Wednesday, February 25, 2015

बारिश

रात के बारह बजे के बाद से बारिश है।सुबह जगा तो लगा आज की सुबह कुछ जानी पहचानी सी है। जिनकी रुह पर छाले और पलकों पर जाले लगे होते है उनको बारिश महज़ मौसम का बदलना नही लगता।बल्कि इसकी महीन बूंदो के जरिए वो खुद को रफू करना चाहते है। बारिशों के लगाये पैबन्द अगली बारिश तक रुह से चिपके रहेंगे इसकी भले ही कोई गारंटी न हो मगर खुद की बैचेनियों की आग से झुलसते मन को बेशक ये बूंदे थोडा सुकून तो देती ही है।

एक बारिश खुद के अंदर रोज़ होती है मगर उसका गीलापन दिखता नही है क्योंकि दिल की धरती बेरुखी की गर्मी से इतनी तपती है कि आंसू भांप बन उड जाते है। बातचीत में मेरी पलकों पर जो नमी दिखाई देती है वो दरअसल इसी भांप की नमी है।

सुबह से कुछ किताबें तलाश रहा हूं जो पढी जा चुकी है। जब-जब बारिश होती है मुझे पुरानी किताबें याद आने लगती है और उनको दोबारा पलटना शुरु कर देता हूं। उसमें कुछ अंडरलाईन की गई ख्वाहिशें होती है जिन्हें वक्त के दबाव के चलते तब बचा लेता हूं ऐसी बारिशों के लिए। क्योंकि बारिश मे अक्सर यह महसूस कर पाता हूं कि किसी कहानी कविता या उपन्यास का लेखक कितना मेरे जैसा है और किताब में तुम कहां कहां बैठी हो। आज सुबह से कविता की वह किताब नही मिली जिसकी हर कविता में तुम्हें पाया था जैसे अक्षरों पर तुम्हारी मुस्कान सजी हो व्याकरण में तुम्हारा जीवन हो और पूर्ण विराम में तुम्हारी आश्वस्ति सांस लेती हो।

किताब न मिलनें पर थोडी देर अनमना रहा है आंखे बंद किए बूंदों की आहूतियां सुनता रहा धरती की दरारों में उनका समाना खुद से खुद का मिलने जैसा है। बूंदों के संगीत को सुनने के लिए चेहरे पर टंगे कान किसी काम नही आते इसके लिए दिल से दरख्वास्त करता हूं कि वो थोडी देर के लिए उसके साथ हुई ज्यादतियों को भूल जाए और दिल मान भी जाता है। तुम्हारें कंगन के बीच फंसी चार चूडियों की खनखन से पहला सुर उभरता है और मंद मंद धडकनों में छिपे छंद को आरोह अवरोह के जरिए ताल से साधता हूं फिर बूंदो का एक समूह ताल की थाप बन जाता है बीच बीच में तुम्हारी नई जूतियों का कोरस सुनाई देता है और पायल फिलर की तरह बूंदो के इस नाद में शामिल हो जाती है। ये संगीत दरअसल मन के अधूरे रागों का संगीत है इसलिए मेरी अधूरी जिन्दगी में बारिशों के जरिए बार बार मन को गीला करता है।

आंखे बंद किए मै बूंदों की चुगलियां सुनता हूं जो वें आपस में मेरे बारें मे करती है। बादलों की दुनिया में मेरी आवारागर्दी के किस्से अफवाहों की शक्ल में घूमते है। कुछ बदमाश बादल मेरी बर्बाद किस्म की जिन्दगी को देखने के लिए अपना भार भूल धरती के बेहद नजदीक चले आते है उसके बाद बरसना उनकी मजबूरी होती है। बारिश होने की साजिश में मौसम के अलावा मेरी भी इतनी भूमिका है यह बात कभी कोई मौसमविज्ञानी नही बताएगा।

