Wednesday, February 26, 2014

चाहतों मे कंफ्यूजन का होना....




इंसान की फितरत में सीधी जिन्दगी जीने की चाह भी शामिल है कंफ्यूजन कोई नही चाहता है लेकिन वक्त और हालात आदमी को किस कदर कंफ्यूज्ड कर सकते है उसका भी ठीक-ठीक अन्दाजा लगा पाना बेहद मुश्किल काम है। कंफ्यूजन दरअसल एक खास किस्म की प्रतिभा से भी पैदा होता है और वह प्रतिभा है एक अस्तित्व में कई अस्तित्व की परत-दर-परत का जमा होना मनुष्य का जीवन खुद मे इतना बहुफलकीय किस्म का होता है उसमे किस्म-किस्म की संभावना सदैव बची रहती है। कंफ्यूजन की जड में गतिशीलता और चैतन्यता भी शामिल है मसलन जो व्यक्ति चैतन्य है वह संतुष्टि की लोक प्रचलित परिभाषा का सदैव ही अतिक्रमण करता पाया जाता है यहाँ तक लोक की भौतिक उपलब्धियां भी उसे एक खास सीमा तक ही तुष्ट कर पाती है। इसी वजह से मन में स्थिर प्रज्ञता के भाव भी जन्म नही ले पाते है व्यक्ति भौतिक चीजो की तरफ आकर्षित होता है उन्हे पाना चाहता है अपने पुरुषार्थ से उसे प्राप्त भी करता है लेकिन समानांतर उसके मन में असंतुष्टि की बेल उपलब्धियों की दीवार पर चढती रहती है फिर इसी बेल का मानसिक फल होता है कंफ्यूजन।
यदि जीवन में संतुष्टि का भाव पा लिया तो फिर तो आप आध्यात्म की भाषा सिद्ध या वीतरागी होने के श्रेणी में है असंतुष्टि का होना भर ही इस बात का प्रतीक है अभी आप मार्ग पर है मंजिल पर नही पहूंचे और शायद मंजिल जैसी कोई चीज़ होती भी नही है यदि आप किसी मंजिल पर रुक कर जडता को प्राप्त कर जाते है तो फिर वो मंजिल आपके लिए बाधा है इसलिए खुद की अपेक्षाओं, उपलब्धियों पर एक प्रश्नचिंह लगाकर आगे बढना एक ठीक मार्ग हो सकता है जहाँ आप मार्ग की यात्रा का आनंद ले सके जहाँ आपको कही पहूंचना न हो साथ ही कोई मंजिल आपको तुष्टि न दे  एक कंफ्यूज़न सदैव आपको बना रहा हालांकि यहाँ कंफ्यूज़न आपको गलत मार्ग या दिशा मे भी ले जा सकता है इसलिए सबसे पहले खुद के कंफ्यूजन को साधना पडेगा ताकि आप उसके मूल्य को ग्रहण कर सके आप उसकी उपस्थिति में दुविधा की बजाए नए विकल्पों पर विचार करते पाए जायें ऐसे में कंफ्यूजन का होना आपके लिए एक साध्य बन सकता है।
कंफ्यूजन आपको आत्ममुग्धता से बचा सकता है यह आपको प्रेरित कर सकता है अपने अस्तित्व के अमूर्त केन्द्रों को विकसित करने तथा उनका प्रयोग करने के लिए साथ ही कंफ्यूजन के फ्यूजन से आप आंतरिक अस्तित्व की ऊर्जा का मंथन कर चमत्कारिक विस्फोट कर सकते है अपने व्यक्तित्व को नई विमाएं प्रदान कर सकते है। सामान्यत: एक असामान्य और नकारात्मक पद प्रतीत होने वाला कंफ्यूजन आपके अन्दर सुषुप्त पडी असंख्य संभावनाओं की पौध तैयार कर सकता है जिसकी मदद से आप अपने सपनों की कलम अपने हिसाब से कैसी भी परिस्थिति में चढा सकते है और प्रकृति मनुष्य के इस पुरुषार्थ को देखकर कितनी आनंदित महसूस करेगी उसकी कल्पना आपको जीवन के नए अर्थ दे सकती है यदि आप चेतना और संवेदना सम्पन्न है तो अपने कंफ्यूज्ड होने पर मुस्कुरा जरुर सकते है ईश्वर को धन्यवाद दे सकते है कि आपको उसने बहुसंभावनाओं से युक्त समझा यह किसी दिव्य आशीर्वाद से कम नही है जैसे इस समय मै मुस्कुरा रहा हूं और ईश्वर को धन्यवाद ज्ञापित कर रहा हूं।

Monday, February 24, 2014

खुला खत बंद लिफाफे में....


