Tuesday, March 14, 2023

धीमी मौत

 

मैंने खुद को उसके अंदर एक धीमी मौत मरते हुए देखा था।

यह किसी उपन्यास के पात्र का संवाद हो सकता था। मगर यह एक किस्म का निजी यथार्थ था जो इतनी सफाई से और न्यून गति से घटित हुआ था कि जब तक इसका बोध हुआ यह घटित हो चुका था। हालांकि किसी के अंदर खुद को धीमी मौत को आप स्थगित कर सकते हैं मगर यदि यह एक बार शुरू हो जाए तो फिर इसे टाला नहीं जा सकता है।

किसी के गहरे अनुराग,अभिरुचि और सपनों के संसार से निर्वासन मिल जाना सुखद नहीं था।  मगर उसे देखते हुए यह जाना जा सकता था कि सम्बन्धों का भूगोल मनोविज्ञान तय करता है यह विषयगत अतिक्रमण है। मगर किसी के मन जब आपको लेकर दिलचस्पी समाप्त होने लगती है तो सबसे पहले इसकी सूचना मन ही मन को देता है।

दो लोगों की गहरे अपनत्व से भरी यात्रा को यूं यकायक खत्म होना दिखने में एक तात्कालिक बात लग सकती है मगर इसकी भूमिका धीरे-धीरे बहुत पहले लिखी जा चुकी होती है। एक अंधविश्वास से भरा कथन यह भी कहा जा सकता है- 'बाज़ दफा हमें खुद ही खुद की नजर लग जाती है'। यहाँ भी कुछ-कुछ ऐसा समझा जा सकता था।

दरअसल, एक लोकप्रिय बात यह कही जाती है कि दो असंगत लोग लंबे समय तक साथ रह सकते हैं क्योंकि उनका अलग होना एक किस्म की ऊर्जा पैदा करता है मगर मैं इस कथन की प्रमाणिकता से कम ही सहमत हुआ था। मुझे लगता था कि साथ रहने या साथ चलने के लिए साम्य-वैष्मय से इतर एक चीज जरूरी होती है कि हमारे पास कितना धैर्य है। और मैंने धैर्य से चूकने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराए थे। धैर्य से चूकना एक खास किस्म की अनिच्छा या खीज भरता है और मनुष्य को अपने चुनाव पर संदेह होने लगता है। मूलत: मेरा अस्तित्व इसी संदेह के ट्रेप में आकर फंस गया था।

दो व्यस्क लोगों के मध्य असहमतियाँ हमेशा होती हैं और सहमत या असहमत होना मनुष्य का मन:स्थिति सापेक्ष मसला भी है। मगर उसके अंदर मैंने सहमति-असहमति से इतर मुझे लेकर एक महीन निराशा दिखी थी और वो इतनी महीन निराशा थी कि शायद उसे भी वह स्पष्ट नजर नहीं आ रही थी। उसने उसका कोई दूसरा नामकरण किया था जो न सच था न झूठ।

अंतत: मनुष्य के पास कारक-कारण के पैटर्न को समझने के लिए कुछ तर्क तलाशने के अलावा ज्यादा कुछ बचता नहीं है। मैंने थोड़ी देर वह उपक्रम किया और अन्तर्मन ने जब मुखरता यह कहा कि तुम्हारी उड़ान अब रास्ता भूल चुकी है तो उसके पास असीम आकाश को देखने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। मेरे पास आकाश के सौंदर्य को लेकर मुग्धता नहीं थी डरती पर लौटने का भय भी नहीं था। मेरे पास जो था उसे नियति नहीं कहा जा सकता था बस अंदर से ही आवाज़ आती थी आखिरकार एकदिन यह तो होना ही था।

'अधूरे-वृतांत'

©डॉ. अजित

Monday, March 13, 2023

अपात्र

 उसके लिए मैं सुपात्र था

कुछ-कुछ अंशो में शायद मैं था भी। मगर वस्तुतः मैं पात्र-अपात्र के मध्य कहीं किसी बिंदु पर मुद्दत से किसी उपग्रह की भांति टिका हुआ था। मेरे पास मन के संचार केंद्र को भेजने के लिए बड़े धुंधले मानचित्र थे इसलिए उनके भरोसे कोई एक सटीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती थी। 

