Monday, February 17, 2014

नजर



यह पोस्ट किसी एक समुदाय के खिलाफ नही है और न ही यह श्रम विभाजन के एकाधिकार के किसी सिद्धांत को खंडित-मंडित करने के उद्देश्य से लिखी जा रही है यह पोस्ट बाजार में एक जाति विशेष के एकाधिकार में वक्त और हालात लडते एक वर्ग की परिस्थितिजन्य घुसपैठ से सम्बंधित है। इसमे कोई सन्देह नही है बाजार या व्यापार को हम बनियों का कर्मक्षेत्र या यूं कहूं एकाधिकार क्षेत्र समझते,जानते,देखते, सुनते और मानते हुए आयें है लेकिन देश विभाजन की त्रासदी की वजह से पाकिस्तान से आए रिफ्यूजी पंजाबी समुदाय ने इस क्षेत्र मे बनियों के वर्चस्व को ऐसी जबरदस्त चुनौति दी कि उनकी जीवटता और व्यवहारिकता नें बनियों के बाजार पर एकाधिकार की चूलें हिला कर रख दी।
विकासशील भारत की  मध्यमवर्गीय चेतना त्रासदी और दुख को स्थाई भाव मे जीने की आदत रखती है पाकिस्तान से भाग कर आए रिफ्यूजियों के लिए यहाँ आकर बसना और जमना दोनो ही मुश्किल काम था लेकिन शायद इस त्रासदी ने उन्हे अन्दर तक मांझ कर रख दिया इसलिए उनके लिए यहाँ शरणार्थी कैम्पों से निकलकर खुद का आसमां बनाने तक का सफर निसन्देह बेहद रोचक किस्म का है आज भले ही समाज़ का गालबजाई करने वाला तबका पाकिस्तान से रिफ्यूजी के रुप में आएं पंजाबियों को बेशर्म प्रचारित करता रहा हो लेकिन वो सच्चे अर्थो में जीवट लोग थे ऐसा मै मानता हूं उन्होने अपनी सरज़मी छोडी और यहाँ पनाह पाने के साथ शून्य से अपने जीवन को फिर से शुरु किया और न केवल शुरु किया बल्कि बुलंदी तक पहूंचाया आज उत्तर भारत के नगरों मे बाजार और व्यापार में इन पंजाबियों का खासा दबदबा है और इनके इसी विस्तार ने व्यापार से बनियों के एकाधिकार को भी समाप्त करके रख दिया।
बनिए सूदखोर थे लेकिन उनकी अपनी एक सीमाएं थी लेकिन पंजाबियों नें अपने लिए कोई सीमा ही तय नही की स्त्री-पुरुष दोनों ने मिलकर अपनी दुनिया खुद बनाई घर पर महिलाओं ने बूटीक, ब्यूटी पार्लर और खाने की होम डिलीवरी जैसे काम शुरु किए तो बाहर पुरुषों ने ऐसा कोई व्यापार का क्षेत्र नही छोडा जिसमे उन्होने हाथ न आजमाया हो आज भी लोग यह खिसिया कर कहते है कि इन पंजाबियों मे शर्म नही होती लेकिन मै कहता हूं वो मध्यमवर्गीय चेतना के उस आडम्बर से मुक्त है जिसे समाज़ का बडा तबका ढो रहा होता है उन्होने अपने काम को ही अपनी पूजा माना शहरी क्षेत्र में आज भी पंजाबियों का खाना-पीना और रहना सहना देखने काबिल होता है अपनी जडो को छोडकर लोग आज समाज़ के उस तबके मे शामिल है जो खुशी के बहाने पर खुश होना जानते है जो साई संध्या, मां का जागरण से लेकर भंगडा गिद्दा पाने का कोई मौका छोडना नही जानते है आज भी पंजाबी रसाई का स्वाद सबसे गज़ब का है।
मेरे हिसाब से पंजाबियों के खिलाफ तमाम प्रकार के दुष्प्रचार उनकी तरक्की के बढते ग्राफ से ज्यादा निकले है उनमे सच्चाई कम है और गल्प अधिक है। पंजाबण महिलाओं पर फब्तियां कसने वाले उनकी जीवटता को भूल जाते है कि कैसे उन्होने घर-घर काम पकड कर अपना आशियाना बनाया होता है कैसे ‘जगत भाभी’ बनकर घर-घर टिफिन पहूंचाया है, उनके संघर्ष पर कभी बात नही होती हाँ अपने अपने हिसाब से हम चरित्र चित्रण की कोई कसर बाकी नही छोडते है।
शहरी पंजाबी आज भी उत्सवधर्मी समाज़ है वह मस्त जीना जानता है वह खर्च करना जानता है और वह भी समाज़ की तथाकथित वर्जनाओं के परवाह किए बिना और दिन ब दिन जटिल होती जिन्दगी मे यह कोई कम बडी बात नही है। हमे इस जीवनशैली इसलिए दिक्कत है क्योंकि हम भी अन्दर से ऐसा ही जीना चाहते है लेकिन आदर्शवाद के झूठे आडम्बर के बोझ तले दबे होने की वजह से जी नही पाते है पंजाबी लोग सहज़ है मुक्त है इसलिए वो जीवन के उस रस का आनंद ले पाते है। बाजार की अपनी ताकतें और वर्चस्व की लडाईयां समाज़ के समाजशास्त्रिय ढांचे को कैसे प्रभावित करती है इस पर यदि कोई शोध करना चाहे तो बनिये बनाम पंजाबी और उनका सामाजिक-आर्थिक तंत्र यह एक रोचक शोध का विषय हो सकता है।

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