Wednesday, September 2, 2015

सर्दी और स्वेटर

ये सर्दी का पहला हफ्ता अपने आने के इन्तजार में है धूप ने नमी को सोखने के जतन सूरज से गुरुमंत्र के रूप सीख लिए है। तेरी गली के नन्हे कुकरमत्तो ने सूरज की तरफ करवट ली और तुमने छत पर पहली दफा सूरज से आँख मिलाई तो मन पर बरसात ने जो काई जमाई थी वो सूख कर उखड़ने लगी मन की सख्त दीवारों पर इस धूप के स्पर्श ने उनका रेत झाड़ दिया।
अभी तुम छत से नीचे उतरी भी न थी कि सीढ़ियों पर ख्याल आया उस अधूरे स्वेटर का जो बिन नाप लिए किसी एक सर्दी में तुमने बुनना शुरू किया था उसके फंदे तुम भूल गई हो और शायद अब उस नम्बर की सलाई भी न मिल पाएं मगर उस अधूरे स्वेटर को इस सर्दी की धूप में पूरा करके कम से कम तुम उस अधूरी मानसिकता से निकल सकती हो जिसमें रंगो डिजाइन की उलझन नही बल्कि स्मृति के विषम फंदे उलझे पड़े जिसमें आस्तीन  छोटी पड गई है तुमने अपनेपन की कुछ बटन इस अधूरे स्वेटर के लिए चुने थे अब उनके भी कोने टूटने शुरू हो गए है।
यह गुनगुनी धूप तुम्हारे मन की शिकायतों को सेंक कर शायद पका दें फिर ये तुम्हें तकलीफदेह नही लगेंगी फिर तुम अपनी जीवन के विषम रंगों में रंगी अपनी उँगलियों को मन के ठहरे हुए पानी में साफ़ करके फिर से उन सलाइयों में फंदे पिरोओगी जिनकी लड़ाई से एक अधूरा स्वेटर बनना है।
इस जाड़े की इस पहली धूप में दोपहर बाद यादों के सन्दूक से निकालना होगा वो दो रंगी ऊन का गोला जिस पर नमी चढ़ आई है फिर बुनने होंगे कुछ बेवजह के फंदे, सलाइयों के नम्बर के साथ भी समझौता करना पड़ सकता है मगर तुम्हारा मन जब गुनगुनाता हुआ बुनेगा यह स्वेटर तो इस उधड़े हुए रिश्तें की तुरपाई भी होगी इस स्वेटर के बहाने यह बात मुझे आश्वस्त करती है और इसी बिनाह पर अगली सर्दी तक मै खुद आऊंगा चाय के बहाने यह स्वेटर लेने जो तुम बुन रही हो कई सालो से यह कोई वादा नही बस अधूरेपन से ऊबे एक अधूरे मन की अभिलाषा है।

'सर्दी स्वेटर और अधूरा मन'

© अजीत

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