Thursday, May 26, 2016

दर्द की दुनिया

दर्द एक क्षेपक है। कुछ कुछ अर्थों में सूत्रधार भी हो सकता है। दर्द चैतन्यता की सबसे निकटतम परीक्षा है या फिर दर्द सापेक्ष और निरपेक्ष के मध्य टंगा दही का कटोरा है जिसका गुणधर्म दिन और रात में बदल जाता है। दर्द के साथ रहकर देह की याद आती है मगर दर्द के बाद हम पहली चिट्ठी उस मन के मीत को लिखतें है जिसें मीलों दूर भी हमारे दर्द से दर्द होता है इस तरह से देखा जाए तो दर्द बेतार का एक तार है जो बेहद कम शब्दों में लिखना होता है बस एक अदद पता सही होना चाहिए।
दो दिन से मेरी गर्दन में दर्द है इससे पहले मैंने अपनी गर्दन को कभी ध्यान से नही देखा अपनी गर्दन को देखनें की मेरी अधिकतम स्मृति नाई की दुकान की है मगर अब मैं अपनी प्रेमिका के बालों की तरह इसकी सतह पर उंगलियो से कंघी करता हूँ निसन्देह ये बात गर्दन को अच्छी ही लगती होगी तभी वो इश्क की तरह अकड़ कर  सीधी हो गई है वो मेरी दृष्टि में एकाधिकार चाह रही है नही चाहती उसके द्वारा घोषित कोण से इतर कुछ भी देखूँ। मैं देखना चाहता हूँ तो गर्दन दर्द के पहरेदार को हुक्म देती है और कहती है इसकी आह का एक परवाना तैयार करों और उसे पीठ पर कील से टांक दो जब करवट बदलता हूँ तो दर्द के उस परवाने के भिन्न भिन्न ध्वनियाँ निकलती है ये बात मेरी गर्दन तकिए को बताती है और कहती है इसके लिए बेहतर यही है सीधा रहा जाए।
गर्दन मेरी खुद की है इसलिए यह नही कह सकता कि मेरी दुश्मन है मगर उसने दर्द का एक अजीब सा मानचित्र खिंचा है उसनें दर्द की रियासत के लिए मेरी पीठ के एक हिस्से को बिना उसकी इच्छा के अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया जबकि मेरी पीठ मुझसे आजतक बेहद संतुष्ट रही है उसे लगता था मैंने चरम दुःख में भी उसको सामनें नही किया बल्कि आकाश से दुःख भी अपनी छाती पर सहता रहा।
अब गर्दन ने मांसपेशियों का एक ऐसा समूह तैयार कर लिया है जो वास्तव में स्वपीड़ा में आनन्द की अनुभूति प्राप्त करता है दर्द की रियासत की सीमाओं पर आजकल बाड़बंदी का काम चल रहा है मैं जब अपना हाथ पीठ पर ले जाता हूँ तो मुझे ताप महसूस होता है मानों अंदर कोई बरसों से संतृप्त ज्वालामुखी अब धीरे धीरे सक्रिय हो गया हो और लावे की एक नदी गर्दन से लेकर पीठ के एक हिस्से में बह रही हो।
जब जब करवट बदलता हूँ या गर्दन की स्वेच्छाचारिता को लेकर आदेशात्मक होने की कोशिश करता हूँ दर्द मुझे घनी नींद से भी जगा देता है मैं कराहता हूँ तो तकिया मेरी मदद करना चाहता है मगर उसकी अपनी भौतिक सीमाएं है फिर भी वो मुझसे कहता है कुछ दिन गर्दन को बिना सहारे बिस्तर पर पड़ा रहने देने चाहिए तब शायद इसकी कुछ अकड़ कम होगी। तकिए और डॉक्टर की सलाह लगभग एक जैसी है इसलिए मैं मान लेता हूँ मगर आदतन मेरा हाथ गर्दन के नीचे टिक जाता है गर्दन के मन में मेरी पूर्व की ज्यादतियों को देखतें हुए मेरे प्रति कोई राहत या करूणा नही उपजती है न वह मेरे हाथ के प्रति कोई कृतज्ञता महसूस करती है।
इस दर्द ने मेरे मन और तन की लोच को बेहद जटिल और स्थिर कर दिया है ये चाहता है कि मैं दर्द के इस विस्तार को सघनता से महसूस करूँ और अपनी तमाम लापरवाहियों के लिए शर्मिंदा भी महसूस करूँ जबकि सच बात ये है मैंने कुछ भी जानबूझकर नही किया मुझे नही पता था एकटक मोबाइल स्क्रीन पर देखना या तकिए को मोड़कर गर्दन के नीचे लगाना गर्दन को इतना नागवार गुजरेगा कि वो एकदिन मुझे स्थैतिक करके अपने सारे बदलें लेगी।
बहरहाल, दर्द ने मुझे अपेक्षाकृत अधिक संवेदनशील और चैतन्य बनाया है इसलिए मैं कोई शिकायत नही कर रहा हूँ मगर अपने देह के एक हिस्से पर देखते ही देखतें एक विद्रोह की दुनिया का खड़ा हो जाना निसन्देह मेरे लिए कोई प्रिय अनुभव नही है।
मैं मुक्ति चाहता हूँ देह के षडयंत्रो से।भले ही मिट्टी को एकदिन मिट्टी में ही मिलना है मगर मैं यह चाहता हूँ ये मिट्टी अपनी अखण्डता और निष्ठा के साथ भष्म हो।
इनदिनों औषधि,व्यायाम और जीवनशैली तीनों अमात्यों को सन्धि प्रस्ताव भेजा है वो आए और इस आपदकाल में मेरी मदद करें क्योंकि इनदिनों उनका राजा दर्द के विद्रोह के समक्ष बेहद अकेला पड़ गया है।

'दर्द की दुनिया'

No comments:

Post a Comment