्ड को भूलकर जब जीया जाता है तब हर क्षण में नाद प्रस्फुटित होता है। वहां 'मैं' नही होता और कोई वहां 'मैं' के लिए भी नही होता है।
सच्ची मुक्ति खुद से चाहिए होती है खुद के करीब जाना डराता है अगर एक बार ये डर चूक जाए फिर क्या फर्क पड़ता है आप कौन है और कहां है।

© डॉ.अजित

Wednesday, September 14, 2016

गुलमोहर

तुम्हारे शहर का गुलमोहर मुझे याद करता है।कल ही उसकी एक चिट्ठी मिली।चिट्ठी में लिखा है वो मुझसे मिलना चाहता है।आख़िरी बार जब उसके नीचे मै खड़ा था उसने मेरी आत्मा के कई तस्वीरें ली थी।वो उनके निगेटिव मुझे दिखाना चाहता है। मै सोच रहा हूँ कि निगेटिव ही क्यों दिखाना चाहता है फोटो क्यों नही।

आगे चिट्ठी में लिखा है वो मुद्दत से मेरी इंतजार में था। जिस दिन नगर निगम ने उसे पौधे के रूप में लगाया था, उसी दिन से उसे पता था मै एकदिन जरूर आऊंगा। वो एक बोझिल शहर में खड़े खड़े थक गया था। मगर जिस दिन मै उसकी छाँव में खड़ा था उसने हवाओं की मदद से एक स्वागत गान गाया और अपनी बारीक पत्तियों से फूलों का काम लिया इस तरह से उसने मेरा स्वागत किया।
जब मै अपने बालों में फंसी उसकी पत्तियां हटा रहा था तब वो जोर से हंसा था जोकि उसकी आख़िरी हंसी थी।ये बात भी उसने अपनी चिट्ठी में लिखी है।

आगे गुलमोहर लिखता है कि जब भी तुम फर्र से उसके सामने से गुजर जाती हो वो पूछना चाहता है तुमसे कि मै कब आऊंगा?मगर तुम्हारी गति और व्यस्तता देखकर वो अपना सवाल और आत्मविश्वास दोनों खो बैठता है।

तुम्हारे शहर का गुलमोहर रास्तों से मेरे बारें में पूछता है मिट्टी उसकी व्याकुलता पर हंसती है।धूल उसकी चोटी पर जाकर बैठ जाती है और बहुत कम आवाज़ में मेरे बारे में खुसर फुसर करने लगती है। उसे उसकी आवाज़ सुनाई नही देती है वो कहता है जोर से बोलो मगर तब तक हवा उसे अपने साथ उड़ा ले जाती है। हवा के पास मेरे पसीने का डीएनए है धूल और हवा मिलकर तय करती है कि उन्हें ये पता लगाना होगा मै मूलतः हूँ किसका।

गुलमोहर ये सब देखकर उदास हो जाता है तुम्हारे शहर की हवा मिट्टी धूल रास्ते चौराहें सब मिलकर मेरी पड़ताल में लगे है मगर मै कैसा हूँ कहाँ हूँ इसकी कोई खोज खबर नही ले रहा है।

चिट्ठी के मध्य में गुलमोहर कहता है कि उसने कल सूरज से बात की और कहा कि आज वो एक दिन के लिए उपवास पर रह लेगा इसके बदले वो चाहता है कि सूरज की किरणें रोशनदान या खिड़की से तुम्हारे कमरें में दाखिल हो और तुम्हारी पलकों में सोए हुए ख्वाब से बातचीत करें और इस बातचीत में इस बात का सुराग लगा लें कि मै कब आ रहा हूँ। या ये ही पता चल जाए कहीं हमारे बीच अबोला तो नही चल रहा है।

सूरज ने उसकी बातें मान ली है मगर किरणों ने सूरज को मना कर दिया है उनका तर्क है पहले तो  ये दो लोगो की निजता में दखल है दूसरा तुम उस वक्त तक नही सोती जब किरणें तुम्हारे आंगन में दाखिल होती है इसलिए वो बस इतना बता सकती है कि तुम उदास हो या खुश हो।

सूरज खेद सहित गुलमोहर से कहता है कि वो इतनी ही जानकारी लाने में समर्थ है। इस पर गुलमोहर कहता है ये जानकारी उसके किसी काम की नही है क्योंकि तुम उदासी में खुश और खुशी में उदास दिख सकती हो इससे उसे कोई अनुमान न मिलेगा।

सूरज खुद के ओजविहीन होने पर थोड़ा निराश होकर बादलों के पीछे छिप गया है उसकी ग्लानि को गुलमोहर समझता है इसलिए वो दो दिन उपवास करता है सूरज के जाने पर बादलों की एक टोली मसखरी करती है क्योंकि उनके पास मेरी कल की एक खबर है जब मै अचानक से आई बारिश में भीग गया था। बादल अपने संचार तंत्र पर मोहित है वो अपनी बूंदों के हाथों के ये खबर गुलमोहर तक पहुँचाते है मगर इसके बदले वो चाहते है उसके नीचे की धरती जल से आप्लावित हो जाए।

गुलमोहर बताता है कि बादलों की सद्कामना के साथ छिपे हुए स्वार्थ को वो स्वीकार कर लेता है क्योंकि मै बारिश में भीग रहा हूँ इस बात से मोटे तौर पर एक बात तो पता चलती है कि मै स्वस्थ हूँ।
बूंदे बरसती है बादलों के खत पढ़कर गुलमोहर उसे धरती के हवाले कर देता है।

एकदिन जब तुम उसके सामने से गुजर रही थी तो अचानक से फोन आने पर तुमनें अपनी गाड़ी गुलमोहर के पास रोक दी ये देखकर गुलमोहर को खुशी हुई उसने उल्लास में कुछ पत्तियां तुम्हारी शक्ल देखनें के लिए भेजी मगर वो तुम्हारी कार के वाइपर पर अटक कर रह गई। तुम आगे बढ़ गई और गुलमोहर पीछे रह गया।

अंत में गुलमोहर मुझसे कहता है मै थक गया हूँ हवा बादल सूरज से अनुनय विनय करते हुए कोई भी मेरे बारे में प्रमाणिक सूचना देने में असमर्थ है वो नाराज़गी की लहजे में कहता है मैने खुद को इतना बंद क्यों बनाया हुआ है कि किसी कोई अनुमान नही मिल पाता है मै कहाँ हूँ और कैसा हूँ।

गुलमोहर कहता है चिट्ठी मिलते ही आने के बारे में सोचना और सोचना नही आना ही पड़ेगा इससे पहले वो अनमना होकर शहर की तरफ से आँख मूँद ले वो मुझे एक बार देखना चाहता है मिलना चाहता है। क्यों मिलना चाहता है इस बात का जवाब वो इस बार मिलकर ही देगा ये लिखकर गुलमोहर ने चिट्ठी को खत्म किया और कलम कागज़ पर ही तोड़ दी है।

मैं पहले चिट्ठी पढ़कर खुश हुआ बाद में उदास हो गया हूँ। अब मुझे जाना ही होगा भले ही मेरे इर्द गिर्द कितनी हो भौतिक मानसिक बाधाएं हो गुलमोहर के लिए कम से कम एक बार उस शहर में जरूर जाऊँगा भले ही ये हमारी आख़िरी मुलाकात क्यों न हो।

'एक खत गुलमोहर का'

Thursday, August 25, 2016

कुछ लोग

कुछ लोग सम्भवानाओं की खोज के राजदूत थे। वो बड़ी जल्दी में भी थे। दरवाजा नॉक किया बैल बजाई जब तक विलंबित अस्तित्व उठकर आया उनका धैर्य जवाब दे गया वो आगे बढ़ गए। किसी को तलाशना उनकी जिद थी और इसके लिए छोड़ना उनके लिए कोई बड़ी बात नही थी।
फिर भी वो पूर्णतः अतीत से मुक्त नही थे सम्भावनाओं के निष्क्रिय बीज वाले वृक्ष की खोजखबर वो यदाकदा जरूर लेते रहते थे उनके पास नियमित मुस्कान थी कुछ मशविरे थे बस उनके पास शून्य और धैर्य नही था वो हड़बड़ी में थे कभी कभी अपना वक्त मिलाने वो उन पुराने घण्टा घरों की घड़ियों की तरफ विश्वास से देखते थे।
उनका विश्वास इतना अस्थाई था वो सबके मित्र थे मगर वो किसी के मित्र नही थी। उनके पास वक्रोक्ति थी सवाल थे और किसी के जैसा बनने की एक विचित्र सी अपरिभाषित चाह भी उनके साथ छाया की तरह हमेशा चिपकी हुई रहती थी वो जब भीड़ में थे तभी धूप में थे तभी वो सबसे ज्यादा अकेले थे।

'सम वेस्ट नोट्स'

Wednesday, August 3, 2016

आईना

वो एक लम्हा था
भीगा हुआ दरकता हुआ। नदी के नजदीक उसके गीत सुनता दरख़्त अचानक से उसी के वेग में जड़ से उखड़ गया था। ये वक्त सियासत थी या किस्मत की बगावत तय करना थोड़ा मुश्किल था।
आसमान के कुछ कोण उड़न झूले में सवार हो गए थे जहां से अपना ग्रह नही दिख रहा था इसलिए ये तय करना मुश्किल था कहाँ डर कर इसे रुकवाना है या फिर चलते हुए से कूद पड़ना है चिल्लाते हुए।ये बात कुछ कुछ आत्महत्या जैसी लग सकती थी।
उम्मीद के दायरों में उसके लिए रोना मना था इसलिए वो इकट्ठा करता गया दर्द के छोटे छोटे कर्जे।उसकी आँखों में कुछ कबीले बगावत पर उतर गए थे ऐसे में बड़ा मुश्किल था ये पता करना कि दुश्मन अंदर का था या बाहर का।
दिल एक फकीर है और मुहब्बत के पास मांगने के अलावा कोई दूसरा काम नही है वो जिद पे आकर मांगती है उसनें एकदिन जान के साथ जीने का गुरुर ही मांग लिया उसके बाद दिल के तमाशे में जेहन सबसे बड़ा किरदार बनकर उभरा।
माथे की लकीरों में शिकन नही थी बस कुछ शिकवे रफू हो गए थे उसके बाद जख्मों की तासीर जुदा हो गई वो दिखते बेहद शुष्क थे मगर वो अंदर से हरे थे उन पर वफ़ा के पट्टी भी शिफ़ा अता करने की कुव्वत नही रखती थी।
आंसूओं को बेरंग कहे जाने की रवायत रही है मगर उन आंसूओं का जो रंग था उससे कोई इंद्रधनुष नही बन सकता था इसलिए उसे आवारा कह कर छोड़ दिया गया। हां वो आवारा आंसू थे मगर कलेजा चाक करके जिसकी याद में निकलें थे उसके पास वफ़ा की एक फेहरिस्त थी कच्ची पैंसिल से लिखे कुछ जवाब थे इसलिए उन्हें पढ़कर सबसे पहले अपनी कलम याद आई।
उसकी कलम ही उसके कत्ल का हथियार थी जिसे मौक़ा ए वारदात से बरामद किया गया था।
इस तरह एक खूबसूरत ख्वाब ख्याल अपनी मासूमियत के साथ तन्हा बर्बाद हुआ तमाम ऐतिहातन हिफाजतों के बाद।
इश्क़ के बिछोड़े आंसूओं का सफर तय करके आए थे इसलिए उन पर वक्त और खुशफ़हमियों की गर्द चढ़ी थी
आईना उस देश में केवल महबूब के पास था इसलिए वो सबसे पहले खुद की ही शक्ल भूल गया।

'भूली बिसरी बातें'

Sunday, July 31, 2016

फ़्यूजन

तुम इतनी असाधारण थी कि बिना किसी अपराधबोध के ऐन वक्त पर अस्वीकार कर सकती थी प्रणय निवेदन। तुम्हारी यही असाधरणता मेरे मन में कहीं गहरे धंस गई थी। पूर्णता के आवेगों के मध्य तुम जानती थी एक अमूर्त स्पेस को बचाकर रखना ताकि हमेशा बची रहे रिश्तों में एक उदीप्त लौ जिसके ताप में सिकती रहें आत्मा।
तुमनें किस्म किस्म से यात्रा को आरम्भ करके देखा मगर तुम्हारी समाप्ति हमेशा निर्विवाद रूप से अकल्पनीय रही तुमसे प्रेम और आदर एक साथ किया जा सकता था।
मेरे देह के गठन में किसी यूनान के देवता या लड़ाके की झलक नही थी मगर मेरे मन के गठन में तुमनें एक गहरी आश्वस्ति को अपनी तर्जनी की तूलिका से रेखांकित किया था उसके बाद कुछ भी अप्रिय होना सम्भावित ही नही था इस अप्रियता चाहे ईश्वर ही क्यों न चाह लेता।
दरअसल, तुम किसी जल्दी में नही थी न ही जिंदगी ने तुम्हें रिक्त स्थान की पूर्ति करो जैसे सवाल तुम्हें हल करने के लिए दिए थे।
एक दिन किसी पहाड़ी गेस्ट हाउस की खिड़की तुमनें खोली और वहां से दूर कही पीठ किए मैं खड़ा नजर आया तुमनें कोई आवाज़ नही दी बस खिड़की के कांच पर खुद को देखा और मुस्कुराई उसके बाद मेरी दिशा स्वतः बदल गई। मैं इसे आत्म सम्मोहन का नाम देता हूँ।
तुम्हें कहीं नही पहुँचना था इसलिए तुम्हारी यात्रा को रोमांच थोड़ा शुष्क मगर गहरा था। जैसे बांसुरी बजाते समय उसके कुछ छिद्र बारी बारी बंद करने और खोलने होते है तभी वो मधुर गान रचती है ठीक ऐसे ही तुमनें सवाल और जवाब के जरिए मेरी सुर परीक्षा ली हालांकि मेरे हिसाब से इसकी जरूरत नही थी मगर फिर मैंने पाया ये मेरी बेहतरी के लिए है,इसके लिए मैंने खुद को एक जगह इकट्ठा किया और खुद के अजनबीपन को दूर कर खुद को एक साथ एक जगह समग्रता से देख पाया।
तुम्हारे असाधारण होने पर मैंने एकदिन विषयांतर करते हुए कहा धरती और आसमान का कोई रंग नही होता हमनें अपनी सुविधा से उनके रंग तय कर दिए है इस पर तुमनें सहमति या असहमति नही जताई बल्कि कहा रंग देखनें की मनुष्य की अपनी सीमाएं है और स्मृति भी। उस दिन मै समझा कि तुम्हारा विस्तार अलहदा किस्म का है कथनों और परिभाषाओं में तुम्हारी कोई ख़ास रूचि नही है।
एक दिन तुमनें पूछा एकांत की क्या सीमा है तुम्हारे हिसाब से? मुझे लगा तुम एकांत की दुनिया पर बात करना चाह रही हो मगर दरअसल तब तुम मौन की व्याख्या करना चाह रही थी जब मै लौकिक दुःख बताकर चुप हुआ तब ये बात पता चली कि निसन्देह एकांत के बारे तुम अवसाद नही प्रेम की दृष्टि से एक सूत्र वाक्य सुनना चाहती थी।
तुमनें मेरे समानांतर कोई बड़ी छोटी रेखा नही खिंची बस रेखा को जोड़कर एक पुल बनाया और उस पर एक झूला डाल दिया जिस पर झूलते हुए मै कम से कम दो बार तुम्हें पुल पर अकेले खड़े और मुस्कुराते देख सकता था।

