Saturday, February 27, 2016

हीरो बनाम जीरो

ये एक खेदजनक बात थी कि हमारे नायक असल जिंदगी में बेहद अस्त व्यस्त थे। असल जिंदगी का यहां मतलब बेहद निजी किस्म की जिंदगी है इसलिए उनके नायकतत्व के साथ हमेशा कुछ अप्रिय प्रसंगों का सिलसिला चलता रहा।
व्यवस्था और अनुशासन बड़ी जटिल चीज है मूलतः मनुष्य एक अराजक प्राणी ही है हिंसा उसके अस्तित्व का बड़ा हिस्सा है। सिविलाईजेशन के चलते उसने अराजकता को छोड़ा है मगर एक हद तक ही।
तो क्या नायक हमेशा हमसे बेहतर होने या रहने के लिए बाध्य है? यह एक महत्वपूर्ण सवाल है। एक परिष्कृत मस्तिष्क चित्त और सम्वेदना के बावजूद कुछ कुछ हिस्सों में आदर्श बेहद क्रूरतम रूप से बिखर जाता है वहां सब कुछ अप्रत्याशित चीजों की स्थाई शरण स्थली है।
मैं नायक और नायकतत्व से एक सीमा के बाद एक सुरक्षित दूरी बना लेता हूँ ताकि जब मैं कुछ अंदरुनी सच का साक्षात्कार करूँ तब मेरा मन कोई प्रतिकार न करें।
टूटे बिखरे कमजोर होते इंसान की दुनिया में नायकतत्व एक अभिशाप जैसा है जिसके बोझ में उसकी पीठ झुकती जाती है और एकदिन सूखी लकड़ी की तरह आग में जलकर चटक कर टूट जाती है।
शिकायतें ऐसी चटक की ही ध्वनियों का एक औपचारिक दस्तावेज़ है जिसका पाठ हमें राहत भरी बैचेनी देता है।

'हीरो इन जीरो ऑवर'

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