Monday, February 24, 2014

खुला खत बंद लिफाफे में....


 
इंटरनेट,ई-मेल,इनबॉक्स,फेसबुक की दुनिया भी उस खत की जरुरत को कम न कर सकी जो खत दिल में लिखा गया और दिल के डाकखाने में  बिना पोस्ट किए ही उसको जला दिया गया जिसकी आंच में कतरा-कतरा दिल पिघलता रहा दिल का आकार अब रेखीय हो चला है कुछ-कुछ हमारी तुम्हारी जिन्दगी सा। दो समानांतर रेखाओं के बीच उगे हमारे रिश्तें देखने में जितने हरे भरे है दरअसल वो  अन्दर से उतने ही खरपतवार से उलझे हुए भी है दिल और दिमाग की लडाई सदियों पुरानी लडाई है इश्क और जंग मे जायज़ या नाजायज़ होने की बात भी मै अब नही कहूंगा क्योंकि हमारा ताल्लुक इश्क नही है और न ही हमारा कोई याराना है लेकिन एक दूसरे की फिक्र मे शामिल हमारी फिक्र डूबते सूरज़ की तरह उदास दिख जरुर रही है मगर उनमे सुबह के जैसी ताजगी और सच्चाई है यह रिश्ता कोई कारोबारी दोपहर के जैसा कभी नही रहा इसलिए रात भर यादों की परछाई हमारा पीछा करती है। बातचीत में बहुवचन का प्रयोग करना तुम्हारी वजह से मै सीख पाया हूं मेरा झूठ पकडे जाने का डर  इतना बडा कभी नही रहा खासकर स्कूल के दिनों में भी नही जब मै अपनी पॉकेटमनी के लिए जेबकतरा  हुआ करता था आज तक मेरी कोई चोरी नही पकडी गई लेकिन तुमसे कही कोई बात झूठ न निकल जाए इसकी फिक्र मुझे न जाने क्यों अपराधबोध से घेरे रखती है। वैसे तो कहे नही लेकिन जो भी युक्तियुक्त झूठ मैने कहे उसमे चालाकी नही तुम्हे खोने की फिक्र ज्यादा थी इसलिए खुद को खुद ही माफ करता रहा हूं।
एक सर्द शाम में तुमको सोचते हुए मै हांफ रहा हूं शायद मेरी गति तुमसे कई गुना अधिक है इससे पहले तुम मुझे किसी इमेज़ मे कैद कर पाओं मै अपना स्थान बदल देता हूं इस तरह से मै तुम्हे कौतुहल में डालकर खुद को मौजूं रखने की जद्दोजहद में भी हूं। तुम्हारे माथे पर जो फिक्र की चंद रेखाएं खींच आयी है मै उनकी वजह ठीक ठीक समझता हूं मेरा ऐसा होना तुम्हे चंद लम्हों की खुशी के साथ अन्दर से डरा भी देता है तुम्हे खुद के कमजोर पडने का डर लगने लगता है डरो मत ! मेरी उपयोगिता तुम्हारे जीवन में ताकत के रुप में बनी रहे कमजोरी कभी न बनें इसका इंतजाम है मेरे पास।
फिलहाल, दिल से सारे सन्देह निकाल कर उन हंसी लम्हों की जमानत लो और जीयों अपने हिस्से का सुख जिसमें मेरे अवसाद का नेपथ्य राग भी शामिल है लेकिन तुम्हारी संगत से वह भी लय में बज रहा है आरोह-अवरोह और बंद सब के सब सुर में है यहाँ सांसों की सरगम मुझे मेरी देह से बाहर खींच लाती  है और मै उन स्वर लहरियों पर सवार हो अनंत ब्रह्मांड की यात्रा पर निकल पडता हूं तभी नीचे देखता हूं तो तुम बेख्याली में बिरहन सी मुझे दुनिया में तलाशती फिर रही हो एक यही तुम्हारी व्याकुलता ही मुझे फिर से अपने देह में खींच लाती है अन्यथा तुम्हारे सत्संग ने मुझे लगभग सिद्ध बना दिया है।  
इसके बाद और कुछ लिखने को बचता है क्या अब अंतरदेशीय नीली चिट्ठी में लिख जाने वाले पुराने जुमले का प्रयोग करुंगा और विदा चाहूंगा....
थोडे लिखे को ज्यादा समझना...:)

( कहानी लिखने की असफल कोशिस से निकला एक यादगार खत)

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