Tuesday, December 19, 2017

‘आवारगी’

लौटना एक क्रिया है.
और मैं इसे विशेषण में बदलने से बच रहा हूँ. मन का व्याकरण हर बार की तरह व्युत्पत्ति के सिद्धांतो का अतिक्रमण करना चाहता है. जब हम कहीं जाते है तो लौटते वक्त उतने नही लौट पाते जितने हम गए होते है कई बार हम थोड़े से बढ़कर आते है तो कई बार हम थोड़े से घट कर आते है.
समय एक महीन आवरण भर है जिस इस पर अतीत है तो दुसरे पार भविष्य मैं वर्तमान में यात्राएं करता हूँ और अतीत को याद करता हूँ मेरे सामने जो भविष्य खड़ा है वो थोड़ा उलझाऊ किस्म का है इसलिए मैं उसकी तरफ पीठ कर लेता हूँ.
देह की अपनी एक मौलिक गंध है मगर देह की गंध देह से विलग होकर बहती है उसे महसूस करने के लिए हम खुद नही हो सकते है उसे वही महसूस कर पाता है जो उसके लिए पात्र है.यह पात्रता किसी भी योग्यता से अर्जित नही की जा सकती है यह खुद के अंदर स्वत: स्फूर्त घटित होती है. तुम्हारे साथ मेरी देह की गंध मेरा साथ छोड़ देती है इसलिए भी मैं हल्का महसूस करता हूँ. मेरे पास तुम्हारी देह गंध की कुछ स्मृतियाँ बची है. मगर उन स्मृतियों का मिलान कभी संभव नही है इसलिए मैं उन्हें अपनी देह पर वहां छोड़ देता हूँ जहां-जहां मेरा खुद का हाथ बमुश्किल जाता है.
रास्तों और बादलों के अलावा हवा के पास अपनी एक अय्यारी है वो अपनी दिशा हमें देख बदल लेती है और हमारा वहां तक पीछा करती है जहां से हमारी साँसों की गति असामान्य न हो जाती हो.हवा की आदर देने की इस अदा पर धरती फ़िदा है और वो आसमान को कहती है कि प्रेम में निजता का एक गहरा मूल्य यदि तुम्हें समझना है हवा से सीखना चाहिए.
उदासी मुझे अब संक्रमित करती है मैं अचानक से खुश होता हूँ और फिर बेहद उदास हो जाता हूँ.उदास रहते हुए मैं सबसे ज्यादा खुद के बारें में सोचता हूँ इसका अर्थ यह हुआ कि तुम्हारी प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई रिश्ता उदासी से नही है.
जब मैं लौट रहा होता हूँ तो मेरे साथ बहुत कुछ लौट रहा होता है जो मुझे रोज अलग-अलग शक्ल में दिखाई देता है मैं उस सब से बात नही करना चाहता हूँ मगर वो मुझे अपने अपने हिस्से की बातें रोज़ करते है. कल मुझसे एक रास्ते ने कहा कि तुमने चौराहे से लेफ्ट क्यों लिया था? जबकि वो रास्ता थोडा ऊबड़-खाबड़ था. मैंने कहा मुझे जीवन में असुविधाएं पसंद है इस बात पर रास्ता कोई ख़ास खुश नही हुआ मगर उसी रास्ते पर खड़े आवारा घास ने मुझसे गले मिलकर कहा तुम मेरे सबसे अच्छे दोस्त हो.
‘आवारगी’