 
इंटरनेट,ई-मेल,इनबॉक्स,फेसबुक की दुनिया भी उस खत की जरुरत को कम न कर सकी जो खत दिल में लिखा गया और दिल के डाकखाने में  बिना पोस्ट किए ही उसको जला दिया गया जिसकी आंच में कतरा-कतरा दिल पिघलता रहा दिल का आकार अब रेखीय हो चला है कुछ-कुछ हमारी तुम्हारी जिन्दगी सा। दो समानांतर रेखाओं के बीच उगे हमारे रिश्तें देखने में जितने हरे भरे है दरअसल वो  अन्दर से उतने ही खरपतवार से उलझे हुए भी है दिल और दिमाग की लडाई सदियों पुरानी लडाई है इश्क और जंग मे जायज़ या नाजायज़ होने की बात भी मै अब नही कहूंगा क्योंकि हमारा ताल्लुक इश्क नही है और न ही हमारा कोई याराना है लेकिन एक दूसरे की फिक्र मे शामिल हमारी फिक्र डूबते सूरज़ की तरह उदास दिख जरुर रही है मगर उनमे सुबह के जैसी ताजगी और सच्चाई है यह रिश्ता कोई कारोबारी दोपहर के जैसा कभी नही रहा इसलिए रात भर यादों की परछाई हमारा पीछा करती है। बातचीत में बहुवचन का प्रयोग करना तुम्हारी वजह से मै सीख पाया हूं मेरा झूठ पकडे जाने का डर  इतना बडा कभी नही रहा खासकर स्कूल के दिनों में भी नही जब मै अपनी पॉकेटमनी के लिए जेबकतरा  हुआ करता था आज तक मेरी कोई चोरी नही पकडी गई लेकिन तुमसे कही कोई बात झूठ न निकल जाए इसकी फिक्र मुझे न जाने क्यों अपराधबोध से घेरे रखती है। वैसे तो कहे नही लेकिन जो भी युक्तियुक्त झूठ मैने कहे उसमे चालाकी नही तुम्हे खोने की फिक्र ज्यादा थी इसलिए खुद को खुद ही माफ करता रहा हूं।
एक सर्द शाम में तुमको सोचते हुए मै हांफ रहा हूं शायद मेरी गति तुमसे कई गुना अधिक है इससे पहले तुम मुझे किसी इमेज़ मे कैद कर पाओं मै अपना स्थान बदल देता हूं इस तरह से मै तुम्हे कौतुहल में डालकर खुद को मौजूं रखने की जद्दोजहद में भी हूं। तुम्हारे माथे पर जो फिक्र की चंद रेखाएं खींच आयी है मै उनकी वजह ठीक ठीक समझता हूं मेरा ऐसा होना तुम्हे चंद लम्हों की खुशी के साथ अन्दर से डरा भी देता है तुम्हे खुद के कमजोर पडने का डर लगने लगता है डरो मत ! मेरी उपयोगिता तुम्हारे जीवन में ताकत के रुप में बनी रहे कमजोरी कभी न बनें इसका इंतजाम है मेरे पास।
फिलहाल, दिल से सारे सन्देह निकाल कर उन हंसी लम्हों की जमानत लो और जीयों अपने हिस्से का सुख जिसमें मेरे अवसाद का नेपथ्य राग भी शामिल है लेकिन तुम्हारी संगत से वह भी लय में बज रहा है आरोह-अवरोह और बंद सब के सब सुर में है यहाँ सांसों की सरगम मुझे मेरी देह से बाहर खींच लाती  है और मै उन स्वर लहरियों पर सवार हो अनंत ब्रह्मांड की यात्रा पर निकल पडता हूं तभी नीचे देखता हूं तो तुम बेख्याली में बिरहन सी मुझे दुनिया में तलाशती फिर रही हो एक यही तुम्हारी व्याकुलता ही मुझे फिर से अपने देह में खींच लाती है अन्यथा तुम्हारे सत्संग ने मुझे लगभग सिद्ध बना दिया है।  
इसके बाद और कुछ लिखने को बचता है क्या अब अंतरदेशीय नीली चिट्ठी में लिख जाने वाले पुराने जुमले का प्रयोग करुंगा और विदा चाहूंगा....
थोडे लिखे को ज्यादा समझना...:)

