Tuesday, November 1, 2016

आसमान का खत

प्रिय तुम्हें कह नही सकता हूँ तुम दूर जो इतनी हो। हर प्रिय चीज़ अक्सर दूर ही क्यों रहती है ये बात मुझे अज्ञात ईश्वर से समझनी थी। मेरे तुम्हारे दरम्यां सम्बोधन क्या हो ये बात मै फ़िलहाल सूरज की पहली किरण पर छोड़ता वो अपनी मर्जी से जो कहकर तुम्हें जगा सकती है। मुझे उम्मीद है उसकी आहट से जब तुम जगोगी तो तुम्हारे चेहरे पर एक प्रोमिल मुस्कान होगी और कहीं मेरा एक आवारा ख्याल तुम्हारे तकिए पर टिका होगा।

कल बादलों ने अपनी रंजिशें ताजा कर ली मेरे तुम्हारे दरम्यां वो इस कदर पसर गए है कि मुझे हम एक दुसरे को दिखाई न दिए मैंने जब उनसे वजह जाननी चाही तो उन्होंने कहा वो कभी कभी अपनी ऊब मिटाने के लिए ऐसी शर्ते लगा लेते है कि हम दोनों में कौन ज्यादा बैचेन नजर आता है।

तुम्हारे बालों में कंघी करती हवा मुझ तक नही आती है मै चाहता हूँ कि वो मुझ तक आए तो मै उसे कुछ तुम्हारे पुराने खत दे दूं। खत लौटाना अच्छा शगुन नही है मगर मै चाहता हूँ वो खत तुम्हारे अंदर हवा बो दे फिर उसके बाद यादों की एक हरी भरी फसल तुम्हारी गोद में लहरा उठे।
सुनो ! कल मै थोड़ी देर के लिए ऊकडू बैठ गया था,तब मैंने देखा तुम्हारी पीठ पर पर दिशाएं आईस पाईस खेल रही है उनके खेल में भरम नही था छल भी नही था हां ! एक कौतुहल जरूर था जिसके कारण सही लोग भटक जातें थे और वो तब मिलते जब एक दुसरे की शक्लें भूल चुके होते। ये देखकर यकीनन मुझे डर लगा मगर बहुत थोड़ी देर के लिए।

मैंने बारिश से तुम्हारा केंद्र पूछा तो वो हंसने लगी फिर उसने बड़ी विनम्रता से अपनी अज्ञानता की बात स्वीकार की और कहा वो मुझे धरती का केंद्र तो नही मगर धरती की ढलान बता सकती है उसने मुझसे कहा कि मुझे अपने पैरों में उलटे मौजे नही पहनने चाहिए इससे धरती मेरी एड़ी की नाप लेने से चूक जाती है यह सुनकर मै केंद्र और ढ़लान में कोई अंतर्सम्बन्ध विकसित नही कर पाया।

बादल पहाड़ नदी झरने सबसे मैंने एक ही बात अलग अलग समय पर पूछी कि तुम कैसी हो? सबने लगभग एक ही जवाब दिया वैसी तो बिलकुल नही जैसा मैं सोच रहा हूँ इनदिनों। मैंने कहा मेरे अनुमान पर अनुमान लगाना ठीक नही इस पर उन्होंने अपने अपने जल के कुछ छींटे मेरे माथे पर मारे मेरी आँखें आधी खुली आधी मिचि उसके बाद से मैं अपने बेवकूफाना सवाल पर थोड़ा सा खुद से नाराज़ हुआ,तुम कैसी हो यदि ये सवाल मुझे किसी और से ही पूछना पड़े तो फिर कायदे से मुझे ये सवाल पूछने का कोई हक नही बनता है।

बहरहाल, इनदिनों मेरे पास कोई ख़ास बातें नही बची है मै आम बातों को ख़ास ढंग से प्रस्तुत करने का कौशल भी लगभग भूल चुका हूँ। बस तुमसे एक मुलाक़ात को लेकर उम्मीदजदां हूँ मै कुछ दिन लेटकर आराम करना चाहता हूँ और चाहता हूँ तुम मुझे ऊपर से देखों चाहतों और हसरतों के बीच महज एक निर्बन्ध दृष्टि से तुम मेरे माथे पर अपनी अनामिका से एक स्वास्तिक बनाओं ताकि ग्रहों नक्षत्रों की अशुभता कम हो सकें और मैं आश्वस्ति से तुम्हारी पनाह में कुछ लम्हें चैन से जी सकूँ।

फ़िलहाल इतनी ही तमन्ना है तमन्नाओं का यह पहला पुरजा तुम्हें भेज रहा हूँ तस्सवुर की शक्ल में तुम इसे पढ़कर  गुनगुनाओगी तो मैं समझ लूंगा एक पुराना खत सही वक्त और सही पते पर तामील हुआ है।

अंतराल पर टिका,
तुम्हारा आकाश

(आसमान का खत धरती के नाम)

©डॉ.अजित

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