'फ़्यूजन का कंफ्यूजन'

देह यज्ञ

देह को अनावृत्त करता हूँ तो दिगन्त तक दिगम्बर स्तुतियां लय बद्ध होकर अनहद नाद में रूपांतरित हो जाती है।

स्पर्शों को ब्रह्म महूर्त की धूप देता हूँ उन पर अनासक्ति के केवड़े के जल का अभिषेक करता हूँ। छाया को छाया के समीप ले जाकर तृप्त कामनाओं का दीप जलाता हूँ।
 जिसमें दो आकार स्वतः दैदीप्यमान हो उठतें है।

अस्तित्व से प्रतिरोध शून्यता की दिशा में आगे बढ़ जाता  है समानांतर एक नूतन मार्ग बनता है जिसमें दिशा की कामना नही बल्कि किसी आकाशगंगा की देहरी पर बैठ कर देह को पवित्रता से चमकते हुए देखना दृश्य में शामिल होता है।

काया के मनोविज्ञान पर दर्शन की टीका करने के लिए मन के सम्पूर्ण श्वांस से अंगुलियों में अंगुलिया फंसाकर प्राणशक्ति से शंखनाद करता हूँ फिर उसकी ध्वनि में हृदय के गहरे और एकांतिक स्नानागार में निःसंग स्नान करने उतर जाता हूँ।

देह के मध्यांतर पर कुछ कीलित मंत्रो के यज्ञ मुझे करने है इसके लिए थोड़ी समिधा उधार मांगता हूँ। फिर वक्री आसन लगाकर मूलबन्ध को साधता हुआ नाभि के इर्द गिर्द स्पर्शों की समिधा सजा देता हूँ। वैदिक ऋचाओं अव्यक्त भावों और सम्बन्धों के दिव्य अग्निहोत्र मंत्र सिद्ध करने के लिए संयुक्ति का कपूर देह की यज्ञ वेदी के ठीक मध्य रख कर प्रथम अग्नि प्रज्वलित कर देता हूँ।

ये एक कालचक्र का षड्यंत्र नही है बल्कि अस्तित्व की संपूर्णता का एक स्व:स्फूर्त आयोजन है जिसकी आवृत्ति किसी नियोजन से मिलती है।

तुम्हारे पैरो तले एक निषेद्ध प्रश्नों का एक युद्ध सनातन से चल रहा है जिसकी कराह में तुम्हारे माथे पर कान लगा कर सुनता हूँ न्याय और औचित्य के तर्क एकत्रित करने की अपेक्षा मैं स्वयं दूत बनकर एक संधि प्रस्ताव तुम्हारी एड़ियों की गुफाओं में दाखिल कर आता हूँ जिस की चर्चा तुम्हारी पलकें गुप्तचर की तरह मेरी आँखों से करती है।

मन के अमात्य थोड़े बैचेन है उन्होंने हमारी हथेलियों को तपा कर गर्म कर दिया है अब उनका प्रभाव को आरोग्य में रूपांतरित करने का उचित समय है इसलिए पीठ की निर्जनता पर ठीक मध्य में बहती नदी में उनको भावना देकर शुद्ध किया जा रहा है ये जन्म जन्मान्तरों के जख्मों पर मरहम पट्टी करने जैसा द्विपक्षीय अनुभव कहा जा सकता है।

काया के असंख्य रुष्ट रोमकूपों ने सन्धि के प्रस्ताव पर आह्लादित होकर मौन को तिरोहित कर दिया है अब वो एकदूसरे की कुशलक्षेम पूछने को लेकर उत्साहित एवं आतुर प्रतीत हो रहे है ये सघन और शाश्वस्त अंतरग परिचय का एक शास्त्रीय सत्र जिसका विधान स्वयं प्रकृति के देवता ने दिगपालों की सम्मति से पंचाग में तिथि देखकर निर्धारित किया है।

अवचेतन के स्वप्न को अमूर्त वीथि से निकाल कर मूर्त अनुभूतियों के दिव्य स्नान के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है तमाम सहमतियों के बावजूद समय ने अपना विद्रोह जारी रखा हुआ है वो भागता है और हाँफते हुए हमारे कान में कहता मैं फिर दोबारा लौटकर नही आऊंगा।
इस बात पर पहले हंसा जा सकता है बाद में थोड़ा नाराज़ भी मगर फ़िलहाल समय को बोध से बाहर कर दिया गया है।

ये देहातीत ही नही कालातीत होने का समय है। ये लिंग और अनुभूतियों की वर्जनाओं का संधिकाल है। ये मूल अस्तित्व के नाभकीय संलयन का प्रथम चरण है जिसके बाद स्मृतियों की बंजर ज़मी से नवसृजन की कोंपले फूटेंगी उन्ही के सहारे यथार्थ की धूप में हम अपनी देह को भस्म होने से बचा सकेंगे।

'न भूतो: न भविष्यति'

Saturday, July 30, 2016

याद शहर

आज तीसरे पहर जब उन्ही रास्तों से लौट रहा हूँ जिन पर तुम साथ थी तो मैंने पाया मेरा गला रुंध रहा है जानता हूँ इस बात में कोई कलात्मक या साहित्यिक गुणवत्ता नही थी मगर इसमें ऐसी सच्चाई थी जिसने मुझे कई घंटो के लिए चुप कर दिया है।

इस चुप्पी में मैं तुमसे बात करता रहा वक्त का सबसे क्रूर पक्ष यह भी होता है आप उसे रिवाइंड करके नही सुन सकते हां उसे गर्दन नीची करके देखने की कोशिश कर सकते है क्योंकि इसके लिए खुद के ही दिल में बार बार झांकना होता है।

जिस खिड़की पर मै फिलहाल बैठा हूँ वहां से रास्ता उलटा दौड़ता नजर आ रहा है मै रास्ते की आँख में रात देखता हूँ रात की आँख में तुम्हारी इमेज बनाने लगता हूँ ये देख रास्ता मेरी तरफ पीठ कर लेता है  मैं उसकी दौड़ती पीठ पर अपनी पलकें झटक देता हूँ मगर कुछ बूंदों को हवा ले उड़ती है वो कहती है इसकी जरूरत तीन रंगों में बंटे बादलों को ज्यादा है जब कल सुबह शहर में बारिश होगी तो इनकी नमी अपने ठीक पते तक पहूंच जाएगी।

मैं बादलों की तरफ देखता हूँ तो यादों की मुस्कान एक आग्रह करती है मगर यकीन करों उदासी मेरे लबो पर ऐसी आ बैठी है मानो न जाने कौन से उधार का तकादा करने आई हो।

छूटते लम्हों की कतरन की तुरपाई करता हूँ और एक छोटा रुमाल बना लेता हूँ बहुत देर से उसी रुमाल को हाथ में लिए बैठा हूँ कभी कभी उसे अपने कानों के पास ले जाता हूँ वहां तुम्हारी हंसी अभी लिपगार्ड के साथ चाय पी रही है इसलिए कान को छूता नही हूँ।

अभी बूंदाबांदी शुरू हो गई है शायद बारिश मुझे थोड़ा और उदास देखना चाहती है वो खुद बादलों से लड़कर आई है ठंडी हवा मेरे माथे पर अपनी अनामिका से लिखती है बी हैप्पी ! मैं कहता हूँ हम्म !

सड़क पर पेड़ो को जब झुका देखता हूँ तब खुद की समझाईश सारे तर्क ध्वस्त हो जाते है मै फिर उलटे पाँव दौड़ने लगता हूँ मगर रास्ता मेरे नीचे से निकल गया है इसलिए अब जिस दिशा में मैं जा रहा हूँ वो मुझे कहां ले जाएगी ये कहना जरा मुश्किल होगा। शायद एक शहर या घर तक मै पहुँच जाऊं मगर मेरे मन को आने में अभी वक्त लगेगा वो जिद करके उतर गया है मुझे नही पता उसे क्या साधन मिलेगा मगर वो तुमसे मिलकर जरूर लौटेगा ऐसा मेरा भरोसा है।

तो क्या मैं तक यूं ही बेमन के रहूंगा? अभी यही सोच रहा हूँ सोचते सोचते जब थक जाता हूँ खिड़की से मुंह बाहर निकाल लेता हूँ और आँखे बंद करके विस्मय से मुस्कुरा देता हूँ।
फ़िलहाल विस्मय यादों और सफर में एक जंग छिड़ी है जो मुझे कतरा कतरा बिखेर रही है मुझे इस पर कोई ऐतराज़ नही इस तरह से भी खत्म हुआ जा सकता है।

किस्सों और हिस्सों की बीच मैं करवट लेता चाहता हूँ मगर बगल में तुम्हारी छाया आराम से सो रही है इसलिए मै समाधिस्थ हो गया हूँ बेशक ये उदासी की समाधि अच्छी नही है मगर फ़िलहाल यही बस मेरे इर्द गिर्द अपनेपन से मंडरा रही है इसलिए मैंने बाहें फैला दी है।

'उदासी: कुछ अधूरे किस्से'

Friday, July 1, 2016

मानसून

सुबह बादलों की राजाज्ञा लेकर मुझसे मिली।
बूंदों ने नींद से जगाया जरूर मगर उनकी आवाज़ लोरी के जैसी थी। बूंदों की जुम्बिश धरती को लेकर बेकरारी वाली नही दिख रही है कुछ मोटी और कुछ छोटी बूंदों के बीच आईस पाईस का खेल जरूर चल रहा है एक दिखती है तो दूसरी छिप जाती है।
इत्तेफ़ाकन थोड़ी हवा भी चल रही है इसलिए ठण्ड अब इसी के भरोसे घर में दाखिल होना चाहती है मगर घर की दीवारें सूरज के यहां गिरवी रखी हुई है इसलिए वो हवा से कहती है कुछ दिन यूं ही आती रहो एक दिन हम तुम्हें जरूर अपने सीने से लगाएंगी।
दूर कही से एक चिड़िया बोल रही है मेरा अनुमान है वो अपने बच्चों को घर ही रहनें की हिदायत दे रही है उसकी आवाज़ में दोहरी चिंता है एक अपने बच्चों को लेकर दूसरी आज के भोजन के प्रबन्ध को लेकर।
बारिश आती है तो मेरी चाय की तलब मुझे इस कदर घेर लेती है कि मेरा मन अलग उड़ान भरता है और तन कुछ अलग किस्म की मांगे रखना शुरू कर देता है।
मैंने अभी अभी तुम्हें याद किया है इसलिए नही कि बारिश है बल्कि इसलिए मुझे तुम्हारे हाथ की बनाई वो चाय याद आ गई जिसमें तुम चीनी डालना भूल गई थी ठीक आज की तरह उस दिन भी बारिश थी। आज मैंने जानकर फीकी चाय बनाई मगर अफ़सोस ये आज सच में फीकी लग रही है उस दिन नही लगी थी शायद इसलिए क्योंकि उसमें तुम्हारी हंसी की मिठास घुली थी।
इस कमरें में एक खिड़की है जब उसके सामनें खड़ा होता हूँ तो लगता है उम्रकैद का कैदी हूँ बाहर बूंदों को देखता तो मुझे मुहब्बत का हश्र याद आता है बादल देखता हूँ तो वक्त के सारे षड्यंत्र याद आते है फिर एक ठण्डी हवा का झोखा मेरे कान में आकर कहता है बी पॉजिटिव हालांकि मुझे इस जुमले से सख्त चिढ़ रही है मगर इसबार मैं चिढ़ता नही बल्कि कहता हूँ चलो मान लेता हूँ।
इसके बाद मैं बूंदों से कहता हूँ मेरी आँखों में जो आंसू सूख गए है उनको पिघला दो वो कहती है बारिश में रोते नही है फिर हम दोनों हंसने लगते है और कुछ गुनगुनाते भी है आखिर में बारिश मुझसे कहती है एक गीत मेरे लिए भी लिखना ताकि मैं तुम्हारे सहारे खुद एकाध गहरी मुलाकात कर सकूँ।
मैं हांमी जरूर भरता हूँ मगर मुझे पता नही कैसे लिख पाऊंगा वो गीत क्योंकि जिसके लिए कभी लिखा था उसकी खुद से मुलाकातें हुई  या नही ये तो नही पता मगर मुझसे मुलाकातें बिलकुल बंद हो गई उसके बाद।
बारिश का एक मतलब इंतजार भी है मेरे लिए ये बात मैंने बूंदों को नही बादलों को बताई है क्योंकि वो मेरे ज्ञात दोस्त और दुश्मन है।

'मानसून टॉक'

Wednesday, June 22, 2016

सम्वाद

दृश्य एक:

देवताल में यह ऋषि मार्तण्ड का आश्रम है।
यज्ञ धूम्र से वातावरण दिव्य सुगंधी से आप्लावित है। गौशाला में गाय भोर के स्वागत में आत्मातिरेक संतुष्ट हो एक लय में अपने कान हिला रही है। ऋषि पुत्र खरपतवारों के पुष्पों पर मोहित हो कौतुहलवश कुछ फूल तोड़कर अपनी माता को दिखातें है तथा उनके रंग एवं कुल की समस्त जानकारी चाहतें है। उनकी माता उनके इस अवांछित कर्म से पहले थोड़ी कुपित होने का अभिनय करती है फिर वो अपने पुत्रों की सरलता पर मुग्ध उनको वनस्पति तथा मनुष्य के सम्बन्ध पर एक सरस कोमल पाठ पढ़ाती है।

दृश्य दो:
आश्रय के निकट एक छोटी नदी कल-कल की ध्वनि में बह रही है। उसके अंदर जो छोटी शिलाएं है वो अपनी दिशा को लेकर आश्वस्त नही है वो शीघ्रता से किनारे का आश्रय चाहती है बड़ी शिलाएं उनके भाग्य की अनिश्चितता पर लेशमात्र भी चिंतित नही है। नदी का जल वेग के अधीन है मगर फिर भी छोटी शिलाओं को न्यूनतम चोट पहुँचाना चाहता है इसलिए वो छोटी कंकरों से कहता है कि उसको अधिकतम हिस्सों में विभाजित कर दें। बड़ी शिलाएं अपने हिस्से का एकांत ढो कर बूढ़ी हो चुकी है मगर उनके अभिमान में किंचित भी कमी नही है उनकी उदारता संदिग्ध है बावजूद इसके वो नीचे से टूटनी शुरू हो गई है।

दृश्य तीन:

मार्तण्ड ऋषि के प्रिय शिष्य वसन्त सुकुमार और ऋषि पुत्री प्रज्ञा में प्रेम को लेकर एक सार्वजनिक विमर्श चल रहा है। शास्त्र में रूचि रखने वाले अन्य शिष्य इसे व्यर्थ का विषय मानतें है इसलिए वो लगभग अरुचि से दोनों के तर्क सुन रहें है।

वसन्त सुकुमार कहता है ' प्रेम का उत्स मन है मगर इसकी यात्रा देह से गुजरती है। देह से विवर्ण होकर न प्रेम सम्भव है और न आराधना। प्रेम का विपर्य प्रायः घृणा समझा जाता है मगर यह पूर्णत: सच नही है प्रेम का कोई विपक्ष नही है यह एकल मार्ग है जो विपक्ष दिखतें है वो मात्र रास्ते के कुछ पड़ाव है जिन्हें कुछ प्रेमी लक्ष्य के रूप में रूपांतरित कर देते है।
प्रेम अनुराग की देहरी पर बैठा सांख्य सिद्ध पुरुष है जो आदि से समन्वय अभिलाषी है इसका विस्तार मुक्ति की सापेक्षिक चाह भर नही है बल्कि ये विस्तार के साथ अनन्त के शून्य में विलीन होने की यात्रा है।'

प्रज्ञा प्रतिवाद करती है और कहती है ' मन की यात्रा मन से आरम्भ होकर मन पर ही समाप्त होती है। मन को देह की इकाई नही है मगर ये देह को भौतिक अवस्था में स्तम्भित रखनें में समर्थ है। प्रेम दरअसल मनुष्य की नैसर्गिक आवश्यकता भर नही है यह प्रकृति का एक हस्तक्षेप है जो मनुष्य की संवेदना को परिमार्जित और परिष्कृत करनें के लिए अस्तित्व का एक सहयोगी उपक्रम है।
मैं प्रेम को प्रतिछाया के रूप में देखती हूँ मगर ये नियंत्रण से मुक्त है प्रारब्ध और नियति के हाथों ये शापित है अनुराग वर्जनीय नही मगर अनुराग को उसकी सही दशा और दिशा में समझनें के लिए प्राणी प्रायः त्रुटि कर बैठता इसलिए प्रेम मार्ग और लक्ष्य दोनों से च्युत होकर विभरम की ध्वनि देना लगता है।

दृश्य चार:
ऋषि पुत्र आसमान की तरफ देखकर वर्षा का अनुमान लगा रहे है उनके पास कुछ अनुमानित कथन है वो उसकी पुष्टि आश्रम के आचार्यो से चाहतें है मगर आचार्य कहते है प्रकृति के बारें में अनुमान विकसित करना शास्त्रोक्त नही है। केवल सिद्ध पुरुष मौन के बाद इस पर कुछ बोलने के अधिकारी है।वे उन्हें प्रतीक्षा के कुछ मौलिक सूत्र देते है जिन्हें सुन ऋषि पुत्र असंतुष्टि की हंसी हंसते है और अपनी अपनी भविष्यवाणी प्रकाशित कर देते है।

सूत्रधार:
प्रकृति,प्रेम,प्रतीक्षा तीनों पर भाष्यों की आयु बेहद सीमित है तीनों अनित्य है मगर उनकी नित्यता भी असंदिग्ध है।
जो ज्ञात है वही अज्ञात है और जो अज्ञात है उसको जानने के लिए मनुष्य व्याकुल है। ये व्याकुलता उसे मुखर बनाती है। जैसे बादलों के सहारे धरती करवट बदलती है जैसे नदियों के किनारे हर साल समन्दर के लिए गुप्तचरी करते है ठीक वैसे ही मनुष्य अपने लिए असंगतताओं का चयन करता है। ये चयन मनुष्य की सबसे बड़ी सुविधा है और यही सबसे बड़ी असुविधा।

(समाप्त)

©डॉ.अजित

Tuesday, June 21, 2016

सुबह

ये डेनमार्क की एक सुबह है।

सूरज अपने औसत क्षेत्रफल से डेढ़ गुना छोटा निकला है। खगोलशास्त्र के लिहाज़ से ये कोरा गल्प है मगर प्रार्थनाओं का मनोविज्ञान साफ तौर पर इसकी वजह जानता है। सुबह हर देश की लगभग एक जैसी ही होती है किसी भी देश के देर तक सोते हुए लोग हमेशा कुछ न कुछ खो देते है ये अलग बात है जो रात में देर से सोते है वो पहले से कुछ बेहद प्यारा सामान कहीं खो चुके होते है।

सुबह की अच्छी और खराब बात यही है कि ये समय से नही आती है सब अपनी सुबह के इंतजार में है। कुछ फूल बिना किसी के इंतजार में खिल गए है उन्हें बारिश का भी इंतजार नही है बारिश यहां की सबसे उपेक्षित चीज़ है मगर वो धरती के सहारे जब भी मिलनें आती है हमेशा धरती को रुला कर जाती है।

कुछ रास्तों के कान थोड़े बड़े है वो मुद्दत तक करवट नही लेते है मगर उन्हें बच्चें बूढें जवान सबके कदमों के निशाँ साफ तौर पर याद है। लोग गुजर जातें है फिर रास्तें उन कदमों के निशान को उठाकर अपने संग्रहालय में ले जातें वहां किस्म किस्म के लोग यूं ही बेजान टंगे है रास्तों के पास हंसने का केवल एक ही विषय है वो उन लोगो के बारें में अनुमान लगाते है जो लौटकर नही आतें।

पार्क में कुछ बुजुर्ग बातें कर रहें है मगर मजे की बात ये है उन बातों में किसी की कोई दिलचस्पी नही है खुद उन बुजुर्गों की भी नही एक आदमी के पास अतीत की बातें है तो एक के पास भविष्य की चिंता दो आदमी ऐसे है जिनके पास केवल सहमति है उनके पास कोई विचार नही है वो मुग्ध भी नही है मगर फिर अचानक से एक खड़ा होता है और एक पेड़ की तरफ इशारा करता है और कहता है कोई बता सकता है ये पिछले जन्म में कहाँ पैदा हुआ था इस बात पर सब हंस पड़ते है इस तरह से सुबह के हिस्से में पहली बूढ़ी हंसी आती है।

एक बच्चा रो रहा है ऐसा लग रहा है उसका ईश्वर से सीधा संवाद हो रहा है। एक बच्चा हंस रहा है उसे देख सुबह अपनी यात्रा की थकान भूल गई है। धूप है मगर ठण्ड अनुपस्थित नही है फिर भी लोग धूप का आदर करतें है मगर वो चाहती है लोग उससे प्यार करें।

और मैं इस वक्त उपग्रह की तरह अपनी कक्षा के चक्कर काट रहा हूँ ताकि कुछ पूर्वानुमान भेज सकूं मेरी मदद से सुबह यह तय करेगी कि उसे धरती के किस हिस्से से प्यार करना है और किससे बातचीत कुछ दिन के लिए बंद रखनी है।

'ओ रे यायावर'

Sunday, June 19, 2016

खत: नंदिता दास

डियर नंदिता दास,
मन के ऊष्णकटिबंधीय मौसम पर खड़ा सोच रहा हूँ इस खत को शुरू कहाँ से करूँ?
ख्याल इस कदर आपसे में गुथे है कि एक का सिरा पकड़ता हूँ तो दूसरा छूट जाता है।

तुम्हें कुछ कहने के लिए धरती के सबसे उपेक्षित टुकड़े पर मैं समाधिस्थ बैठा हूँ यह लगभग प्रार्थना के क्षणों के जैसा है या फिर मन के सूखे निर्जन रेगिस्तान में एक आवारा बदली के टुकड़ी के इंतजार में आसमान की तरफ देखनें जैसा भी इसे समझा जा सकता है।

तुम्हें कुछ कहने से पहले किसी मांत्रिक की तरह मेरे होंठ कंपकपा जाते है। तुम्हारे अस्तित्व का सम्मोहन सीधे मेरी सोई हुई रूह के बालों में  कंघी कर उसके हाथ में एक पतंग थमा जाता है फिर वो बिना के डोर के आसमान में आवारा उड़ती फिरती है।

खूबसूरती की जिस दुनिया में गोरे लोगो का कब्जा था वहां तुम्हारे सांवलेपन ने एक ऐसा समयोचित हस्तक्षेप किया किया तुम्हारे कारण सांवले लोग खुद से प्यार करना सीख गए। तुम्हारा होना उनकी आँखों में आत्मविश्वास का होना है। तुमनें बताया यदि खुद पर भरोसा किया जाए तो दुनिया की हर स्थापित मान्यता को बेहद अकेला किया जा सकता है।

तुम्हारे अस्तित्व का सम्मोहन इतना गहरा है कि मैं निर्बाध इस पर बोलता रह सकता हूँ और उतनी ही सघनता के साथ तुम्हें देख मुद्दत तक मौन रह सकता हूँ। ये एक बड़ी दुलर्भ सी बात है।

तुम हंसती हो तो लगता है दिन में सूरज के आतंक के बीच भी कुछ सितारे बादलों को हटा धरती को देखनें चले आए हो। तुम्हारे अस्तित्व को देखने के लिए उपग्रह की तरह सतत् यात्रा में रहना पड़ता है तभी तुम्हें पूर्णता के कुछ अंशो में देखा जा सकता है। जब चेतना की ऊंचाई से तुम्हें देखता हूँ तो तुम्हारा कद और भूमिका बेहद व्यापाक पाता हूँ मानो धरती के दो ध्रुवों के मध्य तुम्हारे अस्तित्व का एक पुल बना हो एक तरफ हारे हुए लोग हो और दूसरी तरफ जीत से मायूस बैठे लोग।

मैं यदा कदा असंगत कविताएँ लिखनें वाला एक अकवि हूँ मगर तुम्हें देखता हूँ तो सम्वेदना के न जानें कितने अमूर्त प्रतीक और बिम्ब मुझे बताते है कि तुम्हारे व्यक्तित्व की अनगिनत ढंग से टीकाएं की जा सकती है।

तुमनें देह को वर्ण से मुक्त नही किया बल्कि देह को इस वर्ण के साथ अभिमान के साथ रहने का कौशल सिखाया है तुम्हें देख न जानें कितने लोग सन्तोष की रोटी आत्मविश्वास की चटनी के साथ सार्वजनिक तौर पर खा सकते हैं।
एक इंटरव्यू में मैंने तुम्हारा काजल ध्यान से देखा तो पाया कि यह कुछ कुछ वैसा है जैसे ईश्वर ने धरती की सबसे उपेक्षित झीलों की अपनी चूल्हें के कोयलें से मेढ़बंदी कर दी हो ताकि वो आपस में मिलें बिना भी सहजता से रह सकें और उनका जलस्तर बचा रहें।

तुम्हारी आँखें निरुपाय मनुष्य को बताती है कि दुःख उतनी भी व्यक्तिगत चीज़ नही है जितना इसे समझ लिया जाता है तुम्हारी पलकों पर दुनिया के उस हिस्से का पता लिखा है जहां दुनिया के सताए हुए लोग एक दूसरे के ज़ख्मो की मरहम पट्टी करते है और कोई अहसान भी नही जताते।

तुम्हारी ऊँगलिया अपेक्षाकृत लम्बी है मानो ईश्वर ने इन्हें आसमान के बालों में कंघी करने के लिए बनाया हो तुम्हारे नाखूनों की कलात्मक बुनावट मेसोपोटामिया के छोटे पहाड़ी टीलों के जैसी है जहां से छलांग लगा कर सभ्यता के विकास का पूरा पाठ बहते हुए पढ़ा जा सकता है।

परम्परा के लिहाज़ से तुम उस मिट्टी से आती हो जो इंसान को छूकर उसे उसकी समस्त कमजोरियों के बावजूद देवता बना देती है मगर मैं देवता बननें का अभिलाषी नही हूँ देवत्व के ग्लैमर से कई गुना बड़ा परिचय यह है कि मैं नन्दिता दास को थोडा बहुत जानता हूँ थोड़ा बहुत इसलिए कहा क्योंकि तमाम प्रज्ञा तन्त्र के बावजूद तुम्हें पूर्णता में जान पाना मेरे सामर्थ्य से परे की बात है।

जहां तक मेरी जानकारी है तुम ज्यादा लम्बे बाल नही रखती हो यदि लम्बे रखती तो और अच्छा होता इसलिए नही कि मुझे लम्बे बाल पसन्द है बल्कि इसलिए फिर तुम्हारी छाया में अधिक लोग प्राश्रय पा सकतें है।फिलहाल जो तुम्हारे बाल है वो महज तुम्हारे बाल नही है बल्कि असमर्थताओं के पहाड़ की पीठ पर बादलों की आवश्यक छाया है ताकि सृष्टि के अंत के समय जीने लायक कुछ वनस्पतियां संरक्षित बच सके और जिंदगी की क्रूरता को थोड़ी दिन के लिए स्थगित किया जा सके। बहुत मतलबी होकर सोचने लगता हूँ तो तुम्हारे बाल मुझे उच्च हिमालय की तलहटी के कुछ छोटे छोटे अज्ञात जंगल लगनें लगते है जिनकी छाया में सुना है सिद्ध लोग समाधिस्थ है। दुनियावी झंझटो से निबटकर एकदिन उसी जंगल में सुस्ताने की कामना मन में लिए मुद्दत से मैं धरती पर भटक रहा हूँ।

