Friday, December 13, 2019

फुटकर_नोट्स


मैं निष्क्रियता का औचित्य सिद्ध करने का कौशल सीख गया हूँ.
कोई मुझसे  सवाल करे उससे पहले मैं उसको उसकी स्मृतियों में उलझा देता हूँ. उसके बाद उसे लगता है ऐसे वक्त में मुझसे कोई भी सवाल करना उचित नही होगा. हाँ ! वो मन ही मन मेरे लिए प्रार्थनाएं जरुर करता है. प्रार्थना वैसे एकवचन में प्रभावी लगती है मगर मेरे लिए बहु वचन में इसलिए करनी पडती है कि मैंने इस लोक और उस लोक के कई ज्ञात ईश्वरों का कई बार दिल दुखाया है. मेरे शुभ चिंतको को इस बात का भय है कि मेरे लिए की गई किसी भी प्रार्थना को वे ईश्वर अपने प्रतिशोध के कारण निस्तेज कर देंगे.
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मुझे यदि यह पूछा जाए कि मनुष्य के लिए प्रेम जरूरी है या रोटी. तो मैं इसका सीधा साधा जवाब दूंगा कि रोटी और प्रेम दोनों यदि जरूरत की तरह किसी के लिए जरूरी है फिर दोनों में चुनाव का कोई प्रश्न ही नही उठता है. प्रेम और रोटी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ये आपके लिए संयोग की बात हो सकती है कि आपके हिस्से कौन सा पहले आता है.
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संसार में बहुत कुछ ऐसा है जिस के कारक-कारण के बारें हम कुछ कहने से पहले बार-बार सोचते हैं. और कहने के बाद भी हमें अपने कहे हुए पर हमेशा संदेह होता रहता है. कारक-कारण एक समानुपातिक रिश्ता जरूर प्रतीत होता है मगर वास्तव में देखा जाए तो कारक-कारण को तलाशना शोध का एक अंग है और दुनिया के सारे शोध मन की मान्यताओं की बाह्य पुष्टि के यांत्रिक साधन भर है इसलिए जीवन में हमेशा कुछ ऐसे सवाल बने रहते हैं हमें जिनका एक सही और एक गलत जवाब पता होता है और ये दोनों जवाब अपना घर बदलते रहते हैं.
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मुझसे यह सवाल अक्सर पूछा जाता है कि मैं किसी के मन को कैसे पढ़ लेता हूँ?  मेरे पास इस सवाल के दो जवाब होते है मगर मैं हमेशा तीसरा जवाब देता हूँ ताकि जिसका मन पढ़ा गया है उसे भविष्य में मुझसे डर या खतरा महसूस ना हो. जब कोई हमें जानने लगता है तब हमें उससे कुछ अंशों में डर लगने लगता है. मैं किसी का मन पढ़ना नही जानता हूँ. यदि मैं ऐसा करना जानता तो यकीनन सबसे पहले अपना मन पढ़ता.
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लव यूसहज स्फूर्त अक्सर निकल जाता है. यहाँ लव और यू दोनों में आपस में कोई सार्थक अंतर नही होता है. दरअसल लव यूकहने का एक अर्थ यह भी हो सकता है कि तुम्हें और अधिक प्यार की आवश्यकता है. मनुष्य प्रेम में पहले गरिमापूर्ण होता है और बाद में अराजक. यदि कोई तुम्हें लव यूकहे तो इसे अभिवादन समझ प्रतियुत्तर मत देना .क्योंकि इसका कोई प्रतियुत्तर अभी तक शब्दकोश में नही बना हैं.
#फुटकर_नोट्स

© डॉ. अजित


Wednesday, September 25, 2019

अकेलापन-अकेलामन

अकेलापन के कितने ही पाठ हो सकते हैं. कोई भीड़ में भी अकेला होता है तो किसी के अकेलेपन पर रश्क हो सकता है. अपने अन्तस् में अकेलेपन के अलग-अलग टापू होते हैं. जो हमें हाथ पकड़कर अपने साथ ले जाते है. दुनिया भर के मनोवैज्ञानिक अकेलेपन को अपने ढंग से परिभाषित करते हैं. दार्शनिक एकांत और अकेलेपन को आत्म जागरण के टूल के तौर पर देखतें है और रचनात्मक लोग अकेलेपन को खुद से मुलाकात के लिए जरूरी समझते हैं.

बुनियादी तौर पर यह सवाल थोड़ा टेढ़ा मगर रोचक है कि मनुष्य को अकेलेपन से डर क्यों लगता है? ऐसा क्या है उसके पास जिसे वो शेयर चाहता है? और क्यों करना चाहता है.

