Monday, March 30, 2015

सर्दी-गर्मी

कल मार्च भी खत्म हो रहा है। नए साल के नए तीन महीने और पुराने साल के आखिरी तीन महीने मिलाकर आधा साल मेरी जिन्दगी में कुछ इस तरह दर्ज हो गया है कि इसके एक-एक दिन पर मैं घंटो व्याख्यान दे सकता हूं। अब जब मौसम करवट ले रहा है मेरे मन का पतझड अपने यौवन पर है। तुम्हारी अनुपस्थिति में मन की नर्म जमीं पर ख्यालों के सूखे पत्तों की एक तह जमा हो गई है जिसकी वजह से मुझे सांस लेने में कभी-कभी तकलीफ होती है।

पिछले छ महीने का हिसाब-किताब करके तुम्हें ना भूलना चाहता हूं और ना याद ही रखना चाहता हूं। सर्दी की चाय की प्याली से बात शुरु होती है वो खत्म होने का नाम नही लेती है मेरे ज़बान पर कुछ जायके ऐसे चिपके है कि वो घुल नही पा रहें है। सर्दियों की धुंध और सर्दियों की बारिश में तुमसे जो मेरी बातचीत हुई उसको उलटा पढना शुरु करता हूं मेरी आखिरी बात का एक सिरा तुमसे हुई पहली बात से मिल जाता है फिर भी सारी बातें आपस मे दोस्त बन एक दूसरे की पीठ थपथपाने लग जाती है।

अब गर्मियां आने वाली है दिन अजीब से चिढचिढे हो गए है अब अगले चार महीनें मै तपता रहूंगा इस ताप से और मेरे जिस्म से बहता रहेगा तुम्हारा प्रेम इसकी ठंडक से ही मेरे शरीर का तापमान सामान्य रहेगा। चौबीस घंटे मे दोपहर और शाम का वक्त मुझ पर सबसे भारी गुजरता है दोपहर मेरे कान मे आकर कह देती है तुम मुझे भूलने ही वाली हो और शाम को जब मै सूरज से इस चुगली की सच्चाई जानना चाहता हूं वो चुपचाप आंख बचाकर निकल जाता है। अब इन चार महीनों में धूल-अंधड और बारिश के भरोसे ही रहूंगा ताकि मै कुछ भी स्थिर होकर सोच न सकूं।

तुम्हारा बारें में स्थिर होकर सोचना मुझे डराता भी और तपाता भी है फिर मै ताप के असर में मन ही मन न जाने क्या क्या बडबडाने लगता हूं। कहने को तो यह बसंत है मगर मेरा बसंत इस बार सर्दी की गोद में आकर चुपचाप चला भी गया है मेरा बसंत तब था जब सुबह सुबह उनींदी आंखों से बिस्तर पर तुम्हें याद कर मै मुस्कुरा देता था। तुम्हारे ताने सुनकर करवट बदलना भूल जाता था। इन सर्दियों में तुम्हारी वजह से मेरे संवेदनाएं इतनी जीवंत किस्म की थी कि मै बिस्तर तकिया गद्दा रजाई यहां तक दर ओ दीवार से भी बातें कर लेता था। और ये बातें कोई आम बातें नही थी बल्कि ये सब उतनी ही गहरी बातें थी जितनी कभी तुमसे आमने सामने हुई है। कल जब मै बिस्तर की सिलवट ठीक कर रहा था तब अचानक लगा किसी ने मेरा हाथ पकड लिया कुछ सिलवटों को शायद मेरी हस्तरेखाएं देखनी थी वो उनके जरिए तुम्हारे आने के महूर्त का पंचाग देखना चाहती होंगी शायद। आज सुबह तकिए को जब मोडना चाहना तो उसने इंनकार कर दिया पूछने पर कहने लगा थोडी देर आंखे बंद करके सीधे लेटे रहो मै तुम्हारी गर्दन पर फूंक मारना चाहता हूं मैने पूछा क्यों तो कहनें लगा मेरे ऐसा करनें से किसी के कान की बालियां होले-होले हिलेंगी और वो ऐसा करना चाहता है उसके पास ऐसा करने की सिफारिश है।

रोज सुबह मेरी चप्पल एक दूसरे के कान मे कुछ कहती हुई मिलती है उन्हें देख मुझे लगता है कि ये तो मेरी यात्रा का शकुन है मगर मुझे तुम्हारा पता नही मिलता है मै किताबों से लेकर कविताओं की तलाशी लेता हूं गुस्ताखियों की बंद दराज़ खोलता हूं जहां तुम्हारे खत तो मिलतें है मगर जहां पता लिखा होता है वहां की रोशनाई फैल गई है मै केवल उस पर स्पृश से तुम्हारी दिशा का अनुमान लगाता हूं और अपने जूतों पर पॉलिश करने लगता हूं।

गर्मी आ गई है। सर्दी चली गई है। मगर तुम ना कभी आई और ना कभी गई बस ये एक अच्छी बात है। यह अच्छी बात से बढकर एक भरोसा है कि कम से कम तुम आवागमन से मुक्त हो और कहीं एक दिशा में स्थिर हो। जब भी मुझे सही दिशाबोध हो जाएगा और मेरे जीवन का दिशाशूल निष्क्रिय हो जाएगा उस दिन मै भटकता हुआ तुम तक आ ही जाउंगा तब तक तुम इंतजार को मेरी तल्खियों से बीनती रहना और गुनगुनाती रहना कुछ ऐसा जिससे मै दूर से तुम्हारी आवाज़ पहचान लूं। आने वाली गर्मी में लू के बीच शीतल छाया की तरह तुम्हें अपने विकल जीवन में रखना चाहता हूं ताकि जब कहीं चैन न मिलें तो थोडी देर तुम्हारी छाया में चैन से बैठ सकूं पी सकूं तुम्हारे हाथ से दो घूंट पानी।

‘सर्दी से गर्मी तक’

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