पिछले एक घंटे से ‘दिल तो पागल है’ और ‘सर’ फिल्म के गाने रिपीट करके सुन रहा हूं ये एक अजीब सा पागलपन है जो बारिश होने पर मुझ पर हावी होता चला जाता है। खिडकी ठीक मेरे बिस्तर के पास है बारिशों में अपना वजूद खो बैठी ठंडी हवा मेरी गाल को छूकर कहती है नही सर्द गर्म तो नही है। मै मुस्कुराता हूं और बारिश को देखता हूं कुछ बूंदे मुझे यूं देखकर शरमा भी जाती है फिर खिडकी से बमुश्किल अपना हाथ बाहर करता हूं मेरी हथेलियों पर दरअसल मेरी गुस्ताखियों के किस्से सीमेंट की तरह पुते है बारिश की नन्ही बूंदे अपनी मद्धम चोट से मेरा हाथ धोना चाहती है मै हथेली नीचे कर देता हूं मेरे हाथ से रिसती बूंदे शायद मेरी इस चालाकी पर हंसती है क्योंकि जमीन पर गिरते वक्त उनकी आंखे चमकती देखता हूं।

अब जब बारिश थम गई है मेरे कानों में अभी भी बूंदों की आवाज़ गूंज रही है ये ठीक तुम्हारी मुस्कान और हंसी के बीच के जैसी है जिसके लिए मेरे पास शब्द नही है। अक्सर बारिश को सुनते हुए तुम्हें याद करता हूं मेरे शब्द खो गये है कहीं इसलिए फिलहाल बूंदों के संगीत से नई वर्णमाला सीख रहा हूं एक दिन इसके नोट्स भेजूंगा तुम्हें फिर तुम भी अपने हिस्से की बारिश को सुन सकोगी ठीक मेरी तरह।


‘बारिश का कोरस’

Friday, February 20, 2015

शाम

जाना तो तुम्हारा पहले दिन से ही तय था। यकायक चली जाती तो इतना कष्ट इतना संताप न होता। तुम इतनी आहिस्ता आहिस्ता नजरों से ओझल हुई कि उन लम्हों को सोचकर अक्सर शाम को जी बहुत बोझिल हो जाता है। तुम्हारा मिलना और मिलकर बिछड़ना महज एक किस्सा नही है जिसे किसी गहरे दोस्त के साथ शेयर करके जी को हलका किया जा सकें। ये एक मुसलसल हादसा है जिसकी टीस शायद कुछ छटांक भर बोझ दिल की नाजुक दीवारों पर ताउम्र चढ़ाती जाएगी।
कितना ही मतलबी होकर क्यों न सोच लूं मेरी सोच की धमनियों में तुम्हारी धड़कन का कम्पन स्पंदित होता ही रहता है। अफ़सोस यह भी है तुम्हारे मन को पढ़ पाने और उसमें मेरे लिए असमान वृत्तियों को देख पाने के बाद भी मै खुद के अनुराग की गति को नियंत्रित न कर सका। तुम्हें किस्तों में खोता गया और खुद को ये सांत्वना देता रहा शायद पहला रास्ता अंतिम रास्ते से मिल जाएगा और तुम लौट कर वहीं आओगी जहां कभी एक कौतुहल की कातर दृष्टि से मुझसे मिली थी।
अज्ञात और अप्राप्यता के बन्धन अपेक्षाकृत ज्यादा गहरे रहें होंगे जो तुम्हें मुझ तक लाए थे परन्तु जिस प्रकार से तुम्हारी चेतना और सम्वेदना में मेरे अक्स का अधोपतन हुआ वह मेरे लिए भी कई अर्थों में अनापेक्षित है।
कुछ अनकहे किस्सों की दास्तान को चुपचाप शून्य में पढ़ता हूँ तब तुम्हारी गति को नाप पाता हूँ एकांत की एकलव्य साधना के बीच भी मेरी निष्ठा उतना असर नही बना पाई कि तुम्हारी सिद्ध मान्यताओं में दशमलव में भी हस्तक्षेप कर सकूं।
फिलहाल तो बेवजह के तर्क मेरे म्यान में पड़े है उनकी व्याखाएं अब दर्शन और मनोविज्ञान दोनों से परित्यक्त है उन्हें नितांत ही मेरी कमजोरी समझा जा सकता है। सोच और अर्जित अनुभव के बीच जब अपवाद की स्याही सूख जाती है तब उस कलम को तोड़ देना ही श्रेयस्कर होता है और तुम्हारे लिए क्या श्रेयस्कर है यह निर्धारित करने का मुझे कोई अधिकार भी नही है।
लोक कयासों में तुम्हारी उपस्थिति शनैः शनै: विस्मृत हो जाएगी शायद सन्दर्भों के अंतिम पृष्ट पर भी मेरा कोई धूमिल जिक्र न हो परन्तु मेरे लिए तुम्हें ज्ञात अज्ञात के मध्य एक सुखद स्मृति के रूप में खुद को संपादित करने के गाहे बगाहे प्रयास हुआ करेंगे और इन्ही प्रयासों की छाँव में जब मै सुस्ताने के लिए बैठूंगा तब मन के वातायन में तुम्हारे कद की धूप जरूर में हृदय की विकल घाटियो में उतरा करेगी। यह मन की एक ऐसी प्राकृतिक घटना है जिस पर मेरा बस शायद कभी नही चलेगा।
कमजोर और मजबूर इंसान न तुम्हें तब पसन्द थे और न अब होंगे तुम्हारी यह सूक्ति वर्तमान में मेरे लिए सबसे बड़ी युक्ति है जिसके सहारे साँझ होने से पहले अपना सामान इकट्ठा कर रहा हूँ ताकि उस दिशा में निकला जा सके जहां सूरज देर से उगता है।