मन के विराट आंगन में एक कोना ऐसा होता है, जहां हम किसी का हाथ पकड़कर घूमना चाहते हैं उसके जरिए अपने अंदर कि वो दुनिया देखना चाहते है जिसे देख पाने की शायद अकेले हमारी हिम्मत नही होती है.
कहना क्यों जरूरी होता है? और उस कहने के लिए एक साथ क्यों अपरिहार्य लगने लगता है? क्यों के जवाब अकेलेपन के सन्दर्भ में जानने की कोशिश करना एक जोखिम भरा काम हो सकता है क्योंकि यहाँ बात खिसक कर मानवीय कमजोरी की तरफ जा सकती है.

खुद के अंदर पसरे एकांत से बिना अभ्यास और तैयारी के मिलनें से गहरा अवसाद जैसा कुछ प्रतीत हो सकता है और बोध के साथ अन्तस् में उतरने में यही अकेलापन उत्सव में भी परिवर्तित हो सकता है. मनुष्य के मन और जीवन को समझने के लिए विश्लेषण प्राय: किसी काम नही आता है. विश्लेषण भ्रम को बढ़ाता है हमें पूर्वाग्रहों से भरता है. जबकि जीवन को देखने के लिए उसे केवल जीना पड़ता है. यहाँ मैं केवल इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि यह केवल हर दौर में एक दुर्लभ घटना के तौर पर उपस्थित रहा है.
सोल मेट एक उत्तर आधुनिक और रोमांटिसिज्म से उपजी अवधारणा है. क्या सोल मेट और मनुष्य के अकेलेपन में कोई सकारात्मक सह-सम्बन्ध हो सकता है? मूलत: मैं इस अवधारणा को अप्राप्यता का मानवीयकरण के तौर पर देखता हूँ शायद खुद की बेचैनियों के जब सही जवाब न मिलें होंगे तो मनुष्य ने उनके जवाब एक अज्ञात सोल मेट के भरोसे हमेशा के लिए स्थगित कर दिए होंगे.

‘अकेलापन एक राग है
एक आधा-अधूरा राग
जिसके आरोह-अवरोह
में जीवन सांस लेता है
और जिसकी बंदिशों पर
सोल मेट रहता है
हमारा मन वो उन छोटी-छोटी
मुरकियों से बना होता है
जो आह और वाह के मद्धम स्वर के साथ
गाई जाती है मन ही मन में.’


‘अकेलापन-अकेलामन’


© डॉ. अजित

Thursday, September 12, 2019

‘तुम्हारे जन्मदिन पर’