©डॉ. अजित 

Sunday, December 17, 2017

मायालोक

वो एक मायावी स्त्री थी।
मायावी इसलिए नही कि उसकी बातों में कोई इंद्रजाल था मायावी इसलिए कि उसको देखकर अलग सम्मोहन होता था और सुनकर अलग।
मैं जब उसको अपने नाखुनों को तराशते हुए देखता था तब मैं जान पाता था कि कोई तीव्रता कलात्मक रूप से कैसे खूबसूरत हो सकती है आप खुद चाहे कि वो आपके गर्दन का ग्लेशियर तोड़कर पर पीठकर कुछ नदियों के गलियारें बना दें।
उसकी हंसी में नाराजगी और नाराज़गी में हँसने की तमाम वजह मौजूद रहती थी उसकी आँखों के नीचे गहरे डार्क सर्कल बने हुए थे मैंने जब पढ़ी पढ़ाई बातों के हिसाब से उसको कहा कि ये डार्क सर्कल स्ट्रेस से बनते है तो वो मेरी इस बात पर ठहाका मारकर हंस पड़ी और बोली कम से कम तुम इन पढ़े लिखे बौड़म लोगों में मत शामिल हो। आंखों के नीचे डार्क सर्कल स्ट्रेस से नही सपनों के अलावा में मुस्कान सेकनें से बनते है मगर ये बात कभी कोई स्त्री तुम्हें नही बताएगी वो स्ट्रेस वाली स्थापना से खुद का तादात्म्य स्थापित करके तुम्हारी बात की पुष्टि कर देगी।
उसने एकदिन अपनी आंख से थोड़ा काजल लिया और मुझसे कहा क्या तुम इसका स्वाद बता सकते हो मुझे लगा काजल का क्या स्वाद होगा मैनें कहा काजल तो बेस्वाद होता है इस बात पर वो फिर हंस पड़ी और बोली, क्या तुमनें कभी चखा है किसी स्त्री की आंखों का काजल? मैनें कहा नही। फिर उसने चखने के लिए सहमति नही दी मगर वो मेरी आँखों में डर को पढ़ चुकी थी उसने मुस्कुराते हुए कहा- काजल के स्वाद से डरता हुआ पुरुष मुझे सुंदर लगता है क्योंकि यहां वो अपनी सीमा को स्वीकार करता है। कुछ ही दुःसाहसी स्त्री का काजल का स्वाद चख कर उसका स्वाद बता पाते है क्योंकि क्या तो यह मनुष्य को मौन कर देता है या फिर विद्रोही।
उसकी पैर की अंगूठे के नजदीक वाली उंगली अंगूठे से बड़ी है मैंने उसे देखकर एकदिन अंदाजन कहा कि तुम स्वेच्छाचारी हो उसने कहा यदि यह तुम्हारा अनुमान है तो मैं इस पर कुछ नही कहूंगी मगर यदि यह तुम्हारा अनुभव है तो मैं कहूंगी यह सच है।

#मायालोक

©डॉ. अजित

Monday, December 11, 2017

‘बारिश के वजीफे’