मुझे उम्मीद है एक दिन तुम्हारी हंसी की बारिश में मौसम को चिढ़ाते हुए एक निर्जन पगडंडी पर मैं दिल की सिम्फनी बजाते हुए बहुत दूर निकल जाऊँगा तब ये खत एक वसीयत की तरह मेरे चाहनें वाले लोग पढ़ेंगे।

दुनिया की तमाम उम्मीदों के बावजूद मुझे बात की कतई उम्मीद नही कि एकदिन तुमसे मेरी मुलाकात होगी इंफैक्ट मैं चाहता भी नही तुमसे कभी मुलाकात हो मैं बस यूं ही दूर से तुमसे देखतें हुए दिन को ढलतें हुए देखना चाहता हूँ और इस तरह तुम्हें देखना ठीक वैसा है जैसे समन्दर के सफर में किसी अकेले मुसाफिर को शाम हो जाए।

किसी मोड़ पर यूं ही फिर मुलाकात होगी और हां!अंत में एक बात कहकर विदा लेता हूँ
तुम्हारी मुस्कान तुम्हारी हंसी से ज्यादा खूबसूरत है।

तुम्हारा
एक ईमानदार दर्शक

खत:निमरत कौर

डियर निमरत कौर,
उम्र में तुम शायद कुछेक साल मुझसे बड़ी हो फिर भी तुम ही कह कर सम्बोधित कर रहा हूँ। वजह ये नही कि मैं आयुबोध को मिटाना चाहता हूँ,बल्कि इसकी वजह ये है कि 'लंचबॉक्स' में तुम्हारी बातों ने मुझे बताया कि जीवन औपचारिकताओं के साथ बाँध लेना बुद्धिमानी नही है।जीवन तो हिस्सों में बटा होता है और खुशियों का कोई तयशुदा पता नही होता है वो संयोग से जीवन में दाखिल होती है बशर्ते हमनें एक खिड़की उम्मीद की खुली छोड़ रखी हो।

तुम्हारी फ़िल्म 'लंचबॉक्स' देखें मुझे अरसा बीत गया है मगर ये फ़िल्म मेरी दुनिया से बीत नही पाई तुम्हारी अति साधारण घरेलू छवि की एक प्रतिलिपि मैंने हमेशा अपनी बाई जेब में रखी उसका बाहर की दुनिया में मिलान किया मगर हुबहू तुम्हारे जैसा कोई नही मिला। खुशियों के लिहाज़ से तुम भूटान जाना चाहती थी और अपने दुखों के हिसाब से मुझे लगा तुम्हारा पड़ौसी बन जाऊँगा तो मेरी तकलीफे भी कुछ कम हो जाएगी मगर तुम बिना पता बताए ही निकल गई। मैं तब से भूटान का नक्शा अपने तकिए नीचे रख कर सोता हूँ मगर अफ़सोस आजतक एक भी ख़्वाब तुम्हारे देश का नही आया।

फ़िल्म तो बहुत से लोगो ने देखी और तुम केवल उसमें अपना किरदार निभा रही थी ये बात भी सभी जानतें है मगर मैंने तुम्हें जब पहली बार इस फ़िल्म में देखा तो मेरे मन में पहला ख्याल ये आया कि रसोई के छौंक में एक स्त्री के मन की कुछ परतें भी भांप बन रोज़ उड़ती है तुम्हारे जरिए मैं गले में लटके मंगलसूत्र की यन्त्र विधान की दृष्टि से विवेचना कर पाया छोटे काले दानों की माला के मध्य स्वर्ण जड़ित पैंडिल स्त्री को स्तंभित रखने का एक शास्त्रोक्त यन्त्र मंगलसूत्र है ये बड़ी पवित्र किस्म की सनातनी चालाकी है ये बात मैं  तुम्हें देखने के बाद ही जान पाया।

स्त्री सवाल न करें बल्कि अपने ध्येय पर अड़िग बनी रहे ये तो बरसों की कंडीशनिंग का हिस्सा रहा है मगर तुमनें बिना ख़ास कोशिशों के अपनी इच्छाओं का सम्मान करने के छोटे छोटे नुक्ते भी जरूर बताए। टिफिन बॉक्स में रखी छोटी छोटी पर्चियां कोई प्रेम पत्र नही थे दरअसल वो अस्तित्व के वो छोटे छोटे सूत्र थे जिन्हें कभी कामनाओं तो कभी वर्जनाओं के दबाव के चलतें किसी ने भाष्य के लिए उपयुक्त नही समझा था जबकि वो जीवन की मनोवैज्ञानिक सच्चाई और सेल्फ के विस्तार के बड़े महत्वपूर्ण दस्तावेज़ थे।

कुल जमा एक फ़िल्म और एक डेयरी मिल्क चॉकलेट के विज्ञापन में तुम्हें देखा है मगर सच कहूँ डेयरी मिल्क के विज्ञापन तक मैंने तुम्हें नोटिस नही किया था और न ही तुम्हारा नाम जानता था मगर लंचबॉक्स देखनें के बाद सबसे पहले मैंने गूगल करके तुम्हारा नाम पता किया।

निमरत की ध्वनि अमृत से मिलती है जानता हूँ भाषाविज्ञानी मेरी इस धारणा से सहमत नही होंगे उनके हिसाब से तुम्हारे नाम का अर्थ अलग होगा मगर मुझे तुम्हारा अस्तित्व अमृत के जैसा ही लगता है हो सकता है निजी जिंदगी में तुम बिलकुल अलहदा हो मगर लंचबॉक्स के इस किरदार में तुम्हारा अस्त व्यस्त और हमेशा थोड़े तनाव में रहनें वाला नाखुश सा चेहरा ठीक वैसा लगता है जैसे किसी मन्दिर के कपाट बिना पंचाग में महूर्त देखे खोल दिए हो और ईश्वर भक्तों की न शक्ल देखना चाहता हो और न उनकी आवाज़ सुनना चाहता हो या फिर जिस तरह से दो कोयल जंगल में कूक उठाने की प्रतिस्पर्धा में स्वर की जिद पर उतर आती है और अंत में एक थक कर चुप हो जाती है तुम मुझे ऐसे ही थकी हुई एक कोयल भी लगी हो।

इस फ़िल्म में बिन चुन्नी जब तुम सब्जी काटती हो तो लगता है अनन्यमयस्कताओं की कतर ब्योंत कर रही हो उनकी सद्गति का पुख्ता इंतजाम तुम्हें पता है। एक अमूर्त आलम्बन ध्वनि और शब्दों के जरिए तुमनें जिया और सम्बन्धों का पुनर्पाठ बहुत से शापित लोगो को करवा गई इस बात के लिए कम से कम व्यक्तिगत रूप से मैं तो तुम्हारा कृतज्ञ हूँ।

बहरहाल,फ़िल्म में तो तुम भूटान चली गई थी और इरफ़ान यही अटक गए थे हकीकत में इरफ़ान तुमसे कभी भी मिल सकते है मैं शायद ही कभी मिल पाऊंगा और अगर कभी मिला भी तो इन सब बातों का वो वाचिक अर्थ नही बचेगा जो अब मैं लिखकर बताना चाहता हूँ इसलिए अंत में शुक्रिया कहूँगा इस बात के लिए कि तुम्हारे लंचबॉक्स ने मेरे जैसे चटोरे आदमी को खाने से ज्यादा पढ़ना सीखा दिया है अब मैं खत ही नही चेहरा भी पढ़ता हूँ और निसंदेह इसकी बड़ी वजह तुम्हारा चेहरा भी है जिस पर साफ साफ़ लिखा था खुशियों का एक सिरा संयोग से भी जुड़ा होता है और संयोग उम्मीद बचाने के काम आता है। जहां तक मन के खत का सवाल है क्या पता कब गलत पते पर एक सही खत पहूंच जाए।

आदतन खत लम्बा हो गया है उम्मीद है आगे कभी बात होगी तो तुम्हारे लंचबॉक्स की पर्चियों की तरह होगी तुम जीवन में विस्तार पाओं मैं तब तक सिमटने का हुनर सीख कर आता हूँ।

तुम्हारा
एक ईमानदार दर्शक


जिन दिनों...

जिन दिनों फेसबुक पर नही था मैं
याद कर रहा था
अपनी तमाम बदतमीजियां
जो की थी कभी फेसबुक पर
मसलन
इनबॉक्स में बेवजह बिफर जाना
खुद को बहुत आदर्शवादी दिखाना
रिक्वेस्ट न भेजना
न एड करते जाना

किसी से नम्बर मांग लेना
किसी के पवित्र आग्रह पर
इनकार कर देना
जिसको नम्बर दिया
उसका फोन न उठाना

जहां जहां ईगो हुआ घायल
तर्को की मदद से बहस को विषयांतर की तरफ ले जाना
विपक्ष को लगभग निःशस्त्र करने जैसी जिद पर उतर आना

जिन दिनों फेसबुक पर नही था मैं
याद कर रहा था तमाम बेवकूफ़िया
जैसे शराब पीकर ऑनलाईन आ जाना
पव्वे से लेकर बियर बार तक तस्वीरें चिपकाना
फिर कुछ दोस्तों से लड़खड़ाती जबान में बतियाना
भावुक होकर इमोशनल कमेंट लिख जाना
फिर सुबह उठकर पछताना

उन दिनों
याद तो मुझे मेरी बेढंगी सेल्फ़ी भी बहुत आयी
खीझ की हद तक
दोस्तों को खुद की तस्वीरों से पकाना
आत्ममुग्धता को भी एक क्वालिटी बताना

रिपोस्ट के जरिए दोस्तों की याददाश्त आजमाना
पूछनें पर मुकर जाना
कमेंट के इंतजार में रातें बिताना
टच स्क्रीन का गर्म हो जाना
बेट्री एक प्रतिशत रहनें पर
घनिष्ठ दोस्त का इनबॉक्स में आना

जिन दिनों फेसबुक पर नही था मैं
याद कर रहा था
वो तमाम बातें जिनके साथ
फेसबुक पर था मैं।
© डॉ.अजित

Friday, June 17, 2016

नदी खत

तुम एक पहाड़ थे मेरे लिए।
जिसकी पीठ से लिपट मुझे थोड़ी देर सिसकना था। इन सिसकियों में कुछ ठण्डी आहें शामिल थी जिन्हें आंसूओं से गर्म करना था ताकि वे चाहतों के समन्दर में गिरने से पहले ही उड़ जाए।
मैं आंसूओं को बादल बनाना चाहती थी उसके लिए मैंने तुम्हारी पीठ चुनी तुम मेरे जीवन के पहले वो शख्स थे जिसकी रीढ़ की हड्डी झुकी हुई नही थी इसलिए मन में कहीं एक गहरी आश्वस्ति थी कि तुम्हारे आलम्बन से मेरी गति पर कोई प्रभाव नही पड़ेगा तुम्हारा पास अपेक्षाओं का शुष्क जंगल भी नही था इसलिए मैंने मन के अरण्य की कतर ब्योंत कर एक साफ रास्ता तुम तलक आनें का बनाया।
अमूमन पीठ का आलम्बन पलायन की ध्वनि देता है या फिर इसमें किसी को रोके जाने का आग्रह शामिल हुआ दिखता है मगर तुम्हारे साथ दोनों बातें नही थी।
तुम्हारी पीठ चट्टान की तरह दृढ़ मगर ग्लेशियर की तरह ठण्डी थी मेरे कान के पहले स्पृश ने ये साफ तौर पर जान लिया था कि तुम्हारे अंदर की दुनिया बेहद साफ़ सुथरी किस्म की है वहां राग के झूले नही पड़े थे वहां बस कुछ विभाजन थे और उन विभाजन के जरिए अलग अलग हिस्सों में तनाव,ख़ुशी और तटस्थता को एक साथ देखा जा सकता था।
तुम्हारे अंदर दाखिल होते वक्त मुझे पता चला कि जीवन में प्लस और माइनस के अलावा भी एक चुम्बकीय क्षेत्र होता है जिसकी सघनता में दिशाबोध तय करना सबसे मुश्किल काम होता है तुमसे जुड़कर मैं समय का बोध भूल गई थी संयोगवश ऊर्जा का एक ऐसा परिपथ बना कि यात्रा युगबोध से मुक्त हो गई निसन्देह वो कुछ पल मेरे जीवन के सबसे अधिक चैतन्य क्षण है जिनमें मैं पूरी तरह होश में थी।
तुम पहाड़ थे तो मैं एक आवारा नदी मुझे शिखर से नीचे उतरना ही था सो एकदिन
बिना इच्छा के भी मैं घाटी में उतर आई मगर मगर मेरी नमी अभी भी तुम्हारी पीठ पर टंगी है इनदिनों जब मैं यादों की गर्मी में झुलस कर एकदम शुष्क हो गई हूँ तो मैं चाहती हूँ तुम मेरी नमी को बारिशों के हाथों भेज दो मैं रोज़ बादलों से तुम्हारे खत के बारें में पूछती हूँ इस दौर के बादल बड़े मसखरे है वो कहते है उनके पास बिन पते की चिट्ठियां है उनमें से खुद का खत छाँट लो! अब तुम्ही बताओं जब तुम्हारी लिखावट पलकों के ऊपर दर्ज है मैं कैसे पता करूँ कि कौन सा खत मेरे लिए है?

