Monday, March 7, 2016

स्त्री

स्त्री होने का अर्थ
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सांख्य दर्शन में पुरुष और प्रकृति को चैतन्य माना है। अहर्निश और योगक्षेम अवस्था को प्राप्त करनें के लिए दोनों के मध्य समन्वय और संतुलन की अनिवार्य आवश्यकता है यदि यह संतुलन नही सध पाता है फिर जीवन का सृजनात्मक पक्ष निसन्देह उज्ज्वल नही रह सकता है।
दर्शन स्त्री की चेतना को प्रखर मानता है मगर जब आध्यात्म से निकल कर स्त्री धर्म की दुनिया में दाखिल होती है तब इसके अस्तित्व पर पुरुषवादी सम्पादन के स्पष्ट चिन्ह दिखनें लगतें है। धर्म का मनोविज्ञान आस्था से जुड़ा है और आस्था सवाल करने  की इजाज़त नही देती है इसी कम्फर्ट जोन का लाभ लेता हुआ पुरुष नेतृत्व करते हुए अपने लिए सारी सुविधाएं रख लेता है स्त्री के लिए वर्जनाओं का जाल बुन देता है। धर्म का बड़ा भार स्त्रियों के कन्धे पर लदा है इसमें कोई सन्देह नही है मगर इस परम्परा में स्त्री को इस बात के लिए अभ्यस्त किया जाता है कि विश्वास और सेवा उसका परम् धर्म है सवाल खड़े करने की इजाज़त उसे नही है।
धर्म के दायरों से निकल कर जब स्त्री समाज में दाखिल होती है तब उसकी भूमिकाएं बेहद अलग किस्म की निर्धारित कर दी जाती है। बहुत समाजशास्त्रीय दृष्टि से विश्लेषण नही करूंगा मगर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से स्त्री कमजोर या दोयम साबित करने की एक लम्बी कंडीशिंग समाज में  दिखाई देती है। जबकि वस्तुतः स्त्री और पुरुष में जैविक भेद जननीय क्षमता भर का है।
विमर्शों की ध्वनियां भी अंतोतगत्वा वैचारिक संघर्षो तक आकर दम तोड़ देती है समाज मनोविज्ञान की दृष्टि से वो कोई समाधान प्रस्तुत नही करती है। स्त्री और पुरुष दो प्रतिस्पर्धा बिन्दू पर लाकर विमर्श छोड़ देते है मगर स्त्री संघर्ष की यात्रा महज यही समाप्त नही हो जाती है। हम अक्सर यह ध्येय वाक्य सुनतें है स्त्री पुरुष एक दूसरे के पूरक है मगर इस पूरक तत्व को कैसे स्वीकर किया जाए उसका कोई प्रशिक्षण समाज के किसी स्तर पर मौजूद नही है।
लिंग आधारित भेद का मूल कारण असुरक्षाबोध है अपने ईगो एंड एग्जिस्टेंस को बचाए रखने के लिए पुरुष तमाम तरह की हाइपोथिसिस प्रचारित करने में सफल रहा है क्योंकि एक ग्रन्थि के तौर में पुरुष की ये बड़ी ग्रन्थि है वो स्त्री से बेहतर है।
अब मूल प्रश्न पर लौटता हूँ कि स्त्री होने का अर्थ क्या है? स्त्री सृजन की निमित्त है मगर महज महिमामण्डन या आदर्श वाक्यों से स्त्री विमर्श का कोई भला नही होने वाला है ये बाह्य तौर पर आकर्षक लगता है मगर इसका मूल समस्या पर कोई प्रभाव नही पड़ता है।
स्त्री होने का अर्थ स्त्री को पुरुष को समझनें की आवश्यकता है इस समझ के लिए सोच और व्यवहार के स्तर पर लोकतांत्रिक होना एक अनिवार्य शर्त है। जब तक पुरुष खुद को एक अथॉरटी के रूप में देखता रहेगा तब तक समानता की बातें करना बेमानी है। बिहेवियर मैकेनिज़्म के तौर पर समानता एक यूटोपिया ही है इसलिए समानता से पहले जेंडर सम्वेदनशीलता और अस्तित्व के प्रति लोकतांत्रिक सोच इन दो अवधारणाओ के लोकजीवन में अनुशीलन की आवश्यकता है यदि ये दो तत्व हमारें व्यवहार और सोच में शामिल हो जाए तो स्त्री को लिंग भेद से मुक्ति मिल सकती है।
और अंत में मुक्ति से ही अपनी बात समाप्त करूँगा स्त्री का अस्तित्व चेतना के स्तर पर बेहद व्यापक और संभावनाशील है उससे जुड़कर पुरुष के अस्तित्व का विस्तार अपरिमेय हो जाता है यह एक कृतज्ञता का विषय होना चाहिए। तत्व सम्वेदना और चेतना के समन्वय की दृष्टि से स्त्री की भूमिका न केवल बेहद व्यापक है बल्कि सतत् प्रगति के लिए जीवन में अनिवार्य भी है।
स्त्री होने का अर्थ मुक्त होने से है और सच्ची मुक्ति के लिए स्त्री को आदर के वागविलास से इतर अपने जीवन में मुक्त अवस्था में स्वीकार करना होगा उसकी भूमिका को स्वयं उसे रेखांकित करने देने होगा जबतक आप खुद को एक ऑथॉर्टी की तरह देखतें है और विचार व्यवहार के स्तर पर लोकतांत्रिक नही है तब तक अपने जीवन में स्त्री होने का अर्थ नही समझ पायेंगे।

©डॉ.अजित

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