Friday, March 20, 2015

सनातन यात्रा

अब थक रहा हूं मैं।
एक ही बात कितनी ढंग से बताने की मेरी तमाम कोशिसें नाकाम रही है। शायद तुम्हारे पास वो चैनल ही नही जहां से तुम जज्बात की इन माईक्रो वेव्ज़ को रिसीव कर सको। मेरी सम्भावना तलाशने और तराशने की सभी युक्ति अब मेरे साथ ही थकने लगी है। मैं तुम्हें जो बताना दिखाना और जताना चाहता था उसके लिए दुनिया से अलग होने की जरुरत नही थी बस उसके लिए तुम्हें खुद को खुद से अलग करके देखने की आदत विकसित करनी थी जो तुम शायद नही कर पायी।
हर हाल मे खुद को सही साबित करके मै मानवीय सम्बंधो में अराजकतावादी नही होना चाहता हूं इसलिए अब खुद की अवधारणाओं की चादर समेट रहा हूं मेरी अनंत की यात्रा में उसकी भी अपनी उपयोगिता है। आज भी आपकी निजता और आपकी मानयताएं मेरे लिए उतनी ही समादृत है क्योंकि मै आपका मित्र रहा हूं कोई आपके जीवन दर्शन का सम्पादक नही था मैं।
मुझे अब तुमसे कोई शिकायत नही है दरअसल हम मनुष्य अपनें अनुभवों से अर्जित मान्यताओं में जीने के आदी है। यह हमें यह आश्वस्ति देता है कि हम कुछ गलत नही कर रहे है हर अनजानी डगर हमें डराती है उसके जोखिम हमें सिमटने पर मजबूर करते है। मनुष्य को समझ के साथ असंतुष्टि प्रारब्ध से ही मिली है वह प्राप्य से ऊब कर अप्राप्य की खोज मे लगा रहता है और इसी उपक्रम में उसे कथित रुप से आनंद भी मिलता है उसे लगता है उसके पास अंवेषणा है जिसके जरिए वो प्रयोग कर मानवीय सम्बन्ध की लोच को समझ सकता है। मिलना बिछडना इसी उपक्रम की अवैध संतानें होती है।
संवाद मे सम्प्रेषणशीलता का संकट सबसे बडा संकट होता है तब आप इतने संकोच से भर जाते है कि आपकी एक छोटी सी सामान्य बात भी अन्यथा लिए जाने की भूमिका लगने लगती है। मेरी चाह थोडी अजैविक किस्म की रही है मै मानव रचित मनोविज्ञान और समाजशास्त्र का अतिक्रमण कर सम्बंधों की नींव रखना चाहता रहा हूं इतना ही नही मेरे पास प्रकृति को भी मौसम विज्ञानियों, वनस्पतिविज्ञानियों, जीववैज्ञानिकों और पर्यावरण विदो से अलग देखने का चश्मा है।
मै नदी को दोस्त कहने लगता हूं उनके हवाले अपने गमों के बैरंग खत कर देता हूं कहता हूं दे देना मेरे उस नामुराद सागर दोस्त को। पहाड से सलाह मांगने उसकी चोटी पर अकेला चढ जाता हूं उसके कान में फूंकता हूं अग्निहोत्र मंत्र, झरनों से मेरी अजब सी दोस्ती है मै उनकी पीठ पर हाथ फेरता हूं और उनके बोझ के बारे मे पूछताछ करता हूं। बादलों से मै अफवाह शेयर करता हूं बारिश मे अपने आंसू मिला देता हूं ताकि वो थोडी खारी भी हो जाए। रास्तें की झाडियों और खरपतवार मुझसे से मेरे जूतों के फीते के मांग लेते है और मै उन्हें खुशी से दे कर आगे बढ जाता हूं। रोज मुंह धोने के बावजूद भी मेरी पलकों पर रास्तों की थोडी गर्द जमी ही रह जाती है और यकीन मानना इससे मेरी रोशनी बढती है मेरी आंखों मे बस यही तजरबे का सुरमा लगा होता है जिसके वजह से कभी तुम्हें ये आंखे बडी नशीली लगा करती थी।
मै अपने समय मे हमेशा अन्यथा लिए जाने के लिए शापित हूं एक दौर बीत जाने के बाद मै समझ आता हूं तब तक मै वहां नही मिलता हूं जहां से विदा हुआ था बस यही एक खेद जनक बात है। सनातन रुप से मेरी यात्रा अनावृत रुप से जारी है चेहरे बदलते है किरदार नही। अनुभव हमेशा मुझे नही सिखा पाता इसलिए अनुभव मुझसे नाराज़ रहता है। मुझसे नाराज़ लोगो की लंबी फेहरिस्त है मगर मुझे यकीन है जब मै उनके आसपास नही रहूंगा उनकी नाराज़गी भी ऐसे ही घुल जाएगी जैसे बरसात में पतनालें मे जमीं धूल घुल कर बह जाती है।

‘सनातन यात्रा

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