Wednesday, April 1, 2015

सज़ा

दुनिया में हर चीज़ के होने की एक पुख़्ता वजह होती है। बेवजह जो भी होता क्या तो वो जुनून होता है या फिर पागलपन। आसपास और नजदीक होने के महीन भरम होते हैं। मुक्ति दरअसल बड़ी विचित्र चीज़ है ये जब हमें मिलती है तो इसकी जेब में अतीत का एक अधूरा पता भी होता है। कभी उदास शामों में तो कभी लम्बी होती रातों में उसको पढ़ना चाहतें है तो अक्सर रोशनी साथ नही देती है।
खुद के लिए सबसे बेहतर विकल्प क्या है यह सोचने का सर्वथा मौलिक अधिकार शायद हमारे ही पास होना चाहिए कैसा अजीब महसूस होता है एक तो आप अपने एकांत से ऊबे है बैठे हो ऊपर से आपकी दृष्टि और विकल्पों पर टीकाएं की जाएं। दो चेतनाओं के मध्य सुरक्षित दूरी विकसित होने में समय के सारे समीकरण निष्प्रोज्य होते है क्योंकि इसके सूत्र न सबंधो के बीजगणित में मिलतें है और न अनुमानों के खगोल विज्ञान में।
समय का सहारा लेकर खुद को छलना मनुष्य की आदि परम्परा है। समय भले ही खोया-पाया के भाव से मुक्ति दे सकता है मगर कुछ अनुत्तरित प्रश्नों के जवाब समय के पास भी नही होतें है। जैसे दो जमा दो का जोड़ हमेशा चार ही नही होता है।
खुद की अप्रासंगिकता के चालानों के बीच एक अर्जी वादामाफ़ गवाह बननें की लगाई जाती है जिस पर खुशियों की कीमत मय सूद जमा करनी पड़ती है। अचानक से जब वक्त हाकिम बनता है तब रिहाई जिसे मुक्ति भी कहा जाता है उसके लिए सर झुकाएं चुपचाप खुद के घुटनों के बीच फंसे यादों के भँवर को देख यही कह सकते है गलती हुई साहब !
आसपास की रंगीनियत तब ना खुशी देती है और ना बैचेन करती है एक अजीब सी नीरवता को अपने चित्त में लिए हम दोनों हाथ जोड़ते है मुस्कुरातें है और हाकिम से कहतें है जलावतनी क़ुबूल है जनाब।
ख्वाबों के इश्तेहारों की दुनिया ऐसी ही होती है यहां कब आँख खुलती है और कब बंद होती है किसी को पता नही लगता है। नींद में हंसते हुए कुछ लोग सुंदर लगते है और आँख खुलनें पर उनकी जेब से वो अधूरा पता झांकता है जो उनके मुक्त चेतना होने का एकमात्र ज्ञात दस्तावेज़ भी कहा जा सकता है।
इस पारपत्र के सहारे वो लांघ जाते है ख़्वाबों और पागलपन की एक गुमनाम दुनिया चुपचाप बिना किसी को बताएं अजनबी होना उनकी जमानत की एक शर्त होती है जो आधी उनकी पीठ पर छपी होती है आधी माथें पर।

'आख़िरी इश्तेहार'

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