( कहानी लिखने की असफल कोशिस से निकला एक यादगार खत)

मन की गांठे....( कोरा मनोविज्ञान)



जज़्बात इंसान के इंसान होने की सनद है एक वक्त था जब जज्बाती होना मुनासिब समझा जाता था आज के दौर में जज्बाती होना मुश्किल का सबब होना समझा जा सकता है फर्क जीवन की लय और गति का भी आ गया है आज इंसान के पास उतना वक्त नही है जिसमें वह किसी दूसरे के हिस्से के दुख और सुख को अपने जीवन मे शामिल कर सकें। रिश्तों के चयन में हमारे पास जीवन भर में ढेरो विकल्प दिखते और मिलते है उनमे से कुछ हमें करीब कुछ बेहद करीब तो कुछ महज़ औपचारिक रुप से परिचित ही बने रहे जाते है। रिश्तों की तासीर ही उनका भविष्य तय कर देती है मन हमेशा बावरा ही रहता है हम कई बार समझ नही पाते तो कई बार समझ कर अनजान बने रहना अच्छा लगता है मनुष्य की अपेक्षाओं का कारोबार और उसके मन के आंतरिक विराट खालीपन में बाह्य चीज़े उस समय तक आकर्षित करती रहती है जब तक क्या तो आप आंतरिक यात्रा पर न निकल गए आए हो या फिर संसार के इन बंधनों से मुक्त हो अपनी नई दिशा और दशा के को निर्धारित करने की जुगत मे न लगे हुए हो।
कई बार जिन्दगी मे किसी से महज़ मिलना एक संयोग होता है लेकिन उससे मिलकर जुडना आपकी नियति या प्रारब्ध कुछ भी समझा जा सकता है मनुष्य का जीवन इतना जटिल और सम्भावनाशील है कि कब कहाँ कैसे किससे क्या राग पैदा हो जाए या ठीक इसके उलट कब नजदीकियों मे दबे पांव दूरियां दस्तक दे दें कुछ भी कहा नही जा सकता है।
प्रेम,स्त्री और जीवन तीनो को समझने के सबके अपने-अपने पैमाने हो सकते है लेकिन दर्शन कहता है कि तीनो ही जीवंत ऊर्जा के केन्द्र है अत: इनके विश्लेषण मे अपनी ऊर्जा का अपव्यय मत करों यदि आपके पास इतना समय, साहस और सच्चे लोग है तो फिर आपको इन तीनो को जी भर कर जीना चाहिए। जीवन का कोई भी भाव स्थाई हो ही नही सकता है इसलिए सकार और नकार की संभावनाएं सदैव ही बनी रहती है कई बार जीवन मे अंजान लोग सच्ची खुशी देकर चले जाते तो कई बार अपने अजीज़ भी ऐसा तल्ख तजरबा दे जाते है कि उसकी टीस रह रह ताउम्र सालती रहती है।
मन का अपना अलग मनोविज्ञान है यह तर्क से परे और अपनेपन की संवेदना की चासनी में डूबा रहता है भले ही अन्दर से कडवी परत-दर-परत जमा हो लेकिन बाह्य स्नेह,अनुराग इसको निसन्देह ऊर्जा तो देता है यह वह पल होता है जब दुनियादारी के झंझावतों से जूझता मानव का मन एक पल के ईश्वर को धन्यवाद देना चाहता है कि वह अपने दौर के सबसे बेहतरीन लोगो के बीच है लेकिन अपेक्षाओं के शुष्क जंगल मे खोए जाने का भय भी उतना ही शाश्वत है क्योंकि मनुष्य का स्वभाव लोचयुक्त होता है वह कब कहाँ कैसे अर्द्धचेत,अवचेतन से प्रेरित हो पलायन या उपेक्षा के भाव से भर जाए कहा नही जा सकता है लोक मे ऐसे द्वन्द से रुबरु होना हर सम्वेदनशील जीव की नियति होती है और शायद प्रारब्ध भी।
रिश्ते बनाना उन्हे जीना और फिर उन्हे संभाले रखना निसन्देह दुनिया का सबसे दुर्लभ गुण है और कुछ ही लोग इसमे कामिल होते है मै तो कम से कम नही हूं अनुभव यह भी कहते है कि लोग जितनी गति से नजदीक आते है वो एक खास सीमा के बाद अपने नजरो के नजदीक हमे दिखाई भी देने बंद हो जाते है फिर भी मनुष्य के रुप यह सबसे रोचक प्रयोग करने का अवसर हमे मिलता है कि हम अपने चयन से किसी को दोस्त तो किसी को दुश्मन और किसी को इन दोनो रिश्तों से ऊपर समझकर जीने लगते है यह एक दिलचस्प खतरा भी है क्योंकि जरुरी नही कि आप जो समझ रहे है सामने वाला भी ठीक उसी चैनल पर आपके चित्त के राग को रिसीव भी कर रहा हो लेकिन जीवन में ऐसे खतरे उठाकर ही हम नफरत और प्यार में बुनियादी भेद करना सीख पाते है...शायद। 

