Thursday, September 17, 2015

खता और खत

तुमसे बिछड़कर ऐसा कतई नही है कि मैं तुम्हें शिद्दत से याद करती हूँ। ना ही तुम्हारी अनुपस्थिति में मैं किसी किस्म का खालीपन महसूसती हूँ। बल्कि दिल की चश्मदीद गवाह हर मुलाकात के बाद हर बार ऐसा होता है कि मैं तुम्हारी शक्ल भी न देखना चाहती हूँ। कुछ दिन के लिए मैं हो जाती हूँ बिलकुल बंद तुम्हारी कोई बात तुम्हारा कोई ख्याल अंदर-बाहर नही आने देना चाहती। अक्सर ऐसा हुआ है कि तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारा ख्याल आया और मैंने उसे हिकारत से विदा कर दिया। हर समय तुम्हारे बारें में नही सोचती मैं और ना ही मुझे ऐसा लगा कि तुमसे मिलकर मुझे कोई बहुमूल्य चीज़ हासिल कर ली हो। तुम में यदि मैं नकार गिनने बैठ जाऊं तो मुलाक़ात तो क्या तुम्हारे बारें में कभी बात भी न करूँ। ना तुम अतीत हो ना ही भविष्य ना तुम्हें देखकर किसी किस्म की पूर्णता का बोध होता है मेरी प्यास को लेकर तुम्हारे पास किसी किस्म की आश्वस्ति भी नही है।
कई बार मुझे तुम्हारा मेरे जीवन में होनें पर भी संदेह होने लगता है क्योंकि यहां पर तुम्हारे होने के कोई निशाँ आगे या पीछे नजर नही आते है। तुम में मेरी दिलचस्पी अपने अंतिम द्वार पर खड़ी सिसकती है यह ठीक वैसा है किसी ऊंचे पहाड़ से आत्महत्या की सोचना और फिर वहां की गहराई और ठंडी हवाओं में खोकर सम्मोहन में खो जाना।
अपने एक सफल सुखी जीवन में तुम्हारे लिए कोई स्थान मैं कभी नही पाती हूँ तुम एक क्षण की तरह आकर किसी पल में अटक गए हो मैं उसी पल में तुम्हें देखती हो और देखते हुए हमेशा खुद को दो हिस्सों में बटा पाती हूँ।
सच बात तो ये है तुम से न मेरी मैत्री है और न प्रेम ना तुम मेरे जीवन के किसी रिक्त स्थान को भरने वाले शब्द हो।
तुम्हारे बार इतना क्रूर स्पष्ट और व्यवहारिक सोचने के बाद आज एक आत्म स्वीकृति जरूर करना चाहती हूँ।
ना मैं तुम्हें विस्मृत कर पाती हूँ और न घृणा तपती दुपहर में पुरवा की एक ठंडी बयार की तरह तुम्हारा इन्तजार मुझे रहता है।
हर बार अंतिम मुलाक़ात के मानस के बावजूद कुछ न कुछ छूट जाता है हमारे मध्य जिसे रोज़ तुम्हारे खिलाफ बातें सोचकर मिटाने की असफल कोशिश करती हूँ।
न तुम मिटते हो न घटते हो किसी मिट्टी के बनें हो तुम।
हर बार की तरह आज फिर बड़बड़ाकर यही कहती हूँ मुझे खत्म करना है ये सब मुझे बर्दाश्त नही होता तुम्हारी छाया का बोझ।

'खता और खत'

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