Wednesday, November 22, 2017

चिट्ठी-पत्री

प्रिय सखी,
मैं यह नही कहता कि दुनिया में सब कुछ यथार्थ से अभिप्रेरित होता है. कल्पना खुद में एक बहुत बड़ा सच है.कल्पना और यथार्थ में कभी-कभी भेद मिट जाता है, जीवन में एक समय ऐसा आता है कि जब कल्पना यथार्थ लगने लगती है और यथार्थ कल्पना में रूपांतरित हो जाता है. मैं तुम्हारा कोई परामर्शदाता भी नही हूँ कि जो अपने अनुभवों से तुम्हारी अनुभूतियों का मूल्यांकन करके तुम्हें कुछ सही-सही सलाह दे सकूं. मैत्री की अपनी सीमाएं होती है एक समय के बाद जो मित्र आपको सबसे अधिक जानने लगता है, उससे भी एक अजीब सा डर लगने लगता है इसलिए भी मैं तुम्हें कुछ कहने से बचता हूँ.
मनुष्य जितना व्यक्त होता है उससे कई गुना अव्यक्त रह जाता है, और ऐसा रहना उसके हित के लिए अस्तित्व का एक नियोजन होता है. जीवन एक बहुफलकीय चीज़ है इसलिए किसी भी वस्तु,घटना या रिश्तें के अपनी-अपनी सुविधा की दृष्टि से अनेक पाठ हो सकते है. मेरी बातों में पलायन के प्रशिक्षण की ध्वनि है. हो सकता है तुम्हें यह भी लगे कि मैं तुम्हें अपने मन की सबसे आदि अभिलाषा का पीछा करने से हतोत्साहित कर रहा हूँ. हो सकता है तुम मेरी बातों से इस कदर चिढ़ जाओं कि तुम्हें उनमें से एक कमजोर पुरुष की गंध भी आने लगे. ये बात मैं ठीक-ठीक जानता हूँ कि दुनिया कमजोर से कमजोर स्त्री भी एक कमजोर पुरुष को पसंद नही करती है यह बात हालांकि विमर्श की दृष्टि से पूर्वाग्रह से युक्त लग सकती है मगर यह एक मनोवैज्ञानिक सच है.
मन की अपनी बड़ी विचित्र दुनिया है ये कभी-कभी अप्राप्य को पाना चाहता है तो कभी अप्राप्य को पाकर भी एकदम अवाक खड़ा रह जाता है. हम एक ही समय एक व्यक्ति से प्यार भी कर रहे होते है और उसे नापसंद भी. ऐसा केवल मनुष्यों के साथ संभव है कि मनुष्य की चाहना एक समय के बाद रूपांतरित हो जाए और उसकी तलाश अपनी दिशा भटक कर उस स्थान पर केन्द्रित हो जाए जो खुद में दिशाविहीन हो.
मैं तुम्हें जानने का दावा नही करना चाहता क्योंकि यह संभव नही है कि कोई मनुष्य किसी दुसरे मनुष्यों को ठीक-ठीक जान जाए, जब हम यह कहते है कि मैं तुम्हें समझता हूँ तो उसका एक तात्कालिक अर्थ यह होता है मैं फिलहाल तुम्हें समझ रहा हूँ. समझ की यह क्षणिकता बाद में कितनी स्थायी रहेगी यह बात इतनी ही अनिश्चित होती  है जितनी बादलों को देखकर बारिश के होने की भविष्यवाणी करना.
मैं तुम्हें सावधान नही कर रहा हूँ और न ही किसी मानवीय समबन्ध से डरा रहा हूँ. हम मनुष्य है इसलिए यह सहज और स्वाभाविक है कि हम कुछ सपनें देखें और सपनें देखने की कोई तयशुदा सीमा नही होती है. बल्कि मैं तो यह कहूंगा हर ज़िंदा आदमी को ऐसे सपने जरुर देखने चाहिए जिनकी इजाज़त कल्पना और यथार्थ दोनों ही नही देते है.