‘तुम्हारे जन्मदिन पर’
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जन्मदिन पर कुछ उपहार देना जमाने की रवायत रही है. मगर मैं जब भी तुम्हें कुछ देने की सोचता हूँ तो सिवाय प्यार के मुझे अन्य कोई भौतिक वस्तु दिखायी ही नही देती है. सुनने में यह एक छायावादी बात है मगर महसूसने पर यह उससे अधिक कुछ है. अब दूसरा सवाल यह मेरे मन में अक्सर उठता है कि किसी को प्यार कैसे दिया जा सकता है. प्यार इतना भारहीन शब्द है कि शायद यह मेरे शब्दों से तुम्हारे कान तक पहुँचने की यात्रा तक में इस दुनिया में कहीं न कहीं खो जाएगा. इसी डर से मैंने आज तक इस प्यार को तुम तक पहुंचाने की कोशिश नही की यह अलग बात है कि मेरे अंदर इस प्यार का पर्याप्त भार मौजूद है शायद इसी कारण आजतक मेरे पैर ज़मीन पर टिके हुए है.
जन्मदिन पर लोग किस्म-किस्म की बातें करते हैं सबके अपने तौर-तरीके है बधाई देने और लेने के मगर मैं आजतक वो एक तरीका नही तलाश पाया जिसके माध्यम से मेरे मन की एक छोटी सी शुभकामना ठीक वैसे स्वरूप में सम्प्रेषित हो.वो मेरे मन में जन्म लेती है मगर शुभकामनाएं जग में इस कद्र अकेली है कि उन्हें भीड़ में अकेला साफ तौर परे  देखा जा सकता है इसलिए मैं फिलहाल तुम्हें कोई एकांत से भरी चीज देने की हिम्मत खुद के अंदर नही पाता हूँ.
जानता हूँ. उम्र का क्या है? तो पल-प्रतिपल बढ़ती ही जाती है. जन्मदिन के दिन मेरा वह हिसाब मांगने का मन होता है जो तुम्हारे अंदर दिन प्रतिदिन के हिसाब से घट रहा है. शायद प्यार भी उसी भीड़ में कहीं दुबका खड़ा है मगर मैं उसे घटने वाली भीड़ से निकाल लूंगा इसका मुझे पूरा भरोसा है. तुम भी सोचोगी कि आज के दिन मैं क्या हिसाब-किताब लेकर बैठ गया? और मुझे यह अधिकार किसने दिया है कि मैं तुम्हारे अन्तस् की मांग और आपूर्ति की आर्थिकी तय करने लग जाऊं? इसलिए यह विचार भी मुझे बहुत आकर्षक नही लगता है. अधिकार से मुझे याद आया कि एक बार तुमनें हँसते हुए कहा था अधिकार का आरक्षण पुरुष बिना सहमति के तय कर देता है और मैं तब गम्भीर होकर जवाब दिया था अधिकार का आरक्षण नही होता है बल्कि अधिकार मन के हर किस्म के आरक्षण को समाप्त करके अपनी एक जगह बनाता है और वो जगह कभी एक दो आँखों से नही देखी जा सकती है उसके लिए चार आँखे जरूरी होती है. उसके बाद तुमनें अपने हाथों से मेरी आँखे बंद कर दी थी.
