अकेलापन के कितने ही पाठ हो सकते हैं. कोई भीड़ में भी अकेला होता है तो किसी के अकेलेपन पर रश्क हो सकता है. अपने अन्तस् में अकेलेपन के अलग-अलग टापू होते हैं. जो हमें हाथ पकड़कर अपने साथ ले जाते है. दुनिया भर के मनोवैज्ञानिक अकेलेपन को अपने ढंग से परिभाषित करते हैं. दार्शनिक एकांत और अकेलेपन को आत्म जागरण के टूल के तौर पर देखतें है और रचनात्मक लोग अकेलेपन को खुद से मुलाकात के लिए जरूरी समझते हैं.
बुनियादी तौर पर यह सवाल थोड़ा टेढ़ा मगर रोचक है कि मनुष्य को अकेलेपन से डर क्यों लगता है? ऐसा क्या है उसके पास जिसे वो शेयर चाहता है? और क्यों करना चाहता है.
मन के विराट आंगन में एक कोना ऐसा होता है, जहां हम किसी का हाथ पकड़कर घूमना चाहते हैं उसके जरिए अपने अंदर कि वो दुनिया देखना चाहते है जिसे देख पाने की शायद अकेले हमारी हिम्मत नही होती है.
कहना क्यों जरूरी होता है? और उस कहने के लिए एक साथ क्यों अपरिहार्य लगने लगता है? क्यों के जवाब अकेलेपन के सन्दर्भ में जानने की कोशिश करना एक जोखिम भरा काम हो सकता है क्योंकि यहाँ बात खिसक कर मानवीय कमजोरी की तरफ जा सकती है.
खुद के अंदर पसरे एकांत से बिना अभ्यास और तैयारी के मिलनें से गहरा अवसाद जैसा कुछ प्रतीत हो सकता है और बोध के साथ अन्तस् में उतरने में यही अकेलापन उत्सव में भी परिवर्तित हो सकता है. मनुष्य के मन और जीवन को समझने के लिए विश्लेषण प्राय: किसी काम नही आता है. विश्लेषण भ्रम को बढ़ाता है हमें पूर्वाग्रहों से भरता है. जबकि जीवन को देखने के लिए उसे केवल जीना पड़ता है. यहाँ मैं केवल इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि यह केवल हर दौर में एक दुर्लभ घटना के तौर पर उपस्थित रहा है.
सोल मेट एक उत्तर आधुनिक और रोमांटिसिज्म से उपजी अवधारणा है. क्या सोल मेट और मनुष्य के अकेलेपन में कोई सकारात्मक सह-सम्बन्ध हो सकता है? मूलत: मैं इस अवधारणा को अप्राप्यता का मानवीयकरण के तौर पर देखता हूँ शायद खुद की बेचैनियों के जब सही जवाब न मिलें होंगे तो मनुष्य ने उनके जवाब एक अज्ञात सोल मेट के भरोसे हमेशा के लिए स्थगित कर दिए होंगे.
‘अकेलापन एक राग है
एक आधा-अधूरा राग
जिसके आरोह-अवरोह
में जीवन सांस लेता है
और जिसकी बंदिशों पर
सोल मेट रहता है
हमारा मन वो उन छोटी-छोटी
मुरकियों से बना होता है
जो आह और वाह के मद्धम स्वर के साथ
गाई जाती है मन ही मन में.’
‘अकेलापन-अकेलामन’
© डॉ. अजित
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