बारिश का अलगोजा बड़ी मद्धम तान  छेड़ रहा है. इसके सुर बादलों की गोद में बिखरे पड़े हैं. बारिश जब हंसती है तो हवा थोड़ी उससे चिढ़ जाती है और बूंदों को अधिकतम दूरी पर पटक देती है. बूंदे इस बात पर नाराज़ नही होती है बल्कि खुश होती है क्योंकि इस बहाने से उन्हें अपनी सखी सहेलियों को दूर से देखकर जोर से चिल्लाकर आवाज़ लगाने का सुख मिलता है.
इस हल्की फुलकी बारिश में तुम अपनी खोयी हुई चीजें तलाश रही हो ये भी एक अजीब संयोग है कि पुरानी चीजों को तलाशते वक्त तुम एक नया गाना गुनगुना रही हो उस गाने को सुनकर बूंदों को अपने गीत थोड़े अरुचिकर लगने लगते है इसलिए वो थोड़ी देर के लिए थमकर तुम्हें देखने लगी है. मैं मन ही मन कहता हूँ कि बारिश थम गई है मगर असल में बारिश तुम्हें देखने के लिए रुकी हुई है जैसे ही तुमनें गाना बदला बूंदे जोर से हंसी और फिर से तेज बारिश शुरू हो गई है.
मैं तुम्हारी अंगडाई में छिपा इन्द्रधनुष देखता हूँ मगर इधर रौशनी जरा कम है इसलिए उसके आधे रंग मेरी एक आँख देख पाती है और आधे रंग दुसरी. मैं सोचता हूँ कि इन बूंदों की एक फुहार तुम्हारी पलकों के छज्जे पर आकर बैठ गई है और तुम अपनी गति से पलक झपकती जा रही हो, मैं तुम्हें थोड़ा विलंबित करना चाहता हूँ मगर मैं बूंदों के गुप्तचर के रूप में फ़िलहाल तुम्हें मुखातिब नही होना चाहता हूँ. इसलिए चुपचाप उस फुहार को आंसुओं के जल में मिलता देखकर एक विचित्र से संतोष से भर जाता हूँ.
बारिश की बात हो और चाय की न हो ऐसा करना कुफ्र होगा इनदिनों अकेले चाय बनाता हूँ अब मुझे खराब चाय और अच्छी चाय में भेद करने की आदत नही रही.अब मैं चाय पीता हूँ तो उसके गुणधर्म पर कोई चर्चा नही करता मुझे लगता है मेरी ये आदत भी तुम्हारे साथ ही चली गई. मुझे याद है एक बार मैंने चाय पीते हुए कहा था कि चाय मुझे एक बिछड़ी हुई प्रेमिका लगती है. इस पर तुमने हंसते हुए पूछा था कि और शराब? मेरे पास तब इस सवाल का कोई ठीक-ठीक जवाब नही था मगर अब है. शराब एक रंजिश की तरह है जो गाहे-बगाहे बदला लेने आती रहती है. दोस्त और दुश्मन के बीच का कोई रिश्ता अगर होता हो तो शराब फिलहाल वही है मेरे लिए.
बारिश की बूंदे देख मैं चाय और शराब दोनों को भूल गया हूँ मैंने हवा को महसूसने के लिए अपना हाथ खिड़की से बाहर निकाला तो पाया हवा थोड़ी सर्द जरुर है मगर वो इतनी सर्द बिलकुल नही कि तुम्हारी यादों की बुक्कल खोलने का ही मन न करें.
इसलिए फिलहाल मैं देहरी पर बैठकर बारिश को विदा गीत सुना रहा हूँ मगर वो तुम्हारी खोयी हुई चीजों को तलाशने के कभी इस दर तो कभी उस दर भटक रही है मैं उनकी बेचैनी देख और समझ रहा हूँ फिलहाल तुम्हें उनकी कोई खबर इसलिए नही है क्योंकि ठीक इसी वक्त तुम बादलों को देखकर अनुमान लगा रही हो कि ये बारिश कब थमेगी?
जब बारिश थम जाए समझ लेना मैंने फिर से तुम्हें याद करना शुरू कर दिया है.
‘बारिश के वजीफे’

© डॉ. अजित 

Saturday, December 9, 2017

ईश्वर और प्यार

दृश्य एक:
चर्च की बेल्स अभी बजते-बजते थमी है। प्रेयर का मॉर्निंग सेशन खत्म हो चुका है। मनुष्य चुप है मगर कामनाओं,प्रार्थनाओं और ईश्वर में गहरा सम्वाद चल रहा है। ईश्वर ने अपने अनेक प्रतिरूप बनाए मगर फिर भी उसके कान पर्याप्त नही पड़ रहे है। मनुष्य मौन है मगर चर्च के अंदर भारी कोलाहल है।
फादर बाइबिल हाथ मे लिए खड़े है मगर उनके हाथ बंधे हुए है उनके आशीर्वाद में कागज की खुशबू है मगर वो जीसस के भरोसे रोज़ आशीर्वाद बांट देते है। जीसस ने अब उन्हें आशीर्वाद देना बंद कर दिया है।
एक खत आज मदर मेरी के नाम मिला है फादर उसे पढ़ रहे है खत की भाषा से यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि खत स्त्री ने लिखा है या पुरुष ने। यह खत मनुष्य के दुःखों के वर्गीकरण की बात करता है और ईश्वर पर सन्देह करता है। ईश्वर इस बात पर संतुष्ट है कि ईश्वर पर सन्देह करने की बात उसे चर्च के माध्यम से पता चली है।
फादर के पास खत का कोई जवाब नही है इसलिए वो इसे जीसस के कदमों में रख देते है जीसस खत पढ़ना चाहते है मगर वो खुद सलीब पर टँगे है इसलिए मनुष्य के रोष की बात शब्दों की यात्रा तय करके वही समाप्त हो गई है।