आज के दिन मैं कोई मायूस बातें नही करना चाहता हूँ क्योंकि तुम्हीं ने एक बार कहा था कि निराश पुरुष धरती को असहनीय लगता है और निराश स्त्री के लिए आसमान धरती पर एक रास्ता बनाता है. आज खुशी का दिन है. खुशी के दिन अच्छी बातें करनी चाहिए और अच्छी बातों में एक सबसे अच्छी बात मेरे पास यह है कि जिन दिनों मैं तुमसे कुछ प्रकाशवर्ष की दूरी पर था उन दिनों मैंने काल गणना की एक नई विधि सीखी है जिसके माध्यम से मैं देह और जन्म से परे तुम्हारे साथ भूत और भविष्य की यात्रा कर सकता हूँ. इस विधि के माध्यम से मैं यह जान पाया कि अधिकाँश जन्मों में तुम मुझे अप्राप्य ही रही. यह बात मुझे खुशी देती है क्योंकि मुझे यह बात इस यात्रा के दौरान पता चली कि किसी को पा लेना ठीक उसी दिन उसको खो देना भी होता है और मैं तुम्हें कभी खोना नही चाहता.
थोड़ी सी बातें तुम्हारी हँसी पर करना चाहता हूँ मगर उससे पहले तुम्हारा गुस्सा मेरे सामने खड़ा हो जाता है. तुम्हारा गुस्सा इतना अपरिमेय किस्म का होता है कि उस पर यह उक्ति बिल्कुल लागू नही होती है कि क्रोध में विवेक का क्षय हो जाता है. तुम्हारे क्रोध में मैंने तुम्हें प्राय: सत्य के निकट पाया है. हाँ रुखी बातें सुनने में किसे अच्छी लगती है? मगर अगर उन बातों के निहितार्थ विकसित किए जाएं तो उन सब बातों में तुम्हारी मेरे लिए एक दीर्घकालिक चिंता साफ़ तौर पर पढ़ी जा सकती है. तुम्हारे गुस्से के बाद मेरा आत्मलोचन अह्म से मुक्त रहा है इस बात के लिए मेरा मन सदैव कृतज्ञ रहता है.
तुम्हारी हँसी के बारें में बातें करना तुम्हें पसंद नही है कि क्योंकि तुम्हें लगता है कि बातें बनाना मेरा अधेय्वसाय है. और ऐसी बातें मैं अलग-अलग लोगों से अलग-अलग समय पर एकसाथ करता रहता हूँ. मेरी बातों में छल नही होता है इस पर तुम्हें भरोसा है इसलिए मैंने कभी तुम्हारी मान्यताओं का खंडन नही किया. मगर तुम्हारी हँसी ठीक वैसी है जैसे कवियों में शशि. जिसकी कलाओं पर भिन्न पर टीकाएँ की जा सकती है और तुम्हारी हँसी के इतने पाठ हो सकते है कि मैं उनमें से व्यंग्य,प्रेम,मनुहार और प्यार को छानकर निकालना किसी भी मनुष्य के लिए लगभग असंभव है. मगर तुम्हारी यह गुह्यता तुम्हारी सबसे बड़ी पूँजी है.
खैर ! मेरी आदत है कम बोलता हूँ मगर जब बोलने लगता हूँ तो फिर बातों में से बातें निकालता चला जाता हूँ ऐसा करना मेरी किसी योजना का हिस्सा नही है मगर आज तुम्हारे जन्मदिन पर जब मेरे पास देने के लिए कोरी शुभकामनाएँ नही थी तो सोचा कम से कम से ये फुटकर बातें ही तुम तक पहुंचा दूं जिन्हें जल्दबाज़ी पढ़कर तुम कहो कि फुरसत मिलते ही पढ़ती हूँ और वो फुरसत फिर एक साल के लिए टल जाए.
इस तरह से एक साल बीते और अगले साल फिर से मैं ऐसा कहूँ जिस पर तुम्हारा दिल यकीं करें और दिमाग उसे खारिज करें. तुम्हारी ये कशमकश ताउम्र चलती रहे और मेरी आधी-अधूरी कलम फ़िलहाल यही शुभकामना मेरे पास बची है जो न भीड़ में अकेली है और न नितान्त ही औपचारिक.
शेष सब सुख हो.
अजित  

