Monday, March 30, 2015

सर्दी-गर्मी

कल मार्च भी खत्म हो रहा है। नए साल के नए तीन महीने और पुराने साल के आखिरी तीन महीने मिलाकर आधा साल मेरी जिन्दगी में कुछ इस तरह दर्ज हो गया है कि इसके एक-एक दिन पर मैं घंटो व्याख्यान दे सकता हूं। अब जब मौसम करवट ले रहा है मेरे मन का पतझड अपने यौवन पर है। तुम्हारी अनुपस्थिति में मन की नर्म जमीं पर ख्यालों के सूखे पत्तों की एक तह जमा हो गई है जिसकी वजह से मुझे सांस लेने में कभी-कभी तकलीफ होती है।

पिछले छ महीने का हिसाब-किताब करके तुम्हें ना भूलना चाहता हूं और ना याद ही रखना चाहता हूं। सर्दी की चाय की प्याली से बात शुरु होती है वो खत्म होने का नाम नही लेती है मेरे ज़बान पर कुछ जायके ऐसे चिपके है कि वो घुल नही पा रहें है। सर्दियों की धुंध और सर्दियों की बारिश में तुमसे जो मेरी बातचीत हुई उसको उलटा पढना शुरु करता हूं मेरी आखिरी बात का एक सिरा तुमसे हुई पहली बात से मिल जाता है फिर भी सारी बातें आपस मे दोस्त बन एक दूसरे की पीठ थपथपाने लग जाती है।

अब गर्मियां आने वाली है दिन अजीब से चिढचिढे हो गए है अब अगले चार महीनें मै तपता रहूंगा इस ताप से और मेरे जिस्म से बहता रहेगा तुम्हारा प्रेम इसकी ठंडक से ही मेरे शरीर का तापमान सामान्य रहेगा। चौबीस घंटे मे दोपहर और शाम का वक्त मुझ पर सबसे भारी गुजरता है दोपहर मेरे कान मे आकर कह देती है तुम मुझे भूलने ही वाली हो और शाम को जब मै सूरज से इस चुगली की सच्चाई जानना चाहता हूं वो चुपचाप आंख बचाकर निकल जाता है। अब इन चार महीनों में धूल-अंधड और बारिश के भरोसे ही रहूंगा ताकि मै कुछ भी स्थिर होकर सोच न सकूं।

तुम्हारा बारें में स्थिर होकर सोचना मुझे डराता भी और तपाता भी है फिर मै ताप के असर में मन ही मन न जाने क्या क्या बडबडाने लगता हूं। कहने को तो यह बसंत है मगर मेरा बसंत इस बार सर्दी की गोद में आकर चुपचाप चला भी गया है मेरा बसंत तब था जब सुबह सुबह उनींदी आंखों से बिस्तर पर तुम्हें याद कर मै मुस्कुरा देता था। तुम्हारे ताने सुनकर करवट बदलना भूल जाता था। इन सर्दियों में तुम्हारी वजह से मेरे संवेदनाएं इतनी जीवंत किस्म की थी कि मै बिस्तर तकिया गद्दा रजाई यहां तक दर ओ दीवार से भी बातें कर लेता था। और ये बातें कोई आम बातें नही थी बल्कि ये सब उतनी ही गहरी बातें थी जितनी कभी तुमसे आमने सामने हुई है। कल जब मै बिस्तर की सिलवट ठीक कर रहा था तब अचानक लगा किसी ने मेरा हाथ पकड लिया कुछ सिलवटों को शायद मेरी हस्तरेखाएं देखनी थी वो उनके जरिए तुम्हारे आने के महूर्त का पंचाग देखना चाहती होंगी शायद। आज सुबह तकिए को जब मोडना चाहना तो उसने इंनकार कर दिया पूछने पर कहने लगा थोडी देर आंखे बंद करके सीधे लेटे रहो मै तुम्हारी गर्दन पर फूंक मारना चाहता हूं मैने पूछा क्यों तो कहनें लगा मेरे ऐसा करनें से किसी के कान की बालियां होले-होले हिलेंगी और वो ऐसा करना चाहता है उसके पास ऐसा करने की सिफारिश है।