तुम प्रेम पर मेरा अनुभव सुनना चाहती हो, तो सुनो ! प्रेम पर मेरा अनुभव प्रभाव की  दृष्टि से चमत्कारिक लग सकता है मगर उसका प्रभाव और शिल्प मूलत: एक गल्प है. प्रेम इतना निजी होता है कि इसके अनुभव और अनुभूतियाँ एक समय के बाद दुसरे के लिए गल्प बन जाते है.  वस्तुत: सच यह है कि मेरे पास कुशाग्र प्रेम दृष्टि है जिसके जरिए मैं अपने आसपास पसरे प्रेम को पढ़ लेता हूँ और उसको अपनी शब्द शैली में संगृहित कर लेता हूँ. मैं प्रेम का दस्तावेजीकरण करता हूँ और क्यों करता हूँ? इसका सही-सही जवाब नही है मेरे पास. मैं अपनी स्मृतियों को हमेशा एक अयाचित सुख के धोखे में रखने का कौशल सीख गया हूँ इसलिए मैं सामान्य-सामान्य सी बातचीत को कविता की शक्ल दे सकता हूँ.
प्रेम मनुष्य को रूपांतरित कर देता है मगर यह रूपान्तरण खुद देखने के लिए मात्र प्रेम में होना एक अर्जित योग्यता नही होती है बल्कि जब आप खुद किसी के प्रेम में होते है तो आपकी दृष्टि का अधिकतम विस्तार पहले से निर्धारित हो जाता है इसलिए आपके देखे दृश्यों की उपयोगिता उस व्यक्ति के लिए कोई खास नही होती है जो प्रेम को समझना चाहता हो.
मैं तुम्हें प्रेम नही समझा सकता हूँ और मुझे लगता कोई भी किसी को प्रेम नही समझा सकता है.प्रेम को लेकर सबकी मान्यताओं के अपने बेहद निजी और अंतिम किस्म के संस्करण होते है और उसके लिए वही उसका सच होता है, इसलिए मेरा सच तुम्हारा सच कभी नही हो सकता है. तुम्हें अपने सच से खुद ही साक्षात्कार करना होगा और जिस दिन यह बोध घटित हो गया उसके बाद मुझे नही लगता कि तुम्हारे पास प्रेम को लेकर कोई सवाल शेष बचेगा. इसके बाद तुम प्रेम को गा तो सकोगी मगर प्रेम को किसी को सुना न सकोगी.
इस चिट्ठी में मेरी बातें बेहद शुष्क और वैचारिक लग रही है मगर मैंने अपनी बात कहने के लिए कोई अतिरिक्त सतर्कता नही बरती है. प्रेम और रिश्तों से जुडी बातें पहले मुझे बहुत भावुक कर देती थी और मैं शब्दविहीन होकर अक्सर सोचा करता था कि कोई कैसे अचानक से किसी का सबसे प्रिय हो जाता और फिर कैसे वो उसकी दुनिया से एकदिन विदा भी हो जाता है. मैं पहले यह भी सोचता था कि जिससे आप प्रेम करते है या जो आपसे प्रेम करता है उसकी मृत्यु एक ही दिन होनी चाहिए. किसी के जाने पर कोई एक अकेला क्या करेगा? और इन सब बातों को सोच-सोच कर मैंने कई-कई रातें यूं ही जागते हुए बिताई है.
आदतन मेरे खत लम्बे हो जाते है मुझे आज भी संक्षिप्त रहने और कहने का कौशल नही आया है, शायद यही मेरे ज्ञात दुखों की एक बड़ी वजह है.मगर मैं तुम्हें कहना चाहता हूँ और किस अधिकार से कह रहा हूँ यह भी नही जानता हूँ कि तुम जीवन में भावनाओं के अपव्यय से हमेशा बचना और जीवन में अधिकार और प्रेम बड़े होश से किसी के साथ बरतना.
तुम बेहद निर्मल चित्त की हो इसलिए मैं अवांछित ढंग से तुमसे बड़ा होने का अभिनय कर रहा हूँ जबकि सच बात तो यह है कि मैंने बहुत सी बातें खुद तुमसे ही सीखी है. मेरे पास कुछ छोटी-छोटी व्याख्याएं है उन्हें अपने अनुभवों के भाव प्रकाश के साथ तुम्हें सौंप रहा हूँ मुझे उम्मीद ही नही पूरा भरोसा है कि तुम उनको विस्तार देकर जीवन को अपनी अनुभूतियों से सम्पन्न करोगी और कोई अनुभव तुम्हें आहत नही करेगा बल्कि हर अप्रिय अनुभव तुम्हें दीक्षित करेगा और और प्रिय अनुभव तुम्हारें अभौतिक सौन्दर्य में इजाफा करेगा.
शेष फिर...
तुम्हारा अल्पज्ञानी मित्र,
डॉ. अजित