Saturday, May 11, 2019

'उसने कहा'


उसने कहा, कभी-कभी मुझे तुम्हारी ठीक वैसी फ़िक्र होती है जैसे अपने किसी अनुज की होती है.
तुम संभावना से भरे हो, मगर तुम्हें छोटी-छोटी चीजें परेशान कर देती है. तुम अभी तक इग्नोर करने की ढीटता सीख नही पाए हो. यह सोचकर मैं अक्सर उदास हो जाती हूँ. तुम एकदम दूसरी दुनिया के हो. मैं चाहती हूँ तुम्हें किसी की क्या तुम्हारी खुद की भी नजर न लगे. मैं तुम्हें कोलाहलमुक्त और हस्तक्षेपरहित देखना चाहती हूँ.
प्रेम के इतने अलग-अलग स्तर होते है कि आप उसे किसी एक तयशुदा फ्रेम में नही बाँध सकते हैं. मुझे तुमसे प्रेम है. मगर यह प्रेम किस किस्म का प्रेम? यह बता पाना मेरे लिए मुश्किल काम है. तुम्हारे प्रति मेरे मन में किसी किस्म की आवेग की हिंसा नही है और न ही मैं तुम्हें केवल मुझ तक सीमति देखना चाहती हूँ. कभी क्षण भर के लिए यदि मैं पजेसिव हो भी गई हूँ तो अगले ही पल मुझे खुद की समझ पर करुणा आने लगने लगती है.
तुम किसी किस्म के बंधन में बंधने के लिए नही बने हो तुम्हें अपनी लय और अपनी गति से बहना है. सच कहूं तुम्हें इतना महत्वकांक्षाहीन देखकर मुझे अच्छा और खराब दोनों एकसाथ महसूस होता है. अच्छा इसलिए कि तुम किसी नियोजन के विरक्त नही हो दुनियावी दौड़ में न दौड़ने का निर्णय तुम्हारा अपना खुद का चुनाव और जिसके लिए कभी तुम्हारे मन में कोई अफ़सोस मैंने नही देखा. और खराब यह सोचकर लगता है कि तुम इस क्रूर दुनिया में अपने इस मौलिक स्वरूप के साथ आखिर कितने दिन सर्वाइव कर पाओगे. जीवन में व्यावहारिक होने का एक अर्थ यह भी होता है कि दुनिया की चालाकी सीखी जाए जिसे बाद में तर्कों से बुद्धिमान होना सिद्ध कर दिया जाए.
मैं तुम्हें  कोई सलाह देकर भ्रमित नही करना चाहती क्योंकि प्राय: दूसरों के द्वारा दी गई सलाहें हमारे किसी काम की नही होती है हमें अपना सच खुद ही खोजना पड़ता है और मुझे इसमें कोई संदेह नही है कि तुम्हें खुद का सच ठीक -ठीक पता है.
मेरे पास अपने हिस्से का बहुत अधिक प्रेम नही बचा है क्योंकि मैं अलग-अलग हिस्सों में रोज खर्च हो रही हूँ और मगर फिर भी मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ संरक्षित प्रेम है जो मैंने उस लम्हों में बचाया था जब जीवन में कुछ भी ठीक नही चल रहा था. तुम इतने तटस्थ हो कि मुझे संदेह है कि यह प्रेम शायद ही कभी स्थानांतरित हो पाएगा. ऐसे निस्तेज प्रेम को लेकर मेरे मन में जब भी गहरी निराशा उत्पन्न होती है मैं तब तुम्हारी बातों को रिवाइंड करके सुनती हूँ. यकीन करना तुम्हारी उन बातों को सुनकर मुझे सबसे पहले जो बात महसूस होती है वह यह होती है कि मैंने हमेशा अतीत की बातें की और तुमने भविष्य की.
हमारी बातें जिस बिंदु पर मिलती है उस पर कान लगाकर बहुत कुछ ऐसा सुना जा सकता है जिसकी पुनरावृत्ति संभव नही है. इनदिनों मैं तुम्हारी फ़िक्र से बातें शुरू करती हूँ और अंत में खुद की फ़िक्र पर आकर खत्म होती हूँ कि यदि तुम इतने अस्त-व्यस्त-मस्त रहे हो दुनिया को बहुत सी अच्छी चीजों से वंचित रहना पड़ेगा यहाँ मैं दुनिया का नाम लेकर खुद का जिक्र कर रही हूँ.
तुम्हें देखकर मेरा मन स्वार्थी होता जाता है और तुम्हारा मन जन्मजात जैसे किसी संन्यासी का मन हो. हमारे सत्संग का इसलिए शायद कोई हासिल नही हो सकता है क्योंकि हम दो अलग-अलग विरोधाभास एक सही समय और एक गलत जगह आकर टकरा गए हैं.