रोज सुबह मेरी चप्पल एक दूसरे के कान मे कुछ कहती हुई मिलती है उन्हें देख मुझे लगता है कि ये तो मेरी यात्रा का शकुन है मगर मुझे तुम्हारा पता नही मिलता है मै किताबों से लेकर कविताओं की तलाशी लेता हूं गुस्ताखियों की बंद दराज़ खोलता हूं जहां तुम्हारे खत तो मिलतें है मगर जहां पता लिखा होता है वहां की रोशनाई फैल गई है मै केवल उस पर स्पृश से तुम्हारी दिशा का अनुमान लगाता हूं और अपने जूतों पर पॉलिश करने लगता हूं।

गर्मी आ गई है। सर्दी चली गई है। मगर तुम ना कभी आई और ना कभी गई बस ये एक अच्छी बात है। यह अच्छी बात से बढकर एक भरोसा है कि कम से कम तुम आवागमन से मुक्त हो और कहीं एक दिशा में स्थिर हो। जब भी मुझे सही दिशाबोध हो जाएगा और मेरे जीवन का दिशाशूल निष्क्रिय हो जाएगा उस दिन मै भटकता हुआ तुम तक आ ही जाउंगा तब तक तुम इंतजार को मेरी तल्खियों से बीनती रहना और गुनगुनाती रहना कुछ ऐसा जिससे मै दूर से तुम्हारी आवाज़ पहचान लूं। आने वाली गर्मी में लू के बीच शीतल छाया की तरह तुम्हें अपने विकल जीवन में रखना चाहता हूं ताकि जब कहीं चैन न मिलें तो थोडी देर तुम्हारी छाया में चैन से बैठ सकूं पी सकूं तुम्हारे हाथ से दो घूंट पानी।

‘सर्दी से गर्मी तक’

Friday, March 27, 2015

इन्तजार

सुबह कहीं अटक गई है। सुबह कितने घंटे विलम्ब से चल रही है इसकी उद्घोषणा कोई नही करता है। रात अपने निर्धारित समय पर ही चली थी।याद करने की कोशिश करता हूँ तो मुझे शाम की एक चिट्ठी याद आती है जिसमें सूरज की तबीयत खराब होने का जिक्र हुआ था। अनुमान लगाता हूँ जहां अभी दिन निकला हुआ होगा वहां सूरज की बीमार रोशनी ही पहूंच रही होगी। मैं सुबह के इन्तजार में हूँ इसलिए मन्दिर की घंटियों,शंख और आरती की आवाज में मेरी कोई रूचि नही है। जो लोग मन्दिर के अंदर ये सब कर रहे है उन्हें सुबह का इन्तजार नही है बल्कि वो सुबह को विलम्बित होते देखना चाहते है ताकि उनकी उपयोगिता बची रहें।
काल का बोध एक चैतन्य घटना है परन्तु काल का चक्र एक भरम भी हो सकता है। दिन और रात की खगोलीय वजहों के अतिरिक्त कुछ दूसरी वजहें भी हो सकती है। कभी कभी दिन होता है और उसको रात समझनें को जी चाहता है ठीक ऐसे ही जब दुनिया थककर सो जाती है मैं रात को जागता हूँ और नींद से बात करने लगता हूँ पूछता हूँ क्या मेरी थकावट एकमात्र वजह है उसके आने की या फिर उसे मुझसे प्रेम है वो खुद थकी हुई आती है मेरे अंदर सोने के लिए। कल शाम जब सूरज डूब रहा था मैंने देखा धरती पर कुछ लोग खुश थे वो शायद रात के इन्तजार में रहें होंगे और रात का विलम्बित हो जाना शायद उन्ही की प्रार्थनाओं का परिणाम हो सकता है।
दोपहर अक्सर एक बात कहती है दिन आधा बचा है जबकि आधी रात अक्सर चुप रहती है वो न सोनें के लिए कुछ कहती है और न रोने के लिए। कुछ लोग निवृत्त हो सो जातें है और कुछ रोनें लगते हैं। रात दोनों के लिए आधी आधी बंट जाती है।
सुबह के इन्तजार में दो किस्म के लोग है एक मेरे जैसे जिन्हें सुबह से कुछ सवाल पूछनें है दुसरे जिन्हें सुबह को कुछ जवाब देनें हैं। आज सुबह तीसरें किस्म के लोगो के आग्रह से विलम्बित है ये वो लोग है जो रात की लम्बाई से संतुष्ट नही हैं इसलिए सुबह से एक टुकड़ा उधार मांगना चाहतें है और लगता है आज सुबह ने उनकी प्रार्थना सुन ली है।
मेरी प्रार्थना इतनी सी है कि सूरज की हरारत ठीक हो गई है क्योंकि यदि सूरज दिन में बीमारों वाली अंगड़ाई लेगा तो बादल इसका गलत अंदाजा लगा बरसनें के षड्यंत्र करनें लगेंगे फिलहाल न धरती चाहती और न मैं कि बारिश हो क्योंकि बारिश का मतलब है सुबह दोपहर शाम रात का फर्क का धुंधला जाना। यह फर्क दरअसल उस उम्मीद का प्रतीक है जो कहती है ना समय स्थिर है ना इसके प्रभाव इसलिए इसके हिसाब से अनुमान के छल से बचनें के साधन विकसित किये जाने चाहिए।
फिलहाल सुबह की आमद हो इसी के इन्तजार में हूँ क्योंकि वो एक चिट्ठी लेकर आनें वाली है जिस पर नाम किसी और का मगर पता मेरा लिखा है यदि वो मुझ तक सही सलामत पहूँच गई तो एक दिन उसकों जरूर उद्घोषणा के स्वर में बाचूंगा। आने वाली सुबह से इतना ही वादा है मेरा।