'शाम के काम'

Thursday, February 19, 2015

पर्स पुराण

अमूमन पर्स शब्द महिलाओं से जुड़ा शब्द है। पुरुषों में हम देहातीजन इसे बटुआ कहते है और अभिजात्य वर्ग के लोगो को वैलेट भी कहते सुना है। बहरहाल, मुझे खुद के बटुए को पर्स कहने की ही आदत है और कहने की नही अपने स्कूल के दिनों से ही पर्स रखने की आदत है। पर्स दरअसल एक किस्म की आश्वस्ति का प्रतीक भी है कि आपके पास मुद्राराक्षक को कैद करने का एक चमड़े का लिफाफा है। मेरे पर्स में सिक्कों को रखने की एक छोटी सी जगह है उसमें वैष्णों देवी से प्रसाद के साथ मिला एक मूर्ति वाला छोटा सिक्का है जिसे इस उम्मीद पर रखा गया है कि बुरी से बुरी हालत में भी वो अपनी तरफ कम से कम सिक्को को तो खींचता ही रहेगा और इस टोटके में इतनी सच्चाई है भी मेरा पर्स भले ही नोटविहीन हो गया हूँ लेकिन कभी सिक्काविहीन नही हुआ है। पिछले दो साल से मेरे पास एक ही पर्स है मेरे वजन के दबाव में उसके प्योर लेदर की बाह्य त्वचा बदरंग हो गई है। धन के मामलें में मेरे झूठ सच के वाग विलास का जितना बड़ा साक्षी मेरा फोन रहा है ठीक उतना ही बड़ा मेरे अच्छे बुरे दिनों का साथी यह मेरा पर्स भी है। कभी कभी सोचता हूँ तो पर्स एक नश्वर काया लगने लगती है जो मेरे साथ जीती है और जब उसकी आयु पूर्ण होती है अपने हिस्से की जमापूंजी आगे हस्तांतरित कर देह से मुक्ति पा लेती है। इसलिए पर्स की देह बदलती है आत्मा नही। मेरे दो एटीएम कार्ड और एक एक्सपायर्ड आई डी कार्ड इस पर्स की स्थाई धरोहर है। एक मेरा अतीत बताता है और दूसरें में मेरा भविष्य छिपा है। पर्स की अलग अलग जेब में कुछ न कुछ मैंने भरा हुआ है हर छटे छमाही जब मै कुछ अनमना होता हूँ और पर्स भारी लगने लगता है तब मैं इसकी सफाई करता हूँ। वैसे तो अपरिग्रही हूँ मगर तब पता लगता है कि क्या क्या चीजें मै बेवजह ढोता रहता हूँ अक्सर मुझे एटीएम के मिनी स्टेटमेंट, किरयाने का बिल, बच्चों के फीस की रसीद और अलग अलग जगह पैसे जमा करने की रसीदें पर्स में पड़ी मिलती है मतलब धन देकर भी धन की असुरक्षा से मुक्ति का कोई रास्ता नही मिलता है।
कुछ अनजान लोगो के विजिटिंग कार्ड भी लगभग साल भर तक मेरे पर्स में यूं ही बेवजह यात्रा करते है न मै उन्हें देख कभी उनसे बात करता हूँ न कहीं किसी से मिलनें जाता हूँ एक दिन उनको फाड़कर कूड़ा जरूर बना देता हूँ।
