Monday, November 20, 2017

‘फुटकर नोट्स’

तुमनें कभी दो स्त्रियों को आपस में लड़ते हुए देखा है? उनका पारस्परिक आरोपण के शब्द चयन पर कभी गौर किया है? ऐसा प्रतीत जरुर होता है कि वो बाहर की दुनिया के किसी शख्स से लड़ रही है मगर वास्तव ये लड़ाई बाहर की बजाए कई गुना आंतरिक है. बल्कि मैं यह कहूँ कि ये लड़ाई खुद की खुद के साथ अरसे से चल रही होती है बाहर की लड़ाई एक विस्फोट मात्र है. तात्कालिक रूप से आहत होकर फट पड़ना इसे ही कहा जाता है.
कोई भी लड़ाई एकदिन की किसी घटना का परिणाम कभी भी नही होती है हर लड़ाई की भूमिका बहुत समय पहले लिखी जा चुकी होती है. हम जब वास्तव में लड़ाई देखते है तब वास्तव में वो लड़ाई नही होती वो लड़ाई से मुक्ति की एक प्रतिक्रया भर होती है. सदियों से किस्म-किस्म की लडाईयां स्त्रीमन में चल रही है एक पुरुष होने के नाते उन लड़ाईयों पर मुझे बात करने का कोई अधिकार नही है और मेरा ऐसा करना खुद में संदेहास्पद है. मैं खुद के प्रति बहुत क्रिटिकल होकर सोचता हूँ कि ऐसी लड़ाई क्या मैं चिन्हित करके समझ सकता हूँ? शायद नही. मेरे पास कुछ अनुमान है उन्ही के भरोसे मैं यह उपकल्पना बना रहा हूँ कि आपस में लड़ती हुई स्त्रियों की पहली लड़ाई खुद से होती है और दूसरी किसी अन्य से.  कोई मेरे इस उपकल्पना को निरर्थक भी सिद्ध कर दें तब भी मुझे खराब नही लगेगा क्योंकि बात यहाँ लड़ाई की है और मैं बुरा केवल प्यार की बातों का मानता हूँ .
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क्या तुमनें शोक में स्त्रियों का विलाप सुना है? तुम्हें आश्चर्य होता  है कि किसी अनजान और पराए के दुःख में भी वे एक रुदन भरे सुर कैसे विलाप कर लेती है? विलाप दरअसल विरेचन का एक हिस्सा है अरस्तु की माने तो हर त्रासदी का बोध के स्तर पर एक गहरा मूल्य है. स्त्रियों के विलाप में कोरी शास्त्रीयता तलाशना अति बौद्धिकता होगी मगर स्त्रियों का विलाप निज दुःख का बाह्य जगत के दुखों के साथ तादात्म्य स्थापित करने का एक अनियोजित उपक्रम है.
जीवन के समग्र मानचित्र में त्रासदियों के टापू प्राय: सभी के हिस्से आते है यहाँ मैं स्त्री-पुरुष के भेद में नही पड़ना चाहता हूँ मगर स्त्रियों के दुःख के टापू हमेशा आंसूओं के समंदर से घिरे नही होते है वहां एक निर्जन,नीरव शुष्क थार का भी अस्तित्व रहता है. दुःख में विलाप दरअसल उस शुष्कता में तरलता का एक संबोधन भर होता है.
वैसे भी दुःख का भाईचारा सुख से कई गुना बड़ा होता है वो अपने जैसे लोग बहुत जल्द तलाश लेता है. मैंने जब एक शोकातुर स्त्री को विलाप करते हुए सुना ठीक उसी दिन मैंने अपने जीवन से आत्महत्या के विचार को सदा के लिए विदा कर दिया. मैं अपने जाने के बाद कम से कम इतना विकट दुःख किसी की आँखों में नही देखना चाहता हूँ. स्त्रियों के विलाप में एक पसरी हुई नीरवता है जिसके शोर में हम दुःख को महसूस कर पाते है.
स्त्रियों का विलाप दुखों से संधि का नही दुखों से प्रतिशोध का प्रतीक है.
‘फुटकर नोट्स’
©डॉ. अजित


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