Sunday, February 23, 2014

हाईवे....




संडे मे दोपहर तक एक अकादमिक काम किया उसके बाद फिर अचानक से फिल्म देखने का मूड बन गया समानांतर रुप से दो मित्रो को साथ चलने का निमंत्रण एसएमएस से भेजा लेकिन संयोग से दोनों की ही अपनी-अपनी वाजिब मजबूरी थी उसके बाद अपने एक और दूसरे मित्र डॉ अनिल सैनी को उनके घर के बाहर पहूंच कर सूचना दी कि फिल्म देखने चलना है ताकि वहाँ ना की गुंजाईश न बचे वो बेचारे दोपहर की खाने के बाद की नींद के आगोश में थे लेकिन मै साधिकार आग्रह को ठुकरा न सके उन्होने पन्द्रह मिनट का समय लिया और तैयार होकर मेरे साथ हो लिए हरिद्वार में अधिकांश फिल्में हम साथ ही देखते है।
बहरहाल, ‘हाईवे’ दो भिन्न परिस्थितियों से निकल कर जाए लोगो का एक दिलचस्प सफर की कहानी है उनमे से एक पेशेवर अपराधी है और दूसरी अमीर बाप की बेटी। दो अलग-अलग पृष्टभूमि के लोगो का क्या बेहतरीन रिश्ता विकसित हो जाता है यही फिल्म का मूल कथानक है यह परिस्थिति से सफर पर निकले दो लोगो की कहानी है जिनका जितना सफर उनके साथ चलता है उतना ही उनके अतीत का सफर वो करके आए होते है फिल्म के नायक रणदीप हुड्डा( महावीर भाटी) एनसीआर के आसपास के गांव के एक गुर्जर युवा है जो अपराधी है और फिल्म की नायिका आलिया भट्ट (वीरा त्रिपाठी) एक अमीर बाप की बेटी है जिसका अपहरण महावीर भाटी कर लेता है फिर शुरु होता है उनके साथ का सफर और यह सफर निसन्देह मुझे तो बेहद रोचक लगा।
एक अमीरियत तो दूसरा गरीबी की जद में अपना अपना भोगा हुआ यथार्थ इतनी खुबसूरती से परदे पर जीवंत कर देते है कि मन द्रवित हुए बिना नही रह पाता है फिल्म में बाल यौन शोषण जैसे गंभीर और सम्वेदनशील विषयों को छुआ है इसके लिए इम्तियाज़ अली बधाई के पात्र है। विभिन्न संचार माध्यमों में फिल्म की समीक्षा तो कोई खास अच्छी नही थी लेकिन फिर भी मै इम्तियाज़ अली की वजह से ही फिल्म देखने गया कई बार आपका विश्वास किसी दूसरे के मत से बडा हो जाता है और मुझे खुशी है कि मै निराश नही हुआ।