जितना बड़ा मेरे पर्स का पेट है उसको अपेक्षाकृत उससे कम ही मुद्रा के ग्रहण करने का अभ्यास है इसलिए अब वो मेरी तरह संतोषी हो गया है। इस उम्र में पर्स को डिमांडिंग होना चाहिए जबकि वो एकदम विरक्त भाव से मेरी जेब में पड़ा रहना चाहता है शायद उसे भी मेरी आदत हो गई है। आज जब मैंने अपने पर्स की पड़ताल की तो उसमें रसीदी टिकिट टेलर का कपड़े की कत्तर लगा एक बिल, एक अखबार के क्लासीफाइड की कतरन और मेरे और बच्चों के कुछ फोटो भी मिलें पर्स की एक जेब में एचडीएफसी बैंक में जमा की गई ईएमआई की 9 स्लिप भी मिली जबकि ये कर्जा कब का उतर गया मै अब भी प्रमाण लिए घूम रहा था मैंने उनके उतने टुकड़े किए जितने कर सकता था और यकीनन ऐसा करना मुझे सुखप्रद लगा।
ऐसा कई दफा हुआ मेरे साथ यह पर्स बारिश में भीगा मगर इसनें अपनी वफादारी की हद तक मेरी जमापूंजी की रक्षा की इसी वजह से इसकी अंदर से चर्म काया अब काली और बदरंग हो गई है मगर मुझे यह खूबसूरत दिखती है इससे वफ़ादारी की खुशबू आती है। मेरा पर्स मेरी आर्थिकी का सच्चा गवाह है और सबसे बड़ी बात साक्षी भाव में रहता है कभी किसी से कोई चुगली नही करता है ना शिकायत करता है। हाँ जब मैं इसको एक पखवाड़े तक खोलता नही हूँ और ऐसे ही बेतरतीब अलमारी में पटक देता हूँ तब इसे जरूर हीनता का बोध होता है इस निर्जीव की प्रार्थना की शक्ति से मुझे शायद धन मिलता है और मै उसे पर्स को सौंप कर फिर इसे जेब में डाल लेता हूँ।
इस पर्स को मेरी दिलदारी पर फख्र है तो मेरे अनियोजन से ये चिंतातुर भी रहता है ऐसा कभी कभी मुझे महसूस होता है ये कभी कभी जीरो बैलेंस के एटीएम को दुत्कारता होगा कि कमबख़्तो क्यों बोझ बढ़ा रहे हो मेरा जब तुम अयोजविहीन हो गए हो ! वो बेचारे मेरी काहिली का किस्सा सुनाकर पर्स में आश्रय पातें है इसका मुझे बोध है।
बहरहाल आज पर्स का अनावश्यक बोझ हलका किया तो इसी बहाने पर्स से बातचीत भी हो गई अब इसमें एक गांधी जी का चित्र कुछ सिक्के, जिन दवाईयों से मुझे एलर्जी है उनकी लिस्ट,कुछ शेर, इमरजेंसी कांटेक्ट की डिटेल्स और एक लिस्ट उन मित्रों की जिनसे मैंने उधार लिया हुआ है धनराशि के उल्लेख के साथ रख छोड़ी है ताकि सनद रहे और वक्त बेवक्त पर काम आ सके।

'मै और मेरा पर्स'

