Tuesday, May 31, 2016

विदा

प्यास जब बहुत उत्कट किस्म की होती है तब पानी को रास्ते से गुजरता हम देख पातें है। स्वाद की ग्रन्थियां तब क्षणिक रूप से आँखें बन जाती है।
भूख में इसके ठीक उलट हो जाता है हमें दिखना बंद हो जाता है और महसूस करना शुरू देते है,तब तरल जल भी चुभता हुआ मंजिल तक पहुँचता है।
दूरी उतनी जरूरी होती है जितने में दिखता भी रहे और चीजो का नजदीक आनें का भरम भी बचा रहे।
मगर जरूरत कई दफा अपने ही ढंग से परिभाषित होती है जब बातों के दो सिरे नही जोड़ पाते तो द्वैत को जीने लगते है।
दरअसल, हिस्से में कई बार एकांत आना चाहता है वो प्रतिक्षा करता करता बूढ़ा हो रहा होता है फिर एकदिन वो देह छोड़ देता और उसकी आत्मा मोक्ष की कामना मे हमारे इर्द गिर्द चक्कर काटने लगती है।
निर्वासन एक घोषणा है या फिर एक सुविधा इस पर इतने अलग अलग किस्म के भाष्य है कि सम्बोधि के घटित होने से पहले वो बहुधा कुप्रचारित हो जाती है।
राग की एक अपनी अलग दुनिया है वो हमारे चेहरे को इतने हिस्सों में बांट देती है कि फिर मन और चेतना दोनों अपनी अधिकतम उड़ान पर उड़ते है दोनों के अंतिम अरण्य अभी अज्ञात है इसलिए वो निकटतम टापूओं के मानचित्र अपने पंजो में दबाकर लौट आते है।
मनुष्य भीड़ क्यों चाहता है या फिर मनुष्य अकेलापन क्यों चाहता है इन दो प्रश्नों से अधिक जरूरी है मनुष्य की चाह पर अपूर्णता का बोध कब तक टिका रह सकता है?
स्नेह अनुबंधन और जुड़ाव की त्रयी के ठीक मध्य एक त्राटक का बिन्दू है जिस पर जैसे ही नजर जमती है एक दरवाज़ा अंदर की तरफ खुलता और एक बाहर की तरफ वहां कुछ ही क्षण में निर्णय करते हुए आगे या पीछे हटना होता है निर्णय एक घटना नही बल्कि एक प्रतिक्रिया है इसलिए उसकी विश्वसनीयता कुछ अंशो में हमेशा संदिग्ध रहती है। कुछ आत्मप्रवंचनाएं इसलिए भी हमेशा अनाथ रहती है।
आना जाना और फिर आना ये आवागमन के तीन रास्तें ही नही बल्कि काल के तीन संस्करण भी है तीनों को पढ़ते हुए विमर्श में नही उलझना चाहिए बल्कि उनसे गुजरकर उसी एकांत के टीले पर बैठ सुस्ताते हुए मुस्कुराना चाहिए जो मन के मानचित्र में सबसे उपेक्षित पड़ा था।

पुरोवाक् के बाद लोक की चार पंक्तियों में लौटता हूँ न जाने किसनें किस के लिए लिखी थी मगर जिसनें भी लिखी थी ठीक वैसे ही लिखी होगी जैसे आरती के बाद शंख बजता है फिर घण्टी की शान्ति के साथ प्रसाद दिया जाता है।
अहसासों की धूप में आश्वस्ति की इलायची और स्नेह की मिश्री अपने सभी चाहनें के मध्य बांटता हूँ और पहले मासपरायण विश्राम के लिए तन मन के गर्भ ग्रह में लौटता हूँ।

"किसी के आनें से न जानें से जिंदगी रुकी है कभी
माना कि मेरा जाना भी तय हुआ है अभी
फिर भी इस कदर तुम्हारी बेकरारी रुला देती है
मेरे बाद भी तुम्हें हंसना है जिंदगी सब सिखा देती है।"

सादर, सस्नेह
डॉ.अजित
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ताकि सनद रहें:

याद करना या याद आना जिनके लिए मजबूरी है वो जून की तपन में कुछ गीले खत इसे पते पर रवाना कर सकते है उम्मीद भर है वो रास्तें में सूख जाएंगे मगर उनकी स्याही पर टिके स्पर्शों से मैं धरती और चाँद के बीच एक समकोण देखूँगा जिससे कूदकर चोट न लगती हो और दूरी भी तय हो जाती हो।अक्षरों की बुनावट में मित्रता के बेड़े को अकेला खोल समन्दर की एक लम्बी यात्रा पर निकल जाऊँगा। न कोई आग्रह न कोई निवेदन न कोई अपेक्षा मात्र खुद को परखनें का इम्तिहान बना रहा हूँ जिसके जवाब देकर मुझे सवाल लिखनें है।

