Monday, February 24, 2014

मन की गांठे....( कोरा मनोविज्ञान)



जज़्बात इंसान के इंसान होने की सनद है एक वक्त था जब जज्बाती होना मुनासिब समझा जाता था आज के दौर में जज्बाती होना मुश्किल का सबब होना समझा जा सकता है फर्क जीवन की लय और गति का भी आ गया है आज इंसान के पास उतना वक्त नही है जिसमें वह किसी दूसरे के हिस्से के दुख और सुख को अपने जीवन मे शामिल कर सकें। रिश्तों के चयन में हमारे पास जीवन भर में ढेरो विकल्प दिखते और मिलते है उनमे से कुछ हमें करीब कुछ बेहद करीब तो कुछ महज़ औपचारिक रुप से परिचित ही बने रहे जाते है। रिश्तों की तासीर ही उनका भविष्य तय कर देती है मन हमेशा बावरा ही रहता है हम कई बार समझ नही पाते तो कई बार समझ कर अनजान बने रहना अच्छा लगता है मनुष्य की अपेक्षाओं का कारोबार और उसके मन के आंतरिक विराट खालीपन में बाह्य चीज़े उस समय तक आकर्षित करती रहती है जब तक क्या तो आप आंतरिक यात्रा पर न निकल गए आए हो या फिर संसार के इन बंधनों से मुक्त हो अपनी नई दिशा और दशा के को निर्धारित करने की जुगत मे न लगे हुए हो।
कई बार जिन्दगी मे किसी से महज़ मिलना एक संयोग होता है लेकिन उससे मिलकर जुडना आपकी नियति या प्रारब्ध कुछ भी समझा जा सकता है मनुष्य का जीवन इतना जटिल और सम्भावनाशील है कि कब कहाँ कैसे किससे क्या राग पैदा हो जाए या ठीक इसके उलट कब नजदीकियों मे दबे पांव दूरियां दस्तक दे दें कुछ भी कहा नही जा सकता है।
प्रेम,स्त्री और जीवन तीनो को समझने के सबके अपने-अपने पैमाने हो सकते है लेकिन दर्शन कहता है कि तीनो ही जीवंत ऊर्जा के केन्द्र है अत: इनके विश्लेषण मे अपनी ऊर्जा का अपव्यय मत करों यदि आपके पास इतना समय, साहस और सच्चे लोग है तो फिर आपको इन तीनो को जी भर कर जीना चाहिए। जीवन का कोई भी भाव स्थाई हो ही नही सकता है इसलिए सकार और नकार की संभावनाएं सदैव ही बनी रहती है कई बार जीवन मे अंजान लोग सच्ची खुशी देकर चले जाते तो कई बार अपने अजीज़ भी ऐसा तल्ख तजरबा दे जाते है कि उसकी टीस रह रह ताउम्र सालती रहती है।
मन का अपना अलग मनोविज्ञान है यह तर्क से परे और अपनेपन की संवेदना की चासनी में डूबा रहता है भले ही अन्दर से कडवी परत-दर-परत जमा हो लेकिन बाह्य स्नेह,अनुराग इसको निसन्देह ऊर्जा तो देता है यह वह पल होता है जब दुनियादारी के झंझावतों से जूझता मानव का मन एक पल के ईश्वर को धन्यवाद देना चाहता है कि वह अपने दौर के सबसे बेहतरीन लोगो के बीच है लेकिन अपेक्षाओं के शुष्क जंगल मे खोए जाने का भय भी उतना ही शाश्वत है क्योंकि मनुष्य का स्वभाव लोचयुक्त होता है वह कब कहाँ कैसे अर्द्धचेत,अवचेतन से प्रेरित हो पलायन या उपेक्षा के भाव से भर जाए कहा नही जा सकता है लोक मे ऐसे द्वन्द से रुबरु होना हर सम्वेदनशील जीव की नियति होती है और शायद प्रारब्ध भी।
रिश्ते बनाना उन्हे जीना और फिर उन्हे संभाले रखना निसन्देह दुनिया का सबसे दुर्लभ गुण है और कुछ ही लोग इसमे कामिल होते है मै तो कम से कम नही हूं अनुभव यह भी कहते है कि लोग जितनी गति से नजदीक आते है वो एक खास सीमा के बाद अपने नजरो के नजदीक हमे दिखाई भी देने बंद हो जाते है फिर भी मनुष्य के रुप यह सबसे रोचक प्रयोग करने का अवसर हमे मिलता है कि हम अपने चयन से किसी को दोस्त तो किसी को दुश्मन और किसी को इन दोनो रिश्तों से ऊपर समझकर जीने लगते है यह एक दिलचस्प खतरा भी है क्योंकि जरुरी नही कि आप जो समझ रहे है सामने वाला भी ठीक उसी चैनल पर आपके चित्त के राग को रिसीव भी कर रहा हो लेकिन जीवन में ऐसे खतरे उठाकर ही हम नफरत और प्यार में बुनियादी भेद करना सीख पाते है...शायद। 

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