'पहाड़ नदी और खत'

Tuesday, May 31, 2016

विदा

प्यास जब बहुत उत्कट किस्म की होती है तब पानी को रास्ते से गुजरता हम देख पातें है। स्वाद की ग्रन्थियां तब क्षणिक रूप से आँखें बन जाती है।
भूख में इसके ठीक उलट हो जाता है हमें दिखना बंद हो जाता है और महसूस करना शुरू देते है,तब तरल जल भी चुभता हुआ मंजिल तक पहुँचता है।
दूरी उतनी जरूरी होती है जितने में दिखता भी रहे और चीजो का नजदीक आनें का भरम भी बचा रहे।
मगर जरूरत कई दफा अपने ही ढंग से परिभाषित होती है जब बातों के दो सिरे नही जोड़ पाते तो द्वैत को जीने लगते है।
दरअसल, हिस्से में कई बार एकांत आना चाहता है वो प्रतिक्षा करता करता बूढ़ा हो रहा होता है फिर एकदिन वो देह छोड़ देता और उसकी आत्मा मोक्ष की कामना मे हमारे इर्द गिर्द चक्कर काटने लगती है।
निर्वासन एक घोषणा है या फिर एक सुविधा इस पर इतने अलग अलग किस्म के भाष्य है कि सम्बोधि के घटित होने से पहले वो बहुधा कुप्रचारित हो जाती है।
राग की एक अपनी अलग दुनिया है वो हमारे चेहरे को इतने हिस्सों में बांट देती है कि फिर मन और चेतना दोनों अपनी अधिकतम उड़ान पर उड़ते है दोनों के अंतिम अरण्य अभी अज्ञात है इसलिए वो निकटतम टापूओं के मानचित्र अपने पंजो में दबाकर लौट आते है।
मनुष्य भीड़ क्यों चाहता है या फिर मनुष्य अकेलापन क्यों चाहता है इन दो प्रश्नों से अधिक जरूरी है मनुष्य की चाह पर अपूर्णता का बोध कब तक टिका रह सकता है?
स्नेह अनुबंधन और जुड़ाव की त्रयी के ठीक मध्य एक त्राटक का बिन्दू है जिस पर जैसे ही नजर जमती है एक दरवाज़ा अंदर की तरफ खुलता और एक बाहर की तरफ वहां कुछ ही क्षण में निर्णय करते हुए आगे या पीछे हटना होता है निर्णय एक घटना नही बल्कि एक प्रतिक्रिया है इसलिए उसकी विश्वसनीयता कुछ अंशो में हमेशा संदिग्ध रहती है। कुछ आत्मप्रवंचनाएं इसलिए भी हमेशा अनाथ रहती है।
आना जाना और फिर आना ये आवागमन के तीन रास्तें ही नही बल्कि काल के तीन संस्करण भी है तीनों को पढ़ते हुए विमर्श में नही उलझना चाहिए बल्कि उनसे गुजरकर उसी एकांत के टीले पर बैठ सुस्ताते हुए मुस्कुराना चाहिए जो मन के मानचित्र में सबसे उपेक्षित पड़ा था।

पुरोवाक् के बाद लोक की चार पंक्तियों में लौटता हूँ न जाने किसनें किस के लिए लिखी थी मगर जिसनें भी लिखी थी ठीक वैसे ही लिखी होगी जैसे आरती के बाद शंख बजता है फिर घण्टी की शान्ति के साथ प्रसाद दिया जाता है।
अहसासों की धूप में आश्वस्ति की इलायची और स्नेह की मिश्री अपने सभी चाहनें के मध्य बांटता हूँ और पहले मासपरायण विश्राम के लिए तन मन के गर्भ ग्रह में लौटता हूँ।

"किसी के आनें से न जानें से जिंदगी रुकी है कभी
माना कि मेरा जाना भी तय हुआ है अभी
फिर भी इस कदर तुम्हारी बेकरारी रुला देती है
मेरे बाद भी तुम्हें हंसना है जिंदगी सब सिखा देती है।"

सादर, सस्नेह
डॉ.अजित
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ताकि सनद रहें:

याद करना या याद आना जिनके लिए मजबूरी है वो जून की तपन में कुछ गीले खत इसे पते पर रवाना कर सकते है उम्मीद भर है वो रास्तें में सूख जाएंगे मगर उनकी स्याही पर टिके स्पर्शों से मैं धरती और चाँद के बीच एक समकोण देखूँगा जिससे कूदकर चोट न लगती हो और दूरी भी तय हो जाती हो।अक्षरों की बुनावट में मित्रता के बेड़े को अकेला खोल समन्दर की एक लम्बी यात्रा पर निकल जाऊँगा। न कोई आग्रह न कोई निवेदन न कोई अपेक्षा मात्र खुद को परखनें का इम्तिहान बना रहा हूँ जिसके जवाब देकर मुझे सवाल लिखनें है।

खोज खबर का डाकिया पता:

डॉ.अजित सिंह तोमर
ग्राम+पत्रालय- हथछोया
जनपद- शामली
247778, उत्तर प्रदेश।

Friday, May 27, 2016

आवारा मन

यूरोप के एक बूढ़े शहर का सबसे पुराना चर्च है। पादरी अब सुबह शाम नही दोपहर को आता है। उसके हाथ में बाईबिल नही किसी बच्चे की पोयम्स की एक बुक है।
चर्च की घण्टी अब ईको नही करती है उसकी ध्वनि एकदिशा में आगे बढ़ती है मगर लौटती नही है। चर्च के बाहर एक छोटा लॉन है वहां बर्फ के नवजात शिशु घास के साथ नींद का अभ्यास कर रहें है हवा की लोरी उन्हें सुलाती है तो कुछेक घण्टों की धूप उनकी पीठ पर मालिश करती है।
जीसस अंदर बेहद अकेले है वो तस्वीर से निकल कर चर्च के पीछे बने कब्रिस्तान में सोई चेतनाओं को देखनें निकल गए है रोज़ रात वहां पाप पुण्य और अपराधबोध का उत्सव होता है।
चर्च की पियानों की कुछ कड़ियां ढीली हो गई है वो सूर को बीच में ही आवारा छोड़ देती है फिर प्रार्थना का पूरा ट्रेक आउट ऑफ़ ऑर्डर हो जाता है ये सुनकर मोमबत्तियां हंसते हंसते बुझ जाती है।
चर्च के अहाते में एक बूढ़ी औरत रोज़ शाम आती है वो जीसस को दिल खोलकर अपनी गलतियां बतानी चाहती है मगर वो अंदर नही जाना चाहती वो चाहती है जीसस उसके पास आकर बैठे और वो एक उदास गीत गाए और अंत में जोर से हंस पड़े वो चाहती है ईश्वर का पुत्र उसके आंसूओं को चखकर उन्हें सृष्टि का दिव्य पेय घोषित कर दें।
चर्च का वास्तु थोड़ा रहस्यमयी है उसकी दीवारें थोड़ी टेढ़ी हो गई है वो देखती है कि कुछ नव युगल दम्पत्ति प्रेम को बरकरार रखनें में असफल रहें ये सोच कर वो उदास हो जाती है वो चर्च के रोशनदानों से कहती है विवाह दुनिया की सबसे झूठी संस्था है।
चर्च अब थक गया है वो थोड़ी देर उकड़ू बैठना चाहता है मगर जैसे ही मनुष्य को मजबूर देखता है वो अपने आराम करने का विचार बदल देता है।
एक बूके चर्च में रखा है उसके फूल ताज़ा है मगर उनकी टहनी सूख गई है फूल की खुशबू कन्फेशन करना चाहती है कि उसका कौमार्य उसनें भंग किया जिसको वो बिलकुल प्रेम नही करती थी चर्च मना कर देता है तो वो टूटकर बिखर जाती है।
यूरोप के बूढ़े शहर का यह एक बूढ़ा चर्च है मगर इसकी अंदरुनी दुनिया अभी भी बेहद जवान है।

'आवारा मन'

परिभाषाऐं

पहाड़ का अर्थ होता है ऐसी असीम ऊंचाई जहां से दुनिया दिखनी बंद हो जाए और खुद का सही कद पता चले।
नदी का अर्थ होता है धरती पर बिछी एक खण्डित रेखा जिसको हिस्सों में तरलता का सुख दुःख छिपा होता है।
झरनें का अर्थ होता सतह से हटकर जीना और अपनी नमी को बचाए रखना बोझ का तिरस्कार इसी नमी का पुरस्कार होता है।
समन्दर का अर्थ होता है गहराई के बावजूद ऐसा धीमा शोर करना कि कोई भी दुनियावी शख्स हमेशा के दुनिया को भूल जाए।
जंगल का अर्थ होता है एक बिछड़ा हुआ कुनबा जो अलग अलग हिस्सों में अपने कुल के अभिमान में तना रहता है।
हवा का अर्थ होता है आवारगी का एक ऐसा गुमशुदा चस्का जो कभी दुनिया की हकीकत जानने के बावजूद दिल बहलाने का हुनर सीख जाना।
मनुष्य का अर्थ होता है भटकना कभी किसी के भरोसे कभी किसी के जो मंजिल पा जाते है मनुष्य उन्हें ईश्वर घोषित कर देता है।

'परिभाषा की भाषा'

Thursday, May 26, 2016

दर्द की दुनिया

दर्द एक क्षेपक है। कुछ कुछ अर्थों में सूत्रधार भी हो सकता है। दर्द चैतन्यता की सबसे निकटतम परीक्षा है या फिर दर्द सापेक्ष और निरपेक्ष के मध्य टंगा दही का कटोरा है जिसका गुणधर्म दिन और रात में बदल जाता है। दर्द के साथ रहकर देह की याद आती है मगर दर्द के बाद हम पहली चिट्ठी उस मन के मीत को लिखतें है जिसें मीलों दूर भी हमारे दर्द से दर्द होता है इस तरह से देखा जाए तो दर्द बेतार का एक तार है जो बेहद कम शब्दों में लिखना होता है बस एक अदद पता सही होना चाहिए।
दो दिन से मेरी गर्दन में दर्द है इससे पहले मैंने अपनी गर्दन को कभी ध्यान से नही देखा अपनी गर्दन को देखनें की मेरी अधिकतम स्मृति नाई की दुकान की है मगर अब मैं अपनी प्रेमिका के बालों की तरह इसकी सतह पर उंगलियो से कंघी करता हूँ निसन्देह ये बात गर्दन को अच्छी ही लगती होगी तभी वो इश्क की तरह अकड़ कर  सीधी हो गई है वो मेरी दृष्टि में एकाधिकार चाह रही है नही चाहती उसके द्वारा घोषित कोण से इतर कुछ भी देखूँ। मैं देखना चाहता हूँ तो गर्दन दर्द के पहरेदार को हुक्म देती है और कहती है इसकी आह का एक परवाना तैयार करों और उसे पीठ पर कील से टांक दो जब करवट बदलता हूँ तो दर्द के उस परवाने के भिन्न भिन्न ध्वनियाँ निकलती है ये बात मेरी गर्दन तकिए को बताती है और कहती है इसके लिए बेहतर यही है सीधा रहा जाए।
गर्दन मेरी खुद की है इसलिए यह नही कह सकता कि मेरी दुश्मन है मगर उसने दर्द का एक अजीब सा मानचित्र खिंचा है उसनें दर्द की रियासत के लिए मेरी पीठ के एक हिस्से को बिना उसकी इच्छा के अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया जबकि मेरी पीठ मुझसे आजतक बेहद संतुष्ट रही है उसे लगता था मैंने चरम दुःख में भी उसको सामनें नही किया बल्कि आकाश से दुःख भी अपनी छाती पर सहता रहा।
अब गर्दन ने मांसपेशियों का एक ऐसा समूह तैयार कर लिया है जो वास्तव में स्वपीड़ा में आनन्द की अनुभूति प्राप्त करता है दर्द की रियासत की सीमाओं पर आजकल बाड़बंदी का काम चल रहा है मैं जब अपना हाथ पीठ पर ले जाता हूँ तो मुझे ताप महसूस होता है मानों अंदर कोई बरसों से संतृप्त ज्वालामुखी अब धीरे धीरे सक्रिय हो गया हो और लावे की एक नदी गर्दन से लेकर पीठ के एक हिस्से में बह रही हो।
जब जब करवट बदलता हूँ या गर्दन की स्वेच्छाचारिता को लेकर आदेशात्मक होने की कोशिश करता हूँ दर्द मुझे घनी नींद से भी जगा देता है मैं कराहता हूँ तो तकिया मेरी मदद करना चाहता है मगर उसकी अपनी भौतिक सीमाएं है फिर भी वो मुझसे कहता है कुछ दिन गर्दन को बिना सहारे बिस्तर पर पड़ा रहने देने चाहिए तब शायद इसकी कुछ अकड़ कम होगी। तकिए और डॉक्टर की सलाह लगभग एक जैसी है इसलिए मैं मान लेता हूँ मगर आदतन मेरा हाथ गर्दन के नीचे टिक जाता है गर्दन के मन में मेरी पूर्व की ज्यादतियों को देखतें हुए मेरे प्रति कोई राहत या करूणा नही उपजती है न वह मेरे हाथ के प्रति कोई कृतज्ञता महसूस करती है।
इस दर्द ने मेरे मन और तन की लोच को बेहद जटिल और स्थिर कर दिया है ये चाहता है कि मैं दर्द के इस विस्तार को सघनता से महसूस करूँ और अपनी तमाम लापरवाहियों के लिए शर्मिंदा भी महसूस करूँ जबकि सच बात ये है मैंने कुछ भी जानबूझकर नही किया मुझे नही पता था एकटक मोबाइल स्क्रीन पर देखना या तकिए को मोड़कर गर्दन के नीचे लगाना गर्दन को इतना नागवार गुजरेगा कि वो एकदिन मुझे स्थैतिक करके अपने सारे बदलें लेगी।
बहरहाल, दर्द ने मुझे अपेक्षाकृत अधिक संवेदनशील और चैतन्य बनाया है इसलिए मैं कोई शिकायत नही कर रहा हूँ मगर अपने देह के एक हिस्से पर देखते ही देखतें एक विद्रोह की दुनिया का खड़ा हो जाना निसन्देह मेरे लिए कोई प्रिय अनुभव नही है।
मैं मुक्ति चाहता हूँ देह के षडयंत्रो से।भले ही मिट्टी को एकदिन मिट्टी में ही मिलना है मगर मैं यह चाहता हूँ ये मिट्टी अपनी अखण्डता और निष्ठा के साथ भष्म हो।
इनदिनों औषधि,व्यायाम और जीवनशैली तीनों अमात्यों को सन्धि प्रस्ताव भेजा है वो आए और इस आपदकाल में मेरी मदद करें क्योंकि इनदिनों उनका राजा दर्द के विद्रोह के समक्ष बेहद अकेला पड़ गया है।