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डॉ.अजित सिंह तोमर
ग्राम+पत्रालय- हथछोया
जनपद- शामली
247778, उत्तर प्रदेश।

Friday, May 27, 2016

आवारा मन

यूरोप के एक बूढ़े शहर का सबसे पुराना चर्च है। पादरी अब सुबह शाम नही दोपहर को आता है। उसके हाथ में बाईबिल नही किसी बच्चे की पोयम्स की एक बुक है।
चर्च की घण्टी अब ईको नही करती है उसकी ध्वनि एकदिशा में आगे बढ़ती है मगर लौटती नही है। चर्च के बाहर एक छोटा लॉन है वहां बर्फ के नवजात शिशु घास के साथ नींद का अभ्यास कर रहें है हवा की लोरी उन्हें सुलाती है तो कुछेक घण्टों की धूप उनकी पीठ पर मालिश करती है।
जीसस अंदर बेहद अकेले है वो तस्वीर से निकल कर चर्च के पीछे बने कब्रिस्तान में सोई चेतनाओं को देखनें निकल गए है रोज़ रात वहां पाप पुण्य और अपराधबोध का उत्सव होता है।
चर्च की पियानों की कुछ कड़ियां ढीली हो गई है वो सूर को बीच में ही आवारा छोड़ देती है फिर प्रार्थना का पूरा ट्रेक आउट ऑफ़ ऑर्डर हो जाता है ये सुनकर मोमबत्तियां हंसते हंसते बुझ जाती है।
चर्च के अहाते में एक बूढ़ी औरत रोज़ शाम आती है वो जीसस को दिल खोलकर अपनी गलतियां बतानी चाहती है मगर वो अंदर नही जाना चाहती वो चाहती है जीसस उसके पास आकर बैठे और वो एक उदास गीत गाए और अंत में जोर से हंस पड़े वो चाहती है ईश्वर का पुत्र उसके आंसूओं को चखकर उन्हें सृष्टि का दिव्य पेय घोषित कर दें।
चर्च का वास्तु थोड़ा रहस्यमयी है उसकी दीवारें थोड़ी टेढ़ी हो गई है वो देखती है कि कुछ नव युगल दम्पत्ति प्रेम को बरकरार रखनें में असफल रहें ये सोच कर वो उदास हो जाती है वो चर्च के रोशनदानों से कहती है विवाह दुनिया की सबसे झूठी संस्था है।
चर्च अब थक गया है वो थोड़ी देर उकड़ू बैठना चाहता है मगर जैसे ही मनुष्य को मजबूर देखता है वो अपने आराम करने का विचार बदल देता है।
एक बूके चर्च में रखा है उसके फूल ताज़ा है मगर उनकी टहनी सूख गई है फूल की खुशबू कन्फेशन करना चाहती है कि उसका कौमार्य उसनें भंग किया जिसको वो बिलकुल प्रेम नही करती थी चर्च मना कर देता है तो वो टूटकर बिखर जाती है।
यूरोप के बूढ़े शहर का यह एक बूढ़ा चर्च है मगर इसकी अंदरुनी दुनिया अभी भी बेहद जवान है।

'आवारा मन'

परिभाषाऐं

पहाड़ का अर्थ होता है ऐसी असीम ऊंचाई जहां से दुनिया दिखनी बंद हो जाए और खुद का सही कद पता चले।
नदी का अर्थ होता है धरती पर बिछी एक खण्डित रेखा जिसको हिस्सों में तरलता का सुख दुःख छिपा होता है।
झरनें का अर्थ होता सतह से हटकर जीना और अपनी नमी को बचाए रखना बोझ का तिरस्कार इसी नमी का पुरस्कार होता है।
समन्दर का अर्थ होता है गहराई के बावजूद ऐसा धीमा शोर करना कि कोई भी दुनियावी शख्स हमेशा के दुनिया को भूल जाए।
जंगल का अर्थ होता है एक बिछड़ा हुआ कुनबा जो अलग अलग हिस्सों में अपने कुल के अभिमान में तना रहता है।
हवा का अर्थ होता है आवारगी का एक ऐसा गुमशुदा चस्का जो कभी दुनिया की हकीकत जानने के बावजूद दिल बहलाने का हुनर सीख जाना।
मनुष्य का अर्थ होता है भटकना कभी किसी के भरोसे कभी किसी के जो मंजिल पा जाते है मनुष्य उन्हें ईश्वर घोषित कर देता है।