प्रेम में हीनताबोध नहीं उपजता है हीनताग्रन्थि वाला व्यक्ति कभी प्रेम नहीं कर सकता है मगर मैं स्वतः ही आत्म मूल्यांकन करने लगता और इस पात्र-अपात्र की बाईनरी से खुद को देखता। उस वक्त मेरी घड़ी दो अलग-अलग वक्त बताती और मैं हमेशा गलत समय को सही मानता।

एक क़िरदार के अंदर इतने किरदार गडमड थे कि अक्सर यह लगता कि प्रेम जिस किरदार से मिलने आया था वो हमेशा कहीं दूर अकेला दुबका बैठा हुआ है। आत्मदोष और अन्यमनस्कता इस कदर तारी थी कि अवचेतन में इस बात की गिल्ट रहती कि मेरी व्यवहारगत असमान्यताओं के बावजूद कोई कैसे मुझसे प्रेम कर सकता है? कहीं मैं किसी किस्म की विकल्पहीनता का तो परिणाम नहीं हूँ आदि-आदि।

जब आप वक्त के आगे-पीछे चल रहे होते हैं तो अपने होने को एक कुसमय का सच स्वीकार कर जीने की आदत विकसित करते हैं। प्रेम की कामना रहती है मगर प्रेम में चोटिल होने का डर भी सतत बना रहता है। किसी भी किस्म का गहरा अनुराग या केयर समानांतर काम्य और अकाम्य बनी रहती है क्योंकि आपको पता होता है कि आप प्रतिदान के मामले में लगभग शून्य है। आपके हिस्से का प्रेम आपका वक्त कब का चट कर चुका है।

मैं सुपात्र नहीं था मगर कुपात्र भी न था हाँ मैं अपात्र जरूर था। जब-जब उसका दिल मेरे कारण दुखा मेरे इस अपात्र होने की पुष्टि होती गई और यह मलाल बढ़ता गया कि मैं क्यों किसी के जीवन में मानसिक कष्ट का निमित्त बना हूँ। और मैं किसी मांत्रिक की भांति उसके जीवन में एक आदर्श काल्पनिक प्रेमी का आह्वाहन करने लगता यह बात तकलीफ देती थी मगर मैं यह करता था।

दरअसल, खुद को अपात्र समझना या बताना उस तात्कालिक गिल्ट से उबरने का एक जतन भर था जिसके चलते मुझे अक्सर यह लगता कि मेरे साथ कोई खुश नहीं रह सकता है। मै अपनी छाया और दुःख के संक्रमण से उसे बचाना चाहता था कम से कम यह बात जरूर प्रेम के पक्ष में जाती थी। 

उसके लिए मैं सुपात्र था इस कथन में दोष हो सकता है मगर वह मेरे लिए पात्र-सुपात्र से इतर एक अनिवार्य ईश्वरीय हस्तक्षेप की तरह थी जिसके कारण मैं यह जान पाया कि खुद से प्रेम करने की आदत को एक अतिरिक्त योग्यता की तरह देखना बन्द करना चाहिए। उसके कारण मुझे पहली दफा यह अहसास हुआ कि मैं प्रेम में जो जवाबदेही महसूसता हूँ वह इतनी ईमानदार जरूर है कि मैं आईने में खुद की पीठ देख सकता था जिस पर पलायन नहीं लिखा था।


©डॉ. अजित

Saturday, March 11, 2023

मस्टर्ड कलर

 उसके पास एक मस्टर्ड कलर का शॉल था।


उस शॉल को वो गले में लपेटे रखती थी। वस्त्र विन्यास के जानकार लोग उसे शॉल की बजाए स्टॉल भी कह सकते हैं मगर मैं उसे शॉल की कहता हूँ। मैं उसे देख पीले और मस्टर्ड कलर में भेद करने लगता था। जिनकी ज़िन्दगी एकरंगी रही हो उनके लिए रंगों में अंतर करना मुश्किल काम होता है। पहली दफा मुझे यह भेद समझ आया और मस्टर्ड कलर मुझे पीले से अधिक आकर्षक लगने लगा। इस आकर्षक लगने में रंग का नहीं उसका अधिक योगदान था।