'दर्द की दुनिया'

Saturday, May 7, 2016

फ़िल्मी बातें

शर्मिला टैगोर और दीपिका पादुकोण की मुस्कान और खिलखिलाती हंसी के बीच का पॉज़ बेहद क्लासिक किस्म का है अपनी इन दो कृतियों को यूं देखकर ईश्वर अपने हाथ चूम लेता होगा।
माधुरी दीक्षित के और विद्या बालन के आँखों के सवालों का जवाब खुद ईश्वर के पास भी नही होंगे।
परिणीति चोपड़ा की आवाज़ सुनकर फूलों के छोटे बच्चें जल्दी बड़े होने की जिद अपनी माँ से करते होंगे उसकी गले की खराश से झरनें अपने तल की चोट को सहन कर पातें होंगे।
तब्बु को उदास देख बादलों को भी डिप्रेशन हो जाता होगा वो धरती पर बरसनें से इनकार कर देते होंगे और आसमान में टुक लगाए दूसरी धरती तलाशतें होंगे।
माही गिल के आँखों में लगा काजल धरती पर सुख और दुःख का पाला खिंचता है जिस पर वक्त के मारें खुद से हारे मनुष्य उम्मीद की कबड्डी खेलतें होंगे।

'इतवारी ख्याल'
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पुनर्पाठ:

इस पोस्ट पर संवाद की श्रृंखला में कुछ अन्य अभिनेत्रियों के बारे में मेरी टिप्पणियाँ आई है मित्रों की सुविधा के लिए उन सब को मूल पोस्ट के साथ रख रहा हूँ।

" ऋचा चड्ढा की आँखें सवाली है जैसे उन्हें कुछ सवालों के संभावित जवाब पहले से ही पता हो। उनके वजूद से छुपना सम्भव नही हो पाता है वो हमारी पड़ताल करती है और लौट जाती है।

हुमा कुरेशी, एक बड़ी नदी से निकली एक छोटी नदी है जिसनें अपना रास्ता बदल लिया है उसनें पत्थरों से दोस्ती की मगर उन्हें अपनी जगह से हिलाया नही उसके किनारे अपने कुनबे से बिछड़ी चिड़ियाएं साल में एक बार साथ बैठ कर उदास गीत गाती है। हुमा में एक संतुलित वेग है जिसके सहारे और किनारे किनारे चलतें आप एकदिन इंसानी बस्ती तक पहुँच जातें है अपनी समस्त कमजोरियों के साथ।

कोंकणा सेन शर्मा, एक आवारा बदली की प्रतिलिपि है जो धरती के सबसे उपेक्षित कोने के बयान दर्ज करने के लिए भेजी गई है वो धरती के कान में सन्देश कीलित करती है तो धरती उसका हाथ पकड़ लेती है उसकी हंसी धरती के उपेक्षित समझे गए खरपतवारों की के बालों में कंघी करती है। कोंकणा का कद अनुमानों से मुक्ति का अघोषित पैमाना है जिसके कनवीक्षन से हम अपने मन त्रिज्या को बड़ी आसानी से नाप लेते है।

अनुराधा पटेल, की नाक धरती के मध्य पर खींची एक विभाजन रेखा है जिसके दोनों तरफ की दुनिया एक दुसरे से बिलकुल अनजान है दोनों दुनिया के आंसूओं का द्रव्यमान भिन्न है इसलिए उनके खारेपन में एक मिठास भी बहती है। अनुराधा की हंसी में सुख से उपजे दुःख के पोस्टकार्ड तह दर तह रखे मिलते है। उसकी पलक झपकनें के अंतराल में काल के कुछ कोण बड़ी चालाकी से बदल जातें है इसलिए जो नजर आता है वो आधा अधूरा होता है समय की प्रत्यंचा पर कसा हुआ एक आत्मिक सच का बेहद अलौकिक संस्करण वहां पढ़ा जा सकता है।"

Wednesday, May 4, 2016

आत्मकथ्य

समाज तो बाद में आता है सबसे पहले तो खुद के लिए ही सबसे बड़ा खतरा है मेरे जैसे लोग है जो टोटल अनप्रोडक्टिव है।
(व्यापक सन्दर्भों में।बिखरी रचनात्मकता जरूर फुटकर प्रोडक्टिविटी है)
कभी कविता में उलझें तो कभी गद्य का आलाप छेड़ते हुए कभी सरकारी नौकरी की दौड़ में बोझिल लाचार तो कभी खेती किसानी की फ़िक्र में गुम।
लोक संगीत की लहरियों के दीवानें तो महंगे बीयर बार में लाइव कन्सर्ट देखने के भी अभिलाषी। कभी जिम्मेदारियों के पैरहन में कैद तो कभी स्वघोषित औघड़ फक्कड़ फकीर किस्म के यायावरी की चाह में अटके हुए। देह से वृहद मन से लघु चित्त ने अनासक्त दिल से संवेदनशील।
न जाने किस अनजानी प्यास में भटकतें रोज़ खुद को तोड़ते जोड़ते हुए कभी कहीं दिल लगा लेते तो कभी कहीं कोई एक चीज़ जिसे लक्ष्य या जुनून समझा जा सके उसे लगभग रोज़ नकारते हुए आत्ममुग्धता में जीने के आदी।
किसी चीज़ का पीछा करने के लिए न कोई जोश न कोई जुनून न अनुशासन न समर्पण सब कुछ आधा अधूरा लिए कॉमन सेंस के जरिए जिंदगी जीते हुए मेरे जैसे लोग खुद के कम बड़े अराजक शत्रु नही है।
जिंदगी के लिए कम से कम एक रोग तो लाइलाज किस्म का पालना ही पड़ता है अफ़सोस हम एक भी न पाल पाए जो भी किया हिस्सों में किया अधूरेपन और अधूरे मन से किया। जी किया तो कुंडली बांचने लगे जी किया तो दर्शन की कुछ किताबें पढ़ ली हम मन के दास क्या वैयक्तिक जीवन में कोई क्रान्ति लाएंगे हमारी दशा एक योगभ्रष्ट योगी के जैसी ही है।
रश्क होता है उन लोगों से जिनके पास केवल और केवल एक ही जुनून है वो उसी के लिए जीते है उसी के लिए मरतें है एक हम है जिनका दावा अनगिनत क्षेत्रों में विशेषज्ञता का है मगर सच ये है कोई विशेषज्ञता हमारे पास नही है। हमारे पास कॉमस सेन्स की मदद से विकसित किए गए कुछ चालाक अनुमान है जो ऐसा प्रतीत करवा देंते है कि हम विशद ज्ञानी है।
सब कुछ इतना अस्त व्यस्त कि हमसे प्रेम करने वाले लोग नही समझ पातें इससे प्रेम करें कि इसकी उपेक्षा करें। अपेक्षाओं के बोझ तले दबे हम अपेक्षाहंता पुत्र है जिन्होंने इतने घरों पर अपने हाथ से शुभ लाभ लिख दिया कि हम खुद नही पहचान पातें है कि असल में हमारा खुद का घर कौन सा हैं।
यदि कोई एक जुनून होता तो निसन्देह हम आज उसके शिखर पर होतें मगर होता ही क्यूँ जब बेमाता ने हमारे जन्म के वक्त हकलाते हुए गीत गाए थे और हमारे माथे पर अपने अंगूठे से लिख दिया था जब तक जियोगे जहाँ भी रहोगे यूं उकताए हुए रहोगे।
बचना चाहिए ऐसे लोगो से जितना हो सके वरना एकदिन किसी काबिल नही छोड़ता इनका साथ।

'बक रहा हूँ जुनूँ में न जानें क्या क्या'

Thursday, April 28, 2016

बाथरूम

दो बाल्टी कोने में ऐसे बैठी है जैसे दो अनजान सखी हो। एक मग आधा पानी में ऐसे डूब रहा है जैसे साहिल पर खड़ी प्रेमिका ने उसकी तरफ पीठ कर ली और वो डूबने से पहले एकबार उसकी शक्ल देखना चाहता हो।
छोटी सी चार दीवारी में ओडोनिल की एक अंग्रेजी किस्म की खुशबू अकेली भटक रही है उसका खुशबू से कोई ताल्लुक नही लगता है हां वो बदबू की एक रसायनिक शत्रु जरूर है।
पीयर्स आधा घिस गया है वो पारदर्शी है मगर उसकी दोनों साइड पर दो अलग अलग बदन छपे हैं। एक रिन की छोटी टिकिया इस कदर उदास बैठी है जैसे उसे ससुराल में रोज़ सेवा कर कर के दम तोडना हैं।
हैंगर पर कुछ पुराने कपड़े सो रहें है उनको कल सुबह की बारिश का इन्तजार है।देह की गन्ध और पसीने की नमी उनका बिस्तर और तकिया है,वो एक दुसरे में गूँथे हुए है मानों कोई बचपन के बिछड़े हुए भाई हो।
एक तरफ कोने में अधोवस्त्र टंगे है उनको हमेशा दोयम दर्जे का माना जाता रहा है ये उनका स्थाई मलाल है। टूथब्रश अब अपने अस्त व्यस्त बालों के साथ एक स्टैंड में अकेला खड़ा है उसका लिंगबोध सबसे गहरा है वो बच्चों के छोटे ब्रश का स्वघोषित बाप बना बैठा है। टूथपेस्ट इस बात पर नाराज़ है कि उसके अंदर जो हवा गई थी उसनें बाहर आनें से इनकार कर दिया है वो अंदर ही मेंथॉल के संग आइस पाइस खेल रही है। टूथब्रश को हम सब मतलबी लगतें है क्योंकि उसको अंतिम सीमा तक निचोड़ कर हम अपने चेहरे पर मुस्कान और साँसों में ताजगी भरेंगे।प्रत्येक सदस्य रोज़ अपने ढंग से उसका गला दबाएगा और वो आह तलक न भर सकेगा।
वाश बेसिन सिविज जज की तरह एक कोने में खड़ा है उसके अधिकार बेहद सीमित है मगर रोज़ सफाई की पहली अर्जी उसी की अदालत में दाखिल होती है उसके सर पर दो टैप इस तरह बैठे है मानों एक उसका पेशकार हो और दूसरा सरकारी वकील। उसके पाइप में निस्तारित वादों का कचरा जमा है वो जल्दी उसकी निकासी चाहता हैं।
कोने में कुल जमा चौबीस छिद्र वाला एक ढक्कन लगा है जो रोज़ साबुन/शैम्पू के फैन को झेलता है सबसे लम्बे मगर सबसे कमजोर बाल उसके हलक में फंस जातें है उसको सांस लेने में कितनी तकलीफ होती है कोई इसकी सुध नही लेता है उसके चेहरे पर झाडू के निशान छपें है उसे नफरत है बेतुके झाग से। वो चाहता है कि वो केवल पानी को छानता रहें और गाता रहें मॉर्निंग रागा। हमारे शरीर में पानी की मात्रा कितनी कम है रोज़ इसकी रिपोर्ट होती है यहां ये अलग बात है उससे कोई पूछता नही है।
शैम्पू के दो डब्बे सोचते है उनका मालिक पश्चिम में रहता है मगर वो पूरब में भी अपनी कुलीनता से जमें हुए है उनका अपना एक उत्पाद वाला अभिमान है हाल फ़िलहाल वो किसी देशी उत्पाद से खुद को असुरक्षित महसूस नही करतें उन्हें लगता है उनका कब्जा गुणवत्ता से अधिक हमारे जेहन में हैं।
रोज़ जिनके कान ऐंठे जाते है वो दो पानी के नल खुद को सबसे उपेक्षित महसूस करते है जरा सी छूट मिलतें ही उनको टप टप आंसू बहाते हुए रात में सुना जा सकता है मैं कभी कभी छोटे बच्चे की तरह उनको रात में देखनें जाता हूँ कि वे सोये कि नही। रात में जो आख़िरी सदस्य उनका उपयोग करता है वो कभी कभी लाइट बन्द करना भूल जाता है ऐसे में अंदर के कई लोग सो नही पातें है ये सबकी  शिकायत है।
जहां रोज़ हम चमक कर बाहर निकलतें है वहां कीअंदर की दुनिया में हमारी एक एक चीज़ की रोज़ हाजिरी लगती है ये बात किसी को नही पता है जब बाथरूम स्लीपर घिस जाती है तब फर्श हमें फिसल देता है ताकि सम्भलतें हुए हम जान सकें कि तरलता पर चलनें के लिए एक मजबूत आधार का होना जरूरी है हमारी जिंदगी में इतना सबक वही से मिलता है।
जिसकें समक्ष हम दिगम्बर रहतें है वो हमारी निजता का सबसे सुरक्षित प्रहरी है।जो जानता है हमारे सारे अंदरुनी सच मगर नही करता कभी कानाफूसी किसी से। अगर हम कुछ दिन वहां न जाएं तो वो देखता है हमारी राह सच्चे दोस्त की तरह। उसे लगता है जब तक वहां हमारा वहाँ आना जाना लगा हुआ है तब तक वो सुन सकता है हमारे एकांत की बुदबुदाहट उधेड़बुन और योजनाओं से उपजी खीझ।हमारे सबसे बेसुरे गीत वही रिकॉर्ड है वो हमारे गानें से भांप लेता है हमारा रोज़ का मूड।
पूरे घर में एक यही जगह है जहां हम अपने सबसे नैसर्गिक स्वरूप में दाखिल होते है चौबीस घण्टें में कम से कम एक बार। ये हमें ठीक उस रूप में जानता है जितना हम खुद को जानतें है एकांत के प्रलाप में।बाहर की दुनिया की लड़ाईयों के मांग पत्र हम यही सुनातें है मन ही मन और हमें ऐसा लगता भी है जैसे कोई हमें सुन रहा है बड़ी आत्मीयता के साथ और क्या पता सुनता भी हो !