'उसने कहा'

©डॉ. अजित



Friday, February 1, 2019

‘देह-मोक्ष’


देह के विकट अरण्य में भटककर तुम तक पहुंचा हूँ. मुझसे अभी नैमिषारण्य तीर्थ के सत्संग की भांति प्रवचन की अपेक्षा न रखो. मैं विचार,तर्क,जिज्ञासा और कौतूहल के सारे बाण रास्ते में मिली एक छोटी नदी में बहा आया हूँ. पढ़ने के लिए तुम मेरी आँखें पढ़ सकती हो और सुनने के लिए तुम मेरे हृदय की ध्वनि सुन सकती हो दोनों समवेत स्वर में तुम्हारे प्रोमिल स्पृशों की कातर अपेक्षा में कराह रहें हैं.
जानता हूँ तुम्हें पराजित पुरुष पसंद नही है ,मगर मैं विजय-पराजय के चक्रव्यूह को तोड़कर तुम तक पहुंचा हूँ .मुझे प्राश्रय दो. और यदि कुछ देना ही चाहती हो तो विस्मय नही अपनी लता समान भुजाओं में मुझे एक मासपरायण विश्राम दो.यदि मुझसे कुछ लेना ही चाहती हो तो मेरे कौतुक को मुझसे विछिन्न कर दो. मेरे मस्तक पर शीत स्वेद की कुछ बूंदे आवारा भटक रही हैं उन्हें अपने अंगवस्त्र का पता दो ताकि वें हवा की हत्या से बच जाएं.
तुम्हें तलाशता हुआ मैं मन के बीहड़ वनों से अकेला गुजरा हूँ मेरे अनेक युद्ध मन की कामनाओं और असुरक्षाओं के साथ कथा प्रान्तर में चलतें रहें है. मैंने हार और जीत में संतुलन साध लिया था तभी एक ऋतुपर्ण पर तुम्हारी तर्जनी प्रतिलिपि मुझे मिल गई है मैं उसकी गंध में आधे दिन तक अचेत लेटा तुम्हारी अंगुलियों की नाप लेता रहा इसके लिए मैंने अपने निकट की वनस्पतियों पर अवांछित हिंसा भी की मगर उन्होंने मेरी आँखों की चमक देखकर मुझे क्षमा कर दिया.
मैंने ओक से जल पीते हुई झरने की तरफ देखा तो मुझे वो तुम्हारी पीठ की भांति दिखने लगा मुझे ऊपर देखतें हुए चक्कर नही आ रहें थे और न मेरी प्यास ही तृप्त हो रही थी ठीक उस वक्त मैंने तुम्हारी पीठ के भूगोल को समझा और मैं अंगुल से तुम्हारी मेरुदंड के इर्द-गिर्द चैतन्य नाड़ियो की संख्या को गिनता हुआ समय का एकदम सटीक आकलन सीख गया. अब मैं यह वाक्य तभी पूरे आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूँ कि मेरा समय खराब चल रहा है जब मैं तुम्हारी नाड़ियाँ गिनने से कई प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित रहूँ.
मुझे घाटियों ने तुम्हारे तलवों के एकांत का सच्चा पता दिया. मैं रास्तें में मिली गुफाओं को जब भी कौतूहल से देखता और उनमें दाखिल होने को तत्पर होता तभी घाटी के गुप्तचर मेरे कान में यह बात कह जाते कि अभी मुझे अपने तलवों का मिलान तुम्हारे तलवों से करना है उसके बाद ही मैं अपनें जीवन की अधिकतम छलांग लगा सकता हूँ. उनकी बात सुनकर मुझे हँसी आ गई क्योंकि मेरे तलवों की गहराई देखकर एक बार एक सैनिक ने कहा था तुम युद्ध के लिए बने हो जब मैंने उसको अपनी एक प्रेम कविता सुनाई तो उसकें खुद को संपादित करने में लज्जा का अनुभव किया और मुझ से बिना नेत्र सम्पर्क किए उसनें धीरे से कहा, सच बात तो यह है कि तुम केवल प्रेम के लिए बनें हो.
एकदिन मैं पहाड़ी लताओं के झूले पर एक लम्बी पींग भरी तो मुझे पहाड़  ने उस तरफ धकेला जहां से समंदर दिखाई देता था. पहाड़ पर समंदर देखने का अनुभव मेरा पास है इसलिए मैं दावे से कह सकता हूँ तुम्हारे हृदय के निकट से तुम्हारी आँखों में देखना ठीक वैसे ही झूले झूलने जैसा अनुभव है. समंदर की सुबह उदास होती है और पहाड़ की शामें मगर तुम्हारे तुम्हारी आँखों में झांकते समय समंदर और पहाड़ मिलकर आईस-पाइस खेलने लगते हैं. तुम्हारी धडकनों में बसनें वाली लज्जा मौसम की गुप्तचर है इसलिए तुम्हारी साँसों के आरोह-अवरोह में मौसम अपना घर बदल लेते हैं.
मुझे अब कोई प्रतिप्रश्न न करों !  मेरी टीकाएँ और भाष्य अब सब निस्तेज हो चुके हैं समय के आचार्यों ने उनसे गुण को छान लिया है अब वो केवल कोरी शुष्क बातें हैं. उनकी विवेचना से कोई मार्ग नही मिलेगा. मैं अपने सब मार्ग बंद करके तुम्हारे मार्ग पर आया हूँ. इसलिए मुझसे मानचित्र पर चर्चा न करो.मैं सामीप्य की आकांक्षा में आतुर हूँ मगर उदंड या अनुशासनहीन नही हूँ इसलिए मेरा आग्रह से अधिक निवेदन में भरोसा हैं. मैं चाहता हूँ तुम अपनें विस्तार के निर्जन टापू की तरफ अपनी ऊँगली से एक संकेत कर दो ताकि मैं अपने उत्साह को बचा रखूं. मुझे पता है कि तुम्हारा संकेत कभी निरुपाय नही रहता है यदि तुमनें अपनी देह में मुझे शरण दी तो निसन्देह इस चैतन्य आतुरता का अंतिम पाठ मोक्ष की तरह ही उच्चारित किया जाएगा और काया पर पूर्वाग्रह बनने कम होंगे.

‘देह-मोक्ष’
© डॉ. अजित

Thursday, January 31, 2019

‘आधे-अधूरे ख़त’