अभिनय के लिहाज़ से रणदीप हुड्डा ने क्लासिक अभिनय किया एनसीआर मे गुर्जरों की बोली में डॉयलाग बेहद स्वाभाविक और जानदार लगे है वो महावीर भाटी के किरदार मे घुस गए है ठीक इसी तरह वीरा के किरदार मे आलिया भट्ट ने गजब का अभिनय किया है आलिया की यूएसपी उनकी मासूमियत है वो पूरी फिल्म में बेहद मासूम नजर आयी आलिया नें रोने और चीखने के कई दृश्यों में चमत्कारिक परफ़ॉरमेंस दी है निजि तौर पर थियेटर मे मै एक बात को लेकर असहज़ रहा है आलिया भट्ट कें रोने के इंटेस सीन में उनके नाक के दोनो नथुने तेजी से सिकुड और फैल रहे थे जिनका वास्तविक प्रभाव बेहद गजब का था लेकिन कुछ शहरी लोग उसमे भी हास्य निकाल कर फूहडता से हंस रहे थे एक बार मन हुआ कि उन्हे टोक दूं लेकिन थियेटर में एक दर्जन भर लोग होंगे ऐसे मे किस-किस से भिडता लेकिन समूह का ऐसा व्यवहार यह बताता है कि हम कितने संवेदनहीन हो गए है एक घनीभूत पीडा और रोने के दृश्य में लोग उस भाव को ग्रहण करने की बजाए नाक के नथुनों के खुलने-बंद होने पर ठहाके मार कर हंस रहे थे। आलिया के रोने के सीन वास्तव में बेहद मार्मिक है लेकिन शायद लोग सिनेमा हॉल में अपना भावनात्मक विरेचन करने की बजाए पैसा वसूलने की वजह से अधिक जाते है इसलिए उनका कुछ भी करना जायज़ है यह अपनी अपनी संवेदना का मसला है।
कुल मिलाकर हाईवे एक मध्यम गति की फिल्म है जिन्हे जल्दबाजी नही है और जो अच्छी लोकेशनस देखकर आंखो से लेकर दिल तक अच्छा महसूस करते है जो इमोशन को समझना और जीना  चाहते है उनके लिए यह फिल्म देखने लायक है फिल्म की स्टोरी दो अलग-अलग पृष्टभूमि के लोगो के साथ सफर पर निकलने,दिल मिलनें और बिछडने की कहानी है फिल्म का अंत थोडा असहज़ करने वाला है लेकिन इसके अलावा और अंत भी क्या हो सकता था। हाईवे में सहायक कलाकारों का भी अच्छा अभिनय है नाम याद नही आ रहा है लेकिन महावीर के हेल्पर बने ‘आडू’ नें फिल्म में अच्छा काम किया है खासकर उसका आलिया भट्ट के साथ अंग्रेजी गाने पर ठुमके लगाने का सीन अच्छा बन पडा है।
हाईवे आपको तभी पसन्द आएगी यदि आप खुद से लडते हुए किसी अंजान सफर पर कभी निकले है या निकलना चाहते है सफर आपकी आंतरिक जडता को तोडता है साथ ही यह आपकी निर्णय लेने की क्षमता को भी मजबूत करता है जिसमे ह्र्दय परिवर्तन से लेकर जिन्दगी जीने का मकसद सब शामिल है। फिल्म का संगीत ठीक है ए आर रहमान का एक ही गीत जबान पर चढने वाला है बोल फिलहाल याद नही आ रहे है।  


