Tuesday, April 14, 2015

संवाद

शिव:

हे शिवप्रिया! तुम नित्य और अनित्य के मध्य सुरभित चैतन्य रागिनी हो। तुम्हारी शिराओं के स्पंदन से नाद प्रस्फुटित होता है। तुम्हारी चेतना के स्रोतों से बहनें वाली ऊर्जा देह और मन का शंकुल बनाती है। तुम विपर्य को भी जीवंत सिद्ध करने मे समर्थ हो। अनंत के विस्तार का केन्द्र तुम हो और सृजन के समस्त शिखर तुम्हारे गुरुत्वाकर्षण सें संतुलन साधे हुए है। तुम्हारी व्याप्ति प्रति प्रश्नों के संभावित उत्तर को गुह्य अवश्य रखती है परंतु अखिल ब्रहामांड की बिखरी चेतनाएं इसी गुह्यता से अभिप्रेरित हो प्रकृति के विषयों से आरम्भ में चमत्कृत होती है फिर तत्व का अंवेषण करती हुई आत्म के सच का साक्षात्कार करती है। तुम दृष्ट भाव में रहकर चेतनाओं की यात्राओं का मात्र अवलोकन ही नही करती हो बल्कि उनके अंदर एक सिद्ध सम्भावना का बीज भी कीलित करती हो। प्राय: लोकचेतनाओं में तुम्हारी अंशधारित उपस्थिति तटस्थ नजर आती हैं मगर तुम तभी तक तटस्थ रहती है जब तक कोई विस्मय और चमत्कार के ऐन्द्रजालिक अनुभवों से मुक्त नही हो जाता है। चेतनाओं के इस मुक्ति के बाद तुम उन्हें वह मार्ग दिखाती हो जो देवत्व से परें ब्रहमांड को अनुभूत करने का अनिवार्य मार्ग है। कोई भी यात्री तुम्हारी सहायता के बिना स्व से आत्म की यात्रा को नही कर सकता है इसलिए तुम सदैव अनिवार्य और अपरिहार्य हो।

शक्ति:

हे महादेव ! आप साक्षात पुरुष प्रकृति के समंवय के सूत्रधार हो। आपकी भूमिका पर इसलिए भी टीका असम्भव है क्योंकि आप कोई एकल चेतना नही हो। आप मुक्त और सिद्ध चेतनाओं का एक समूह हो जो शून्य और अनंत के मध्य बिखरें अस्तित्व के गूढ रहस्य को जानते है। प्राय: आपको मौन या तटस्थ इसलिए देखा जा सकता है क्योंकि आप हस्तक्षेप से मुक्त हो। आपके विस्मय मे भी एक छिपा हुआ विस्मय होता है इसलिए प्राय: मै कोई प्रश्न नही करती क्योंकि प्रश्न स्वयं मे उत्तर लिए होता है। मेरी भूमिका आपका विस्तार नही है और ना ही मै समानांतर ही हूं। दरअसल जहां आप आरम्भ होते है वहां मै संतृप्त होती हो और जहां से मै दृश्य मे सम्मिलित होती हूं वहां मुझे खुद मेरी भी छाया नही दिखाई देती है इसलिए मेरी एक स्वतंत्र यात्रा है परंतु इस स्वतंत्रता में भी आपके अंशों की रेखाएं मुझसे मेरा क्षेम पूछती है और यही बोध मुझे योगमाया से मुक्त भी करता है। आप दिगम्बर और चैतन्य है इसलिए काल गणना और देह तत्व से मुक्त है आपके स्पर्शों में तत्व और मीमांसा के सूत्र है जिनका पाठ आभासी मुक्ति से वास्तविक मुक्ति की यात्रा में लोकचेतनाओं के अत्यंत आवश्यक है। ब्रहम के अंश और भ्रम के दंश को समझनें के लिए आपका उदबोधन अनिवार्य है। मै आपके आत्मिक सम्बोधन की ऋचाओं में अव्यक्त सूक्त तलाशती हूं ताकि समंवय के समय चेतनाओं को और अधिक परिष्कृत कर सकूं। आप अपनें सरलतम रुप में इसलिए उपलब्ध है ताकि चेतनाओं के वर्गीकरण में मुझे कोई असुविधा न हो इसलिए आप मेरे लिए भी अनिवार्य अपरिहार्य ही है।

‘शिव-शक्ति संवाद: माध्यम शायद मैं’

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