Wednesday, September 30, 2015

मेरे प्रिय

जो मुझे प्रिय है वो सदा के लिए प्रिय हैं। उसको खोने को लेकर मेरी लौकिक चिंताएं लगभग शून्य है। मुझे लगता है एक बार वो मेरे पते से भटक भी गया तब भी एक न एक दिन मुझ तक पहुँच ही जाएगा। मेरा चित्त जिसकी निकटता से आह्लाद महसूसता है उसको मुक्त रखना मेरे लिए अनिवार्य है तभी वह नैसर्गिक रूप से मुझसे जुड़ा रह सकता है। डर दुश्चिंता और अपेक्षाओं के बोझ से मैं अपने मन के प्रिय को निस्तेज या निष्प्रभ नही करना चाहता हूँ।
सम्भव है मुझे उससे सांसारिक शिकायतें भी हो मगर वो शिकायतें मेरे मन में उसका स्थान इंच भर भी इधर उधर नही कर पाती है इन शिकायतों का निस्तारण मैं बहुधा समय के ऊपर छोड़ देता हूँ।
जो मेरा प्रिय है वो किसी और प्रिय शायद ही बन पाता है यह एक मेरे अस्तित्व की कमजोरी कह लीजिए या खासियत मैं इसे स्व के गौरव के रूप में देखता हूँ।
मेरे लिए निकटता या दूरी से अधिक महत्वपूर्ण है सम्वेदना के कोमल तंतुओं को नर्म स्पर्शों से निहारते रहना उनमें गांठ न लगने देना इसके बाद मैं एक ऐसी गहरी आश्वस्ति से भर जाता हूँ कि मुझे यह भय नही रहता कि मेरे प्रिय को कोई अपने किसी भी साधन से मुझसे विलग कर सकता है।
क्षण भर के लिए यदि ऐसा आभास भी आता है तो मैं उस पर मुस्कुरा भर देता हूँ फिर वो शंका कपूर की डली की तरह उड़ जाती है मेरे लिए प्रिय होने का अर्थ है किसी का समग्रता के साथ प्रिय होना न कि कुछ कुछ बिन्दुओं के साथ किसी को प्रिय समझना।
मैं का अतिशय प्रयोग कतिपय मेरा अभिमान न लगें इसलिए बताना जरूरी समझता हूँ यहां मैं में भी हम समाहित है मतलब मैं जिन्हें प्रिय हूँ और जो मुझे प्रिय है यह सम्वाद दोनों के चित्त की यात्रा का एक संक्षिप्त आख्यान भर है।

'मेरे प्रिय'

