Monday, June 30, 2014

तुरपाई

नेकी कर दरिया में डाल
ईश्वर बैठा है लेकर जाल

कर भला हो भला
इस भ्रम से वक्त टला

मन के हारे हार मन के जीते जीत
दुःख सबके अपने से झूठी लगे प्रीत

ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर
तटस्थता की पीड़ा क्या समझोगे खैर

हम बंदे खुदा के सबमे तेरा नूर
मानस के भेद देख अचरज करे हुजूर

जियो और जीने दो
जरूरी है इसके लिए बस-पीने दो ।

© डॉ. अजीत

(कुछ खाली वक्त की कतरनों में यूं ही तजरबे की तुरपाई)

Saturday, June 28, 2014

रंग

मेरी बातों में न सच्चाई थी और न अच्छाई ही मेरी बातें एक भवंर की तरह थी जिसकी गहराई बाहर से आकर्षित करके सबको अपने समा लेने की फितरत रखती थी मेरे वाग विलास मेरे आंतरिक भवरों के छद्म रूप थे जिनमें बुद्धिवादी छौंक लगा हुआ था। तुम्हारे सारे अनुमान पहले दिन से ही गलत थे मेरी आंतरिक रिक्तता को भरने के लिए जब मै ही उपाय विकसित न कर सका तब भला तुम्हे कैसे लगा कि तुम्हारी समझ तुम्हारे विश्लेषण मुझे दिशा प्रदान करेंगे मेरी यात्रा उलटे पाँव भूत की यात्रा थी इसलिए वर्तमान के सारे पैमाने ध्वस्त हो गए। मेरे विषय में ठीक ठीक राय तो वह भी न बना पाएं जिनका मै परिणाम हूँ ।
ज्ञात-अज्ञात कारणों से मैंने स्वयं को जितना प्रकट रखा उससे कई गुना गुह्य मेरी आरम्भ से यही योजना थी कि मेरी कोई योजना न हो मेरी आत्मालोचना की आदत तुम साफगोई समझ बैठे यह तुम्हारी समझ की सीमा थी दरअसल यह दुनिया ऐसे भटके हुए निर्वासन भोगते हुए लोगो से भरी पड़ी है जिन्हें कभी खुद के पीड़ित होने का गुमान था।
जीवन की आंतरिक गुफाओं में टहलते यह ख्याल आता है कि यात्राओं का एकांत हमे ईश्वर ने खुद को अभिसारी होने के लिए दिया था परन्तु हम वाग विलास के प्रपंचो शब्द विलास के चातुर्य कर्म में ही एक मरीचिका रचते रहें जिसमे ठुकराएं हुए न जाने कितने लोग अपनी प्यास लिए दम तोड़ जाते है।
न जाने कितने श्राप लिए जीवन को पुरुषार्थ के भ्रम के बीच मेरी जिद मुक्त और एकांतसिद्ध होने की रही है परन्तु जब-जब मुझ से निराश लोगो की सूची देखता हूँ तो मुझे समय के षड्यंत्रो और शब्दों के चक्रव्यूह में फंसे हुए भोले मित्रों की याद आती है जिन पर मेरा ऐसा रंग चढ़ा कि चाहकर भी मुझे नफरत नही कर सकें।