Tuesday, February 17, 2015

शिव पार्वती सम्वाद

शिव:
पार्वती ! तुम अनन्य होकर भी चैतन्य हो तुम्हारे राग मन के नही है तुम्हारे प्रश्न चेतना के प्रश्न है जिनके सम्भावित उत्तर तुम जानती हो परन्तु मेरे मत से उनकी पुष्टि करवा कर तुम मुझे आदर देती हो साथ ही समानांतर मेरी परीक्षा भी लेती रहती हो। तुम्हारा बोध कतिपय मुझसे गहरा है इसलिए तुम प्रश्नों से उत्तर और उत्तरों से प्रश्न विकसित कर लेती हो। तुम अस्तित्व की वह रागिनी हो जो मेरे अवधूत नाद की तलहटी में बसती है।तुम्हारे बिना मेरे कथन उतने ही अधूरे है जितनी बिना देह के आत्मा। तुम प्रज्ञा के साथ चित्त की दशा को क्षणिक रूप से विभक्त करके मन को सांत्वना नही देती बल्कि मन को स्थिर प्रज्ञ होने का अभ्यास कराना तुम्हारी सिद्ध साधना में शामिल है। अनन्त तक मेरा विस्तार तुम्हारी ही यात्रा का विस्तार है तुम प्रकृति स्वरूपा सृष्टि के आधार पर निवास करने वाला मेरा ही प्रतिबिम्ब हो। जिसे समझ पाना ज्ञानी और अज्ञानी दोनों के लिए दुर्लभ है।

पार्वती:
हे ! अवधूत आप रहस्य रचतें है मैं रहस्य देखती और समझती हूँ आपसे माया को कीलित करना मैनें गुप्त रूप से सीख लिया है। आप जितने भोले दिखते है वास्तव उतने ही आप गहरें है। आपकी देह से निष्पादित ऊर्जा भी मेरे लिए अंधकार में प्रकाश का कार्य करती है। देवत्व से परे मेरे लिए आप गूढ़ दर्शन की टीकाएं है जिन्हें मै समझती हूँ और आप पर सन्देह करती हूँ। मेरा सन्देह ज्ञान का केंद्र है और अपने अस्तित्व को स्वयं के बल से परिष्कृत करने का एक आधार भी। जब आप कारक, कर्ता और कर्म से मुक्त हो मुझे निर्मुक्त चेतना के रूप में स्वीकार करते है तब मेरा चित्त अहंकार से नही बल्कि उस गरिमा से भरता है जो आपके सानिध्य से शनै: शनैः मुझे हासिल हुई है।
दो देह एक चित्त दो चेतनाओं के समन्वय के लिए शक्ति शिव से जुड़ती है मगर देवत्व और पुरूषत्व से इतर जब आप अनादि रूप में होते है तब मेरे लिए सर्वाधिक प्रिय ग्राह्य और समादृत होते है। मेरा आह्लाद नदी की कलकल में,भोर के अनहद नाद में शामिल है  जिसे मन के एकांत में सुना जा सकता है। आपकी व्याप्ति अनंत तक है मै आपकी यात्रा एक अंग अवश्य हूँ परन्तु मेरी अपनी एक गति लय और यात्रा है शायद इसी वजह से आपसे प्रत्यक्ष भेंट यदाकदा हो पाती है। आपका एक विस्तार मै हूँ और मेरा विस्तार आपने अपने रहस्य से अनन्त तक कर दिया है।


शिवरात्रि पर शिव-पार्वती संवाद
माध्यम: मैं (जो है भी और नही भी)

