Sunday, June 19, 2016

खत:निमरत कौर

डियर निमरत कौर,
उम्र में तुम शायद कुछेक साल मुझसे बड़ी हो फिर भी तुम ही कह कर सम्बोधित कर रहा हूँ। वजह ये नही कि मैं आयुबोध को मिटाना चाहता हूँ,बल्कि इसकी वजह ये है कि 'लंचबॉक्स' में तुम्हारी बातों ने मुझे बताया कि जीवन औपचारिकताओं के साथ बाँध लेना बुद्धिमानी नही है।जीवन तो हिस्सों में बटा होता है और खुशियों का कोई तयशुदा पता नही होता है वो संयोग से जीवन में दाखिल होती है बशर्ते हमनें एक खिड़की उम्मीद की खुली छोड़ रखी हो।

तुम्हारी फ़िल्म 'लंचबॉक्स' देखें मुझे अरसा बीत गया है मगर ये फ़िल्म मेरी दुनिया से बीत नही पाई तुम्हारी अति साधारण घरेलू छवि की एक प्रतिलिपि मैंने हमेशा अपनी बाई जेब में रखी उसका बाहर की दुनिया में मिलान किया मगर हुबहू तुम्हारे जैसा कोई नही मिला। खुशियों के लिहाज़ से तुम भूटान जाना चाहती थी और अपने दुखों के हिसाब से मुझे लगा तुम्हारा पड़ौसी बन जाऊँगा तो मेरी तकलीफे भी कुछ कम हो जाएगी मगर तुम बिना पता बताए ही निकल गई। मैं तब से भूटान का नक्शा अपने तकिए नीचे रख कर सोता हूँ मगर अफ़सोस आजतक एक भी ख़्वाब तुम्हारे देश का नही आया।

फ़िल्म तो बहुत से लोगो ने देखी और तुम केवल उसमें अपना किरदार निभा रही थी ये बात भी सभी जानतें है मगर मैंने तुम्हें जब पहली बार इस फ़िल्म में देखा तो मेरे मन में पहला ख्याल ये आया कि रसोई के छौंक में एक स्त्री के मन की कुछ परतें भी भांप बन रोज़ उड़ती है तुम्हारे जरिए मैं गले में लटके मंगलसूत्र की यन्त्र विधान की दृष्टि से विवेचना कर पाया छोटे काले दानों की माला के मध्य स्वर्ण जड़ित पैंडिल स्त्री को स्तंभित रखने का एक शास्त्रोक्त यन्त्र मंगलसूत्र है ये बड़ी पवित्र किस्म की सनातनी चालाकी है ये बात मैं  तुम्हें देखने के बाद ही जान पाया।

स्त्री सवाल न करें बल्कि अपने ध्येय पर अड़िग बनी रहे ये तो बरसों की कंडीशनिंग का हिस्सा रहा है मगर तुमनें बिना ख़ास कोशिशों के अपनी इच्छाओं का सम्मान करने के छोटे छोटे नुक्ते भी जरूर बताए। टिफिन बॉक्स में रखी छोटी छोटी पर्चियां कोई प्रेम पत्र नही थे दरअसल वो अस्तित्व के वो छोटे छोटे सूत्र थे जिन्हें कभी कामनाओं तो कभी वर्जनाओं के दबाव के चलतें किसी ने भाष्य के लिए उपयुक्त नही समझा था जबकि वो जीवन की मनोवैज्ञानिक सच्चाई और सेल्फ के विस्तार के बड़े महत्वपूर्ण दस्तावेज़ थे।

कुल जमा एक फ़िल्म और एक डेयरी मिल्क चॉकलेट के विज्ञापन में तुम्हें देखा है मगर सच कहूँ डेयरी मिल्क के विज्ञापन तक मैंने तुम्हें नोटिस नही किया था और न ही तुम्हारा नाम जानता था मगर लंचबॉक्स देखनें के बाद सबसे पहले मैंने गूगल करके तुम्हारा नाम पता किया।

निमरत की ध्वनि अमृत से मिलती है जानता हूँ भाषाविज्ञानी मेरी इस धारणा से सहमत नही होंगे उनके हिसाब से तुम्हारे नाम का अर्थ अलग होगा मगर मुझे तुम्हारा अस्तित्व अमृत के जैसा ही लगता है हो सकता है निजी जिंदगी में तुम बिलकुल अलहदा हो मगर लंचबॉक्स के इस किरदार में तुम्हारा अस्त व्यस्त और हमेशा थोड़े तनाव में रहनें वाला नाखुश सा चेहरा ठीक वैसा लगता है जैसे किसी मन्दिर के कपाट बिना पंचाग में महूर्त देखे खोल दिए हो और ईश्वर भक्तों की न शक्ल देखना चाहता हो और न उनकी आवाज़ सुनना चाहता हो या फिर जिस तरह से दो कोयल जंगल में कूक उठाने की प्रतिस्पर्धा में स्वर की जिद पर उतर आती है और अंत में एक थक कर चुप हो जाती है तुम मुझे ऐसे ही थकी हुई एक कोयल भी लगी हो।

इस फ़िल्म में बिन चुन्नी जब तुम सब्जी काटती हो तो लगता है अनन्यमयस्कताओं की कतर ब्योंत कर रही हो उनकी सद्गति का पुख्ता इंतजाम तुम्हें पता है। एक अमूर्त आलम्बन ध्वनि और शब्दों के जरिए तुमनें जिया और सम्बन्धों का पुनर्पाठ बहुत से शापित लोगो को करवा गई इस बात के लिए कम से कम व्यक्तिगत रूप से मैं तो तुम्हारा कृतज्ञ हूँ।

बहरहाल,फ़िल्म में तो तुम भूटान चली गई थी और इरफ़ान यही अटक गए थे हकीकत में इरफ़ान तुमसे कभी भी मिल सकते है मैं शायद ही कभी मिल पाऊंगा और अगर कभी मिला भी तो इन सब बातों का वो वाचिक अर्थ नही बचेगा जो अब मैं लिखकर बताना चाहता हूँ इसलिए अंत में शुक्रिया कहूँगा इस बात के लिए कि तुम्हारे लंचबॉक्स ने मेरे जैसे चटोरे आदमी को खाने से ज्यादा पढ़ना सीखा दिया है अब मैं खत ही नही चेहरा भी पढ़ता हूँ और निसंदेह इसकी बड़ी वजह तुम्हारा चेहरा भी है जिस पर साफ साफ़ लिखा था खुशियों का एक सिरा संयोग से भी जुड़ा होता है और संयोग उम्मीद बचाने के काम आता है। जहां तक मन के खत का सवाल है क्या पता कब गलत पते पर एक सही खत पहूंच जाए।

आदतन खत लम्बा हो गया है उम्मीद है आगे कभी बात होगी तो तुम्हारे लंचबॉक्स की पर्चियों की तरह होगी तुम जीवन में विस्तार पाओं मैं तब तक सिमटने का हुनर सीख कर आता हूँ।

तुम्हारा
एक ईमानदार दर्शक


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