दृश्य दो:
कैथरीन अपने प्रेमी से पूछती है
क्या तुम प्यार को जानते हो?
वो जवाब देता है मैं प्यार को जानने की कोशिश में हूँ!
वो फिर दुसरा सवाल करती है
क्या तुम ईश्वर को मानते हो?
वो जवाब देता है मैं ईश्वर को मानने की कोशिश में हूँ
दोनों सवाल एक दुसरे से भिन्न है
दोनों में कोशिश एक कर्म है जो घटित हो रहा है
कैथरीन अब कोशिश को समझना चाहती है
मगर इसके लिए कोई सवाल नही करती है
वो अपने प्रेमी का माथा चूमती है और कहती है
कोशिश करो कि जल्द दोनों को जान जाओ
वो पूछता है क्या तुमनें दोनों को जान लिया है?
कैथरीन थोड़े आत्मविश्वास से जवाब देती है
मैंने जानने कभी कोशिश नही की
मैं ईश्वर और प्यार को प्रक्रिया के तौर पर शायद ही कभी जान पाऊँ
हां ! तुम परिणाम के तौर पर
ईश्वर और प्यार को जरूर जान लेना
मैं तुम्हारे अनुभव से दुनिया के अनुभव का मिलान करूंगी
ईश्वर और प्यार दोनों को समझने का मेरा यही तरीका है
दोनों में मेरी दिलचस्पी बस इतनी है।
अब कैथरीन और उसका प्रेमी प्यार और ईश्वर से साक्षात्कार के अपने-अपने तरीके के अनूठेपन पर मुग्ध होकर एक दुसरे के लगे लगते है और विदा लेते है।

©डॉ. अजित

Tuesday, December 5, 2017

देवता का मनुष्य होना

दृश्य एक:
ऋषि पुत्री विहार कर रही है. यौवन के अपने कौतूहल है. वो फूलों को देखती है और उन पर मंडराते भंवरों को अपलक निहारती है. वो नही चाहती है कि उनकी आवृत्ति में कोई व्यवधान उत्पन्न हो. मंद-मंद हवा बह रही है मगर हवा लौटकर वापस आने में इतना विलम्ब कर देती है कि फिर हवा की जरूरत समाप्त हो जाती है.
ऋषि पुत्री सामवेद का एक मन्त्र गीत की शक्ल में गुनगुना रही है यदपि यह यज्ञ का मन्त्र है मगर उसके कोकिला कंठ से इस मन्त्र को एक सुगम गीत में परिवर्तित कर दिया है. वो रास्ते से छोटी-छोटी कंकर उठाती है और बार-बार अपनी मुट्ठी में उन्हें बंद करके उनकी मन ही मन गणना करना शुरू कर देती है. यह एक विचित्र खेल वो खेल रही है जिसमें खुद ही खुद की परीक्षा ली जाती है.
इस अरण्य में एक मीठा पानी का सोता बहता है वो आज वहां नही जाएगी बल्कि वो आज अपनी प्यास को लेकर वन में भटकना चाहती है.ऐसा करके वो अपने हृदय स्पंदन में मधु के अनुराग को देखना चाहती है. उसी गति देख अनुमान लगता है कि वो आज खुश है मगर वास्तव में वो आज न खुश है और न दुखी. वो अनजान रास्तों से गुज़र रही है क्योंकि आज उसे कहीं पहुंचना नही है.