Monday, February 16, 2015

कॉमन कोल्ड

गलें में खराश है और आंखें तरी से बोझल। तबीयत नासाज़ जब होती है तो इतने चुपके से होती है कि जिस्म कब हथियार डाल देता है पता ही नही चलता है। खुद की गर्म सांसे डाकिए की तरह रूह के खत मुझ तक पहूंचा कर जल्दी में आगे बढ़ जाती हैं। उन्हें बांचता हूँ इन खतों की स्याही धीरे धीरे रंग छोड़ती है और लफ्ज़ लफ्ज़ घुल कर बह जातें है शायद मेरी आँखों की नमी भांप बन उड़ इनकी लिखावट को जल्दी से मिटा देना चाहती हैं। थोड़ी देर के लिए आँखें बंद करता हूँ और पलकों को गले मिलता देखता हूँ पलकों के छज्जे पर तुम्हारी यादें पैर लटकाएं बैठी है जैसे ही आँखें बंद होती है वो आँखों के समन्दर में डूब खुदकुशी करना चाहती है तभी ताप की बैचेनियों में मै बड़बड़ा कर आँखें खोल देता हूँ फिर एक कतरा आंसू ढलक कर कान तक जाता है उसकी आहट की महीन ध्वनि कान सुन लेता है और दिमाग को दिल की गुस्ताखियों के किस्से अपने कूट संकेत में भेज कर संतुलन साधने की अपनी वफादारी जताता है इससे पहले दिमाग तुम्हें मतलबी बताए  मैं करवट बदल लेता हूँ।
मेरा बार बार करवट बदलना ये कमरा बड़ी देर से देख रहा है उसकी चारों दीवार आपस में कयासों की चुगली कर रही है बस छत, खिड़की और दरवाज़ा मुझसे कोई सवाल नही करना चाहता कंक्रीट के इस षडयंत्रीय माहौल में ये तीनों मेरे सच्चे पैरोकार है।
धीरे-धीरे खांसता हूँ गला कराहता जिस्म सिकुड़ता है फिलहाल इतना भी बीमार नही हूँ जितना लग रहा हूँ ये जाती हुई सर्दी की एक बेवजह की शरारत है कल उसे लगा कि भरी सर्दी में तुम्हारी यादों और ख्यालों ने मुझे
इतना गर्म रखा कि मुझे एक छींक तक नही आई। इसलिए कल जब मै थोड़ी देर के लिए तुमसे विलग हुआ ईश्वर को याद कर रहा था तब इस सर्दी ने एक छोटा हमला मुझ पर कर दिया रात भर ख़्वाबों में तुमसे गुफ़्तगु के बाद सुबह मुझे इसकी खबर मिली। ईश्वर मुझे इसलिए भी कमजोर लगता है ये मुझे कमजोर देखना चाहता है अक्सर जब जब उसको याद करता हूँ एक नई चुनौति मुझे थमा देता है हालांकि मुझे जब तुमसे ही अब कोई शिकायत नही तो भला ईश्वर से क्या शिकायत होगी।
तुम अक्सर कहती हो तुम्हारे अंदर ईगो बहुत है तुम्हारी नाक बड़ी है मगर दिल छोटा है।दरअसल शायद तुम ठीक ही कहती हो मेरा दिल सच में इतना छोटा है कि तुम्हारे आने के बाद वहां मेरे जाने की भी गुंजाईश नही बचती है मेरी नाक जरूर बड़ी है मगर वो अपने हिस्से का एकांत को ढ़ो कर बड़ी हुई है इसलिए वो कभी किसी से टकरायेगी इसका न डर है और न कोई खतरा। फिलहाल नाक सुबह से रगड़ रहा हूँ इसलिए लाल जरूर हो गई है इसकी लाली ठीक वैसी ही है जैसे अभी तेज धूप में बैठकर तुम्हारे कान लाल हो जाते है।
अगर तबीयत नासाज़ न होती तो आज तुम्हें इतनी शिद्दत से याद न कर पाता इसलिए कभी कभी बीमार होना भी अच्छा लगता है ऐसी बीमारी तब और भी अच्छी लगती यदि तुम पहले हालचाल पूछती और फिर चिढ़ कर कहती जुकाम ही तो हुआ है क्यों ड्रामा कर रहे हो चलों गर्म पानी पियों तब तक अदरख तुलसी की चाय मै बनाकर लाती हूँ। चाय पीकर सो जाना ठीक उठोगे जब आँख खुलेगी।
छोटी मोटी बीमारी में तुम्हारी आश्वस्ति और झिड़की दोनों  बेहद याद आती है क्यों आती है पता नही।

'कॉमन कॉल्ड: अनटोल्ड'