Sunday, September 27, 2015

इतवारी खत

अकेला होना मेरे लिए इसलिए भी कोई त्रासदी नही है क्योंकि इसमें कुछ अंशों में तुम्हारी भी महती भूमिका है। जिस स्थिति में तुम परोक्ष रूप से शामिल हो वो मेरे लिए कभी त्रासद नही हो सकता है बल्कि मैं उसमें उत्सव तलाश लेता हूँ।
तुम्हारे अपने स्थापित मानकों में हिसाब से मेरा कद छोटा है वय की लकीर हमारें मध्य तुम सम्पूर्ण उत्साह के साथ खींच देती हो। प्रेम तो खैर बड़ी गहरी और व्यापक जिम्मेदारी है तुम सामान्य मैत्री की अर्हता में भी मुझे अनुत्तरीण पाती हो। बिना किसी प्रेम या मैत्री के तुम मुझ पर एक अधिकार समझती हो यह मेरे लिए थोड़ी द्वंदात्मक और थोड़ी विचित्र स्थिति है। तुम्हारी बातों से सीधे सीधे यह लगता है तुमनें मेरे बारें में कुछ अमूर्त किस्म का फ्रेंम तय किया हुआ है और उसमें मेरे वजूद को मनोकूलता से फिट करने का प्रयास करती रहती हो।
यदि मैं मुक्त यात्री की भाँति अपने अनुभव तुम से साँझा करूं तो तुम्हे यह मेरे अस्तित्व का सामान्य होना लगने जैसा प्रतीत होता है फिर तुम अपने चयन पर खीझती हुई एक हद तक उपदेशात्मक हो जाती है तुम्हारी खीझ में मुझे खारिज़ कर मेरा अन्य की भाँति सामान्य होना की धारणा को स्थापित करने का साफ़ दिखता भी है।
दरअसल, तुम अभी तय नही कर पाई हो कि मैं तुम्हारा क्या हूँ? यह अनिर्णय की अवस्था तुम्हें मेरी कक्षा के क्या तो बेहद नजदीक ले आता है या फिर बेहद दूर।
जानता हूँ तुम्हारा स्पष्ट बोलना निसन्देह कड़वा बोलना नही है मगर जितनी साफगोई से तुम सीधा मुझे कह देती हो कि मैं न तुम्हारा मित्र हूँ न प्रेमी और न परिचित उसे सुनकर एकबारगी मेरे कदम जमीन से लड़खड़ा जाते है मैं अपने गुरुत्वाकर्षण का केंद्र भूल जाता हूँ। इन शब्दों की ध्वनि मुझे पल भर के लिए दुनिया का सबसे निर्धन जीव बना देती है।
यथार्थ के धरातल मैं फिर भी खुद को समेटता हुआ तुम्हारे समानांतर चलता चला जाता हूँ यह ठीक वैसी बात है आप नदी के किनारे चलते चलते एकदिन इंसानी बस्ती तक पहुँचने की उपकल्पना अपने मन में बना लें खासकर तब जब आप जंगल में रास्ता भटक गए हो।
आत्मीयता के प्रकाशन में कतिपय तुम्हें मैं अपने अस्तित्व के संपादक के रूप में पाता हूँ गोया तुमनें मेरे जीवन के लिए कुछ असाईनमेंट तय किए हो और मुझे अपने तमाम कौशल से उन्हें पूरा करके आपकी नजरों में अपनी उपयोगिता और सतत् प्रासंगिकता सिद्ध करनी हो।
मैं किसी भी किस्म की बैचेनी का शिकार नही हूँ बल्कि तुम्हारी बातें बड़े ध्यान से सुनता हूँ और प्रकृति के खेल पर विस्मय से भरता हूँ। तुम्हारें मानक और मार्ग से चलता हुआ भले ही मैं तुमसे कितना दूर चला जाऊं तुम्हें इस बात की कोई पीड़ा नही है मगर यदि मैं अपनी अनियोजित यात्रा के अनुभव तुम्हारे साथ बांटना चाहूँ तो तुम्हें एक तो उनकी सत्यता पर सन्देह होता है दूसरा तुम्हे लगने लगता है मैं वाग् विलास के चलते भटक रहा हूँ।
मुझे अपने अकेलेपन से कोई असुविधा नही है जीवन को किसी किस्म की शिकायत या रंज के सहारे मैंने कभी ढोया भी नही है मगर तुम्हारे साथ न जाने क्यों मेरे कुछ आत्मीय अनुबन्ध के फंदे अटक गए है जानते हुए कि तुम स्वयं को सही सिद्ध करने के लिए किसी भी सीमा तक निष्ठुर या क्रूर हो सकती हो।
खैर...! जब ये सब इतना एकतरफा है तो इसे मैं अपना ही पागलपन कहूँगा लेकिन फिलहाल इतना ही निवेदन कर सकता हूँ कि कम से कम मुझे अपनी धारणाओं से जंगल से मुक्त रखिए मैं स्वतः एक दिन खुद ब खुद उलट पाँव से तुम्हारी दुनिया से ओझल हो जाऊँगा जानता हूँ इससे तुम्हें कोई ख़ास फर्क नही पड़ेगा मेरे हिस्से में एक उदास शाम भी न आएगी मगर मेरी समग्रता और मौलिकता का मूल्य तुम्हें शायद तब थोड़ा बहुत समझ आएगा क्योंकि मेरे न होने पर तुम्हें और कोई फर्क पड़े न पड़े मगर इतना अहसास जरूर होगा कि आदमी दिल का साफ़ था।

'इतवारी खत'

