Friday, February 20, 2015

शाम

जाना तो तुम्हारा पहले दिन से ही तय था। यकायक चली जाती तो इतना कष्ट इतना संताप न होता। तुम इतनी आहिस्ता आहिस्ता नजरों से ओझल हुई कि उन लम्हों को सोचकर अक्सर शाम को जी बहुत बोझिल हो जाता है। तुम्हारा मिलना और मिलकर बिछड़ना महज एक किस्सा नही है जिसे किसी गहरे दोस्त के साथ शेयर करके जी को हलका किया जा सकें। ये एक मुसलसल हादसा है जिसकी टीस शायद कुछ छटांक भर बोझ दिल की नाजुक दीवारों पर ताउम्र चढ़ाती जाएगी।
कितना ही मतलबी होकर क्यों न सोच लूं मेरी सोच की धमनियों में तुम्हारी धड़कन का कम्पन स्पंदित होता ही रहता है। अफ़सोस यह भी है तुम्हारे मन को पढ़ पाने और उसमें मेरे लिए असमान वृत्तियों को देख पाने के बाद भी मै खुद के अनुराग की गति को नियंत्रित न कर सका। तुम्हें किस्तों में खोता गया और खुद को ये सांत्वना देता रहा शायद पहला रास्ता अंतिम रास्ते से मिल जाएगा और तुम लौट कर वहीं आओगी जहां कभी एक कौतुहल की कातर दृष्टि से मुझसे मिली थी।
अज्ञात और अप्राप्यता के बन्धन अपेक्षाकृत ज्यादा गहरे रहें होंगे जो तुम्हें मुझ तक लाए थे परन्तु जिस प्रकार से तुम्हारी चेतना और सम्वेदना में मेरे अक्स का अधोपतन हुआ वह मेरे लिए भी कई अर्थों में अनापेक्षित है।
कुछ अनकहे किस्सों की दास्तान को चुपचाप शून्य में पढ़ता हूँ तब तुम्हारी गति को नाप पाता हूँ एकांत की एकलव्य साधना के बीच भी मेरी निष्ठा उतना असर नही बना पाई कि तुम्हारी सिद्ध मान्यताओं में दशमलव में भी हस्तक्षेप कर सकूं।
फिलहाल तो बेवजह के तर्क मेरे म्यान में पड़े है उनकी व्याखाएं अब दर्शन और मनोविज्ञान दोनों से परित्यक्त है उन्हें नितांत ही मेरी कमजोरी समझा जा सकता है। सोच और अर्जित अनुभव के बीच जब अपवाद की स्याही सूख जाती है तब उस कलम को तोड़ देना ही श्रेयस्कर होता है और तुम्हारे लिए क्या श्रेयस्कर है यह निर्धारित करने का मुझे कोई अधिकार भी नही है।
लोक कयासों में तुम्हारी उपस्थिति शनैः शनै: विस्मृत हो जाएगी शायद सन्दर्भों के अंतिम पृष्ट पर भी मेरा कोई धूमिल जिक्र न हो परन्तु मेरे लिए तुम्हें ज्ञात अज्ञात के मध्य एक सुखद स्मृति के रूप में खुद को संपादित करने के गाहे बगाहे प्रयास हुआ करेंगे और इन्ही प्रयासों की छाँव में जब मै सुस्ताने के लिए बैठूंगा तब मन के वातायन में तुम्हारे कद की धूप जरूर में हृदय की विकल घाटियो में उतरा करेगी। यह मन की एक ऐसी प्राकृतिक घटना है जिस पर मेरा बस शायद कभी नही चलेगा।
कमजोर और मजबूर इंसान न तुम्हें तब पसन्द थे और न अब होंगे तुम्हारी यह सूक्ति वर्तमान में मेरे लिए सबसे बड़ी युक्ति है जिसके सहारे साँझ होने से पहले अपना सामान इकट्ठा कर रहा हूँ ताकि उस दिशा में निकला जा सके जहां सूरज देर से उगता है।


'शाम के काम'

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