Saturday, February 14, 2015

वजीफा

कुछ लापता गुजारिशें तुम्हारी दराज़ में खोजना चाहता हूँ मगर ये वक्त की दफ्तरी मेज तुम्हारे मेरे बीच आ जाती है। कुछ लम्हें तुम्हारे कंगन के जोड़ पर अटके है एक टांका मेरे अबोले मन का उन पर लगा है जिसे देखने के नजरों को बेहद महीन करना पड़ता है। तुम्हारे स्पर्शों को पलकों पर सम्भालें किसी तिजोरी के गुप्त ताले की तरह तुम्हारे कंगन को घुमाता हूँ मगर मेरी याददाश्त मेरा साथ नही देती है और बहुत कुछ कहता कहता भूल जाता हूँ इस उम्मीद पर शायद तुम मेरे बैचेनियों के वजीफे खाली वक्त में देखा करोगी।
मेरी अनगिनत करवटों की परछाई आज भी तुम्हारा पीछा करती तुम्हारी रोशनी में जाकर खुदकुशी करती है। जरूरत समझों तो अपने काजल की गवाही ले सकती हो वो तुम्हारी आँखों में मेरे रतजगों का सच्चा गवाह है ख़्वाबों की रोशनी में उसी के चाक से तुम मेरा वजूद बनाती मिटाती रहती हो। मेरी रूह पर अरसे से छाले पड़े हुए है तुम्हारा अहसास उनकी गहराई को नापता है और उनकी मरहम पट्टी करता है।
दरअसल तुम्हारे बारें में सोचता नही हूँ मगर कुछ ऐसे पवित्र अहसास है जो मेरा हाथ थामें मुझे उन निर्जन गलियों में ले जाते है जहां तुम्हारे कदमों के निशां वक्त ने आधे अधूरे छोड़े है। मेरा जज्बाती मन उसी की मदद से वो नक्शा तैयार करता है जिसके एक कोने में तुम्हारा शहर रहता है।
मिलनें की उम्मीद दिल अब नही पालता है दिल बस अब जीता चला जाता है खुद के सवालों और और खुद के जवाबों में मसलन कल तुम्हें भूलनें ही वाला था कि तुम्हारा मासूम गुस्सा मुझें याद आ गया फिर उसके बाद तुम्हारी यादों की कैद से मेरी रिहाई न हुई। रात भर ख़्वाब में तुमसे गुफ्तगु के बाद अब मेरी आँख खुली है मगर एक गहरी नींद से ज्यादा ताजगी मेरे जेहन ओ' दिल में है। तुम्हारी एवज़ में नींद की ही नही मै हर किस्म की शिकायत करना भूल गया हूँ।
तुम्हें रोज़ शिकायतों की नही सौगात की शक्ल में हासिल करता हूँ मीलों दूर भी की एक अंगड़ाई यहाँ मुझे यह बता देती है दिन में कम से कम एक बार मुझे याद कर तुम मुस्कुरा देती हो।
फिलहाल मेरे लिए इतना ही काफी है।

'यादों के वजीफे'