'सुबह का इन्तजार'

Wednesday, March 25, 2015

दोपहरी नोट्स

एक दिन आप तय कर लेते है अपनी जीने की एबीसीडी,फिर गढ़ना पड़ता है अपना खुद का व्याकरण। अकेला पड़ने के जोखिम तो होते ही है क्योंकि लोग आपको पढ़ते कुछ दूर साथ चलतें है फिर उन्हें समझ नही आपकी लिपि। ऐसे में सर्दी में भी बहकर सूख जाती पारस्परिक अभिरुचियों की छोटी सी नदी।
कोई दूर जाता तभी तक नजर आता है जब तक निगाह में रहता है फिर दृश्य से वो ऐसे हो जाता है ओझल जैसे अनजान शहर के रास्ते छूटते चले जातें हैं। मन का किसी के मन में  ठहरना एक घटना है बल्कि यूं समझिए एकतरफा घटना है आप जिस वक्त सोच रहे होते है अपनी भाषा में तब उसका अनुवाद करने वाली आँखें देख रही होती एक अलहदा ख़्वाब।
मन की सराय में सुस्ताते वक्त आप भूल जाते है अपना यात्री होने का चरित्र तब याद रहती एक ठंडी छाँव जिसमें बैठ आप जम्हाई ले रहे होते है तभी आँख से ढलक पड़ता है एक छोटा आंसू तब आप उसकी वजह भी नही जान पाते और वो एक छोटी समानांतर लकीर के रूप में समा जाता है चेहरे की खुश्क गलियों में।
आपका तय करना बहुत कुछ तय कर देता है अपने साथ फिर आप शिकायत नही कर सकतें क्योंकि शिकायत करने का अधिकार आपको कमाना पड़ता है और ये आप तभी कमा पातें है जब अपनें व्याकरण को प्रकाशित करके आप कम से कम अपना एक सहपाठी तैयार कर सकें। ध्यान रहें आपको एक सहपाठी चाहिए होता ना कि शिष्य या कोई गुरु।

'दोपहरी के नोट्स'

