Sunday, June 21, 2015

मनडे रागा

किसी की स्मृतियों के स्थगन काल का हिस्सा बन जाना ब्रह्माण्ड की सर्वाधिक असुरक्षित जगह की नागरिकता के लिए आवदेन करने जैसा अनुभव था। मुद्दतों का सफर किस्तों में ख़तम हुआ मंजिल ने करवट बदली तो रास्तों ने पहचानने से इनकार कर दिया। एक सुबह आप जागतें तो पातें है कल रात सोने से पहलें आप जिस टापू पर अकेले नंगे पाँव टहल रहें थे उसको तो वक्त का समन्दर नील गया है वहां से अब दुर्लभ अनुभवों के संग्राहलय के लिए कुछ दस्तावेज़ मंगाए जा रहें हैं ताकि कम से कम उस जगह के नक्शे को संरक्षित करके रखा जा सके जहां अपनी मर्जी से आने जाने की आजादी सबको नहीं थी मगर जोखिम लेकर आप वहां के गाढ़े पानी में खुद की शक्ल देख सकते थे।
दरअसल बात सिर्फ इतनी सी होती है आप मन के स्तर सतत् प्रासंगिकता बचाए रखने के लिए स्मृतियों से कुछ पल रोज़ उधार लेतें है और जिस दिन आप कर्जा माफी की उम्मीद में अपनी फटी जेब देखतें है उस दिन आपकी रोशनी का एक हिस्सा स्वत: चला जाता है फिर आप दृष्टि दोष के सहारे अनुमानों में जिंदगी जीतें है स्मृतियों का यह एक बड़ा स्याह पक्ष है।

'मनडे मॉर्निंग रागा'

Tuesday, June 9, 2015

दर ब दर

डेढ़ साल हो गए दिल्ली गए। ऐसा नही है दिल्ली में मेरे तलबगार नही है बस मेरी तलब दिल्ली को लेकर थोड़ी कमजोर पड़ जाती है। दिल्ली में मेरे एकाध ठिए है जहां सत्संग होता रहा है। कम से कम दो नए दरवाजों की कॉल बेल मुझे बजानी थी मगर मेरी ऊंगलियां माथे का पसीना ही पूंछती रह गई।
कई बार दिल करता है दिल्ली जाऊं मगर ऐन वक्त पर मैं दूसरी बस में बैठ लेता हूँ ये बस मुझे किसी मंजिल तक नही ले जाती आधे रास्ते पर उतार देती है वहां खड़ा हो मैं दिशाशूल का विचार करता हूँ उस वक्त मेरी पीठ दिल्ली की तरफ हो जाती है।
मैं अब लखनऊ जाता हूँ वहां दरीबा कलां में होटल प्रीत के कमरा नम्बर 407 में रुकता हूँ। लखनऊ अदब का शहर है मुझे वहां का पॉलीटेक्निक चौराहा कुछ कुछ भूल भूलैय्या जैसा लगता है मैं नाक की सीध चलता हूँ फिर वहां से राईट ले लेता हूँ पिछले दिनों मैं बापू भवन मॉल एवेन्यू के चक्कर काटता रहा हूँ राजभवन और विधान सभा के बीच में मेरे जूतों नें कुछ चाँद जमीन पर बनाएं है वे सब एक दिन धूल में उड़ जाएंगे इस तरह इस शहर में मेरा आख़िरी कदम खत्म होगा।
दिल्ली दिलवालों का शहर है विक्टर्स की सिटी है दिल्ली में मुझे मेट्रो रेल मेरी बड़ी बहन जैसी लगती है उसके रहतें मैं आश्वस्त हो सकता हूँ कि किसी को तिलकनगर तो किसी को शाहदरा फोन करके बुला लूँगा वो मेरा हाथ थामें अपनें घर तक ले जाएंगे जैसे कोई लम्बी कैद के बाद रिहा होकर अनजान गलियों में भटकना चाहता है ठीक वैसे ही मैं भी एक दिन दिल्ली आना चाहता हूँ मगर कब ये पता नही।

'दर ब दर'

Wednesday, June 3, 2015

तीसरे पहर की बारिश

ये तीसरे पहर की बारिश है। कुछ ग्राम बूंदे तपती धरती पर शगुन के छींटे मारने आई थी। उनके पास आश्वस्ति के पैगाम थे। बादल दरअसल मौसम की चालाकियों में फंस गए है फिर भी वो अपनापन बचाकर रखना चाहतें है इसलिए धीरे धीरे टूट रहें हैं। धरती मौन है उसने थोडी देर के लिए आंखे मूंद ली है। जो बूंदे सबसे पहले धरती पर आई वो इतनी खुश नही थी वो तब आना चाहती थी जब धरती की त्वचा से शिकायत की गर्द उड जाए फिलहाल वो अनमनी इधर उधर गिर कर दम तोड रही है उनकी आंखों में हवा की खुशामद साफ नजर आती है।

तीसरे पहर की बारिश से शाम भी उदास है क्योंकि उसे अब चुपचाप रात के हवाले होना पडेगा आसमान में उडते कुछ परिन्दे दिशाभ्रम का शिकार हो अजनबी पेडों पर आश्रय तलाश रहें है। ये पेड किसी का इंतजार न करने के लिए शापित है इसलिए इन्हें किसी परिन्दे को देखकर रत्तीभर भी खुशी नही हुई है उनकी शाखें थोडी शर्मिन्दा जरुर है।