'बाथरूम: कुछ बातें कुछ मुलाकातें'

Wednesday, April 27, 2016

शाम की चाय

बहुत दिन हो गए तुम्हारे हाथ की चाय पिए।
गर्मी आ गई है मगर चाय की तलब कम नही हुई। आखिरी बार तुमनें जब पूछा था कि चाय पियोगे या नींबू पानी मैंने उस दिन से अपने पंचांग में लिख दी थी मौसम बदलनें की तिथि। रसोई में किस्म किस्म की खुशबूऐं कैद है मगर तुम्हारे हाथ की बनी चाय की खुशबू मेरे दिल में कैद है। गैस का लाइटर तलाशतें वक्त तुम्हारे माथे पर जो बैचेनी दिखती है वो बेशकीमती है मैं इतना अस्त व्यस्त तुम्हें हर वक्त देखना चाहता हूँ जहां कुछ मनचाही चीज़ न मिलनें पर तुम अपनी स्मृतियों को दांव पर लगा देना चाहती हो ये देख मुझे ये संतोष मिलता है अगर मैं किसी दिन गुम हो भी गया तो भी तुम मुझे तलाश ही लोगी।
दूध पर ज़मी मलाई को तुम जब फूंक मारकर अलग करती तो ऐसा लगता है कोई मौलवी अला बला को दुआ की फूंक से टाल रहा हो तुम्हारी साँसों की खुशबू की पहली आमद तब ही से दूध में समा जाती है फिर  वो चाय में महकती हैं।
तुम्हारे कंगन तो गोया दो उस्ताद है जैसे कप के कानों पर ऐसी हलकी चोट करतें है कि वो चीनी मिट्टी के कप भी अपने सुर साध लाते है सब कुछ इतनी बेखबरी में होता है मैं कप को छूते हुए भी डरता हूँ कहीं उन्हें ये शिकायत न हो कि मैंने तुम्हारे स्पर्श को धूमिल कर दिया है और उनके गीत भूला दिए है।
पिछले दिनों चाय बनाते समय तुम एक गाना गुन गुना रही थी गाने के बोल मुझे याद नही मगर तुम गानें के जरिए एक गुजारिश चाय को बता रही थी तुम्हारी वही गुजारिश चाय में मुझे तब बताई जब मैं आख़िरी घूंट के बाद कप नीचे रखनें वाला था।
चाय छानते वक्त तुम्हारे हाथ आज भी थोड़े कांपते है तुम्हारी पलकों के झपकनें की आवृत्ति भी बढ़ जाती है इसका एक अर्थ यह लगाता हूँ मैं कि तुम थोड़ी अतिरिक्त सावधान हो जाती हो नही चाहती एक बूँद भी बाहर छलकें ये ठीक मुझे एक बढ़िया साकी के जैसा लगता है वो भी नही चाहता कि शराब की एक भी बूँद बर्बाद हो इसलिए तुम्हारे हाथ की चाय में एक नशा भी होता है।
किसी दिन चाय पीने आऊंगा इस बार नींबू पानी के लिए नही पूछना भले कितनी गर्मी हो क्योंकि चाय का विकल्प पूछने पर मुझे ये लगने लगता है तुम्हारी स्मृतियों में विकल्पों की घुसपैठ हो गई है जो मैं नही चाहता मैं चाहता हूँ चाय मौसम की मोहताज़ न रहें और रिश्तें किसी किस्म के औपचारिक परिचय के फिर दोनों की खुशबू और तबीयत हमेशा ताज़ा रहती है यही ताजगी और तलब मुझे तुम्हारे दर तक लाती रहेगी हमेशा ये वादा रहा।

'शाम की चाय'

Friday, April 15, 2016

गुमशुदा

सारंगी और वॉयलिन दो म्यूजिक इंस्ट्रूमेंट ऐसे है जब वो जिद पर आते है तब मुझ पत्थर को भी रुला देते है। एक मन के रेगिस्तान में बवंडर लाता है तो दूसरा मेरे हाथ पीछे बांध कन्फेशन के लिए किसी पुराने चर्च में घुटनों के बल खड़ा कर देता है।
ऐसा महसूसता हूँ दोनों के तार मेरे दिल के बीचोबीच खिंचे हुए है। जब कोई फनकार उन्हें छूता है दिल बेहद छोटा हो जाता है धड़कनें रास्ता भूल जाती है वें खोए हुए किस्सों से मंजिल का पता पूछती है।
जब कोई रूहानी आवाज़ इनका सहारा लेकर आलाप भरती है दिल में एक अजब बेबसी की हूक उठती है ऐसा लगता है ये हूक सीना फाड़कर बिजली की तरह चमकेगी और मुझे कोयला बना अनन्त में विलीन हो जाएगी।
सारंगी में लोक का अद्भुत संसार है जिसमें वो काँधे से टिकी एक प्रेमिका है जिसको बजाना उसके बाल बनाने जैसा लगता है वॉयलिन भी एक रूठी हुई प्रेमिका ही लगती है फर्क बस इतना उसको मनाने के लिए लगातार उसकी निगाहों में देखना पड़ता है वो स्पर्शों को साधना और सहेजना जानती है।
दोनों के तार दुःखो के झूले है जिन पर बैठ हम घबरातें हुए देवताओं के विलास लोक में अपने दुःखो के नोटिस चिपका कर आतें हैं।
दोनों ही जब बजती है तो खोए ख़्वाबों छूटे हाथों और किस्मत के तमाशों के खत बारी बारी से दिल की दराज़ में रखती जाती है।
जब इनकी बात सुनता हूँ तो खुद को भूल जाता हूँ दोनों से कुछ ऐसा रिश्ता है जैसे पूर्वजन्म का कोई अधूरा किस्सा आवाज़ दे रहा हो और मेरे कान इस दुनिया में उसकी शक्ल मिलाते गुमशुदा हो।
इसलिए भी सारंगी और वॉयलिन मैं आँखों से सुनता हूँ कानों से देखता हूँ और दिल को पुरज़ा पुरज़ा हवा में उड़ाता हूँ,हवा का रुख जानने के लिए नही बल्कि हवा का रुख बदलनें के लिए क्योंकि तब मनमुताबिक धड़कनें में चलें तो उससे भी इबादत में खलल पड़ता है।
सारंगी मुझे बताती है मैंने क्या खोया है वॉयलिन मुझे बताती है कि मैं क्या खोने जा रहा हूँ दोनों के सामनें मैं एक बेबस श्रोता होता हूँ जो अपने अतीत और भविष्य को देख लेता है मगर सम्मोहन में दोनों से ही इलाज़ के नुक्ते पूछना भूल जाता है।

'दो सखी'

Sunday, April 3, 2016

इतवारी सलाह

एक काम करो मेरे हिस्से की धूप को अपने दुपट्टे के एक कोने से बांध लो मेरी हिस्से की छाया में अपनी मुस्कान की धूप भेजो ताकि थोड़ी रोशनी हो सके। थोड़ी नमी उधार दो थोड़ी नमी उधार लो ताकि नमी एक जगह न बस सके।

यादों की पोटली में कपूर की एक डली रख दो और नाराज़ किस्सों को छुट्टी पर भेज दो अपनी अंगड़ाई से नदी का रास्ता बना दो हंसकर पहाड़ का थोड़ा दिल हलका कर दो।

झरनों को गूंथ लो हेयर पिन के साथ पंछियो को बैठा लो इयररिंग के पास। बुद्ध की तरह कर लो आँखें बंद और मुस्कुराओं मन्द मन्द। पलकों के छज्जे पर खेलने दो झूठे वायदों को आईस पाईस आँखों के समन्दर को करने दो हदों की आजमाईश।

तकिए को सुना डालो मन की सारी गहरी बातें बेड शीट से झाड़ दो शिकायतों की गर्द और ठीक करो उसकी सिलवटें मन की तरह।

बिंदी को टांक दो सितारों के साथ ताकि देख सके वो बेखबर रात।धरती पर  रखो दोनों पैरो का बोझ स्लीपर एक साइड से क्यों घिसते जाते है इतना मत सोचो रोज़।

इतवार के दिन ये कुछ बिन मांगे मशविरे है जो भेजता हूँ तुम्हें ख्यालों की शक्ल में इस उम्मीद पर कि समन तामील होंगे और तुम्हारी हाजिरी लगेगी गैर हाजिरी के रजिस्टर में।

'इतवारी बात'

Tuesday, March 15, 2016

खत

प्यारी माँ,
दिन बीत रहें हैं साथ में मैं भी बीत रही हूँ धीरे धीरे। आज तुम्हें तुम कहकर ही सम्बोधित करूंगी क्योंकि अब मैंने प्यार को उस आदर में तब्दील कर दिया है जिसको बता पाना मुश्किल है।कहनें को हमारी दो अलग दुनिया थी तुम बीत चुकी थी और मैं अलग अलग भूमिकाओं में खुद को जांच परख रही थी। तुम मेरे लिए कभी आदर्श नही रही मगर तुम से मेरा एक अजीब सा रिश्ता रहा है मैंने भरसक कोशिश की तुम्हारी तरह मजबूर न बनूं मगर कुछ कुछ हिस्सों में मैं तुमसे अधिक मजबूर थी इसलिए हमेशा बातों को अदल बदल कर जीती रही। दरअसल हम दोनों ने एकदुसरे को तब जाना जब तुम अपना अस्तित्व को भूल जीने की आदी हो गई थी और मैं अस्तित्व के सवालों में उलझी हुई थी। तुम्हारे साथ ने मुझे ये बताया कि जीवन तमाम असमानताओं के बाद भी जीने के लायक बच ही जाता है। बहुत से ऐसे सवाल थे जिनके जवाब तुमसे चाहिए थे मगर बाद में मैंने शिद्दत से महसूस किया वो सारे सवाल बेज़ा थे तुमसें उनके जवाब पूछना तुम्हारे प्रति अनादर ही होता।
हम और तुम एक दुसरे से बेहद अमूर्त ढंग से जुड़े थे शब्दों से इतर अहसासों की जमानत पर हम एक दुसरे की दुनिया में रिहा थें। आज भी मेरे रक्त की बूंदों में धड़कनों की ध्वनि में तुम्हारे होने के प्रमाणिक मंत्र चुपचाप यात्रा करते है।
भले ही मेरा होना तुम्हारे लिए कोई ख़ास अर्थ न रखता हो और मैं खुद तुमसे कनेक्ट के मामलें में कमजोर रही हूँ मगर बावजूद इसके मेरा अस्तित्व तुम्हारे ही अस्तित्व का एक विस्तार था। माया और मोह से इतर तुम्हारे साथ मैं जीवन को हिस्सों और किस्सों में जी पायी इसके लिए मैं अंतर्मन की गहराई से बेहद कृतज्ञ हूँ।
ऐसा कई दफा हुआ दुनियादारी की खीझ के चलतें मैं तुम पर बरस पड़ी मगर बाद में महीनों अपराधबोध ने मेरा पीछा किया मेरी नींद के कुछ गहरे पल विलम्बित भी इस ग्लानि ने किए ये बात आज तक तुम्हें न बता पाई मगर आज बता रही हूँ।
मेरी यात्रा की निमित्त तुम बनी और तुम्हारी यात्रा अलग अलग केन्द्रो में विभाजित थी फिर भी मैंने तुम्हें अपने आसपास रखा बाह्य तौर पर भले मेरे कुछ स्वार्थ हो सकतें है मगर आन्तरिक स्तर पर वो सब कुछ छोटी छोटी आशाएं थी जिनसे मैं तुम्हें बांधकर रखना चाहती थी।
माँ, तुम दरअसल इतनी सजीव और जीवन्त हो कि तुम्हें कल्पना में किसी अन्य स्थान पर रख पाना मेरे सामर्थ्य से परे की बात है इसलिए हमेशा तुम मेरा यथार्थ बनकर मेरे जीवन में शामिल रही हो। हिम्मत रोशनी सम्बल ये सब बाहर से भी मिल जातें है तुमसे मुझे हमेशा पवित्र ध्वनियों वाली आश्वस्ति मिली है जिसके सहारे मेरा अस्तित्व प्रखर हुआ है।
जानती हूँ तुम्हारा प्रेम हमेशा अमूर्त रहा है और तुमनें हमेशा ये सोचा मैं अपना ध्यान खुद रख सकती हूँ कई बार मुझे ऐसा भी लगा कि तुम स्नेह के मामलें में निष्पक्ष नही हो मगर फिर भी एक मामलें में जरूर निष्पक्ष थी तुम्हें मेरी फ़िक्र हमेशा एक समान रही मेरी उदासी तुम्हारे लिए असहनीय थी भले ही कारण तुमनें न पूछे हो मगर तुम्हें पता सब होता था।
बिना ज्यादा पढ़े हुए भी तुम जानती थी छोटे छोटे सुख को उस दुःख से बचाकर रखना जो एक स्त्री के जीवन में जन्म से तय हो जातें है। तुम्हारी चुन्नी के कोने में बंधी होती थी जीवन की सबसे बड़ी पूँजी जो तुमनें मुझे हमेशा दी बिन मांगें न जानें कहाँ से माएं जान जाती है गाँठ में सुख को बान्धना और ठीक उस वक्त खोलना जब उम्मीद बेहद बोझिल हो।
मैं खुद कैसी माँ साबित हूँगी ये भविष्य के गर्भ में छिपा है मगर कुछ अर्थों में तुमसे अच्छी माँ होना मेरे लिए इस जन्म में सम्भव न होगा जिसकी वजह यह नही कि मुझमे सामर्थ्य नही है इसकी वजह है क्योंकि मैं तुम नही हूँ।
मुझे तुमसें कुछ शिकायतें है मगर आज एक न कहूँगी बल्कि मैं अपनी उन गलतियों को आज याद करना चाहती हूँ जिनकी माफी तुमसें न मांग सकी और अच्छा हुआ नही मांग सकी इन्ही गलतियों के चलते मैं तुम्हारे उतना नजदीक जा सकी जितना कभी पहले नही गई थी। माफ़ी मांगने से शिकायत करने से मन का बोझ हलका होता मगर तुम्हारा मेरा रिश्ता कुछ इस किस्म का रहा है कि मेरे बोझ में हमेशा तुम्हारा बोझ शामिल रहेगा इसलिए तुम्हें खुद से अलग करके मुक्त नही होना चाहती बल्कि तुम्हारे साथ मुक्त होना चाहती हूँ।
शायद दोबारा जिंदगी में ऐसी मोहलत न मिलें इसलिए आज कहना चाहती हूँ तुम मेरे जीवन की वो प्रस्तावना हो जिसका कोई उपसंहार नही है मैं चाहती हूँ तुम मेरे अंदर किसी आवारा नदी सी बहती रहो बिना किसी कोलाहल के जब तक मेरी सांसे चल रही है तुम चलती रहो और देखो बतौर माँ मैं कितनी यात्रा तय कर पाती हूँ जानती हूँ तुम्हें मेरी कोई भौतिक उपलब्धि उतनी खुशी नही देगी जितनी खुशी ये बात देगी कि मैं तुमसे अलग किस्म की माँ बन गई हूँ।
शेष कभी नही कहूँगी यही मेरा तुमसें पहला और आख़िरी खत है क्योंकि बिन कहे समझना तुम्हें खूब आता है।