Monday, November 20, 2017

‘फुटकर नोट्स’

तुमनें कभी दो स्त्रियों को आपस में लड़ते हुए देखा है? उनका पारस्परिक आरोपण के शब्द चयन पर कभी गौर किया है? ऐसा प्रतीत जरुर होता है कि वो बाहर की दुनिया के किसी शख्स से लड़ रही है मगर वास्तव ये लड़ाई बाहर की बजाए कई गुना आंतरिक है. बल्कि मैं यह कहूँ कि ये लड़ाई खुद की खुद के साथ अरसे से चल रही होती है बाहर की लड़ाई एक विस्फोट मात्र है. तात्कालिक रूप से आहत होकर फट पड़ना इसे ही कहा जाता है.
कोई भी लड़ाई एकदिन की किसी घटना का परिणाम कभी भी नही होती है हर लड़ाई की भूमिका बहुत समय पहले लिखी जा चुकी होती है. हम जब वास्तव में लड़ाई देखते है तब वास्तव में वो लड़ाई नही होती वो लड़ाई से मुक्ति की एक प्रतिक्रया भर होती है. सदियों से किस्म-किस्म की लडाईयां स्त्रीमन में चल रही है एक पुरुष होने के नाते उन लड़ाईयों पर मुझे बात करने का कोई अधिकार नही है और मेरा ऐसा करना खुद में संदेहास्पद है. मैं खुद के प्रति बहुत क्रिटिकल होकर सोचता हूँ कि ऐसी लड़ाई क्या मैं चिन्हित करके समझ सकता हूँ? शायद नही. मेरे पास कुछ अनुमान है उन्ही के भरोसे मैं यह उपकल्पना बना रहा हूँ कि आपस में लड़ती हुई स्त्रियों की पहली लड़ाई खुद से होती है और दूसरी किसी अन्य से.  कोई मेरे इस उपकल्पना को निरर्थक भी सिद्ध कर दें तब भी मुझे खराब नही लगेगा क्योंकि बात यहाँ लड़ाई की है और मैं बुरा केवल प्यार की बातों का मानता हूँ .
**
क्या तुमनें शोक में स्त्रियों का विलाप सुना है? तुम्हें आश्चर्य होता  है कि किसी अनजान और पराए के दुःख में भी वे एक रुदन भरे सुर कैसे विलाप कर लेती है? विलाप दरअसल विरेचन का एक हिस्सा है अरस्तु की माने तो हर त्रासदी का बोध के स्तर पर एक गहरा मूल्य है. स्त्रियों के विलाप में कोरी शास्त्रीयता तलाशना अति बौद्धिकता होगी मगर स्त्रियों का विलाप निज दुःख का बाह्य जगत के दुखों के साथ तादात्म्य स्थापित करने का एक अनियोजित उपक्रम है.
जीवन के समग्र मानचित्र में त्रासदियों के टापू प्राय: सभी के हिस्से आते है यहाँ मैं स्त्री-पुरुष के भेद में नही पड़ना चाहता हूँ मगर स्त्रियों के दुःख के टापू हमेशा आंसूओं के समंदर से घिरे नही होते है वहां एक निर्जन,नीरव शुष्क थार का भी अस्तित्व रहता है. दुःख में विलाप दरअसल उस शुष्कता में तरलता का एक संबोधन भर होता है.
वैसे भी दुःख का भाईचारा सुख से कई गुना बड़ा होता है वो अपने जैसे लोग बहुत जल्द तलाश लेता है. मैंने जब एक शोकातुर स्त्री को विलाप करते हुए सुना ठीक उसी दिन मैंने अपने जीवन से आत्महत्या के विचार को सदा के लिए विदा कर दिया. मैं अपने जाने के बाद कम से कम इतना विकट दुःख किसी की आँखों में नही देखना चाहता हूँ. स्त्रियों के विलाप में एक पसरी हुई नीरवता है जिसके शोर में हम दुःख को महसूस कर पाते है.
स्त्रियों का विलाप दुखों से संधि का नही दुखों से प्रतिशोध का प्रतीक है.
‘फुटकर नोट्स’
©डॉ. अजित


Wednesday, November 15, 2017

‘अतीत-प्रीत’