Friday, March 20, 2015

सनातन यात्रा

अब थक रहा हूं मैं।
एक ही बात कितनी ढंग से बताने की मेरी तमाम कोशिसें नाकाम रही है। शायद तुम्हारे पास वो चैनल ही नही जहां से तुम जज्बात की इन माईक्रो वेव्ज़ को रिसीव कर सको। मेरी सम्भावना तलाशने और तराशने की सभी युक्ति अब मेरे साथ ही थकने लगी है। मैं तुम्हें जो बताना दिखाना और जताना चाहता था उसके लिए दुनिया से अलग होने की जरुरत नही थी बस उसके लिए तुम्हें खुद को खुद से अलग करके देखने की आदत विकसित करनी थी जो तुम शायद नही कर पायी।
हर हाल मे खुद को सही साबित करके मै मानवीय सम्बंधो में अराजकतावादी नही होना चाहता हूं इसलिए अब खुद की अवधारणाओं की चादर समेट रहा हूं मेरी अनंत की यात्रा में उसकी भी अपनी उपयोगिता है। आज भी आपकी निजता और आपकी मानयताएं मेरे लिए उतनी ही समादृत है क्योंकि मै आपका मित्र रहा हूं कोई आपके जीवन दर्शन का सम्पादक नही था मैं।
मुझे अब तुमसे कोई शिकायत नही है दरअसल हम मनुष्य अपनें अनुभवों से अर्जित मान्यताओं में जीने के आदी है। यह हमें यह आश्वस्ति देता है कि हम कुछ गलत नही कर रहे है हर अनजानी डगर हमें डराती है उसके जोखिम हमें सिमटने पर मजबूर करते है। मनुष्य को समझ के साथ असंतुष्टि प्रारब्ध से ही मिली है वह प्राप्य से ऊब कर अप्राप्य की खोज मे लगा रहता है और इसी उपक्रम में उसे कथित रुप से आनंद भी मिलता है उसे लगता है उसके पास अंवेषणा है जिसके जरिए वो प्रयोग कर मानवीय सम्बन्ध की लोच को समझ सकता है। मिलना बिछडना इसी उपक्रम की अवैध संतानें होती है।
संवाद मे सम्प्रेषणशीलता का संकट सबसे बडा संकट होता है तब आप इतने संकोच से भर जाते है कि आपकी एक छोटी सी सामान्य बात भी अन्यथा लिए जाने की भूमिका लगने लगती है। मेरी चाह थोडी अजैविक किस्म की रही है मै मानव रचित मनोविज्ञान और समाजशास्त्र का अतिक्रमण कर सम्बंधों की नींव रखना चाहता रहा हूं इतना ही नही मेरे पास प्रकृति को भी मौसम विज्ञानियों, वनस्पतिविज्ञानियों, जीववैज्ञानिकों और पर्यावरण विदो से अलग देखने का चश्मा है।
मै नदी को दोस्त कहने लगता हूं उनके हवाले अपने गमों के बैरंग खत कर देता हूं कहता हूं दे देना मेरे उस नामुराद सागर दोस्त को। पहाड से सलाह मांगने उसकी चोटी पर अकेला चढ जाता हूं उसके कान में फूंकता हूं अग्निहोत्र मंत्र, झरनों से मेरी अजब सी दोस्ती है मै उनकी पीठ पर हाथ फेरता हूं और उनके बोझ के बारे मे पूछताछ करता हूं। बादलों से मै अफवाह शेयर करता हूं बारिश मे अपने आंसू मिला देता हूं ताकि वो थोडी खारी भी हो जाए। रास्तें की झाडियों और खरपतवार मुझसे से मेरे जूतों के फीते के मांग लेते है और मै उन्हें खुशी से दे कर आगे बढ जाता हूं। रोज मुंह धोने के बावजूद भी मेरी पलकों पर रास्तों की थोडी गर्द जमी ही रह जाती है और यकीन मानना इससे मेरी रोशनी बढती है मेरी आंखों मे बस यही तजरबे का सुरमा लगा होता है जिसके वजह से कभी तुम्हें ये आंखे बडी नशीली लगा करती थी।
मै अपने समय मे हमेशा अन्यथा लिए जाने के लिए शापित हूं एक दौर बीत जाने के बाद मै समझ आता हूं तब तक मै वहां नही मिलता हूं जहां से विदा हुआ था बस यही एक खेद जनक बात है। सनातन रुप से मेरी यात्रा अनावृत रुप से जारी है चेहरे बदलते है किरदार नही। अनुभव हमेशा मुझे नही सिखा पाता इसलिए अनुभव मुझसे नाराज़ रहता है। मुझसे नाराज़ लोगो की लंबी फेहरिस्त है मगर मुझे यकीन है जब मै उनके आसपास नही रहूंगा उनकी नाराज़गी भी ऐसे ही घुल जाएगी जैसे बरसात में पतनालें मे जमीं धूल घुल कर बह जाती है।