उस शॉल पर कहीं-कहीं हल्के रुएँ भी दिखते थे शायद उसे बेतरतीबी में ओढ़ने के कारण उभर आए थे मगर उस शॉल की खूबसूरती में इससे लेशमात्र भी कमी न आई थी। उसकी अपनी एक मौलिक गंध थी जिसे मैं मीलों दूर बैठा भी आसानी से महसूस कर सकता था। 

बसंत का रंग पीला कहा जाता है मगर वो मस्टर्ड कलर मन में सर्दी में बसंत ले आता था उसकी गर्माहट मन की सतह पर जमीं शंकाओं की बर्फ को पिघला देती थी। उसे देखकर मैं मानवीय हस्तक्षेप की जुगत से चूक जाता था अक्सर क्योंकि उसे देखना एक सम्पूर्ण सुख था।उसे निर्बाध देखते हुए यह सुख अक्सर महसूस किया जा सकता था।

उसने बताया कि यह शॉल उसे बहुत पसन्द है क्योंकि यह उसकी माँ लाई थी। बाज दफा वस्तुओं से अधिक हमें वस्तुओं के संदर्भ उससे बांधने में मददगार होते थे यह बात कमोबेश मनुष्य पर लागू की जा सकती है। उस शॉल का अपना एक दिव्य ऑरा था जो उसके अभौतिक सौन्दर्य में विलक्षण इजाफा करता था। उसे उसके गले के इर्द-गिर्द लिपटा देख यह साफ तौर पर एक गहरा अपनत्वबोध देखा जा सकता था।

जिन तस्वीरों में वो मस्टर्ड कलर का शॉल था मैं उन तस्वीरों को देख मन के अलग-अलग भाष्य करता जोकि लौकिक और अलौकिक के साम्य बिंदु पर स्थिर नहीं हो पाते थे। उस शॉल के साथ जो हँसी मैं पढ़ पाता वह मुझे उस दुर्लभ पहाड़ी वनस्पति की याद दिलाती जिसका नामकरण अभी वनस्पति विज्ञानी नहीं कर पाए हैं। उस शॉल पर चिपके उसके एकाध सर के बाल मुझे जीवन की नश्वरता और जीवन के अनुराग का पाठ सिखाते थे। 

उसे ओढ़ते समय उसकी बेफिक्री यह बताती कि खुश होने के लिए कारण की नहीं एक लम्हे की जरूरत होती है।

दरअसल वो मस्टर्ड कलर का शॉल महज एक सवा दो

 मीटर का कपड़ा नहीं था बल्कि वो रिश्ते की गर्माहट का बेहद आत्मीय दस्तावेज़ था जिसे मैं उसकी अनुपस्थिति में आंख मूंदकर अक्सर पढ़ा करता था। उसके जरिए उससे मैं वो बातें कर पाता जो वो जानती तो थी मगर मेरे मुंह से सुनने की कामना रखती थी। 

मस्टर्ड कलर से बैराग की ध्वनि भी आती है एक ऐसा ही बैराग उससे मेरा जुड़ गया था जो विज्ञापन की तरह कहता था कि दूरियों का मतलब फासले नहीं होते। 

वो मस्टर्ड कलर का शॉल एक दरवाजा था जिसके दोनों तरफ सांकल लगी थी मगर मैं दोनों तरफ से उसे खोलने का कौशल जानता था।


