Tuesday, October 4, 2016

काल चक्र

दृश्य एक:
धूप ढल चुकी है। सांझ अभी आई नही है। मुहल्लो से उबासी निकल कर गलियों में भटक रही है। उसके पास करवटों के कुछ खाली लिफाफे है। वो ध्यान से अपनी कलाई देखती है उस पर बंधी घड़ी का फीता थोड़ा ढीला करती है फिर एकटक घड़ी की सुईयों को देखती जाती है। एक ठंडी आह भरके घड़ी उतार कर टेबल पर रख देती है।

दृश्य दो:
वो अपने स्लीपर सीधे करती है। उसे कोई द्वंद नही है वो उदास भी नही है मगर फिर भी काफी देर से एक ही जगह बैठी है। अचानक वो कुछ गुनगुनाने लगती है उसे गीत का मुखड़ा ठीक से याद नही है वो बीच का कोई अंतरा गा रही है। इस तरह से कई अंतरे उसने अधूरे छोड़े और अधूरे ही गाए।

दृश्य तीन:
उसने खुद को आईने में देखा और खुद के होने की तसदीक की। अपने कानों को देखकर उसे सन्देह हो रहा है कि ये बोझ में दबे हुए है इसलिए उसने इयररिंग उतार दी है। थोड़ी देर कान को छोटे बच्चे की तरह छुआ। इस छुअन में कोई नयापन नही है उसके कान उसकी उंगलियों को शायद ठीक से पहचानते नही है। उसके कान गीले है जिन्हें साँसों से सुखने की जरूरत है। वो अनिच्छा से अपनी इच्छा से सवाल करती है उसे जवाब ना में मिलता है। उकता कर आईने के आगे से हट जाती है।

दृश्य चार:
उसके हाथ में एक किताब है। वो कुछ पन्ने पलट रही है। वो कहानी का सारांश चाहती है इसलिए कुछ कुछ हिस्से पढ़ती है मगर उसे कहानी के अंत का कोई अनुमान नही मिलता है। वो किताब का अंत पढ़कर उसे बन्द करके रख देती है।

दृश्य पांच:
उसके पास कुछ खत है। ये अलग अलग वक्त पर लिखे गए है मगर उनकी केंद्रीय विषय वस्तु में कोई ख़ास भिन्नता नही है। वो लिखावट से कल पकड़ने का कोण देखना चाहती है उसे लिखने वाले की हथेली की रेखाओं की प्रतिलिपि चाहिए। जब नही मिलती तो खुद की रेखाएं देखनें लगती है। उसकी रेखाओं का मानचित्र साफ़ है कोई किसी को समकोण पर नही काट रही है। उसकी हथेली सिंधु घाटी सभ्यता से इतर किसी कोई हुई सभ्यता का पता है मगर वो तथ्य और शोध को अनुपयोगी मानते हुए अपनी ऊंगलियां चटकाने लगती है।

दृश्य छह:
वो एक अंगड़ाई लेती है और खिड़की से आती रौशनी को देखने लगती है कुछ महीन कण रौशनी में साफ़ नज़र आ रहे वो फूंक से उसे उड़ाती है। उसकी फूंक से बिखरे कण एक त्रिकोण बनाते है जिसे देख उसकी आँखों में पहली बार हंसी नजर आती है। खिड़की पर खड़े होकर उसे बाहर का दिखाई नही दे रहा है ये खिड़की घर के अंदर ही है। खिड़की के नजदीक एक मकड़ी का जाला है जिसके मध्य में मकड़ी सो रही है वो अपनी फूंक से उसे भी जगाना चाहती है मगर उसकी फूंक केवल कणों को तोड़ सकती है वो मकड़ी और जाले तक नही पहुँच पाती है। वो खिड़की बंद करती है खिड़की बंद होने की आवाज़ दिल को अच्छी नही लगी।

दृश्य सात:
वो सड़क पर है। रास्ते उसके पैर के तलवों में गुदगुदी करना चाहते है मगर उसके तेज कदम देख वो समझ जाते है आज का दिन उपयुक्त नही है ऐसे सात्विक किस्म के मजाक के लिए। वो चौराहे पर जाकर आसमान की तरफ देखती है दाएं बाएं जाने की बजाए वो सीधा जाती है अपनी मूल सड़क को वो छोड़ना नही चाहती। दो नई सड़कों की तरफ अपने दोनों हाथ फैला कर उन्हें विलम्ब का संकेत देकर वो आगे निकल जाती है।

सूत्रधार:
काल नित्य और अनन्त है। मन का अपना दिशाशूल है। जो विभक्त है सम्भव है वो उतना ही तटस्थ है। मन की अनन्त हजार कोने कहीं ख्वाब कहीं सपनें सलोने।
उचित अनुचित सब समय सापेक्ष जिसका स्थान जहाँ सुरक्षित उसके लिए नही है कुछ भी वर्जित।
अपने और सपनें साथ रहने की जिद है पाले एक तन्हा दिल भला कैसे सब सम्भालें।
नही ये कोई थकान नही। नही ये कोई उड़ान नही। खुद से एक अदद मुलाक़ात है जिसके पीछे दिन आगे रात है।
सवेरा हमेशा कल में नही होता है। सवेरा आज में भी होता है।

© डॉ.अजित

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