Thursday, September 17, 2015

खता और खत

तुमसे बिछड़कर ऐसा कतई नही है कि मैं तुम्हें शिद्दत से याद करती हूँ। ना ही तुम्हारी अनुपस्थिति में मैं किसी किस्म का खालीपन महसूसती हूँ। बल्कि दिल की चश्मदीद गवाह हर मुलाकात के बाद हर बार ऐसा होता है कि मैं तुम्हारी शक्ल भी न देखना चाहती हूँ। कुछ दिन के लिए मैं हो जाती हूँ बिलकुल बंद तुम्हारी कोई बात तुम्हारा कोई ख्याल अंदर-बाहर नही आने देना चाहती। अक्सर ऐसा हुआ है कि तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारा ख्याल आया और मैंने उसे हिकारत से विदा कर दिया। हर समय तुम्हारे बारें में नही सोचती मैं और ना ही मुझे ऐसा लगा कि तुमसे मिलकर मुझे कोई बहुमूल्य चीज़ हासिल कर ली हो। तुम में यदि मैं नकार गिनने बैठ जाऊं तो मुलाक़ात तो क्या तुम्हारे बारें में कभी बात भी न करूँ। ना तुम अतीत हो ना ही भविष्य ना तुम्हें देखकर किसी किस्म की पूर्णता का बोध होता है मेरी प्यास को लेकर तुम्हारे पास किसी किस्म की आश्वस्ति भी नही है।
कई बार मुझे तुम्हारा मेरे जीवन में होनें पर भी संदेह होने लगता है क्योंकि यहां पर तुम्हारे होने के कोई निशाँ आगे या पीछे नजर नही आते है। तुम में मेरी दिलचस्पी अपने अंतिम द्वार पर खड़ी सिसकती है यह ठीक वैसा है किसी ऊंचे पहाड़ से आत्महत्या की सोचना और फिर वहां की गहराई और ठंडी हवाओं में खोकर सम्मोहन में खो जाना।
अपने एक सफल सुखी जीवन में तुम्हारे लिए कोई स्थान मैं कभी नही पाती हूँ तुम एक क्षण की तरह आकर किसी पल में अटक गए हो मैं उसी पल में तुम्हें देखती हो और देखते हुए हमेशा खुद को दो हिस्सों में बटा पाती हूँ।
सच बात तो ये है तुम से न मेरी मैत्री है और न प्रेम ना तुम मेरे जीवन के किसी रिक्त स्थान को भरने वाले शब्द हो।
तुम्हारे बार इतना क्रूर स्पष्ट और व्यवहारिक सोचने के बाद आज एक आत्म स्वीकृति जरूर करना चाहती हूँ।
ना मैं तुम्हें विस्मृत कर पाती हूँ और न घृणा तपती दुपहर में पुरवा की एक ठंडी बयार की तरह तुम्हारा इन्तजार मुझे रहता है।
हर बार अंतिम मुलाक़ात के मानस के बावजूद कुछ न कुछ छूट जाता है हमारे मध्य जिसे रोज़ तुम्हारे खिलाफ बातें सोचकर मिटाने की असफल कोशिश करती हूँ।
न तुम मिटते हो न घटते हो किसी मिट्टी के बनें हो तुम।
हर बार की तरह आज फिर बड़बड़ाकर यही कहती हूँ मुझे खत्म करना है ये सब मुझे बर्दाश्त नही होता तुम्हारी छाया का बोझ।

'खता और खत'

Wednesday, September 2, 2015

सर्दी और स्वेटर

ये सर्दी का पहला हफ्ता अपने आने के इन्तजार में है धूप ने नमी को सोखने के जतन सूरज से गुरुमंत्र के रूप सीख लिए है। तेरी गली के नन्हे कुकरमत्तो ने सूरज की तरफ करवट ली और तुमने छत पर पहली दफा सूरज से आँख मिलाई तो मन पर बरसात ने जो काई जमाई थी वो सूख कर उखड़ने लगी मन की सख्त दीवारों पर इस धूप के स्पर्श ने उनका रेत झाड़ दिया।
अभी तुम छत से नीचे उतरी भी न थी कि सीढ़ियों पर ख्याल आया उस अधूरे स्वेटर का जो बिन नाप लिए किसी एक सर्दी में तुमने बुनना शुरू किया था उसके फंदे तुम भूल गई हो और शायद अब उस नम्बर की सलाई भी न मिल पाएं मगर उस अधूरे स्वेटर को इस सर्दी की धूप में पूरा करके कम से कम तुम उस अधूरी मानसिकता से निकल सकती हो जिसमें रंगो डिजाइन की उलझन नही बल्कि स्मृति के विषम फंदे उलझे पड़े जिसमें आस्तीन  छोटी पड गई है तुमने अपनेपन की कुछ बटन इस अधूरे स्वेटर के लिए चुने थे अब उनके भी कोने टूटने शुरू हो गए है।
यह गुनगुनी धूप तुम्हारे मन की शिकायतों को सेंक कर शायद पका दें फिर ये तुम्हें तकलीफदेह नही लगेंगी फिर तुम अपनी जीवन के विषम रंगों में रंगी अपनी उँगलियों को मन के ठहरे हुए पानी में साफ़ करके फिर से उन सलाइयों में फंदे पिरोओगी जिनकी लड़ाई से एक अधूरा स्वेटर बनना है।
इस जाड़े की इस पहली धूप में दोपहर बाद यादों के सन्दूक से निकालना होगा वो दो रंगी ऊन का गोला जिस पर नमी चढ़ आई है फिर बुनने होंगे कुछ बेवजह के फंदे, सलाइयों के नम्बर के साथ भी समझौता करना पड़ सकता है मगर तुम्हारा मन जब गुनगुनाता हुआ बुनेगा यह स्वेटर तो इस उधड़े हुए रिश्तें की तुरपाई भी होगी इस स्वेटर के बहाने यह बात मुझे आश्वस्त करती है और इसी बिनाह पर अगली सर्दी तक मै खुद आऊंगा चाय के बहाने यह स्वेटर लेने जो तुम बुन रही हो कई सालो से यह कोई वादा नही बस अधूरेपन से ऊबे एक अधूरे मन की अभिलाषा है।

'सर्दी स्वेटर और अधूरा मन'

© अजीत