Wednesday, March 25, 2015

दोपहरी नोट्स

एक दिन आप तय कर लेते है अपनी जीने की एबीसीडी,फिर गढ़ना पड़ता है अपना खुद का व्याकरण। अकेला पड़ने के जोखिम तो होते ही है क्योंकि लोग आपको पढ़ते कुछ दूर साथ चलतें है फिर उन्हें समझ नही आपकी लिपि। ऐसे में सर्दी में भी बहकर सूख जाती पारस्परिक अभिरुचियों की छोटी सी नदी।
कोई दूर जाता तभी तक नजर आता है जब तक निगाह में रहता है फिर दृश्य से वो ऐसे हो जाता है ओझल जैसे अनजान शहर के रास्ते छूटते चले जातें हैं। मन का किसी के मन में  ठहरना एक घटना है बल्कि यूं समझिए एकतरफा घटना है आप जिस वक्त सोच रहे होते है अपनी भाषा में तब उसका अनुवाद करने वाली आँखें देख रही होती एक अलहदा ख़्वाब।
मन की सराय में सुस्ताते वक्त आप भूल जाते है अपना यात्री होने का चरित्र तब याद रहती एक ठंडी छाँव जिसमें बैठ आप जम्हाई ले रहे होते है तभी आँख से ढलक पड़ता है एक छोटा आंसू तब आप उसकी वजह भी नही जान पाते और वो एक छोटी समानांतर लकीर के रूप में समा जाता है चेहरे की खुश्क गलियों में।
आपका तय करना बहुत कुछ तय कर देता है अपने साथ फिर आप शिकायत नही कर सकतें क्योंकि शिकायत करने का अधिकार आपको कमाना पड़ता है और ये आप तभी कमा पातें है जब अपनें व्याकरण को प्रकाशित करके आप कम से कम अपना एक सहपाठी तैयार कर सकें। ध्यान रहें आपको एक सहपाठी चाहिए होता ना कि शिष्य या कोई गुरु।

'दोपहरी के नोट्स'

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