इनदिनों जी उदास रहने लगा है. शायद ये बदलते मौसम का असर है. सर्दियों के जाने की बाट मन अब जोहने लगा है. पिछली सर्दियों में तुमसे मिलना हुआ था इस बार की सर्दियां तुम्हारी यादों के अलाव सेंकते हुए कटी मगर आखिर होने तक यादें भी जलकर भस्म बन गई हैं. मौसम के हिसाब से तुमसे कभी मिलना नही रहा मगर तुमसे मिलने का जरुर एक मौसम हमेशा रहा है. मन का क्या है. मन तो रोज ही करता है तुम्हें सामने देखूं मैं मन की नही सुनता हूँ मैं दिमाग की सुनता हूँ जो मुझसे रोज यह कहता है कि दुनिया में हर हासिल चीज की एक कीमत होती है और तुमसे मिलने की भी एक कीमत है. उस कीमत को जानने के बाद मैं अपनी जेब टटोलता हूँ तो वहां कभी न चलनें वाले कुछ सिक्के पड़े हैं मैंने उनका उपयोग यदा-कदा अकेले में टॉस करने के लिए करता हूँ. मैं टॉस में अक्सर तुम्हें हार जाता हूँ और एकदिन मेरी जीत होगी इसलिए मैं कुछ सिक्के इसलिए हमेशा अपनी जेब में रखता हूँ.
इनदिनों मुझे एक खराब आदत यह भी हो गई है कि मैं रात को अकेला गलियों में भटकता हूँ मुझे पता है कि ये रास्तें आपस में भाई है और ये मनुष्य को कहीं नही पहुंचाते हैं फिर भी मैं रास्तों को चकमा देने की एक निष्फल कोशिश करता हूँ इसके लिए मैं जिस रास्तें से जाता हूँ उस रास्तें से लौटता नही हूँ मेरे ऐसी पकड़ में आने वाली चालाकी देखकर आसमान भी हँस देता है. मैं रात को तारें देखकर उनसे मन ही मन एक सवाल पूछता हूँ मगर उन तक मेरी बात चाँद नही पहुँचने देता है. चाँद आसमान का अकेला ऐसा मसखरा है जो सबकी बातें जानता है मगर उन बातों का कहीं जिक्र तलक नही करता इसलिए मेरी कोई बात, मेरा कोई सन्देश कभी तुम्हें नही मिलेगा.
आज भोर में मैंने एक सपना देखा. सपनें में मैंने देखा कि मेरे दोनों कानों में दो झूले पड़ गए है और उन झूलों पर कोई झूल नही रहा है मगर वो जोर-जोर से अपनी पींग भर रहें हैं.उन्हें अकेला पींग भरता देखा मुझे थोडा डर लगा मगर फिर सपनें में ही मुझे किसी ने बताया कि अकेले पींग भरना एक शुभ संकेत है. उसके बाद मैं आँखें बंद करके तुम्हारी हँसी के बारें में सोचकर मुस्कुराने लगा. उसके बाद एक नीरव शान्ति छा गई. मैंने मुस्कुराते हुए आँखें खोली तो सपना टूट गया. आँख खुलने पर मैं देर तक यही सोचता रहा कि वो सपनें कैसे होते होंगे जिनकी टूटने की कोई वजह नही होती होगी मगर फिर भी टूट जाते होंगे? यह सोच कर फिर से मेरा जी उदास हो गया.
अच्छा सुनो ! मैं कई दिनों से यह बात सोचा रहा हूँ कि मैं  कुछ दिनों के लिए खुद को नेपथ्य में रख लूं मुख्यधारा के प्रकाश से मुझे असुविधा होती है. मैं मंचो के सत्कार से ऊब गया हूँ. मेरी अंदर कोई थकन नही है फिर भी मैं विश्राम की कामना में लगभग प्रार्थनारत हूँ.  यह विश्राम हो सकता है अलगाव या पलायन की ध्वनि दे रहा हो मगर वास्तव यह दोनों ही बातें नही है. दरअसल मैं तुम्हें याद करते-करते अब  पुनरुक्ति दोष का शिकार हो गया हूँ मुझे नही पता तुम मुझे कितना,कब और कैसे याद करती हो मगर इतना जरुर पता है कि तुम्हें  जब भी मैं याद आता हूँगा तो कम से कम तुम मेरी तरह खुद से बातें जरुर करनें लगती होंगी.
मेरे पास अब केवल कुछ अनुमान बचें है और अनुमानों के भरोसे तो ज्योतिष में भी कोई भविष्यवाणी नही की जा सकती जबकि उसे अनुमानों का विज्ञान कहा गया है इसलिए मैं अपने अनुमानों को अब विराम देना चाहता हूँ मैं चाहता हूँ कुछ दिन तुमसे तुम्हारे अनुमानों के बारें में बातें सुनूं वो भी इतनी स्पष्ट की अनुमानों को सच करनें के लिए सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अपनी समस्त ऊर्जा लगा दें. कलियुग में जिसे संभवाना का षड्यंत्र कहा गया है मैं उसे घटित होते हुए देखना चाहता हूँ क्योंकि फिलहाल विकल्पों के रोजगार से मैं ऊब चुका हूँ.