Friday, June 20, 2014

शोध पत्र

कभी-कभी ख्याल आता है कि जिन-जिन लोगो को ब्लॉक/अनफ्रेंड किया हुआ है और जिनसे कभी सक्रिय रूप से बातचीत होती थी यदि वो सब आपस में मिल जाएं तो मेरी निन्दा, आलोचना और दोषदर्शन के लिए व्यापक सम्भावना उत्पन्न हो सकती है। फेसबुक पर एक नया ग्रुप बन सकता है :)
 इसमें कोई संदेह नही बहुतो के दिलों में मेरे लिए खला है उनको मै झूठा, धोखेबाज और छद्म व्यक्तित्व लगता हूँ सबका अपना निजी परसेप्शन हो सकता है इसमें क्या सम्पादन किया जाए। मैंने कभी देवता होने का दावा नही किया मै भी एक आम मनुष्य हूँ और मेरी भी तमाम मानवीय कमजोरियां है मेरे अंदर तमाम बुराइयां हो सकती है परन्तु मै साफगोई से जीने में यकीन रखता हूँ जिसे कई बार मेरा अहंकार तो कभी शातिरपना समझा जा सकता है। आइडियल मै कभी नही रहा और न ही कभी आइडियल बनने की मेरी कोशिश रही है परन्तु लोग यदि अपनी अपनी अपेक्षाओं के केंद्र में मुझे रखे तो यह उनकी समस्या है मै सबके अनुकूल व्यवहार नही कर सकता हूँ क्योंकि यह एक सायास उपक्रम होगा इसमें एक तो मेरे व्यवहार की मौलिकता नही बचेगी दूसरा इसमें ऊर्जा का बहुत अपव्यय होगा।
मै एक यात्री हूँ और उसी की तरह का जीवन जीता हूँ दुर्योग से अतिसम्वेदनशील हूँ इसलिए जिसने कभी आत्मीयता से बात की हो उसकी पैतरेबाजी से असहज भी महसूस करता हूँ।
निन्दा, आलोचना, दोषदर्शन,चरित्रचित्रण,कनबतिया खूब कीजिए दोस्तों यह आपका मौलिक अधिकार है परन्तु एक तरफा रहिए यह भी भला कोई बात हुई कि मेरे बिना रहा भी न जाए और मुझे सहा भी न जाएं। मुझसे छूटे हुए लोगो को मेरी अनुपस्थिति में मुझे विषय बनाकर शोध पत्र पढ़ने से कोई लाभ नही होगा। यदि मेरे लिखे हुए में आपको कभी कोई गुणवत्ता दिखाई दी हो तो इसे उसकी कीमत समझ लीजिए जो आपको चुकानी ही पड़ेगी।

बहरहाल, निदा फाजली साहब के ये दो शे'र अपने उन तमाम दोस्तों के नाम जिनके इन्बोक्सीय विमर्श का केंद्र मै बना हुआ हूँ :)

उसके दुश्मन हैं बहुत आदमी अच्छा होगा
वो भी मेरी तरह इस शहर में तन्हा होगा

मेरे   बारे   में   कोई   राय   तो होगी उसकी
उसने मुझको भी कभी तोड़ के   देखा  होगा

सुप्रभात !


Friday, June 13, 2014

चिंता

मिहिर (छोटा बेटा) गली में छतरी लिए एक शख्स को देखकर कहता है देखो पापा जी अंकल छाता लेकर जा रहे है तभी उसके पास बैठा उसका बड़ा भाई ( ताऊ जी का बेटा) पार्थ उसको टोकता है कि पागल अम्ब्रेला बोल छाता तो बाई ( काम करने वाली) के बच्चे बोलते है !
मै बच्चे का तर्क सुनकर स्तब्ध था फिर मैंने उसको बहुत समझाने की कोशिस की हिन्दी हमारी मातृभाषा है हमारी अपनी ज़बान है मगर वो न हिन्दी को सही मानने पर राज़ी हुआ और न उसे मातृभाषा जैसी कोई कांसेप्ट समझ में आई उसके लिए हिन्दी के शब्दों का बोलचाल में अधिक प्रयोग करना ठीक नही है यह भाषा बाई के बच्चों की भाषा है।
यह किस अंग्रेजदां सिस्टम का दबाव है जो चार साल के बच्चे को भाषा के आधार पर वर्ग भेद करने की ट्रेनिंग दे रहा है? मैंने जब पार्थ से यह पूछा कि उसको किसने सिखाया कहने लगा स्कूल के सभी बच्चें ऐसा ही कहते है उनकी मम्मी भी उनको यही कहती है हिन्दी में बात करना अच्छी बात नही है।
बात बाल मन की है और छोटी सी है मगर यह देश की विद्यालयी शिक्षा पर बड़ा सवाल खडा करती है हमने अपनी पीढी में जाति और धर्म का भेदभाव भोगा है नई पीढ़ी भेद का एक नया पैमाना लेकर बड़ी हो रही है भाषा के आधार पर वर्ग भेद का पैमाना माने इस हिन्दी भाषी देश में अब हिन्दी गरीबों की भाषा है अब यह मध्यम वर्ग से भी नीचे समाज के हाशिए पर जीने वाले लोगो की भाषा है और अंग्रेजी नवधनाढ्य मध्यमवर्ग से कुलीन वर्ग में शिफ्ट होने की फिराक में रहने वाले बैचेन लोगो की भाषा बन गई है।
दरअसल भाषा एक संस्कार की तरह होती है हिन्दी का ऐसे ही नियोजित तिरस्कार होता रहा तो अगला संकट बोली के संरक्षण का आने वाला है अंग्रेजी नाम की यह सुरसा भाषा बोली को निगलने के लिए तैयार बैठी है। इसमें कोई आश्चर्य न होगा यदि कल हमारे ही बच्चें हमसे हमारी भाषा/बोली का अनुवाद अंग्रेजी में पूछा करेंगे फिर हमारी योग्यता में बोली के अंग्रेजी अनुवादक की भूमिका और जुड़ जाएगी।
गाँव में मौसम, हाईजीन, स्वास्थ्य की तमाम दिक्कतों के बावजूद मै साल में डेढ़ महीने बच्चों को गाँव में इसलिए रखता हूँ ताकि उनके शहरीकरण और अंग्रेजीकरण की प्रक्रिया में ग्राम्य जीवन भाषा बोली रहन सहन के संस्कार बचे रहें।
एक साधन और स्किल के रूप में अंग्रेजी भाषा की उपयोगिता को खारिज़ नही कर रहा हूँ मगर क्या अंग्रेजी का उत्थान हिन्दी के अवनयन से ही आरम्भ होता है क्या कोई ऐसा तन्त्र नही  विकसित किया जाना चाहिए जहां भाषा केवल एक साधन हो साध्य नही?
बहरहाल, आज सुबह की इस घटना के बाद और अंग्रेजी प्रेम के अघोर संक्रमण काल में मै तो अपनी भाषा और बोली के लिए सरंक्षण और और अधिक चिंतातुर हो गया हूँ आपका पता नही।

