Wednesday, March 28, 2018

‘शायद’


मैं तुमसे खफा बैठी हूँ!
और तुमको कोई खबर नही है. दूर खिड़की पर रेडियो पर एक गाना बज रहा है लग जा गले कि फिर ये हंसी रात हो न हो..शायद इस जन्म में फिर मुलाकात हो न हो.

मेरा मन ‘शायद’ में अटक गया है. इस शायद के भरोसे मैं कुछ छूटे सपनों को रफू कर रही हूँ. मैं जमीन की तरफ अपलक देखती हूँ, ऐसा करना मुझे अजीब सा सुख दे रहा है. मैं शायद खुली आँखों से कुछ सपनें जमीन में बो रही हूँ. मुझे पता है ये सपनें जब तक जवान होंगे मुझे नींद आ चुकी होगी.

प्यार एक अजीब शै है. लोग इसे टूटकर करते है मगर मैंने प्यार बिखर कर किया है. मैं कुछ हिस्सों में तुम्हें बेहद चाहती रही हूँ जबकि कुछ हिस्सों में तुम कहीं नही थे. जिन हिस्सों में तुम अनुपस्थित थे उन हिस्सों में तुम्हारी जगह जो उपस्थित था उससे मैंने कभी तुम्हारा मिलान नही किया. मगर जहां तुम अपनी गुमशुदगी के साथ बैठे थे वहां मैंने हवा को बांध दिया था. मैं उस जगह में कोई बाह्य हस्तक्षेप नही चाहती थी. यहाँ तक कि मैंने अपनी सांस भी बहुत संभल कर ली कि कहीं उसकी आवाज़ से तुम अपनी जगह न बदल लो
.
शुरुवात में मुझे लगता था कि मैं शायद अपनी कोई मिसिंग कैपिटल तलाश रही हूँ मगर अब मैं यह बात ठीक से जान गई हूँ कि तुम्हें खोने के बाद शायद मैं अपनी उस मिसिंग कैपिटल की तलाश में लगूंगी. मेरी बातों में ‘शायद’ इस कदर पसर गया है कि मेरी बातें अपनी कथन के वेग को ढ़ोने में असमर्थ हो गई है वो थककर मेरी पीठ पर सवार है और मुझे वो बिस्तर नही मिल रहा है जहां उन्हें आराम से सुला सकूं.

तुम गुमशुदा हो गए मुझे इसका इतना बड़ा गम नही है मुझे गम बस इस बात का है कि तुम देखतें-देखतें आँखों से ओझल हो गए और मुझे इसका भान तक न हुआ. मैं सपनों और कामनाओं से तुम्हें यह सोचकर अलग रखती थी कि तुम्हें इनकी नजर न लग जाए मगर तुम्हें किसी की नजर नही लगी तुम्हें खुद ही खुद की नजर लग गई शायद.

आज सुबह मुझसे मेरे एक कंगन ने पूछा कि क्या तुम उदास हो? मैंने उसकी बात अनसुनी कर दी मगर बाद में मैं यह सोचकर सच में उदास हो गई कि मैंने उसकी बातें क्यों अनसुनी कर दी.

मैं किसी भावुकता को अंतिम नही मानती आयी हूँ मगर तुम्हें लेकर मेरे राग अपना रास्ता भटक गए है मैं उनसे सुबह मिलना चाहती हूँ तो वो मुझे शाम की दिलासा देकर मौन हो जाते है. मैं शाम को उनकी खबर लेती हूँ तो वो मुझसे जल्दी सोने का आग्रह करने लगते है. अपने अंदर इतनी अवज्ञा और हिंसा मैंने पहली बार देखी है.
मैं तुमसे खफा हूँ ये कहकर मैं खुद को बचाना चाहती हूँ मगर सच बात तो यह है कि मैं तुमसे नही दरअसल खुद से खफा बैठी हूँ.

कल रात मुझे एक अजीब सा सपना आया उस सपने में तुम मुझसे पूछ रहे हो कि जो मुलाक़ात अधूरी रह जाती है क्या वो अगले जन्म में पूरी हो सकती है ? मेरे पास इस सवाल का कोई जवाब नही था मगर मैं इसका जवाब तलाशने के लिए उस वक्त तुम्हारा हाथ पकड़ कर ऊँचाई से छलांग लगा देती हूँ. उसके बाद पता नही वो मुलाकत पूरी हुई या नही मगर मैंने खुद को तुम्हारे साथ ऊंचाई से गिरते वक्त बेहद हल्का महसूस किया.
जब मेरी आँख खुली मैं बिलकुल भी घबराई हुई नही थी मैंने पानी पीया और पानी पीते वक्त सोचा कि जरुर अगले जन्म में अधूरी मुलाकात पूरी होती है इसके बाद मुझे गहरी नींद आयी. मैं तुम्हारे सवाल का हंसते हुए जवाब देना चाहती थी मगर तुम सवाल पूछने के बाद मुझसे नही मिले इसलिए मैं उस सवाल के जवाब के बोझ में दबी हुई हूँ और इसी कारण मैं शायद कभी कभी चुपचाप रो पड़ती हूँ.

मैंने अपने रोने और रोकर अचानक चुप होने का अनुवाद किया है मगर मैं उसकी प्रतिलिपि तुम्हें इसलिए नही सौंपना चाहती कहीं तुम उससे भी अपनी एक कविता न विकसित कर लो.  हमारी अधिकतर बातें कविताओं की शक्ल में मोक्ष पा गई है.

इसलिए तुम्हें बिलकुल नही पता है कि मैं तुमसे खफा बैठी हूँ. तुम्हें मेरे बारें में सब कुछ पता है मगर वो बात बिलकुल नही पता है जो वास्तव में तुम्हें पता होनी चाहिए.
इस बात का यह अर्थ बिलकुल नही है कि मुझे तुमसे प्रेम हो गया है? दरअसल इस बात का कोई अर्थ ही नही है ये शायद एक बोध है जो मेरे अंदर तब घटित हुआ है जब तुम नही हो. जाहिर सी बात है ये बोध अनुपस्थिति की मांग करता है.

तुम मेरे जीवन से अनुपस्थित हो गए इसलिए ये बोध घटित हो गया और मैं तुम्हारे जीवन से अनुपस्थित नही हो पाई इसलिए शायद तुम्हें अब भी ये उम्मीद है कि देर सबेर तुम मेरा पता खोज लोगे.
अंत में यही कहूंगी कि शायद तुम मुझे खोज लोगे मगर इस बात में शायद लगी है ये सोचकर एक ठंडी आह भरी जा सकती है उदास हुआ जा सकता है मगर कोई उम्मीद नही पाली जा सकती है.
शायद यही मेरे जीवन का स्थायी दुःख है.

‘शायद’  

© डॉ. अजित