(पिछले कुछ दिन से फेसबुक से बाहर हूं लेकिन हाईवे देखने के बाद इस पर संस्मरण लिखने से खुद को रोक न सका इसलिए यह पोस्ट चस्पा करके फिर से निकल रहा हूं। कब,क्यों,कैसे आदि कोई सवाल फिलहाल नही जब भी जरुरी लगेगा मै यहाँ अपनी बात कहूंगा और पूरे रस के साथ कहूंगा...शुक्रिया ! )     

Monday, February 17, 2014

नजर



यह पोस्ट किसी एक समुदाय के खिलाफ नही है और न ही यह श्रम विभाजन के एकाधिकार के किसी सिद्धांत को खंडित-मंडित करने के उद्देश्य से लिखी जा रही है यह पोस्ट बाजार में एक जाति विशेष के एकाधिकार में वक्त और हालात लडते एक वर्ग की परिस्थितिजन्य घुसपैठ से सम्बंधित है। इसमे कोई सन्देह नही है बाजार या व्यापार को हम बनियों का कर्मक्षेत्र या यूं कहूं एकाधिकार क्षेत्र समझते,जानते,देखते, सुनते और मानते हुए आयें है लेकिन देश विभाजन की त्रासदी की वजह से पाकिस्तान से आए रिफ्यूजी पंजाबी समुदाय ने इस क्षेत्र मे बनियों के वर्चस्व को ऐसी जबरदस्त चुनौति दी कि उनकी जीवटता और व्यवहारिकता नें बनियों के बाजार पर एकाधिकार की चूलें हिला कर रख दी।
विकासशील भारत की  मध्यमवर्गीय चेतना त्रासदी और दुख को स्थाई भाव मे जीने की आदत रखती है पाकिस्तान से भाग कर आए रिफ्यूजियों के लिए यहाँ आकर बसना और जमना दोनो ही मुश्किल काम था लेकिन शायद इस त्रासदी ने उन्हे अन्दर तक मांझ कर रख दिया इसलिए उनके लिए यहाँ शरणार्थी कैम्पों से निकलकर खुद का आसमां बनाने तक का सफर निसन्देह बेहद रोचक किस्म का है आज भले ही समाज़ का गालबजाई करने वाला तबका पाकिस्तान से रिफ्यूजी के रुप में आएं पंजाबियों को बेशर्म प्रचारित करता रहा हो लेकिन वो सच्चे अर्थो में जीवट लोग थे ऐसा मै मानता हूं उन्होने अपनी सरज़मी छोडी और यहाँ पनाह पाने के साथ शून्य से अपने जीवन को फिर से शुरु किया और न केवल शुरु किया बल्कि बुलंदी तक पहूंचाया आज उत्तर भारत के नगरों मे बाजार और व्यापार में इन पंजाबियों का खासा दबदबा है और इनके इसी विस्तार ने व्यापार से बनियों के एकाधिकार को भी समाप्त करके रख दिया।
बनिए सूदखोर थे लेकिन उनकी अपनी एक सीमाएं थी लेकिन पंजाबियों नें अपने लिए कोई सीमा ही तय नही की स्त्री-पुरुष दोनों ने मिलकर अपनी दुनिया खुद बनाई घर पर महिलाओं ने बूटीक, ब्यूटी पार्लर और खाने की होम डिलीवरी जैसे काम शुरु किए तो बाहर पुरुषों ने ऐसा कोई व्यापार का क्षेत्र नही छोडा जिसमे उन्होने हाथ न आजमाया हो आज भी लोग यह खिसिया कर कहते है कि इन पंजाबियों मे शर्म नही होती लेकिन मै कहता हूं वो मध्यमवर्गीय चेतना के उस आडम्बर से मुक्त है जिसे समाज़ का बडा तबका ढो रहा होता है उन्होने अपने काम को ही अपनी पूजा माना शहरी क्षेत्र में आज भी पंजाबियों का खाना-पीना और रहना सहना देखने काबिल होता है अपनी जडो को छोडकर लोग आज समाज़ के उस तबके मे शामिल है जो खुशी के बहाने पर खुश होना जानते है जो साई संध्या, मां का जागरण से लेकर भंगडा गिद्दा पाने का कोई मौका छोडना नही जानते है आज भी पंजाबी रसाई का स्वाद सबसे गज़ब का है।
मेरे हिसाब से पंजाबियों के खिलाफ तमाम प्रकार के दुष्प्रचार उनकी तरक्की के बढते ग्राफ से ज्यादा निकले है उनमे सच्चाई कम है और गल्प अधिक है। पंजाबण महिलाओं पर फब्तियां कसने वाले उनकी जीवटता को भूल जाते है कि कैसे उन्होने घर-घर काम पकड कर अपना आशियाना बनाया होता है कैसे ‘जगत भाभी’ बनकर घर-घर टिफिन पहूंचाया है, उनके संघर्ष पर कभी बात नही होती हाँ अपने अपने हिसाब से हम चरित्र चित्रण की कोई कसर बाकी नही छोडते है।
शहरी पंजाबी आज भी उत्सवधर्मी समाज़ है वह मस्त जीना जानता है वह खर्च करना जानता है और वह भी समाज़ की तथाकथित वर्जनाओं के परवाह किए बिना और दिन ब दिन जटिल होती जिन्दगी मे यह कोई कम बडी बात नही है। हमे इस जीवनशैली इसलिए दिक्कत है क्योंकि हम भी अन्दर से ऐसा ही जीना चाहते है लेकिन आदर्शवाद के झूठे आडम्बर के बोझ तले दबे होने की वजह से जी नही पाते है पंजाबी लोग सहज़ है मुक्त है इसलिए वो जीवन के उस रस का आनंद ले पाते है। बाजार की अपनी ताकतें और वर्चस्व की लडाईयां समाज़ के समाजशास्त्रिय ढांचे को कैसे प्रभावित करती है इस पर यदि कोई शोध करना चाहे तो बनिये बनाम पंजाबी और उनका सामाजिक-आर्थिक तंत्र यह एक रोचक शोध का विषय हो सकता है।