इस बारिश में कुछ शिकायतों के रंग भी घुले है इसलिए माथा धीरे धीरे ठंडा हो रहा है मगर कान अभी तक गरम है। इस बारिश के लहज़े अजनबी है इसलिए मै कमरें में ही बैठा हूं जब चाहने वाला कोई न हो तब बारिश के खतों की तलाशी लेने का मन नही होता है। बारिश के पास चाहतों के कुछ बैरंग खत है मगर वो उन्हें वापिस अपने साथ ही लेकर जाएगी उसने उनके पतें दिखाने से साफ इंकार कर दिया है।

कमरें की सीलन में बेहद मामूली इजाफा हुआ है। दीवार पर जमी धूल चिपक कर किसी पेंटिंग का आकार लेती है जैसे बिस्तर पर कुछ आडी तिरछी सिलवटें पडी हों मै इस पर थोडा विस्मय से मंत्रमुग्ध होता हूं। खिडकी से बाहर झांकता तो देखता हूं एक बादल के टुकडे के पीछे चांद झांक रहा है वो धरती की गर्दन पर एक स्वास्तिक का निशान बनाना चाहता है मगर बारिश के चलतें धरती के भीगें बालों ने उसका उत्साह कमजोर कर दिया है। वो अपना बचा हुआ आत्मविश्वास खो बैठा है।

ये तीसरे पहर की बारिश है इसलिए मेरा मन तीन हिस्सों में बंट गया है एक मेरे पास है एक तुम्हारे पास है और एक धरती की उदासी पर बारिश की मनुहार देख रहा है। समानांतर रुप से इन तीनों के पास अपने बंटे होने की कुछ पुख्ता वजहें है इसलिए मैने तीनों से बातें करनी बंद कर दी है क्योंकि यदि मै एक बार बातों में लग जाता तो फिर धरती और बारिश के विदा गीत में कोरस न बन पाता है। मेरे पास आश्वस्ति के स्वर नही है धमनियों में ध्वनि का बोध कमजोर है मगर मैं मध्य का एक सुर पकड कर कोरस बन खुद को इस तीसरे पहर की बारिश में शामिल कर रहा हूं। इस पहर की यही मेरी अधिकतम उपलब्धि है।

‘बारिश: तीसरें पहर की

Monday, June 1, 2015

मोशन इमोशन

गर्मी के कारण कल से मोशन लूज़ और इमोशन टाइट हो रखें है दोनों की थकान जीवन को विश्रांति से भर रही है। मैं पलकें मूंदे ध्यानस्थ हूँ तरल गरल के मध्य रेंगते शरीर को देखता हूँ। तन विरेचित होता है और मन अभी भी विषयगत दासता के चलतें गरिष्ठता की तरफ आकर्षित होता है। ताप के सन्ताप के मध्य मन की जलवायु समशीतोष्ण से ऊष्णकटिबंधीय हो चली है। छत पर एक कौआ कांव कांव करता है उसकी शिकायत है कोयल ने उससे सुर छल से छीन लिया है अब उसके पास कर्कश ध्वनि मात्र बची है मैं उसे यथास्थिति में जीने का सूत्र देने चाहता हूँ मगर वो भूख प्यास के कोलाहल के बीच अन्यत्र उड़ जाता है। चारदीवारी में कृत्रिम लू मुझ पर फैंकने वाले पंखें की तरफ मैंने एक बार अनमना होकर देखा तो लगा उसे जमाने भर से इतनी शिकायत है कि उसकी इच्छा कभी कोई नही पूछता दुनिया ने उपयोगितावाद के दर्शन के चलते उसका इतना उपयोग किया है कि वो खुद की गति भूल गया है बिजली से कोई दोस्ती नही है वो बस हवा को काट रहा है शायद मुझे देख उसे इंसान का इंसान से कमतर होना याद आता है इसलिए वो लू से मुझे पकाकर एक मुकम्मल इंसान बनाना चाहता है।
इस कमरें के चारों कोनों में चार छोटे त्रिभुज जितनी जगह खाली है वहां कोई झाड़ू नही पहूंच पाती है वो इन कोनों का खुद का बनाया निषिद्ध क्षेत्र है वो वहां कुछ बदलाव नही चाहते क्योंकि बदलाव का एक अर्थ सम्पादन भी होता है जो नैसर्गिक प्रवाह का मृत्यु गीत लिखता है बड़ी ही महीन लिखावट में।
नंगे पैर जमीन पर रखता हूँ तो तलवों को ठंडक का अहसास होता है ये ठण्ड बाह्य तापमान से प्रभावित नही है बल्कि इस एक स्थाई स्रोत भूगर्भ की नीरव शीतलता है जहां पिछले जन्म में मैनें अपने लिए एक टुकड़ा आरक्षित किया था।
धरती इसी जन्म में उऋण होना चाहती है इसलिए मेरे सपाट तलवों पर चन्दन वन का टीका लगा कहती है मन के ताप से मुझे मत तपाओं हो सके तो अपने पूर्व जन्म के संचित कर्म के बल से शीत स्तम्भित हो जाओं।
और मैं लूज मोशन तथा टाइट इमोशन के मध्य अपने तलवें सिकोड़ता हूँ फिर एड़ी घिसी चप्पल को पहनता हूँ धरती मुझसे नाराज़ नही होती बल्कि मुझे मुआफ़ कर देती है क्योंकि उसे पता है कल आज और कल मैं सोचालय के दर्शन पर टीकाएं कर रहा हूँ मुक्ति को अनुभूत किया जाता है अभिव्यक्त नही इस बात को धरती और इस कमरें से बेहतर कौन जान सकता है भला।

'सोच और मोच,