तुम्हारी बेटी (जो अब थोड़ी बड़ी हो गई है)

Thursday, March 10, 2016

बातें

तुमनें उस दिन कहा कि 'तुम्हारे कान बहुत सुंदर है'
पहली बार किसी ने मेरे कान की तारीफ की अमूमन बढ़िया सौंदर्यबोध में भी कान पर कोई ध्यान नही देता है सुंदरता को देखनें के मानक दुसरे होतें हैं। तुमनें मेरे कान के निचले नरम हिस्से को ठीक वैसे छुआ जैसे कोई मन्दिर की घण्टी को छूता है अपनी तर्जनी से तुमनें उसे थोड़ा हिलाकर देखा।
दरअसल,कान की ख़ूबसूरती के जरिए तुम मेरी सुनने की क्षमता की तारीफ़ करना चाह रही थी कि तुमको मैं ऐसे ही बिना किसी तर्क वितर्क कई बार सुनता रहा हूँ लम्बे समय तक। जब मैंने तुम्हें ये बात बताई तो तुम हंस पड़ी तुम्हें लगा कि आत्ममुग्धता के लिए मैं सामान्य सी बातों का भी दार्शनिककरण कर देता हूँ।
हंसते हंसते तुमनें कहा तुम्हारी नाक थोड़ी बड़ी है मैं बोलनें ही वाला था कि तुम कहने लगी अब इसका अर्थ ये मत निकाल लेना कि तुम्हारा अह्म बहुत बड़ा है।
मैंने कहा हाँ यही सोच रहा था इस पर तुम थोड़ा गंभीर हो गई और बोली जो मैं कहती हूँ तुम उसके निहितार्थ क्यों विकसित करते हो मैंने कहा पुरानी आदत है मेरी।
फिर तुमने कहा चलो एक खेल खेलतें है मैं एक टिप्पणी करूंगी और तुम उसके निहितार्थ बताना मैं उस वक्त उस खेल के लिए तैयार नही था मगर फिर भी मैंने हांमी भर दी।
मेरी हां के बाद तुमनें कहा नही खेल की कोई जरूरत नही है तुम बातों को डिकोड करना जानते हो ये पता है मुझे मगर हर बार तुम्हारा अनुमान सही हो ये जरूरी नही। अनुमान कई बार इस कदर गलत होते है कि हम उसके बाद सच तक बोलना छोड़ देते है।
मैं चाहती हूँ कि तुम कभी सच बोलना मत छोड़ो।
मैंने कहा अब तुम कान से दिमाग तक पहूंच गई हो अब ये मत कह देना मेरा दिमाग बहुत सुंदर है। इस पर तुम हंस पड़ी नही नही जानती हूँ तुम्हारा दिमाग नही तुम्हारा दिल तुम्हारे कान की तरह बहुत सुंदर है।
मैंने कहा कान की तरह? ये क्या तुलना हुई इस पर एक लम्बी सांस लेते हुए तुमनें कहा हां ! कान की तरह क्योंकि ये भी मेरी बातें सुनता बहुत हैं।
मेरे पास मुस्कराहट से बढ़िया कुछ नही था जो उस वक्त तुम्हें दे सकता था इसलिए वही दे दी उस वक्त जिसें तुम ले गई हो अपने साथ हमेशा के लिए।


'बातें है बातों का क्या'

Monday, March 7, 2016

स्त्री

स्त्री होने का अर्थ
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सांख्य दर्शन में पुरुष और प्रकृति को चैतन्य माना है। अहर्निश और योगक्षेम अवस्था को प्राप्त करनें के लिए दोनों के मध्य समन्वय और संतुलन की अनिवार्य आवश्यकता है यदि यह संतुलन नही सध पाता है फिर जीवन का सृजनात्मक पक्ष निसन्देह उज्ज्वल नही रह सकता है।
दर्शन स्त्री की चेतना को प्रखर मानता है मगर जब आध्यात्म से निकल कर स्त्री धर्म की दुनिया में दाखिल होती है तब इसके अस्तित्व पर पुरुषवादी सम्पादन के स्पष्ट चिन्ह दिखनें लगतें है। धर्म का मनोविज्ञान आस्था से जुड़ा है और आस्था सवाल करने  की इजाज़त नही देती है इसी कम्फर्ट जोन का लाभ लेता हुआ पुरुष नेतृत्व करते हुए अपने लिए सारी सुविधाएं रख लेता है स्त्री के लिए वर्जनाओं का जाल बुन देता है। धर्म का बड़ा भार स्त्रियों के कन्धे पर लदा है इसमें कोई सन्देह नही है मगर इस परम्परा में स्त्री को इस बात के लिए अभ्यस्त किया जाता है कि विश्वास और सेवा उसका परम् धर्म है सवाल खड़े करने की इजाज़त उसे नही है।
धर्म के दायरों से निकल कर जब स्त्री समाज में दाखिल होती है तब उसकी भूमिकाएं बेहद अलग किस्म की निर्धारित कर दी जाती है। बहुत समाजशास्त्रीय दृष्टि से विश्लेषण नही करूंगा मगर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से स्त्री कमजोर या दोयम साबित करने की एक लम्बी कंडीशिंग समाज में  दिखाई देती है। जबकि वस्तुतः स्त्री और पुरुष में जैविक भेद जननीय क्षमता भर का है।
विमर्शों की ध्वनियां भी अंतोतगत्वा वैचारिक संघर्षो तक आकर दम तोड़ देती है समाज मनोविज्ञान की दृष्टि से वो कोई समाधान प्रस्तुत नही करती है। स्त्री और पुरुष दो प्रतिस्पर्धा बिन्दू पर लाकर विमर्श छोड़ देते है मगर स्त्री संघर्ष की यात्रा महज यही समाप्त नही हो जाती है। हम अक्सर यह ध्येय वाक्य सुनतें है स्त्री पुरुष एक दूसरे के पूरक है मगर इस पूरक तत्व को कैसे स्वीकर किया जाए उसका कोई प्रशिक्षण समाज के किसी स्तर पर मौजूद नही है।
लिंग आधारित भेद का मूल कारण असुरक्षाबोध है अपने ईगो एंड एग्जिस्टेंस को बचाए रखने के लिए पुरुष तमाम तरह की हाइपोथिसिस प्रचारित करने में सफल रहा है क्योंकि एक ग्रन्थि के तौर में पुरुष की ये बड़ी ग्रन्थि है वो स्त्री से बेहतर है।
अब मूल प्रश्न पर लौटता हूँ कि स्त्री होने का अर्थ क्या है? स्त्री सृजन की निमित्त है मगर महज महिमामण्डन या आदर्श वाक्यों से स्त्री विमर्श का कोई भला नही होने वाला है ये बाह्य तौर पर आकर्षक लगता है मगर इसका मूल समस्या पर कोई प्रभाव नही पड़ता है।
स्त्री होने का अर्थ स्त्री को पुरुष को समझनें की आवश्यकता है इस समझ के लिए सोच और व्यवहार के स्तर पर लोकतांत्रिक होना एक अनिवार्य शर्त है। जब तक पुरुष खुद को एक अथॉरटी के रूप में देखता रहेगा तब तक समानता की बातें करना बेमानी है। बिहेवियर मैकेनिज़्म के तौर पर समानता एक यूटोपिया ही है इसलिए समानता से पहले जेंडर सम्वेदनशीलता और अस्तित्व के प्रति लोकतांत्रिक सोच इन दो अवधारणाओ के लोकजीवन में अनुशीलन की आवश्यकता है यदि ये दो तत्व हमारें व्यवहार और सोच में शामिल हो जाए तो स्त्री को लिंग भेद से मुक्ति मिल सकती है।
और अंत में मुक्ति से ही अपनी बात समाप्त करूँगा स्त्री का अस्तित्व चेतना के स्तर पर बेहद व्यापक और संभावनाशील है उससे जुड़कर पुरुष के अस्तित्व का विस्तार अपरिमेय हो जाता है यह एक कृतज्ञता का विषय होना चाहिए। तत्व सम्वेदना और चेतना के समन्वय की दृष्टि से स्त्री की भूमिका न केवल बेहद व्यापक है बल्कि सतत् प्रगति के लिए जीवन में अनिवार्य भी है।
स्त्री होने का अर्थ मुक्त होने से है और सच्ची मुक्ति के लिए स्त्री को आदर के वागविलास से इतर अपने जीवन में मुक्त अवस्था में स्वीकार करना होगा उसकी भूमिका को स्वयं उसे रेखांकित करने देने होगा जबतक आप खुद को एक ऑथॉर्टी की तरह देखतें है और विचार व्यवहार के स्तर पर लोकतांत्रिक नही है तब तक अपने जीवन में स्त्री होने का अर्थ नही समझ पायेंगे।

©डॉ.अजित

Saturday, February 27, 2016

हीरो बनाम जीरो

ये एक खेदजनक बात थी कि हमारे नायक असल जिंदगी में बेहद अस्त व्यस्त थे। असल जिंदगी का यहां मतलब बेहद निजी किस्म की जिंदगी है इसलिए उनके नायकतत्व के साथ हमेशा कुछ अप्रिय प्रसंगों का सिलसिला चलता रहा।
व्यवस्था और अनुशासन बड़ी जटिल चीज है मूलतः मनुष्य एक अराजक प्राणी ही है हिंसा उसके अस्तित्व का बड़ा हिस्सा है। सिविलाईजेशन के चलते उसने अराजकता को छोड़ा है मगर एक हद तक ही।
तो क्या नायक हमेशा हमसे बेहतर होने या रहने के लिए बाध्य है? यह एक महत्वपूर्ण सवाल है। एक परिष्कृत मस्तिष्क चित्त और सम्वेदना के बावजूद कुछ कुछ हिस्सों में आदर्श बेहद क्रूरतम रूप से बिखर जाता है वहां सब कुछ अप्रत्याशित चीजों की स्थाई शरण स्थली है।
मैं नायक और नायकतत्व से एक सीमा के बाद एक सुरक्षित दूरी बना लेता हूँ ताकि जब मैं कुछ अंदरुनी सच का साक्षात्कार करूँ तब मेरा मन कोई प्रतिकार न करें।
टूटे बिखरे कमजोर होते इंसान की दुनिया में नायकतत्व एक अभिशाप जैसा है जिसके बोझ में उसकी पीठ झुकती जाती है और एकदिन सूखी लकड़ी की तरह आग में जलकर चटक कर टूट जाती है।
शिकायतें ऐसी चटक की ही ध्वनियों का एक औपचारिक दस्तावेज़ है जिसका पाठ हमें राहत भरी बैचेनी देता है।

'हीरो इन जीरो ऑवर'

Monday, February 1, 2016

भोजपत्र

स्मृतियों की प्रतिलिपियां एकत्रित कर रहा हूँ इनदिनों।
बात आवश्यकता की नही है इसलिए तुमसे कुछ भी पुनर्पाठ करने का आग्रह मैंने नही किया। मैं अतीत में अलग अलग मार्ग और माध्यम से उतरता हूँ क्योंकि जिस रास्ते से मैं तुम्हारे साथ आगे बढ़ा उस पर वापस लौटने की सुविधा नही है।
मैं कभी याद करता हूँ तुम मेरी किस बात पर पहली बार मुस्कुराई थी कब मेरे बेवकूफ़ाना सवाल पर खुल कर हंसी थी। तुम्हारी नाराज़गियों के किस्से मैं डाक टिकिट की तरह इकट्ठा कर रहा हूँ ताकि खुद के अलग होने के अहसास को जी सकूं।
स्मृतियों के आख्यान स्थाई नही होते है ये मनोदशा के हिसाब से अपना पाठ बदल लेते है ये बात मुझे उसदिन पता चली जब तुमनें एकदिन अचानक मुझसे पूछा था
'तुम मुझे किस रूप में याद रखना चाहते हो?' मैंने कहा था तुम्हें किसी एक आवृत्ति में बांधने के बारें में सोचा नही कभी। जानता हूँ इस जवाब से तुम थोड़ी निराश हुई थी क्योंकि मेरे लिहाज़ से भी यह एक सही जवाब नही था मगर इसका सहारा ले मैं तब तुम्हारी सम्भावनाओं का विमर्श कर रहा था। ये मेरी बड़ी गलती थी।
तुमसे मिलने के बाद सच कहूँ तो मैं कुछ अंशो में स्थगित हो गया हूँ और तुम्हारी स्मृतियां उसी स्थगन से छनकर मुझतक आती है। ज़िन्दगी के हिस्सों और किस्सों में तुम कहीं मेरी तरफ पीठ किए बैठी हो तो कहीं इतनी नजदीक हो कि मेरी छाया का आकार विस्तृत हो गया है।
इस बात तो मैंने तुमसें संकेतो में कहा भी मगर तुम शायद मेरे द्वन्द को समझ गई थी इसलिए जब मैं नदी का जिक्र करता तुम मुझे रेगिस्तान की मृगमरीचिका का वैज्ञानिक कारण पूछने लगती मैं समन्दर की मजबूरी जानना चाहता तो तुम क्षितिज की ख़ूबसूरती पर एक कविता लिखने का आग्रह कर बैठती।
तुम्हारी स्मृतियों की छायाप्रति मेरे पास थोड़ी अस्त व्यस्त जरूर है मगर सब की सब है इसलिए इनके दस्तावेजीकरण को लेकर आश्वस्त हूँ।
ऐसा करने की जरूरत क्या है? ये तुम्हारा पहला सवाल होगा जिसका जवाब इनदिनों इन्ही स्मृतियों के सहारे तलाश रहा हूँ मैं।

'स्मृतियों के भोजपत्र'