'परिभाषा की भाषा'

Thursday, May 26, 2016

दर्द की दुनिया

दर्द एक क्षेपक है। कुछ कुछ अर्थों में सूत्रधार भी हो सकता है। दर्द चैतन्यता की सबसे निकटतम परीक्षा है या फिर दर्द सापेक्ष और निरपेक्ष के मध्य टंगा दही का कटोरा है जिसका गुणधर्म दिन और रात में बदल जाता है। दर्द के साथ रहकर देह की याद आती है मगर दर्द के बाद हम पहली चिट्ठी उस मन के मीत को लिखतें है जिसें मीलों दूर भी हमारे दर्द से दर्द होता है इस तरह से देखा जाए तो दर्द बेतार का एक तार है जो बेहद कम शब्दों में लिखना होता है बस एक अदद पता सही होना चाहिए।
दो दिन से मेरी गर्दन में दर्द है इससे पहले मैंने अपनी गर्दन को कभी ध्यान से नही देखा अपनी गर्दन को देखनें की मेरी अधिकतम स्मृति नाई की दुकान की है मगर अब मैं अपनी प्रेमिका के बालों की तरह इसकी सतह पर उंगलियो से कंघी करता हूँ निसन्देह ये बात गर्दन को अच्छी ही लगती होगी तभी वो इश्क की तरह अकड़ कर  सीधी हो गई है वो मेरी दृष्टि में एकाधिकार चाह रही है नही चाहती उसके द्वारा घोषित कोण से इतर कुछ भी देखूँ। मैं देखना चाहता हूँ तो गर्दन दर्द के पहरेदार को हुक्म देती है और कहती है इसकी आह का एक परवाना तैयार करों और उसे पीठ पर कील से टांक दो जब करवट बदलता हूँ तो दर्द के उस परवाने के भिन्न भिन्न ध्वनियाँ निकलती है ये बात मेरी गर्दन तकिए को बताती है और कहती है इसके लिए बेहतर यही है सीधा रहा जाए।
गर्दन मेरी खुद की है इसलिए यह नही कह सकता कि मेरी दुश्मन है मगर उसने दर्द का एक अजीब सा मानचित्र खिंचा है उसनें दर्द की रियासत के लिए मेरी पीठ के एक हिस्से को बिना उसकी इच्छा के अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया जबकि मेरी पीठ मुझसे आजतक बेहद संतुष्ट रही है उसे लगता था मैंने चरम दुःख में भी उसको सामनें नही किया बल्कि आकाश से दुःख भी अपनी छाती पर सहता रहा।
अब गर्दन ने मांसपेशियों का एक ऐसा समूह तैयार कर लिया है जो वास्तव में स्वपीड़ा में आनन्द की अनुभूति प्राप्त करता है दर्द की रियासत की सीमाओं पर आजकल बाड़बंदी का काम चल रहा है मैं जब अपना हाथ पीठ पर ले जाता हूँ तो मुझे ताप महसूस होता है मानों अंदर कोई बरसों से संतृप्त ज्वालामुखी अब धीरे धीरे सक्रिय हो गया हो और लावे की एक नदी गर्दन से लेकर पीठ के एक हिस्से में बह रही हो।
जब जब करवट बदलता हूँ या गर्दन की स्वेच्छाचारिता को लेकर आदेशात्मक होने की कोशिश करता हूँ दर्द मुझे घनी नींद से भी जगा देता है मैं कराहता हूँ तो तकिया मेरी मदद करना चाहता है मगर उसकी अपनी भौतिक सीमाएं है फिर भी वो मुझसे कहता है कुछ दिन गर्दन को बिना सहारे बिस्तर पर पड़ा रहने देने चाहिए तब शायद इसकी कुछ अकड़ कम होगी। तकिए और डॉक्टर की सलाह लगभग एक जैसी है इसलिए मैं मान लेता हूँ मगर आदतन मेरा हाथ गर्दन के नीचे टिक जाता है गर्दन के मन में मेरी पूर्व की ज्यादतियों को देखतें हुए मेरे प्रति कोई राहत या करूणा नही उपजती है न वह मेरे हाथ के प्रति कोई कृतज्ञता महसूस करती है।
इस दर्द ने मेरे मन और तन की लोच को बेहद जटिल और स्थिर कर दिया है ये चाहता है कि मैं दर्द के इस विस्तार को सघनता से महसूस करूँ और अपनी तमाम लापरवाहियों के लिए शर्मिंदा भी महसूस करूँ जबकि सच बात ये है मैंने कुछ भी जानबूझकर नही किया मुझे नही पता था एकटक मोबाइल स्क्रीन पर देखना या तकिए को मोड़कर गर्दन के नीचे लगाना गर्दन को इतना नागवार गुजरेगा कि वो एकदिन मुझे स्थैतिक करके अपने सारे बदलें लेगी।
बहरहाल, दर्द ने मुझे अपेक्षाकृत अधिक संवेदनशील और चैतन्य बनाया है इसलिए मैं कोई शिकायत नही कर रहा हूँ मगर अपने देह के एक हिस्से पर देखते ही देखतें एक विद्रोह की दुनिया का खड़ा हो जाना निसन्देह मेरे लिए कोई प्रिय अनुभव नही है।
मैं मुक्ति चाहता हूँ देह के षडयंत्रो से।भले ही मिट्टी को एकदिन मिट्टी में ही मिलना है मगर मैं यह चाहता हूँ ये मिट्टी अपनी अखण्डता और निष्ठा के साथ भष्म हो।
इनदिनों औषधि,व्यायाम और जीवनशैली तीनों अमात्यों को सन्धि प्रस्ताव भेजा है वो आए और इस आपदकाल में मेरी मदद करें क्योंकि इनदिनों उनका राजा दर्द के विद्रोह के समक्ष बेहद अकेला पड़ गया है।

