उसने कहा, कभी-कभी मुझे तुम्हारी ठीक वैसी
फ़िक्र होती है जैसे अपने किसी अनुज की होती है.
तुम संभावना से भरे हो, मगर तुम्हें छोटी-छोटी
चीजें परेशान कर देती है. तुम अभी तक इग्नोर करने की ढीटता सीख नही पाए हो. यह सोचकर
मैं अक्सर उदास हो जाती हूँ. तुम एकदम दूसरी दुनिया के हो. मैं चाहती हूँ तुम्हें
किसी की क्या तुम्हारी खुद की भी नजर न लगे. मैं तुम्हें कोलाहलमुक्त और
हस्तक्षेपरहित देखना चाहती हूँ.
प्रेम के इतने अलग-अलग स्तर होते है कि आप उसे
किसी एक तयशुदा फ्रेम में नही बाँध सकते हैं. मुझे तुमसे प्रेम है. मगर यह प्रेम
किस किस्म का प्रेम? यह बता पाना मेरे लिए मुश्किल काम है. तुम्हारे प्रति मेरे मन
में किसी किस्म की आवेग की हिंसा नही है और न ही मैं तुम्हें केवल मुझ तक सीमति
देखना चाहती हूँ. कभी क्षण भर के लिए यदि मैं पजेसिव हो भी गई हूँ तो अगले ही पल
मुझे खुद की समझ पर करुणा आने लगने लगती है.
तुम किसी किस्म के बंधन में बंधने के लिए नही
बने हो तुम्हें अपनी लय और अपनी गति से बहना है. सच कहूं तुम्हें इतना
महत्वकांक्षाहीन देखकर मुझे अच्छा और खराब दोनों एकसाथ महसूस होता है. अच्छा इसलिए
कि तुम किसी नियोजन के विरक्त नही हो दुनियावी दौड़ में न दौड़ने का निर्णय तुम्हारा
अपना खुद का चुनाव और जिसके लिए कभी तुम्हारे मन में कोई अफ़सोस मैंने नही देखा. और
खराब यह सोचकर लगता है कि तुम इस क्रूर दुनिया में अपने इस मौलिक स्वरूप के साथ आखिर
कितने दिन सर्वाइव कर पाओगे. जीवन में व्यावहारिक होने का एक अर्थ यह भी होता है
कि दुनिया की चालाकी सीखी जाए जिसे बाद में तर्कों से बुद्धिमान होना सिद्ध कर
दिया जाए.
मैं तुम्हें
कोई सलाह देकर भ्रमित नही करना चाहती क्योंकि प्राय: दूसरों के द्वारा दी
गई सलाहें हमारे किसी काम की नही होती है हमें अपना सच खुद ही खोजना पड़ता है और
मुझे इसमें कोई संदेह नही है कि तुम्हें खुद का सच ठीक -ठीक पता है.
मेरे पास अपने हिस्से का बहुत अधिक प्रेम नही
बचा है क्योंकि मैं अलग-अलग हिस्सों में रोज खर्च हो रही हूँ और मगर फिर भी मेरे
पास तुम्हें देने के लिए कुछ संरक्षित प्रेम है जो मैंने उस लम्हों में बचाया था
जब जीवन में कुछ भी ठीक नही चल रहा था. तुम इतने तटस्थ हो कि मुझे संदेह है कि यह
प्रेम शायद ही कभी स्थानांतरित हो पाएगा. ऐसे निस्तेज प्रेम को लेकर मेरे मन में
जब भी गहरी निराशा उत्पन्न होती है मैं तब तुम्हारी बातों को रिवाइंड करके सुनती
हूँ. यकीन करना तुम्हारी उन बातों को सुनकर मुझे सबसे पहले जो बात महसूस होती है
वह यह होती है कि मैंने हमेशा अतीत की बातें की और तुमने भविष्य की.
हमारी बातें जिस बिंदु पर मिलती है उस पर कान
लगाकर बहुत कुछ ऐसा सुना जा सकता है जिसकी पुनरावृत्ति संभव नही है. इनदिनों मैं
तुम्हारी फ़िक्र से बातें शुरू करती हूँ और अंत में खुद की फ़िक्र पर आकर खत्म होती हूँ
कि यदि तुम इतने अस्त-व्यस्त-मस्त रहे हो दुनिया को बहुत सी अच्छी चीजों से वंचित
रहना पड़ेगा यहाँ मैं दुनिया का नाम लेकर खुद का जिक्र कर रही हूँ.
तुम्हें देखकर मेरा मन स्वार्थी होता जाता है
और तुम्हारा मन जन्मजात जैसे किसी संन्यासी का मन हो. हमारे सत्संग का इसलिए शायद
कोई हासिल नही हो सकता है क्योंकि हम दो अलग-अलग विरोधाभास एक सही समय और एक गलत
जगह आकर टकरा गए हैं.
'उसने कहा'
©डॉ. अजित