दृश्य दो:
ईश्वर के सम्मुख उपेक्षित देवता एक अधियाचन लिए खड़े है. उनके अंदर इस बात का रोष है कि देवत्व होने के बावजूद उनका जिक्र मृत्यु लोक में मात्र किसी मन्त्र या किसी ग्रन्थ तक सिमटकर रह गया है. बहुधा मनुष्य उनका नाम और उनकी शक्तियों से अपरिचित है. न कोई उनका आह्वाहन करता है और न ही उनका विर्सजन होता है. देवलोक में उनका उपेक्षा से भरा एकांत उनके अंदर उद्गिग्नता और रोष भर रहा है. जब उनकी शक्तियों का कोई उपयोग ही नही है और न ही उनसे कोई भयभीत महसूस करता है तो फिर वें उन शक्तियों का क्या करें? आज वो ईश्वर को अपना देवत्व लौटाने के लिए आए है. उन्हें मनुष्य अपने से अधिक आकर्षक दिखता है जो अपनी इच्छा इसे मनुष्य,देवता और यहाँ तक ईश्वर के तरह पेश आता है.
ईश्वर के पास उनकी शंकाओं का कोई ठीक-ठीक समाधान नही है वो उन्हें शास्त्र के किसी तर्क से संतुष्ट नही कर सकता है यह बात ईश्वर ठीक से जानता है. देवताओं के उपेक्षाबोध को तोड़ने के लिए ईश्वर उन्हें मनुष्य बनाने का खतरा नही लेना चाहता है क्योंकि उसके बाद खुद ईश्वर की सत्ता को चुनौति मिलने की संभवाना बढ़ जाती है.
ईश्वर पूजा, प्रार्थना, वरदान शक्ति से वंचित देवताओं से कहता है कि तुम मनुष्य की तरह व्यवहार कर रहे हो जबकि तुम देवता हो इस पर देवता हसंते हुए कहते है कि आप भी मनुष्य की तरह व्यवहार कर रहे है जबकि आप तो स्वयं ईश्वर है !
ईश्वर अब चुप है मगर देवता उसकी आँख में प्रत्युत्तर की अपेक्षा से झाँक रहें है अंत में ईश्वर ने ध्यान के नाम पर आँख बंद कर ली और देवताओं में हार कर मनुष्य की आँखों में उसी उम्मीद से देखा आरम्भ कर दिया.

© डॉ. अजित  

Monday, December 4, 2017

नीदरलैंड की सुबह

दृश्य एक:
नीदरलैंड की एक दोपहर है मगर ये दोपहर शाम और सुबह के मध्य टंगी दोपहर नही है. धूप बढ़िया खिली है मगर कितनी देर खिली रहेगी इस बात का कुछ पता नही है. पार्क में एक बच्चा खेल रहा है और उसे दो महिलाएं देख रही है इस घटना में कोई नूतनता नही है मगर दोनों बच्चें को खेलता देखकर खुश है. यह बच्चा इन दोनों महिलाओं में से किसी का नही है. एक प्रेमी युगल एक दुसरे का हाथ थामे चल रहा है. अचानक से लड़की ने लडके का माथा चूमते हुए कहा तुम सूरज की तरह हमेशा मुझे रौशनी देते रहना.लड़का खुद को सूरज नही चाँद समझता है इसलिए वो एक फीकी मुस्कान से हंसता है इस बात पर लड़की हैरान नही है मानो उसे खुद के कथन की असत्यता को पहले से बोध था.  
दृश्य दो:
स्ट्रीट फ़ूड की एक छोटी सी दूकान है जिसे एक बुजुर्ग महिला चलाती है. दो लड़कियां वहां आती है और उससे पूछती है कि आप कितना कमा लेती है इससे? बुजुर्ग महिला हंसते हुए कहती है बस उतना जितने में मुझसे हंसते हुए सोचना न पड़े. इस जवाब को समझने के लिए अभी दोनों लड़कियों की उम्र कम है इसलिए वो पास्ता ऑर्डर करके स्टूल पर बैठ जाती है. पास्ता खाते हुए दोनों बातें कर रही है. एक लड़की कहती है कि दुनिया में मनमुताबिक मिलना आसान काम नही होता है दुसरी इस पर जवाब देती है कि बेहद आसान होता है बस हमें पता होना चाहिए कि असल में हमें चाहिए क्या? ये बात बुजुर्ग फ़ूड वेंडर भी सुन रही है वो कहती है क्या तुम्हें फिलहाल पास्ता ही चाहिए था? दोनों इस बात पर हंस पड़ती है और कहती है शायद नही.
दृश्य तीन:
क्रिस्टीन को प्यास लगी है उसके पास पानी है . वो एक कैफे में दाखिल होती है और एक पानी की बोतल खरीदती है. पानी को पीने से पहले वो एक बीयर केन लेती है और बाहर निकल जाती है. प्यास अभी भी लगी है मगर उसके पास बीयर और पानी दो तरल पदार्थ है. वो पहले एक बीयर केन पीती है अब उसे पानी कि प्यास नही बची है मगर बोतल वो साथ लिए घूम रही है. वो सोचती है कि जीवन में विकल्प हमेशा हमें हमारी पहली ख्वाहिश से दूर कर देता है. उसका मूल्य कम हो जाता है वो हमारे साथ होकर भी किसी काम का नही रहता है. क्रिस्टीन पानी की बोतल से मुक्ति चाहती है मगर उसमें उसका निवेश शामिल है इसलिए फिलहाल उसे साथ लिए घूम रही है . क्रिस्टीन को अपनी उस प्यास पर संदेह होता है जो पानी की बजाए बीयर से बुझ गई मगर फिलहाल उसे अच्छा लग रहा है इसलिए पानी कि बोतल कोई बोझ नही है. जब मनुष्य को अच्छा लगता है तब वह हर किस्म के बोझ को भूल जाता है यह सोचकर वो एक घूँट पानी पीती है वो भी बिना प्यास लगे ही.