‘आधे-अधूरे ख़त’
© डॉ. अजित




Thursday, January 24, 2019

‘चाय और यादें’


आज सुबह चाय पीते वक्त तुम्हारी याद आयी. याद क्या आयी मैं चाय बनाते वक्त एक गीत गुनगुना रहा था उस गीत में नायिका अपने नायक को कहती है कि शायद अब इस जन्म में तुमसे मुलाक़ात हो न हो. तभी चाय पर उबाल आ गया मैंने उबाल को फूंक से नीचे धकेलना चाहता था मगर ठीक उस वक्त मुझे तुम्हारी इतनी गहरी याद आई कि मैंने पेन को बर्नर से उतार दिया. चाय का उफान उतर चुका था मगर मेरे मन में बरबस एक उफान उठ खड़ा हुआ. चाय छानते हुए मैंने सोचा चाय छानते समय तुम्हारी हड़बड़ी क्या अब भी पहले के जैसे होगी? या अब तुमने खुद की साँसों का अनुशासन साध लिया होगा.
सुबह की चाय की घर घूँट पर मैंने तुम्हारी न बदलनें वाली आदतों को बड़ी शिद्दत से याद किया. यादों की एक सबसे खराब बात यह होती है कि ये अपनी सुविधा आती है भले ही हम उसके लिए तैयार हो या न हो. यादें आकर हमें हद दर्जे तक अस्त-व्यस्त करने की जुर्रत रखतीं हैं. आज चाय में थोडा मीठा कम रह गया हालांकि मैं कम मीठी चाय ही पीता हूँ मगर आज उतनी मिठास नही थी जितनी मुझे चाहिए फिर मैंने किसी सिद्ध मान्त्रिक की तरह चाय में फूंक मारते हुए तुम्हारी चंद मीठी बातों को चाय के अंदर फूंक दिया ऐसा करने के लिए मुझे अपनी याददाश्त पर थोड़ा जोर जरुर देना पड़ा क्योंकि तल्खियों की स्मृतियाँ हमेशा अधिक जीवन्त रहती है मगर एक बार तुम्हारी मीठी बातें जब याद आई तो फिर चाय की मिठास खुद ब खुद बढ़ गई. मैंने अपने होंठो पर ज़बान फेरी तो याद आया कि कुछ अक्षर वहां अकेले ठहल रहें थे मैं उनके निर्वासन में हस्तक्षेप का अधिकार खो बैठा हूँ यह सोचकर मेरा जी थोड़ा उदास जरुर हो गया.
इनदिनों मैं चाय के बहाने किसी को भी याद नही करता हूँ मुझे लगता है याद के लिए किसी बहाने की जरूरत नही होती है . बीते कुछ दिनों से मैंने चाय मौन के इर्द-गिर्द और लगभग निर्विचार होकर पी है. अधिकतम मैं यह करता हूँ कि छत पर चला जाता हूँ फिर वहां से शहर को देखता हूँ. रोचक बात यह है कि शहर को देखते हुए मैं केवल शहर को देखता हूँ मुझे गलियाँ और मकान दिखने बंद हो जाते है. कभी लगता है शहर ऊंघ रहा है तो कभी मुझे शहर भागता दिखायी देता है. कुल जमा दो –चार-छह दृश्यों में चाय खत्म हो जाती है.
आज सुबह चाय पीने के बाद मैंने सोचा कि आज तुम्हें फोन करूंगा मगर दिन चढ़ते-चढ़ते यह विचार भी निस्तेज होकर मन के पतनाले से बह गया. मैं देर तक सोचता रहा कि याद आने और बात करने में कोई सह-सम्बन्ध हो है नही इसलिए किसी की याद आने पर उसे क्या फोन करना. हो सकता है मैं तुम्हें उस दिन फोन करूं जिस दिन मुझे तुम्हारी बिलकुल याद न आई हो. फोन शायद एक जरूरत से जुडी क्रिया और यादें किसी जरूरत की मोहताज़ नही हैं.
शाम को तुम्हारी याद मुझे खुद से बेदखल न कर दें इसलिए मैंने तय किया है कि आज शाम कॉफ़ी पियूंगा वो इसलिए क्योंकि कॉफ़ी तुम्हें पसंद थी और मुझे नापसंद. मगर इसका यह मतलब बिलकुल भी नही है कि तुम्हारी यादें मुझे अकेला छोड़ देंगी वो कॉफ़ी के बहाने से भी जरुर आएँगी इस बार फर्क बस इतना होगा वो मुझसे कोई सवाल नही करेंगी और सवालों से बचता-बचाता मैं जीवन के उस दौर में पहुंच गया हूँ जहां अब मुझे एकांत में शराब और भीड़ में चाय दोनों की ही जरूरत महसूस नही होती है. हालांकि यह एक खराब बात है. खराब क्यों हो तुम बेहतर जानती हूँ. हमारी आखिरी चाय इसी बात के कारण आज स्थगित पड़ी है.  

‘चाय और यादें’
© डॉ. अजित