©डॉ. अजित

Thursday, March 9, 2023

यात्रा

 एक सुरंग है। अंधी सुरंग। उसमे दाखिल होते वक्त कोई कौतूहल नहीं था। विकल्पहीनता भी न थी। एक सम्मोहन कहा जा सकता है जो अनायास घटित हुआ था। और मैं उसमे लगभग उत्साह के साथ के दाखिल हुआ। लगभग इसलिए क्योंकि बीच रास्ते में एक दफा ख्याल आया कि यदि यह सुंरग कहीं भी न खुली तो? क्या मैं वापस लौट सकूंगा। शायद नहीं। 

प्रेम के अनुभव कहने के लिए प्रतीकों का सहारा लेना पुरानी रवायत है। ऐसा क्यों है? शायद इसलिए कि एक समय के बाद प्रेम हमें रूपांतरित कर देता है और हम अपने नए रूप के साथ तादात्म्य स्थापित करने में थोड़ी असहजता भी महसूस करते हैं।

जिस रास्ते पर चलते हुए आपका खोना तय हो और जिस पर आपके पदचिन्ह के निशान किसी दूसरे के लिए मार्कर न बनते हो उसे रास्ते पर चलते जाना एक दिलचस्प चीज है। बाज दफा इस बात का इल्हाम हमें होता है कि उस पार पीड़ा है,संत्रास है,वेदना है मगर वर्तमान के अनुराग का लोभ हमारे कदमों की ऊर्जा बन हमें उस तरफ ले जाने का काम करता है।

सबकुछ जानते हुए भी खुद को एक संभावित पराजय या दुर्भिति के लिए खुद को मनोवैज्ञानिक तौर पर तैयार करने की जुगत बनाते जाना उस यात्रा का अनिवार्य हिस्सा थी।पहले लगता था कि मेरे पास औचित्य और बुद्धि का अद्भुत संस्करण मौजद है जिसके बल पर मैं यह तय कर सकता हूँ कि मुझे कितना संलिप्त होना है और कितना निरपेक्ष रहना है मगर वस्तुतः यह एक कोरा भरम था। एक समय के बाद हम केवल साक्षी हो सकते है प्रवाह के समक्ष बहने के अलावा दूसरा रास्ता नहीं होता है।

किसी पहाड़ी गदेरे की फिसलन में फिसलने जैसा एक अनुभव हुआ और अपनी मान्यताओं की उबड़ खाबड़ घाटियों से फिसलता हुआ मैं एक अनजान गंतव्य की और तेजी से बढ़ रहा था। मेरे कंधे भले ही जिम्मेदारियों से चोटिल थे मगर रास्ते के पत्थरों के एकांत से मैंने कुछ हौसला उधार लिया था। कुछ जंगली वनस्पतियों ने मेरी चोटों का उपचार किया मगर उनकी गन्ध ने मुझे बताया कि मैं जिस रास्ते पर पर बहता हुआ जा रहा हूँ वह उस मुहाने पर खत्म होता है जिसके बाद रास्ते नहीं है।

मनुष्य ऐसा जानबूझकर क्यों करता है? यह सामान्य ज्ञान का प्रश्न हो सकता है मगर इसका उत्तर जीवन के अनुभव से नहीं मिलता है। वो एक गन्ध,एक पुकार या एक अज्ञात की स्वरलहरी होती है जिसके कारण हम अपरिहार्य रूप से घटित होने वाले दर्द को भूलकर उस अज्ञात के मोहपाश में बंध जाते हैं और उस दिशा की तरफ बढ़ने लगते हैं जहां रास्ते में वह एक सुरंग हमारा इंतज़ार कर रही होती है।

प्रेम या अनुराग की आंतरिक दुनिया जितनी जीवंत और वैविध्यपूर्ण होती है उतनी ही बाहर की दुनिया में उसका एक असम्भव मिलान उपस्थित होती है।हम दृष्टा और साक्षी होते है और उस दर्द के गवाह को हमारा इंतज़ार पहले दिन से कर रहा होता है, शायद तभी शायर 

वामिक़ जौनपुरी ने यह शे'र कहा था-

'जहां चोट खाना, वहीं मुस्कुराना

मगर इस अदा से कि रो दे जमाना

©डॉ. अजित