© डॉ.अजित 

Sunday, December 3, 2017

‘बेपते की चिट्ठी’

तुम किस तरह से जीवन में आए थे और किस तरह से जीवन से चले गए इस बात को यदि मुझे समझाने की दृष्टि से कहने के लिए कहा जाए तो मेरा शब्दकोश एकदम निष्प्रयोज्य सिद्ध होगा. मेरे पास कोई ऐसा प्रतीक और बिम्ब नही है जिसके माध्यम से मैं तुम्हारे आने और तुम्हारे जाने की घटना को ठीक ठीक ढंग से बता सकूं.
कभी लगता है कि तुम एक स्वप्न की तरह आए और एक यथार्थ की भांति की चले गए मगर दुसरे ही पल मुझे लगता है कि तुम एक यथार्थ की तरह जीवन में शामिल हुए और स्वप्न की भांति अपनी विलुप्त हो गए. तुम्हारा आना न किसी प्रार्थना का परिणाम था और और तुम्हारा जाना न मेरी किसी सायास गलती का परिणाम है.
तुम्हारा आना कभी कभी किसी दैवीय हस्तक्षेप की तरह लगता है जो मुझे यह बताने आया हो कि जीवन की हर समस्या का समाधान आंतरिक होता है बाहर से हम केवल कुछ अंशो में प्रेरणा हासिल कर सकते है. तुम्हारा जाना मुझे किसी ऋषि के श्राप के जैसा लगता है जो अचानक ही मेरी किसी असावधानी से नाराज़ होकर मुझे दे दिया गया हो.
फ़िलहाल मैं तुम्हें देव और असुर,वरदान और श्राप दोनों से मुक्त रखना चाहती हूँ.तुम एक औसत मनुष्य थे मगर अपने औसतपन में भी तुम्हारे अन्दर आत्मीयता बहुत सघन रूप से विद्यमान थी. तुम उदासी का अनुवाद करना जानते थे इसलिए तुम्हारे सामने मुझे कभी अभिनय नही करना पड़ा.
तुम मुस्कानों पर ऐसी टीका कर सकते थे कि खुद की आँखों से खुद की मुस्कान देखने की एक अदम्य प्यास जाग जाती थी. ऐसा नही है कि तुम्हारे पास मेरे सारे दुखों के ज्ञात समाधान थे मगर इतना जरुर है कि तुम्हें यह ठीक-ठीक पता था कि दुखों को कैसा अकेला छोड़कर उनको तड़फते हुए देखा जा सकता है. तुम्हारे पास सुख का यह बेहद मौलिक किस्म का संस्करण था.
तुम सुख के एक खराब भाष्यकार थे मगर फिर भी तुम्हारे पास सुख एक ऐसी परिभाषा था कि मैं अक्सर इस बात को लेकर कन्फ्यूज्ड हो जाती थी कि मैं सुख को दुःख कहूं या दुःख को सुख. मैंने गाहे-बगाहे तुम्हारे मूड की परवाह किए बगैर तुमसे बहुत से ऐसे सवाल किए जो मुझे नही करने चाहिए थे मगर अब मैं तुम्हारे धैर्य की एक मौन प्रशंसक बन गई हूँ.