'दर्द की दुनिया'

Saturday, May 7, 2016

फ़िल्मी बातें

शर्मिला टैगोर और दीपिका पादुकोण की मुस्कान और खिलखिलाती हंसी के बीच का पॉज़ बेहद क्लासिक किस्म का है अपनी इन दो कृतियों को यूं देखकर ईश्वर अपने हाथ चूम लेता होगा।
माधुरी दीक्षित के और विद्या बालन के आँखों के सवालों का जवाब खुद ईश्वर के पास भी नही होंगे।
परिणीति चोपड़ा की आवाज़ सुनकर फूलों के छोटे बच्चें जल्दी बड़े होने की जिद अपनी माँ से करते होंगे उसकी गले की खराश से झरनें अपने तल की चोट को सहन कर पातें होंगे।
तब्बु को उदास देख बादलों को भी डिप्रेशन हो जाता होगा वो धरती पर बरसनें से इनकार कर देते होंगे और आसमान में टुक लगाए दूसरी धरती तलाशतें होंगे।
माही गिल के आँखों में लगा काजल धरती पर सुख और दुःख का पाला खिंचता है जिस पर वक्त के मारें खुद से हारे मनुष्य उम्मीद की कबड्डी खेलतें होंगे।

'इतवारी ख्याल'
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पुनर्पाठ:

इस पोस्ट पर संवाद की श्रृंखला में कुछ अन्य अभिनेत्रियों के बारे में मेरी टिप्पणियाँ आई है मित्रों की सुविधा के लिए उन सब को मूल पोस्ट के साथ रख रहा हूँ।

" ऋचा चड्ढा की आँखें सवाली है जैसे उन्हें कुछ सवालों के संभावित जवाब पहले से ही पता हो। उनके वजूद से छुपना सम्भव नही हो पाता है वो हमारी पड़ताल करती है और लौट जाती है।

हुमा कुरेशी, एक बड़ी नदी से निकली एक छोटी नदी है जिसनें अपना रास्ता बदल लिया है उसनें पत्थरों से दोस्ती की मगर उन्हें अपनी जगह से हिलाया नही उसके किनारे अपने कुनबे से बिछड़ी चिड़ियाएं साल में एक बार साथ बैठ कर उदास गीत गाती है। हुमा में एक संतुलित वेग है जिसके सहारे और किनारे किनारे चलतें आप एकदिन इंसानी बस्ती तक पहुँच जातें है अपनी समस्त कमजोरियों के साथ।

कोंकणा सेन शर्मा, एक आवारा बदली की प्रतिलिपि है जो धरती के सबसे उपेक्षित कोने के बयान दर्ज करने के लिए भेजी गई है वो धरती के कान में सन्देश कीलित करती है तो धरती उसका हाथ पकड़ लेती है उसकी हंसी धरती के उपेक्षित समझे गए खरपतवारों की के बालों में कंघी करती है। कोंकणा का कद अनुमानों से मुक्ति का अघोषित पैमाना है जिसके कनवीक्षन से हम अपने मन त्रिज्या को बड़ी आसानी से नाप लेते है।