तुमसे मिलकर जज किए जाने का कोई खतरा नही था. मैं तुम्हारे गले लग सकती है और मुझे इस बात का भय नही था कि तुम ये न सोचने लगो कि कहीं मैं तुमसे प्यार तो नही करने लगी हो. तुम वास्तव में वैसे दोस्त थे जैसा एक दोस्त को होना चाहिए. हमख्याल न होने के बावजूद तुम हमजबां थे.
लिंगबोध और लिंगभेद पर इतने विमर्श मैंने पढ़ें है मगर तुम्हारे साथ रहकर मैंने पहले बार लिंग के बोध से वास्तविक मुक्ति महसूस की. तुमसे मिलकर मैंने जाना कि स्त्री और पुरुष केवल दो देह भर नही बल्कि देह के शिखर पर चढ़कर एक अलग दुनिया देखी जा सकती है जो हम असल में कभी नही देख पातें है.
ऐसा नही है मेरी तुमसे विशुद्ध लौकिक दोस्ती थी कभी-कभी मुझे तुम पर गहरा प्यार भी आता था मगर ये प्यार मेरे अंदर को ऑब्सेशन कभी पैदा नही कर पाया इस प्यार के लक्षण में अमूर्त रूप मातृत्व प्रेम की छाया हमेशा शामिल रही. मैं तुम्हें खोना नही चाहती थी इसलिए हमेशा चाहती रही कि तुम अपने बारें थोड़े सावधान रहो.
यह सावधानी तुम्हारे उम्र भर काम आनी थी क्योंकि मुझे पता था एकदिन मैं नही रहूँगी. हालांकि तुमने कभी भावुकतावाश भी मुझे बाँधने का प्रयास नही किया इसी कारण मैं कभी भी तुम्हारे पास से जा ही नही पायी. तुम हमेशा एक गहरी आश्वस्ति में रहे मुझे नही पता यह तुम्हारा किस किस्म का बोध था मगर मैंने रिश्तों को लेकर तुम्हें कभी आवेश में नही देखा.
मनुष्य सदियों से सही-गलत,पाप-पुण्य के मुकदमों में उलझा हुआ है वह एक पल में खुद को सही पाता है मगर दुसरे ही पल में खुद को दोषी समझने लगता है. परिचय और संबोधनों के लोकाचार के बाद भी अंतत: एक स्त्री या एक पुरुष का ही परिचय बचता है. मन के प्रोमिल भाव और अनुराग एक समय के दूषित या बासी लगने लगते है. मगर तुम्हें देखकर लगता है कि जीवन को यदि थोड़ी देर हम अकारण जीना चाहें तो उस थोड़ी देर के लिए हमेशा तुम्हारी जरूरत रहेगी. इस मामले में मुझे तुम्हारा कोई विकल्प कभी नजर नही आया और आता भी तो मैं तुम्हारे बदले कोई विकल्प कभी न चुनती.
ऐसा नही था कि तुम में सब कुछ बढ़िया ही बढ़िया था तुम में भी कुछ खराबियां थी मगर उन खराबियों के बारें में सोचने पर वो हमेशा तुम्हारे कद के सामने बौनी नजर आयी और फिर मुझे भी थोड़े खराब आदमी हमेशा से पसंद रहें है अगर दुनिया में सभी लोग अच्छे हो जाए तो ये दुनिया कितनी नीरस हो जाएगी फिर हम मनुष्यों के पास निंदा करने के विषय कहाँ से आएँगे?
आज भी मैं अतीत में नंगे पाँव टहल आती हूँ और मेरे पाँव जख्मी नही होते है उसकी एकमात्र वजह यही है कि मेरे पास अतीत के नाम पर शिकायतों का वन नही है और न ही मेरे पास उथले हुए एकांत की स्मृतियाँ है बल्कि मेरे पास एक बेहद जीवंत जीवन है जहां मैं तुम्हारी आँखों में आँखे डाल कर आसमां को चुनौति देते हुए कह सकती हूँ तुमसे गहरा और बड़ा दोस्त ठीक मेरे सामने है.

‘अतीत-प्रीत’