Wednesday, February 5, 2014

एकांत

कुछ लोगो के बारें में हम नाहक ही बेकार के पूर्वाग्रह पाल बैठते है जबकि वो दिल के अच्छे इंसान होते है जबकि इसके उलट कुछ को हम बेहद नजदीक ले आते है और हमारे आंतरिक एंकात में सम्पादन से लेकर आशा,अपेक्षाओं और आशंकाओं की ऐसी पौध तैयार करते है कि हमे वह हरियाली भी खरपतवार नजर आने लगती है। फेसबुक के सन्दर्भ में एक बात मै खास कर महसूस करता हूं कि कुछ लोगो का लिखा देखकर अच्छा लगता है उनकी तारीफ करने का भी मन होता है भले ही वो हमारी सूची मे हो या न हो लेकिन मन की तारीफ को शब्दों के रुप मे आकार देने से पहले ही ऊर्जा स्वाहा हो जाती है और हम एक भी शब्द नही लिख पाते है बस खाली लाईक मारकर खुद का अपराधबोध कम करने की कोशिस करते है जबकि मै महसूस करता हूं कि कुछ लोग बेहद संक्षिप्त मगर प्रभावी लिख रहे है फिर भी उनके पास पाठको का अभाव है शायद उन्हे सेल्फ ब्रांडिंग नही आती या फिर भी वह साधु भाव से अपना विरेचन करना सर्वोपरी मानतें है सहमति/असहमति/स्वीकृति/ मनुष्य की बाह्य प्रेरणाएं होती है कुछ लोग इनके अभिलाषी है तो कुछ इनसे मुक्त। मेरा दिल सदैव से हाशिए पर जीते लोगो के साथ जल्दी खडा हो जाता है शायद मेरी खुद की हीनता की ग्रंथि इससे जुडी हो बडे नामों और भीड का हिस्सा बनने का दिल नही करता है उनका लिखा जरुर पसन्द आता है लेकिन भीड मे खोने का कोई मजा नही है इसलिए वहाँ से निकल लेता हूं। तो आईये ऐसे लोगो की खोज करे जो एकांत में धूनी  रमाएं बैठे है क्यों न थोडी देर उनका चिमटा बजाया जाए और उनकी लेखनी की चिलम में एक लम्बा कश मारा जाए....अलख निरंजन !!!!