अनुराधा पटेल, की नाक धरती के मध्य पर खींची एक विभाजन रेखा है जिसके दोनों तरफ की दुनिया एक दुसरे से बिलकुल अनजान है दोनों दुनिया के आंसूओं का द्रव्यमान भिन्न है इसलिए उनके खारेपन में एक मिठास भी बहती है। अनुराधा की हंसी में सुख से उपजे दुःख के पोस्टकार्ड तह दर तह रखे मिलते है। उसकी पलक झपकनें के अंतराल में काल के कुछ कोण बड़ी चालाकी से बदल जातें है इसलिए जो नजर आता है वो आधा अधूरा होता है समय की प्रत्यंचा पर कसा हुआ एक आत्मिक सच का बेहद अलौकिक संस्करण वहां पढ़ा जा सकता है।"

Wednesday, May 4, 2016

आत्मकथ्य

समाज तो बाद में आता है सबसे पहले तो खुद के लिए ही सबसे बड़ा खतरा है मेरे जैसे लोग है जो टोटल अनप्रोडक्टिव है।
(व्यापक सन्दर्भों में।बिखरी रचनात्मकता जरूर फुटकर प्रोडक्टिविटी है)
कभी कविता में उलझें तो कभी गद्य का आलाप छेड़ते हुए कभी सरकारी नौकरी की दौड़ में बोझिल लाचार तो कभी खेती किसानी की फ़िक्र में गुम।
लोक संगीत की लहरियों के दीवानें तो महंगे बीयर बार में लाइव कन्सर्ट देखने के भी अभिलाषी। कभी जिम्मेदारियों के पैरहन में कैद तो कभी स्वघोषित औघड़ फक्कड़ फकीर किस्म के यायावरी की चाह में अटके हुए। देह से वृहद मन से लघु चित्त ने अनासक्त दिल से संवेदनशील।
न जाने किस अनजानी प्यास में भटकतें रोज़ खुद को तोड़ते जोड़ते हुए कभी कहीं दिल लगा लेते तो कभी कहीं कोई एक चीज़ जिसे लक्ष्य या जुनून समझा जा सके उसे लगभग रोज़ नकारते हुए आत्ममुग्धता में जीने के आदी।
किसी चीज़ का पीछा करने के लिए न कोई जोश न कोई जुनून न अनुशासन न समर्पण सब कुछ आधा अधूरा लिए कॉमन सेंस के जरिए जिंदगी जीते हुए मेरे जैसे लोग खुद के कम बड़े अराजक शत्रु नही है।
जिंदगी के लिए कम से कम एक रोग तो लाइलाज किस्म का पालना ही पड़ता है अफ़सोस हम एक भी न पाल पाए जो भी किया हिस्सों में किया अधूरेपन और अधूरे मन से किया। जी किया तो कुंडली बांचने लगे जी किया तो दर्शन की कुछ किताबें पढ़ ली हम मन के दास क्या वैयक्तिक जीवन में कोई क्रान्ति लाएंगे हमारी दशा एक योगभ्रष्ट योगी के जैसी ही है।
रश्क होता है उन लोगों से जिनके पास केवल और केवल एक ही जुनून है वो उसी के लिए जीते है उसी के लिए मरतें है एक हम है जिनका दावा अनगिनत क्षेत्रों में विशेषज्ञता का है मगर सच ये है कोई विशेषज्ञता हमारे पास नही है। हमारे पास कॉमस सेन्स की मदद से विकसित किए गए कुछ चालाक अनुमान है जो ऐसा प्रतीत करवा देंते है कि हम विशद ज्ञानी है।
सब कुछ इतना अस्त व्यस्त कि हमसे प्रेम करने वाले लोग नही समझ पातें इससे प्रेम करें कि इसकी उपेक्षा करें। अपेक्षाओं के बोझ तले दबे हम अपेक्षाहंता पुत्र है जिन्होंने इतने घरों पर अपने हाथ से शुभ लाभ लिख दिया कि हम खुद नही पहचान पातें है कि असल में हमारा खुद का घर कौन सा हैं।
यदि कोई एक जुनून होता तो निसन्देह हम आज उसके शिखर पर होतें मगर होता ही क्यूँ जब बेमाता ने हमारे जन्म के वक्त हकलाते हुए गीत गाए थे और हमारे माथे पर अपने अंगूठे से लिख दिया था जब तक जियोगे जहाँ भी रहोगे यूं उकताए हुए रहोगे।
बचना चाहिए ऐसे लोगो से जितना हो सके वरना एकदिन किसी काबिल नही छोड़ता इनका साथ।

'बक रहा हूँ जुनूँ में न जानें क्या क्या'