Tuesday, February 17, 2015

शिव पार्वती सम्वाद

शिव:
पार्वती ! तुम अनन्य होकर भी चैतन्य हो तुम्हारे राग मन के नही है तुम्हारे प्रश्न चेतना के प्रश्न है जिनके सम्भावित उत्तर तुम जानती हो परन्तु मेरे मत से उनकी पुष्टि करवा कर तुम मुझे आदर देती हो साथ ही समानांतर मेरी परीक्षा भी लेती रहती हो। तुम्हारा बोध कतिपय मुझसे गहरा है इसलिए तुम प्रश्नों से उत्तर और उत्तरों से प्रश्न विकसित कर लेती हो। तुम अस्तित्व की वह रागिनी हो जो मेरे अवधूत नाद की तलहटी में बसती है।तुम्हारे बिना मेरे कथन उतने ही अधूरे है जितनी बिना देह के आत्मा। तुम प्रज्ञा के साथ चित्त की दशा को क्षणिक रूप से विभक्त करके मन को सांत्वना नही देती बल्कि मन को स्थिर प्रज्ञ होने का अभ्यास कराना तुम्हारी सिद्ध साधना में शामिल है। अनन्त तक मेरा विस्तार तुम्हारी ही यात्रा का विस्तार है तुम प्रकृति स्वरूपा सृष्टि के आधार पर निवास करने वाला मेरा ही प्रतिबिम्ब हो। जिसे समझ पाना ज्ञानी और अज्ञानी दोनों के लिए दुर्लभ है।

पार्वती:
हे ! अवधूत आप रहस्य रचतें है मैं रहस्य देखती और समझती हूँ आपसे माया को कीलित करना मैनें गुप्त रूप से सीख लिया है। आप जितने भोले दिखते है वास्तव उतने ही आप गहरें है। आपकी देह से निष्पादित ऊर्जा भी मेरे लिए अंधकार में प्रकाश का कार्य करती है। देवत्व से परे मेरे लिए आप गूढ़ दर्शन की टीकाएं है जिन्हें मै समझती हूँ और आप पर सन्देह करती हूँ। मेरा सन्देह ज्ञान का केंद्र है और अपने अस्तित्व को स्वयं के बल से परिष्कृत करने का एक आधार भी। जब आप कारक, कर्ता और कर्म से मुक्त हो मुझे निर्मुक्त चेतना के रूप में स्वीकार करते है तब मेरा चित्त अहंकार से नही बल्कि उस गरिमा से भरता है जो आपके सानिध्य से शनै: शनैः मुझे हासिल हुई है।
दो देह एक चित्त दो चेतनाओं के समन्वय के लिए शक्ति शिव से जुड़ती है मगर देवत्व और पुरूषत्व से इतर जब आप अनादि रूप में होते है तब मेरे लिए सर्वाधिक प्रिय ग्राह्य और समादृत होते है। मेरा आह्लाद नदी की कलकल में,भोर के अनहद नाद में शामिल है  जिसे मन के एकांत में सुना जा सकता है। आपकी व्याप्ति अनंत तक है मै आपकी यात्रा एक अंग अवश्य हूँ परन्तु मेरी अपनी एक गति लय और यात्रा है शायद इसी वजह से आपसे प्रत्यक्ष भेंट यदाकदा हो पाती है। आपका एक विस्तार मै हूँ और मेरा विस्तार आपने अपने रहस्य से अनन्त तक कर दिया है।


शिवरात्रि पर शिव-पार्वती संवाद
माध्यम: मैं (जो है भी और नही भी)

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