©डॉ. अजित   

Tuesday, November 14, 2017

आज जाने की जिद न करो

आज जाने की जिद न करो
__
जिद भी एक अजीब शै है. कभी तुम्हें बुलाने के लिए हुआ करती है तो कभी तुम्हें रोकने के लिए दरम्यां होती है. प्रेम ने मुझे थोड़ा जिद्दी बनाया है. शायद जिद से जुडी मेरी कोई स्मृतियाँ बेहद कमजोर है इसलिए मुझे अपनी या तुम्हारी आख़िरी जिद याद भी नही है. फिलहाल मैं आधी धूप और आधी छाँव में लेटी हुई जगजीत सिंह को सुन रही हूँ वो गा रहे है ‘अब अगर आओ तो जाने के लिए मत आना, सिर्फ अहसान जताने के लिए मत आना’ इस गज़ल को सुनते हुए धूप धीरे सरक रही और मैं छाँव की कैद में खुद को खड़ा पा रही हूँ.
मुझे धूप और छाँव से ज्यादा फ़िलहाल तुम्हारी फ़िक्र है मगर मैं इस फ़िक्र को शिकायत की शक्ल में कतई नही रखना चाहती हूँ ,इसलिए मैंने शिकायतों को एक मीठी नींद सुला दिया है फिलहाल मैं आँखें मूंदे आसमान को देख रही हूँ आसमान मुझे यूं देख मुझ पर हंसता है उसकी हंसी के सहारे बादलों की छोटी-छोटी बच्चियां हवा को साथ लेकर टहलने के लिए निकल गई है. मेरे कान की बालियाँ गज़ल के बोझ से थोड़ी थक गई है इसलिए वो सो गई है मैंने उनको इसलिए सोने दिया वरना उनका शोर मुझे गज़ल और तुमसे दोनों से जुदा कर देता.
दिल अजीब सी जिद पर अड़ा है यह बात कहते हुए मैं एक लम्बी सांस छोड़ना चाहती हूँ मगर ऐसा करने से फिलहाल बच रही हो मेरे ऐसा करने से धरती की दिलचस्पी मेरी जिद को जानने में हो सकती है. मैं नही चाहती कि मेरी जिद के बारें किसी को कोई खबर हो.इस दौर में जीने के लिए मुझे थोड़ी अय्यारी थोड़ी मसखरी सीखनी पड़ी है. जानती हूँ तुम मुझे अब कभी हासिल नही होंगे और हासिल शब्द से तुम्हें हमेशा ऐतराज़ भी रहा है यह खुद में एक जिद है कि किसी को हासिल ही किया जाए.
बादलों की तरह मैंने तुम्हें उन्मुक्त गगन में अकेला छोड़ दिया है, अकेला जानबूझकर कह रही हूँ क्योंकि यह बात तुम भी जानते हो मेरे बिना तुम सदा अकेले ही रहोगे. ये तुम्हारा या मेरा नही बस समय का एक चुनाव है इसलिए फिलहाल मुझे प्रेम में संदेह करने की आदत से मुक्ति भी मिल गई है.
तुम्हें सोचने के लिए पहली दफा ऐसा हुआ कि मुझे आँखें बंद करनी पड़ी है वरना तुम्हारा चेहरा हमेशा मेरी आँखों के सामने रहा है. अब लग रहा है तुम सच में बहुत दूर चले गए हो इतनी दूर कि शायद ही अब कभी मैं खुली आँखों से तुम्हें देख सकूंगी.
मेरी धड़कनों ने तुम्हारे स्पर्शो को आज शाम मिलने के लिए बुलाया है मगर उनका कहना है कि मेरे सुर बिछड़ गए है इसलिए उन्हें संदेह है कि वो मेरे साथ रहकर यादों का झूला झूल सकेंगे. तुम्हें मेरी भावुक बातों से हमेशा ऐतराज़ रहा है मगर अब देखो जब सब कुछ छूट गया है तो मेरे और तुम्हारे पास केवल भावुक बातें ही बची है जिनके सहारें हम गुजरे हुए वक्त की आँख में काजल लगा सकते है.
गज़ल खत्म हो गई है मगर मेरे सामने तुम खड़े हो मैं फिलहाल तुम्हारे कस के गले लगना चाहती हूँ ऐसा करते हुए शायद मैं सिसक कर रो भी पडूं, ये गले लगना विदाई के लिए गले लगना नही है मैं बस चाहती हूँ कि थोड़ी देर के लिए कालचक्र को विलम्बित कर दूं और देहातीत होकर समय की देहरी से पार निकल कर तुम्हारा हाथ थामे उस दिशा की तरफ निकल जाऊं जिस देस से लोग कभी विदेश नही जाते.
जिद,जुनून या प्यार अब कुछ भी नही आता है याद बल्कि अब मेरे पास कुछ गल्प है जो मैनें नही बनाए है उन्होंने मुझे बनया है फिलहाल मैं उन्ही की दहलीज़ में बैठी हुई वक्त के कंकर बीन रही हूँ ये काम मुझे धूप ने सौंपा था मगर मैं इसे छाया को सौंप कर अपनी छाया में एकदिन विलीन हो जाऊँगी.
जानती हूँ यह बात थोड़ी उदास करने वाली है मगर मैं भी चाहती हूँ कि इस बात पर तुम्हें उदास हो जाओ और फिर मेरे और तुम्हारे बीच की जिद हमेशा के लिए मोक्ष पा जाए.
‘ थोड़ी सी जिद, थोड़ा सा जुनून’

©डॉ. अजित