‘सनातन यात्रा

Sunday, March 15, 2015

दो बात

वर्तमान समय का सबसे बड़ा छल है जो भविष्य की गोद से निकल कब अतीत का हिस्सा बन जाता है पता नही चलता है। हम कौतुहल से भविष्य की तरफ देखतें है तो अतीत को दो हिस्सों में बाँट देते है। अतीत के एक हिस्से पर हम अपनी मूर्खताओं पर हंस सकते है फख्र कर सकतें है वही दुसरे हिस्से में अपराधबोध और भावुक मूर्खताओं के कैलेंडर टंगे होते है जिनके साल कभी नही बदलतें हैं।
वर्तमान के विषय में सबसे खतरनाक चीज़ एक यह भी होती है कि यदि जीवन में भौतिक उपलब्धियों की आमद नही है तो आपका वर्तमान भूत और भविष्य दोनों से ज्यादा क्रूर हो जाता है।
कुछ करने के भरम और कुछ भी न करने के करम के बीच फंसा होता है एक यथास्थितिवादी मन जो कभी बाह्य दुनिया के तमाशे देख ठहाका मार हंसता है तो कभी आत्मदोष का शिकार हो खुद से ही सवाल करता है कि इस व्यवहारिक और बुद्धिमान लोगो की दुनिया में आखिर मै कर क्या रहा हूँ क्या सहमति,समीक्षा और सांत्वना ही उसके जीवन की उपयोगिता के अधिकतम सूत्र है जिसका सर्वाधिक अभाव होते हुए भी उसे वही सबसे ज्यादा बांटनी पड़ती है ताकि वह काल के इस बोध में प्रासंगिक बना रहे।
**********
सबसे गहरी चोटें छिपाकर रखने के लिए शापित होती हैं। सबसे गहरे मलाल उन्हीं से जुड़ें होतें है जो दिल के बेहद करीब होते है। सबसे ज्यादा आहत वही बातें करती हैं जो कडवेंपन और स्पष्ट होनें में फर्क नही कर पाती। सबसे असुविधाजनक होता है किसी के जीवन में अपनी भूमिकाओं को बदलते हुए देखना। सबसे बड़ा भय किसी को खोने का होता है जिसके वजूद का हम खुद का हिस्सा मान जीने लगते हैं।
और सबसे बड़ा दुर्भाग्य होता है किसी के जीवन में अपरिहार्य न होना।
...इतनी बड़ी बड़ी बातों के बीच एक छोटा आदमी कैसे मुस्कुराने की सोच सकता था खुश रहनें की जरा सी आदत क्या हुई खुद को खुद की ही नजर लग गई।

Monday, March 2, 2015

अथ मुखपोथी कथा:

...फिर श्री माधव ने देवऋषि नारद जी से कौतुहल- कातर दृष्टि से पूछा
हे ! देवऋषि नारद आप इतने दिन कहां थे देवलोक में हम सूचना शून्य हो गए है यहां सबकुछ इतना व्यवस्थित है कि दिव्यता में भी रस नही आ रहा है। आप सम्भवतः मृत्युलोक की यात्रा से लौटें है कृपा करके वहां के मानवों का वृत्तांत कहो उसे सुनने की मेरी बड़ी अभिलाषा है।
देवऋषि नारद बोलें:
भगवन आपका अनुमान सही है मैं अभी सीधा मृत्युलोक से ही आ रहा हूँ अब वहां आपकी माया से प्रेरित होकर अज्ञानता का अभिनय नही होता है। मनुष्य उत्तरोत्तर चालाक होता जा रहा है वर्तमान में वहां के समस्त प्राणी समयरेखा के खेल में उलझे हुए है और कभी खुद को आनन्दित तो कभी अवसादित बताते हैं।
श्रीमाधव ने उत्सुकता से पूछा देवऋषि ये समयरेखा क्या है? क्या मनुष्य ने पृथ्वी ग्रह का विभाजन इस रेखा के माध्यम से किया है?
नारद जी बोले नही भगवन् यह कोई आकृति वाली रेखा नही है यह आभासी दुनिया की एक समयरेखा है। आंग्ल देश के एक उत्साही युवा जिसका नाम जुकरबर्ग बताते है उसनें एक ऐसा आभासी मंच तैयार किया है जिस पर संगणक अंतरजाल और चलदूरवाणी के माध्यम से मनुष्य अपने जैसे लोग तलाशता फिर रहा है देश काल धर्म भाषा लिंग से इतर मनुष्य ने अपने एकांत को समाप्त करने की एक युक्ति विकसित कर ली है। आर्यवर्त भारत में तो इस मुखपोथी की लोकप्रियता वर्तमान में शिखर पर है प्रभु। विद्यार्थी से लेकर उद्यमी तक शासकीय सेवा से लेकर निजी क्षेत्र तक,गृहणी,रोजगार और बेरोजगार श्रेणी के सभी मनुष्य इस मंच पर सक्रिय है। मृत्युलोक पर मनुष्य की शायद ही कोई ऐसी कोटि बची हो जो इस मुखपोथी और समयरेखा के फेर में न उलझा हो। मनुष्य की तकनीकी दासता की हालत यह है प्रभु कि अब मनुष्य के हाथ में चलदूरवाणी नामक यंत्र हमेशा रहता है और वो मार्ग पर चलता चलता भी उसमें खोया रहता है वो कभी मुस्कुराता है तो कभी अचानक से खामोश हो जाता है। मनुष्य अपनी निजता प्रकाशित करके लोकप्रियता हासिल कर रहा है। आपको समयरेखा पर खाने पीने रोने धोने,यात्रा, जीने मरने,सुख दुःख, लड़ने और पलायन तक सबकी सूचनाओं का आदान प्रदान मनुष्य को करते देख सकते है। वर्तमान में राजनीति का भी यह बड़ा साधन बना हुआ है।
मुखपोथी पर सुबह मनुष्य एक तस्वीर लगाता है फिर उसके अन्य मित्र उसकी प्रशंसा करते है शाम तक वो उसी प्रशंसा से ऊब कर नई तस्वीर लगा देता है फिर प्रशंसा का सिलसिला आरम्भ हो जाता है। मनुष्य क्षणिक रूप से खुश होता है फिर गहरे अवसाद में चला जाता है।
प्रभु ! मै पिछले एक महीने से इंद्रप्रस्थ में था वहां पुस्तकों का एक बहुत बड़ा मेला लगा हुआ था। अब पुस्तकों की बिक्री भी अंतरजाल के माध्यम से होने लगी है वहां लेखकों/कवियों/साहित्यकारों ने मेले में घूमकर अपने पाठकों के साथ बहुत से चित्र खिंचवाएं। पाठक बहुत प्रसन्न थे और बिना विलम्ब किए मेले से सजीव चित्रों का प्रकाशन मुखपोथी पर कर रहे थे।
अब लोकप्रिय लेखक वही है जो मुखपोथी पर अपनें पाठक तैयार करता है ऐसे लेखकों को हिन्द का एक प्रकाशन बहुत आदर देता है। कुछ बड़े लेखक मुझे जरूर अनमने नजर आए अब उन्हें भी लेखक कोनें में बैठ प्रवचन देना पड़ा वें अपनी दुलर्भ रहस्यता को लेकर चिंतित दिखे।
भगवन् इस मुखपोथी और समयरेखा ने आर्यवर्त में कवित्व को बड़ा मंच दे दिया है जो लम्बे समय से भरे हुए घूम रहे थे वे अब खुलकर काव्य लिख रहे है और तेजी से लोकप्रिय हो रहे है उत्तर आधुनिक काल की इस नई कविता ने स्थापित कवियों को चिंता में डाल दिया है वें मुखपोथी की कविता की दबे स्वरों में आलोचना करते है मगर अब वें खुद की अज्ञात कविताएँ भी इस मुखपोथी पर प्रकाशित करके यह बताते है कि देखों एक मुखपोथी के कवि और प्रकाशित किताबों वालें कवि के कवित्व में गुणात्मक अंतर होता है।
मैंने कुछ बड़े कवियों को उनकी बैठकों में सोमरस और धूम्रदण्डिका के साथ मुखपोथी की कविता और कवियों की अभद्र आलोचना करते भी देखा और सुना है।वो अप्रसन्न है भयभीत है असुरक्षित है यह मैं बताने में असमर्थ हूँ। ये स्थापित कवि केवल एक बात से अवश्य प्रसन्न है कि इनकी सजिल्द कविताओं की पुस्तकों के स्थाई ग्राहक ये मुखपोथी के ही कवि है बाकि सारी किताबें तो युक्तियों से शासकीय पुस्तकालयों में सुशोभित होती है।
हे ! भगवन मुखपोथी की दुनिया विचित्र रहस्यों से भरी पड़ी है सम्भवः है अब मनुष्य के व्यवहार के अध्ययन के लिए एक मुखपोथी अध्ययन शाखा विकसित की जाए और इस पर स्वतन्त्र शोध हो।
देवनारायण विस्मय से शून्य में देखते हुए बोले यह तो चमत्कार जैसा है देवऋषि ! परन्तु हमें यह अंतरदृष्टि से भी दिखाई नही दे रहा है लगता है देवलोक के संचार अभियंता को बुलाना पड़ेगा तब तक आप मृत्युलोक से यंत्रो का प्रबंध करों मैं यहां अंतरजाल खुलवाता हूँ।
मनुष्य की यह लीला देखनी ही पड़ेगी।
जो आज्ञा प्रभु !कहकर देवऋषि नारद अंतर्ध्यान हो गए।