जिस दिन तुम मिले थे ठीक उसी दिन मुझे इस बात का बोध हो गया था कि तुम्हें सहेज कर रखना मेरे बस की बात नही है और एकदिन मैं तुम्हें जरुर खो दूँगी. और एकदिन वही हुआ मैंने तुम्हें अचानक से खो दिया. अच्छी बात यह रही कि मैंने कभी तुम्हारे ऊपर अनुराग की दृष्टि नही रखी अन्यथा तुम्हारी अनुपस्थिति में मेरे लिए खुद से बात करना बेहद मुश्किल हो जाता. मगर अनुराग की अनुपस्थिति का यह अर्थ बिलकुल नही था कि मुझे तुम पसंद नही थे. मुझे तुम पसंद थे और ठीक उतने पसंद थे जितनी मुझे अपनी एक कलम पसंद थी जिसमें बार-बार मैं रिफिल कराती थी. दरअसल तुम मेरे एक मौलिक किस्म के हस्ताक्षर से थे जिसकी एक कलात्मक ख़ूबसूरती थी मगर मैंने जिसकी मदद से मैंने कभी लाभ के लिए कोई धन आहरित नही किया. तुम लाभ-हानि, जीवन-मृत्यु, यश-अपयश से परे थे मगर मैं तुम्हें विधि हाथ नही कहना चाहती क्योंकि विधि के हाथ अक्सर बेहद छोटे होते है.
तुम एक आकाश थे जो थोड़ी देर सुस्ताने के लिए धरती पर आए थे तुम्हारी जरूरत इस ग्रह जैसी अनेक धरतियों को है. तुम एक चित्र में शामिल होते हो तो दुसरे चित्र से अनुपस्थित.
हीरा है सदा के लिए यह अक्सर हम सुनतें आए है मगर तुम सदा के लिए नही थे  इसलिए तुम हीरे से भी अधिक मूल्यवान थे. तुम्हारा होना अब एक चमत्कार सरीखा लगता है और तुम्हारा न होना इस बात की पुष्टि करता है कि कलयुग में कोई चमत्कार कभी घटित नही होता है.
तुम अपनी गति से शामिल हुए और अपनी लोक की गति से विलग यह कोई अनूठी बात नही है मगर अनूठी बात यह है कि तुम जब तक थे अपनी पूरी सम्पूर्णता में थे तुम्हें खोने के भय को मैंने कभी अपने मन में स्थान नही दिया उसका एक लाभ यह हुआ कि अब जब तुम नही हो तो मैं तुम्हें याद करते हुए भावुक नही होती बल्कि तुम्हारी बातें दोहरा कर मुझे एक अलग किस्म का आत्मविश्वास मिलता है और उसी आत्मविश्वास के बल पर मैं तुम्हारे खोने की बातें हंसते हुई बता रही हूँ.जबकि मैं यह जानती हूँ कि मेरे पास तुम्हारा नया पता नही है.
तुमनें एक यात्रा की और तुम्हारे साथ एक यात्रा मैंने भी की इस यात्रा की स्मृतियाँ मुझे हमेशा यह बात याद दिलाती रहेगी कि एक मनुष्य से प्रेम करने के हज़ार बहाने हो सकते है और उसे भूलने का एक बहाना भी कभी-कभी कम पड़ता है. मैं तुम्हारे साथ रहकर प्रेम और घृणा का भेद समझ पायी इसलिए अब मुझे प्रेम की आवश्यकता नही है. ये बात कहने का आत्मबल मेरे पास तब नही था जब तुम मिले थे.
तुम्हरा मिलना मेरे लिए खुद से मिलने जैसा है और तुम्हारा बिछड़ना भी मुझे मेरे और नजदीक ले आया है इसलिए मेरे मन में कोई खेद या संताप अब शेष नही है. मुझे बोध है कि तुम ठीक इसी वक्त किसी दुसरे वक्त और हालत से लड़ते शख्स की मदद कर रहे होंगे क्योंकि तुम इस दुनिया में इसी लिए आए हो.

‘बेपते की चिट्ठी’

© डॉ. अजित