Tuesday, June 3, 2014

रिचार्ज

आज लेपटॉप को रिचार्ज किया जबसे गाँव आया खुद ब खुद डिस्चार्ज हो कर लगभग ऊर्जा के अंतिम छोर पर सुस्त बैठा मेरी बेरुखी की इन्तहा देख रहा था। आधे दशक के करीब से लेनेवो पुत्र मेरा लेपटॉप एक निर्विकार साथी रहा है उसकी छाती को अपने शब्द बाणों से पीटते हुए मैंने साल दर साल कहने के अभिमान में गुजारें है।
आज पहले अपना पासवर्ड भूल गया और विंडो की घेराबंदी के बीच अपनी याददाश्त टटोलता रहा कई गलत विकल्पों के बीच ठीक जीवन की तरह एक रास्ता दिखा और उसी के सहारे लेपटॉप की लगभग ढाई महीने की नीरस दुनिया में दाखिल हुआ।
तकनीकी की स्मृति मस्तिष्क की सक्रियता/तत्परता या जुड़ाव का हिस्सा हो सकती है परन्तु आज खुद के लिखे कई बेनामी दस्तावेज़ तलाशने के लिए सर्च का विकल्प प्रयोग करना पड़ा निसंदेह यह विचित्र अनुभव था लैपटॉप के भिन्न भिन्न हिस्सों में सुरक्षित मेरी निठल्ली खुराफातें आज काफी तलाशने पर मिली यह किसी पुरानी प्रेमिका के पुराने पत्र पढने जैसा अनुभव कहा जा सकता है।
कभी  सिद्ध समाधि की अवस्था में मेरी छाती पर अखंड शिवलिंग की भाँति प्राण प्रतिष्ठिता को जीने वाली मेरी यह ई पेटी आज चार्जिंग की औपचारिकता भर के लिए खुली दोनों के लिए इसे कोई बढिया अनुभव नही कहा जा सकता है क्योंकि अब हम दोनों ही नही जानते कि कब दोबारा उसमे प्राण फूंके जाएंगे शायद किसी दिन दुनियादारी की परवाह से बेपरवाह होकर उसको फिर गुलज़ार करूं मगर ये दिन निसंदेह फिर उसके ऊर्जाविहीन होने पर ही आएगा अपने बुरे दिनों के अच्छे साथी रहे इस लैपटॉप की इस दुर्गति पर मै शर्मिंदा हूँ माफी इसलिए यहाँ मांग रहा हूँ क्योंकि तुम सुन नही सकते और मै कह नही सकता।