Saturday, March 11, 2023

मस्टर्ड कलर

 उसके पास एक मस्टर्ड कलर का शॉल था।


उस शॉल को वो गले में लपेटे रखती थी। वस्त्र विन्यास के जानकार लोग उसे शॉल की बजाए स्टॉल भी कह सकते हैं मगर मैं उसे शॉल की कहता हूँ। मैं उसे देख पीले और मस्टर्ड कलर में भेद करने लगता था। जिनकी ज़िन्दगी एकरंगी रही हो उनके लिए रंगों में अंतर करना मुश्किल काम होता है। पहली दफा मुझे यह भेद समझ आया और मस्टर्ड कलर मुझे पीले से अधिक आकर्षक लगने लगा। इस आकर्षक लगने में रंग का नहीं उसका अधिक योगदान था।

उस शॉल पर कहीं-कहीं हल्के रुएँ भी दिखते थे शायद उसे बेतरतीबी में ओढ़ने के कारण उभर आए थे मगर उस शॉल की खूबसूरती में इससे लेशमात्र भी कमी न आई थी। उसकी अपनी एक मौलिक गंध थी जिसे मैं मीलों दूर बैठा भी आसानी से महसूस कर सकता था। 

बसंत का रंग पीला कहा जाता है मगर वो मस्टर्ड कलर मन में सर्दी में बसंत ले आता था उसकी गर्माहट मन की सतह पर जमीं शंकाओं की बर्फ को पिघला देती थी। उसे देखकर मैं मानवीय हस्तक्षेप की जुगत से चूक जाता था अक्सर क्योंकि उसे देखना एक सम्पूर्ण सुख था।उसे निर्बाध देखते हुए यह सुख अक्सर महसूस किया जा सकता था।

उसने बताया कि यह शॉल उसे बहुत पसन्द है क्योंकि यह उसकी माँ लाई थी। बाज दफा वस्तुओं से अधिक हमें वस्तुओं के संदर्भ उससे बांधने में मददगार होते थे यह बात कमोबेश मनुष्य पर लागू की जा सकती है। उस शॉल का अपना एक दिव्य ऑरा था जो उसके अभौतिक सौन्दर्य में विलक्षण इजाफा करता था। उसे उसके गले के इर्द-गिर्द लिपटा देख यह साफ तौर पर एक गहरा अपनत्वबोध देखा जा सकता था।

जिन तस्वीरों में वो मस्टर्ड कलर का शॉल था मैं उन तस्वीरों को देख मन के अलग-अलग भाष्य करता जोकि लौकिक और अलौकिक के साम्य बिंदु पर स्थिर नहीं हो पाते थे। उस शॉल के साथ जो हँसी मैं पढ़ पाता वह मुझे उस दुर्लभ पहाड़ी वनस्पति की याद दिलाती जिसका नामकरण अभी वनस्पति विज्ञानी नहीं कर पाए हैं। उस शॉल पर चिपके उसके एकाध सर के बाल मुझे जीवन की नश्वरता और जीवन के अनुराग का पाठ सिखाते थे। 

उसे ओढ़ते समय उसकी बेफिक्री यह बताती कि खुश होने के लिए कारण की नहीं एक लम्हे की जरूरत होती है।

दरअसल वो मस्टर्ड कलर का शॉल महज एक सवा दो

 मीटर का कपड़ा नहीं था बल्कि वो रिश्ते की गर्माहट का बेहद आत्मीय दस्तावेज़ था जिसे मैं उसकी अनुपस्थिति में आंख मूंदकर अक्सर पढ़ा करता था। उसके जरिए उससे मैं वो बातें कर पाता जो वो जानती तो थी मगर मेरे मुंह से सुनने की कामना रखती थी। 

मस्टर्ड कलर से बैराग की ध्वनि भी आती है एक ऐसा ही बैराग उससे मेरा जुड़ गया था जो विज्ञापन की तरह कहता था कि दूरियों का मतलब फासले नहीं होते। 

वो मस्टर्ड कलर का शॉल एक दरवाजा था जिसके दोनों तरफ सांकल लगी थी मगर मैं दोनों तरफ से उसे खोलने का कौशल जानता था।


©डॉ. अजित

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