Monday, February 9, 2015

अभिलाषा

फरवरी एक तिहाई बीत चुकी है। कुछ अधूरे टेक्स्ट मन की गलियों से बह रहें हैं।एक लंबी यात्रा के बाद वें समन्दर का खारापन थोड़ा कम करेंगे। हमनें कभी साथ चलना शुरू किया था मगर आज मैंने देखा कि हम दोनों अलग अलग अक्षांश पर है हमारे देशान्तरों में सार्थक स्तर का अंतर आ गया है। यथार्थ की तमाम सच्चाई के बोध के बाद भी मन से तुम्हारे अनुराग का इंद्रधनुष नही मिटता है। अपनी वाग्मिता के तमाम ज्ञात कौशल के बावजूद भी पहली बार तुम्हें यह ठीक ठीक बतानें में असमर्थ हूँ कि तुम मेरे क्या हो! एक बड़ा ही विचित्र सा अहसास है शायद यह कोई नए किस्म का ज़ज्बात जन्म ले रहा है मेरे अंदर। तुमसे मेल मिलाप की आयु देखता हूँ तो असंख्य ज्वार भाटे नजर आते है हम एक दुसरे को पसन्द से लेकर नापसन्दगी की हद तक का अनुभव अपनें कंधे पर ढो कर यहां तक पहूँचे है। अच्छी बात है यह रही है कि हमने कभी एक दुसरे से घृणा नही की शायद इसी वजह से हमारे सिरे एक दुसरे से जुड़े हुए है आज।
ये महीना प्यार मुहब्बत का महीना है इजहार इनकार मनुहार सबके लिया मुफीद है मगर कम से कम तुम्हारे सन्दर्भ में मै किसी दिन महीने का मोहताज़ नही रहा हूँ। बारह मास तुम मन के केंद्र का एक हिस्सा रही हो।
एक ही बात को अलग अलग भाव शब्दों और वाचिक चालाकी से कहने की बजाये यह बात ईमानदारी से कहनें में मुझे कोई दिक्कत नही है कि हाल फिलहाल तुम मेरे खुद से ज्यादा नजदीक हो। कभी कभी तुम्हें एक कुशल शिल्पी की तरह मेरी संवेदनाओं को आकार देता हुआ देखता हूँ मै इस यात्रा में तुम्हारे कितने नजदीक आ गया हूँ ये तुम ठीक ठीक समझती हो परन्तु बहुत सी सांसारिक बातों के सहारे तुम मुझे उस टापू के का पता देती हो जहां मेरे हम उम्र लोगो का मेला लगा हुआ है वो अपनी अपनी सफलताओं और रिक्तताओं के आयोजन में व्यस्त है।
मेरी उनमें और उनकी बातों में कोई दिलचस्पी नही है ये तुम्हें पता है मगर कभी कभी तुम मुझे संपादित करने की जिद पर उतर आती हो उस समय तुम मैत्री की सीढ़ी के एक पायदान ऊपर पहूँच मुझे सम्बोधित करती हो मगर तुम्हें नही पता होता तुम फिलहाल जहां हो वहीं से तुम्हारी आवाज़ मुझ तक आ सकती है। जैसे ही तुम स्थान बदलती हो मेरे कान स्वत: बंद हो जाते है। मै नही चाहता तुम्हारी ऊर्जा मुझे लोक रीति के उपदेश देनें में अपव्यय हो क्योंकि उस मामलें में मै पर्याप्त ज्ञानी हूँ।
एकदिन मेरे अनुराग के व्याख्यान पर तुमनें सतही टिप्पणी करते हुए कहा था कि मेरे अनुराग का विस्तार मनोवैज्ञानिक अर्थों में कतिपय रूप से असामान्य है। जिसके पुर्नवास के लिए मुझे अपने हमउम्र लोगों में मैत्री,प्रेम,अनुराग की संभावना के कोरे निमन्त्रण सदैव अपनी ऊपर की जेब में रखने चाहिए। ज्ञान अनुभव से आता है इससे इंकार नही है मगर अर्जित ज्ञान की भी एक सीमा होती है। प्रत्येक समान परिस्थिति में वो सभी पर समान रूप से लागू होगा यह कहना मुश्किल होगा। मै अपवाद की तरह तुम्हारे जीवन में बचा रहना चाहता हूँ क्योंकि वक्त के साथ बेहद तेज़ गति से खर्च हो रहा हूँ मैं।
बहरहाल,बहुत स्पष्टीकरण और विस्तृत व्याख्यान से सम्बन्ध शुष्क हो जाते है उनकी तरलता जम जाती है मै जल की तरह तरलता से तुम्हारे जीवन में बहना चाहता हूँ रोज़ दुनियावी सूरज की गर्मी मेरा एक अंश सोख लेती है इससे पहले मेरे अन्तस् के पत्थर तुम्हें नजर आने लगे मै चाहता हूँ मेरे अस्तित्व की पहली बूँद तुम हृदय के अंतिम कोने पर जाकर अपनी यात्रा की पूर्णता को प्राप्त करें। यही मेरी अंतिम अभिलाषा है।

'अंतिम अभिलाषा'

Sunday, February 8, 2015

ग़ालिब

ये इश्क नही आसां बस इतना समझ लीजै
फेसबुक की दुनिया से व्हाट्स एप्प तक जाना है
कभी अपडेट के तंज सहने है
कभी लास्ट सीन का धोखा खाना है
दिल ए नादाँ तुझे हुआ क्या है आखिर इस मर्ज़ की दवा क्या है
म्यूच्यूअल फ्रेंड्स तक जानते है हाल ए दिल
एक तुम हो जो पूछते तुम्हें हुआ क्या है
हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकलें
वर्चुअल दिखती थी ये दुनिया तुम तो एकदम रियल निकलें
आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक कौन जीता है तेरे जुल्फ के सर होने तक
चैट पर कुछ इस अंदाज से  गुफ़्तगु हो तुमसे
ग्रीन लाइट बंद कर दो सबके लिए कल होने तक।
ना था कुछ तो  खुदा था ना होता तो खुदा होता
डुबोया फेसबुक ने मुझको बेवजह
व्हाट्स एप्प पर होता तो
दोस्तों के शक से बचा होता
हुई मुद्दत के ग़ालिब मर गया वरना आज फेसबुक पर वो भी रात दिन लगा होता।

'चचा ग़ालिब से मुआफ़ी सहित'